Author : Harsh V. Pant

Originally Published नवभारत टाइम्स Published on Jun 13, 2024 Commentaries 0 Hours ago

साफ है कि ब्रिटिश मतदाता चाहे जो भी फैसला करें, जीत भारत-ब्रिटेन संबंधों की ही होगी.

ब्रिटेन में जल्द चुनाव से क्या सुनक को होगा फायदा?

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने समय पूर्व चुनाव का जोखिम उठाने का फैसला किया है. यह घोषणा कंजर्वेटिव पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए भी चौंकाने वाली थी. लेकिन टोरीज के लिए हालात बद से बदतर होते जा रहे थे. ऐसे में सुनक का यह फैसला कंजर्वेटिव पार्टी के बचे-खुचे हिस्से को निराशा और आशंका के दौर से बचाने की कोशिश के रूप में सामने आया है. 

सुनक के लिए सबसे अच्छा यही है कि चुनावी मुकाबले को आर्थिक सुधार की थीम पर केंद्रित रखा जाए. महंगाई दर में में आई गिरावट तो एक बड़ा फैक्टर है ही, जनवरी से मार्च के बीच इकॉनमी में 0.6% की वृद्धि दर्ज की गई है, जो पिछले दो वर्षों में सबसे तेज है. जाहिर है, वह ब्रिटिश मतदाताओं के सामने खुद को ऐसे विकल्प के तौर पर पेश करने वाले हैं जो देश की इकोनॉमी को पटरी पर लाने के लिए सबसे उपयुक्त है. ऐसे में इकोनॉमिक रिकवरी की संभावना चुनावों का एक बड़ा मुद्दा बनती दिख रही है. 

जाहिर है, वह ब्रिटिश मतदाताओं के सामने खुद को ऐसे विकल्प के तौर पर पेश करने वाले हैं जो देश की इकोनॉमी को पटरी पर लाने के लिए सबसे उपयुक्त है. ऐसे में इकोनॉमिक रिकवरी की संभावना चुनावों का एक बड़ा मुद्दा बनती दिख रही है.

लेबर पार्टी के लिए मौका  

हालांकि इससे चुनाव प्रचार में सुनक को फायदा होगा या नुकसान, यह देखना अभी बाकी है. लेबर पार्टी रोजमर्रा के जीवन की कठिनाइयों को मुद्दा बनाने वाली है. देश में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं, जिन्हें लगता है कि उनकी स्थिति पहले से बेहतर नहीं हुई है. लेबर नेता कीर स्टर्मर जोर देते हुए कह रहे हैं कि यह ‘बदलाव का वक्त’ है. इकॉनमी की दुर्गति के लिए ‘टोरी अराजकता’ को जिम्मेदार ठहराते हुए वह लोगों को बता रहे हैं कि उनकी पार्टी के लिए दिया गया वोट देश में राजनीतिक स्थिरता लाएगा. 

ओपिनियन पोल्स ने लगातार लेबर पार्टी को आगे रखा है और यह चुनाव विपक्षी दल के लिए एक बड़ा मौका है, जो 2005 के बाद से कोई आम चुनाव नहीं जीत पाई है. लेबर पार्टी इस बार शासन संभालने के लिए तैयार दिख भी रही है. स्टर्मर पार्टी को लड़ाई के केंद्र में लाने में सफल रहे हैं. यह ऐसा ऐसा काम है जो 2007 में टोनी ब्लेयर के जाने के बाद से कोई भी लेबर नेता नहीं कर पाया था. 

आपस में लड़ते कंजर्वेटिव  

कंजर्वेटिव पार्टी हाल के वर्षों में अपने आप से ही लड़ती रही है. हालांकि 2019 में बोरिस जॉनसन ने बड़ी जीत हासिल की थी, लेकिन 2022 में उनके विवादों से भरे प्रधानमंत्रित्व काल का अंत होने के बाद पार्टी ने कई नेतृत्व परिवर्तन देखे. कंजर्वेटिव पार्टी पिछले कुछ वर्षों में लगातार गिरावट का गवाह बनी है. खासकर ब्रेक्जिट को लेकर उसे आंतरिक विभाजन का सामना करना पड़ा, जिससे उसकी एकता भंग हुई. यही नहीं, COVID-19 महामारी से पैदा हुए हालात की बात हो या आर्थिक नीतियों और सामाजिक असमानता जैसे मुद्दों की, लोगों के असंतोष ने पार्टी के लिए समर्थन को काफी कम कर दिया है. 

