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10, डाउनिंग स्ट्रीट में ऋषि सुनक की आमद इतिहास बनाने वाली भले हो, मगर ये सफ़र बहुत चुनौतियों वाला है, जो किसी कमज़ोर दिल वाले के बस की बात नहीं.
ऋषि सुनक का प्रधानमंत्री बनना, ब्रिटेन के लोकतंत्र का एक महान लम्हा है. ये मील का ऐसा पत्थर है, जो ये दिखाता है कि ब्रिटेन ने अपने अल्पसंख्यकों की आकांक्षाएं पूरी करने के लिए कितना लंबा सफ़र तय कर लिया है और सुनक का शीर्ष पद पर पहुंचना ब्रिटेन की सियासत में भारतीय मूल के लोगों की बढ़ती अहमियत को भी दिखाता है.
ये सुनक की अपनी क़ाबिलियत को भी सलाम है कि उन्हें आज इस अहम मोड़ पर ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के सामने खड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए सबसे अच्छा इंसान माना गया है. ऋषि सुनक ने प्रधानमंत्री नियुक्त होने के बाद अपने पहले ही भाषण में ये माना था कि, उनकी पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री ने ‘ग़लतियां की थीं’. अब सुनक की कोशिश है कि वो ब्रिटेन को पिछले कुछ महीनों के बेहद अस्थिर दौर से उबारें, क्योंकि इस वक़्त ब्रिटेन की विश्वसनीयता अपने सबसे निचले स्तर पर है.
ऋषि सुनक ने गर्मियों के दिनों में जब कंज़रवेटिव पार्टी का नेता बनने का अभियान चलाया था, तो तब उन्हें लिज़ ट्रस के हाथों शिकस्त मिली थी. उस दौरान सुनक ने बहुत सावधानी से अपने बारे में एक क़िस्सा गढ़ा और ये साफ़ कर दिया कि वो अपने बुनियादी आर्थिक सिद्धांतों पर कोई भी समझौता नहीं करेंगे.
ऋषि सुनक ने गर्मियों के दिनों में जब कंज़रवेटिव पार्टी का नेता बनने का अभियान चलाया था, तो तब उन्हें लिज़ ट्रस के हाथों शिकस्त मिली थी. उस दौरान सुनक ने बहुत सावधानी से अपने बारे में एक क़िस्सा गढ़ा और ये साफ़ कर दिया कि वो अपने बुनियादी आर्थिक सिद्धांतों पर कोई भी समझौता नहीं करेंगे. जबकि अगर सुनक तब वो समझौते कर लेते तो वो अपनी टोरी पार्टी की विचारधारा के मूल समर्थकों का दिल जीत सकते थे.
लेकिन, उस वक़्त लिज़ ट्रस ने सुनक पर जीत हासिल कर ली थी. ट्रस ने ख़ुद को मार्गरेट थैचर के नए अवतार के तौर पर पेश ज़रूर किया था. लेकिन वो नेतृत्व के ज़ख़्मी कर देने वाले मुक़ाबले में जीत के बाद, पार्टी को एकजुट करने में नाकाम साबित हुईं. सुनक ने तब भी लिज़ ट्रस की आर्थिक नीतियों पर जमकर निशाना साधा था. उन्होंने कहा था कि वो ‘किसी झूठे वादे पर जीतने’ के बजाय टोरी पार्टी के नेतृत्व की लड़ाई में शिकस्त पाने को तरज़ीह देंगे. सुनक ने तब वो लड़ाई ज़रूर हारी थी. लेकिन अब जबकि वो प्रधानमंत्री बन गए हैं, तो ये कहा जा सकता है कि उन्होंने कम से कम अभी तो एक बड़ा युद्ध जीत ही लिया है.
लिज़ ट्रस ने जितनी तेज़ी से सुनक को हराकर, पार्टी का नेतृत्व हासिल किया था, उतनी ही तेज़ी से उनके हाथ से सत्ता निकल भी गई. सुनक ने लिज़ ट्रस के बेलगाम आर्थिक विचारों को लेकर तब भी चेतावनी दी थी. लेकिन, टैक्स घटाने को लेकर ट्रस की मज़बूत वैचारिक इच्छाशक्ति ने उन्हें कंज़रवेटिव पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की पसंदीदा नेता बना दिया था.
प्रधानमंत्री बनने के बाद लिज़ ट्रस ने अपने उन्हीं आर्थिक विचारों को नीतियों के तौर पर लागू करने की कोशिश की, जिससे तबाही मच गई. अब ब्रिटेन के नए वित्त मंत्री जेरेमी हंट, जिन्हें लिज़ ट्रस ने अपने पसंदीदा क्वासी क्वार्टेंग को बर्ख़ास्त करके ख़ज़ाने की ज़िम्मेदीर दी है, ने ये माना है कि उनके पूर्ववर्ती का ‘मिनी बजट’ बड़ी तेज़ रफ़्तार से बहुत लंबा निशाना साधने की कोशिश था.
बैंक ऑफ़ इंग्लैंड ने भी चेतावनी दी थी कि पहले के अनुमानों की तुलना में ब्याज दरों में और ज़्यादा बढ़ोत्तरी की ज़रूरत होगी, क्योंकि ब्रिटेन में महंगाई की दर पिचले चालीस साल में सबसे रफ़्तार से बढ़ रही है.
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी लिज़ ट्रस की मूल आर्थिक नीतियों को ‘एक ग़लती’ क़रार दिया था और कहा था कि लिज़ ट्रस के ‘मिनी बजट’ के एलान के बाद जो आर्थिक तूफ़ान उठा, उसका आना तो ‘तय ही था’.
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी लिज़ ट्रस की मूल आर्थिक नीतियों को ‘एक ग़लती’ क़रार दिया था और कहा था कि लिज़ ट्रस के ‘मिनी बजट’ के एलान के बाद जो आर्थिक तूफ़ान उठा, उसका आना तो ‘तय ही था’.
यहां तक कि ब्रिटेन की सुपरमार्केट चेन टेस्को के प्रमुख ने भी खुलकर ट्रस की आर्थिक नीतियों की आलोचना की थी और कहा था कि कंज़रवेटिव पार्टी के नेताओं के पास ‘आर्थिक विकास की कोई योजना नहीं है’. उन्होंने रहन सहन के बढ़ते ख़र्च के चलते पैदा हो रही नई चुनौतियों को लेकर भी चेतावनी दी थी.
पिछले कुछ वर्षों से ब्रिटेन एक के बाद एक तबाही का शिकार हो रहा है. ब्रेग्ज़िट, उसकी आर्थिक व्यवस्था के लिए ज़बरदस्त झटका था, और वो यूरोपीय संघ से अलग होने से हुए नुक़सान के सदमे से अब तक नहीं उबर सका है.
सियासी तर्क-वितर्क चाहे जो दिए जाएं, मगर ब्रिटेन का आर्थिक भविष्य काफ़ी कमज़ोर दिख रहा है और ब्रिटेन के नीति निर्माता अब तक यूरोपीय संघ से अलग होने के बाद अर्थव्यवस्था में आए बड़े बदलाव से निपटने की कोई ठोस योजना नहीं बना सके हैं.
बोरिस जॉनसन का कार्यकाल, भारी सियासी बहुमत मिलने से शुरू हुआ था और उसका ख़ात्मा एक के बाद एक स्कैंडल के सामने आने से हुआ था. कंज़रवेटिव पार्टी अब तक, बोरिस जॉनसन का उचित उत्तराधिकारी खोज पाने में नाकाम रही है.
इसी दौरान कीर स्टार्मर की अगुवाई वाली लेबर पार्टी लगातार आक्रामक रुख़ अपनाए हुए है, और जनता के बीच ख़ुद को सुशासन देने वाली पार्टी के तौर पर पेश करने में सफल रही है. कंज़रवेटिव पार्टी ने पहले तो देश को सियासी झंझावात में धकेला और फिर उससे उबरने के लिए एकजुट होने में नाकाम साबित हुई. लेबर पार्टी ने सत्ताधारी पार्टी के इस राजनीतिक संकट का जमकर फ़ायदा उठाया है और उम्मीद की जा रही है कि दिसंबर 2024 में होने वाले अगले आम चुनावों में जीत उसी की होगी.
इस उथल-पुथल से निपटने के लिए ऋषि सुनक को प्रधानमंत्री का पद संभालना पड़ा है. 10, डाउनिंग स्ट्रीट में ऋषि सुनक का दाख़िल होना, निश्चित रूप से इतिहास बनाने वाली घटना है. मगर उनको मिला ये ताज कांटों से भरा है और सामने खड़ी चुनौतियों से निपटना किसी कमज़ोर दिल वाले के बस की बात नहीं.
सुनक को ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को उस संकट से उबारना होगा, जो हालिया इतिहास का सबसे मुश्किल वक़्त कहा जा रहा है. बोरिस जॉनसन और लिज़ ट्रस के तबाही वाले कार्यकाल के बाद, सुनक को कंज़रवेटिव पार्टी को भी एक ऐसे सियासी दल के तौर पर संवारना होगा, जो जनता के बीच ये संदेश दे सके कि वो अभी भी हुकूमत चला पाने में सक्षम है.