कंजर्वेटिव पार्टी पिछले कुछ वर्षों में लगातार गिरावट का गवाह बनी है. खासकर ब्रेक्जिट को लेकर उसे आंतरिक विभाजन का सामना करना पड़ा, जिससे उसकी एकता भंग हुई. यही नहीं, COVID-19 महामारी से पैदा हुए हालात की बात हो या आर्थिक नीतियों और सामाजिक असमानता जैसे मुद्दों की, लोगों के असंतोष ने पार्टी के लिए समर्थन को काफी कम कर दिया है. 

सुनक ने डगमगाते टोरी जहाज को संभालने की पूरी कोशिश की. लेकिन कुछ उल्लेखनीय उपलब्धियों के बावजूद, उन्हें एक नेता के रूप में गंभीरता से नहीं लिया जाता है. कंजर्वेटिव कार्यकर्ताओं में ऐसा विश्वास नहीं बन पा रहा कि सुनक उन्हें जीत दिला सकते हैं. दिलचस्प है कि इसके बावजूद उन्हें हटाने की कोई कवायद नहीं शुरू हो रही क्योंकि पार्टी में कोई बेहतर विकल्प नहीं दिख रहा. चुनावी सफलता हासिल करने के लिए नेतृत्व बदलने की बात हो तो कंजर्वेटिव पार्टी खासी निर्दयी मानी जाती रही है. ऐसे में उसके लिए यह दुविधा काफी मारक है. सत्तारूढ़ पार्टी में झलकती आत्मविश्वास की कमी से यह स्पष्ट भी है. 

पिछले कुछ वर्षों में ब्रेक्जिट से उपजी चुनौतियों में उलझे होने के बावजूद ब्रिटेन ने भारत के साथ रिश्तों की मजबूती को बनाए रखा है. वह हिंद प्रशांत क्षेत्र में एक अहम खिलाड़ी के रूप में भारत की भूमिका पर जोर देता है. यह बात ‘हिंद प्रशांत की ओर झुकाव’ की उसकी रणनीति में भी झलकती है जिसका उद्देश्य व्यापक क्षेत्रीय जुड़ाव के तहत भारत के साथ संबंधों को गहराई देना है. 

आतंकवाद विरोधी प्रयासों पर दोनों देश मिलकर काम करते रहे हैं. द्विपक्षीय व्यापार बढ़ा है. दोनों तरफ से निवेश का प्रवाह बना हुआ है. यूके भारत में सबसे बड़े निवेशकों में है, खासकर सर्विस, टेक्नॉलजी और इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टरों में. दूसरी ओर भारतीय कंपनियों ने ब्रिटेन में आईटी, फार्मा और ऑटोमोटिव क्षेत्रों में बड़ा निवेश किया है. व्यापक मुक्त व्यापार समझौते पर बातचीत दोनों देशों के आर्थिक जुड़ाव के लिहाज से खासी अहम मानी जा रही है. 

रिश्तों की जीत  

दोनों देशों के जुड़ाव के लिहाज से कंजर्वेटिव पार्टी को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उसने डेविड कैमरन के प्रधानमंत्रित्व काल से ही भारत को लेकर सही नीति बनाए रखी है. उधर, स्टर्मर के नेतृत्व वाली लेबर पार्टी भी भारत के साथ मजबूत संबंधों की आवश्यकता को स्वीकार करती है. ऐसे में साफ है कि ब्रिटिश मतदाता चाहे जो भी फैसला करें, जीत भारत-ब्रिटेन संबंधों की ही होगी.

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