आज जब लेबर पार्टी का अगला आम चुनाव जीतना लगभग तय माना जा रहा है, तो ऋषि सुनक को कहीं ज़्यादा मेहनत करनी होगी, ताकि चुनाव में वो अपनी कंज़रवेटिव पार्टी को कम से कम कड़ी टक्कर देने लायक़ तो बना सकें. इसके लिए उन्हें कंज़रवेटिव पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपना मुरीद बनाना होगा. सुनक की आर्थिक नीतियां उनकी पार्टी के नेताओं और समर्थकों को रास आने वाली नहीं हैं. ऐसे में उन्हें अप्रवास के मुद्दे पर कुछ सख़्त रुख़ दिखाना होगा.
आज जब लेबर पार्टी का अगला आम चुनाव जीतना लगभग तय माना जा रहा है, तो ऋषि सुनक को कहीं ज़्यादा मेहनत करनी होगी, ताकि चुनाव में वो अपनी कंज़रवेटिव पार्टी को कम से कम कड़ी टक्कर देने लायक़ तो बना सकें
जिस तरह से सुनक ने पूर्व प्रधानमंत्री द्वारा बर्ख़ास्त की गई सुएला ब्रेवरमैन को फिर से गृह मंत्रालय थमाया है, उससे साफ़ है कि वो अप्रवासियों के मुद्दे पर पहले से दबाव में हैं. विपक्षी दल सुनक पर, ‘पर्दे के पीछे घटिया सौदेबाज़ी करने’ का आरोप लगा रहे हैं, जिसके तहत सुएला ब्रेवरमैन को गृह विभाग दिया गया है. सुएला ने पिछले कार्यकाल में ये माना था कि उन्होंने एक आधिकारिक दस्तावेज़ को अपने निजी ई-मेल से एक ऐसे शख़्स को भेजा था, जो वो दस्तावेज़ देखने के लिए अधिकृत ही नहीं था. फिर भी उन्हें गृह विभाग देने पर विपक्ष ने सवाल उठाए हैं. सुएला ब्रेवरमैन, कंज़रवेटिव पार्टी के दक्षिणपंथी धड़े की नुमाइंदगी करती हैं और प्रधानमंत्री बनने के लिए सुनक को उनका समर्थन हासिल करना ज़रूरी था. निश्चित रूप से सुनक यही उम्मीद कर रहे हैं वो अगले आम चुनाव तक यानी सिर्फ़ 18 महीने तक प्रधानमंत्री नहीं रहने वाले हैं. उनका कार्यकाल आगे भी चलेगा.
ब्रिटेन की विदेश नीति की बात करें, तो इस मामले में निरंतरता बनी रहेगी. कोई ख़ास बदलाव नहीं होगा. अपनी पूर्ववर्ती लिज़ ट्रस की तरह सुनक, रूस के ख़िलाफ़ यूक्रेन को मज़बूती से समर्थन देते रहेंगे. लेकिन, पूरे यूरोप को इस बात का एहसास अच्छे से हो गया है कि इस जंग की उन्हें भारी क़ीमत चुकानी पड़ रही है. कम से कम इस वक़्त तो रूस-यूक्रेन युद्ध के ख़ात्मे की कोई गुंजाइश नहीं दिख रही है, क्योंकि दोनों ही देश लंबी लड़ाई के लिए मोर्चेबंदी कर रहे हैं. सुनक पर पहले ही ये दबाव है कि वो देश का रक्षा ख़र्च बढ़ाएं. हालांकि जिस तरह से महंगाई के चलते, ब्रिटेन की आम जनता का ख़र्च बढ़ता जा रहा है, उसे देखते हुए सुनक के लिए देश का डिफेंस बजट बढ़ा पाना मुश्किल ही होगा.
उनके कार्यकाल में भारत और ब्रिटेन के रिश्ते और बेहतर होने की उम्मीद है, क्योंकि दोनों देशों के हित एक दूसरे से मिलते हैं. हालांकि, ब्रिटेन और भारत के बीच मुक्त व्यापार समझौता ये देखने का एक बड़ा इम्तिहान होगा कि सुनक इस अहम पहल पर कितना बड़ा सियासी दांव खेलने को तैयार हैं.
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पहले ही ऋषि सुनक से फ़ोन पर बात कर चुके हैं. उन्होंने ‘एक व्यापक और संतुलित मुक्त व्यापार समझौता पूरा होने की अहमियत’ को दोहराया था. भारत के साथ अपने रिश्तों को लेकर, ऋषि सुनक पर ब्रिटेन में बारीक़ी से नज़र रखी जाएगी. ऐसे में भारत को बहुत ज़्यादा उम्मीदें नहीं पालनी चाहिए. भले ही भारत ने ऋषि सुनक के भारतीय मूल के ब्रिटेन के पहले प्रधानमंत्री बनने का स्वागत करना चाहिए. लेकिन उसे सुनक की सरकार से बड़ी उम्मीदें नहीं बांधनी चाहिए.
ये लेख मूल रूप से दि ब्लूमबर्ग में प्रकाशित हुआ था.
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
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