Author : Kabir Taneja

Issue BriefsPublished on Dec 10, 2024
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Saudi Arabia A Kingdom In Transition

सऊदी अरब: बदलाव के दौर से गुज़रता एक देश

  • Kabir Taneja

    युवराज और सऊदी अरब की सत्ता के वारिस प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के नेतृत्व में सऊदी अरब अपने दो प्रमुख निर्यातों, तेल और इस्लाम को नए सांचे में ढाल रहा है, ताकि एक देश के तौर पर सऊदी अरब और इसको चलाने वाली बादशाहत, दोनों ही भविष्य में सुरक्षित रहें. वैसे तो इतने बड़े बदलाव और उसका व्यापक असर डालने की कोशिशें तो पहले भी हो चुकी हैं. मगर इन प्रयासों में सीमित सफलताएं ही हासिल हो सकी थीं. आज सऊदी अरब के सामने खड़ी चुनौतियां बेहद जटिल हैं, और अवसर नया हौसला पैदा करने वाले हैं. इस आलेख में हम दो अहम नज़रियों से सऊदी अरब के इस सफ़र का मूल्यांकन कर रहे हैं: उसकी विचारधारा में रहा बदलाव और अपनी घरेलू और अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन के प्रयास.

Attribution:

Attribution:कबीर तनेजा, ‘सऊदी अरब, बदलाव के दौर से गुज़रता एक साम्राज्य’, ओआरएफ इश्यू ब्रीफ नं. 759, नवंबर 2024, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन

Image Source: Getty

प्रस्तावना

3.6 करोड़ आबादी वाले सऊदी अरब को अक्सर एक रहस्यमय पहेली के तौर पर देखा जाता है. सऊदी अरब, इस्लाम का घर कहा जाता है. क्योंकि इस्लाम धर्म के दो सबसे पवित्र स्थल मक्का और मदीना यहीं पर हैं. सऊदी अरब की बहुसंख्यक आबादी सुन्नी इस्लाम [a] को मानने वाली है, और इस वजह से सऊदी अरब लंबे समय से 18वीं सदी के हनबाली मुस्लिम उलेमा मुहम्मद इब्न अब्द-अल-वहाब कीवहाबीविचारधारा को मानता और इसका प्रचार प्रसार करता रहा है. [1]

1902 में 22 बरस उम्र वाले अब्दुल्लाज़ीज़ बिन अब्दुलरहमान अल सऊद (जिन्हें इब्न सऊद के नाम से भी जाना जाता है) ने अल सऊद ख़ानदान[b] की सत्ता को दोबारा बहाल करने की शुरुआत की थी. पहले उन्होंने सऊदी अरब की प्राचीन राजधानी रियाद पर क़ब्ज़ा किया, और इसके बाद 1924 में अल सऊद ने मक्का और 1925 में मदीना पर भी अपना क़ब्ज़ा जमा लिया. [2] इस मक़सद को हासिल करने के लिए अल सऊद ख़ानदान के इस युवा सरदार ने पहले क़बाइली हथियारबंद लड़ाकों के संगठन इख़्वान को खड़ा किया. और फिर, अपना मक़सद हासिल करने के बाद 1932 में इस क़बाइली संगठन को भी कुचल डाला, ताकि बादशाह के तौर पर अपनी सर्वोच्च सत्ता को स्थापित कर सकें, और आज के दौर के सऊदी अरब राष्ट्र की स्थापना कर सकें.

1933 में इब्न सऊद ने अमेरिकी कंपनियों को तेल के भंडारों की खोज करने के लिए सऊदी अरब आने का न्यौता दिया. बहुत से लोगों उनके इस फ़ैसले को ग़ैर इस्लामिक क़रार दिया था. [c]सऊदी अरब में सबसे पहले तेल का भंडार 1938 में मिला था और बहुत जल्द ये ऐसा संसाधन बन गया, जिसने सऊदी अरब ही नहीं, पूरे पश्चिम एशियाई क्षेत्र (या फिर मध्य पूर्व) और विश्व व्यवस्था [3] का मंज़र ही बदल डाला.

 

 दुनिया की भू-राजनीति में आए बदलाव और अपने औद्योगीकरण की लगातार बढ़ती ख़्वाहिश को पूरा करने के लिए, तेल की बढ़ती ज़रूरत के चलते अमेरिका इस इलाक़े में दाख़िल हुआ. अमेरिका का ये क़दम तब इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया जब इब्न सऊदी ने फरवरी 1945 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डेलानो रूज़वेल्ट से मुलाक़ात की थी. [4] इस मुलाक़ात के साथ ही अमेरिका और सऊदी अरब के बीच सुरक्षा के समझौते की शुरुआत हुई थी, जिसका आगे चलकर अमेरिका की राजनीति और सऊद ख़ानदान पर गहरा असर पड़ा: अमेरिका ने सऊदी अरब को राजनीतिक सुरक्षा और सत्ता में बने रहने की गारंटी दी, और इसके बदले में सऊदी अरब ने अमेरिका को ऊर्जा सुरक्षा की गारंटी दी.

 इसके दशकों बाद आज 2020 के दशक में तेल के युग औरपैक्स अमेरिकानायानीअमेरिकी दबदबेके विचार, दोनों ही ज़बरदस्त चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. [5] वैसे तो विकासशील देशों के लिए तेल अभी भी ऊर्जा का एक प्रमुख स्रोत बना हुआ है. लेकिन, विकसित देश अब अक्षय ऊर्जा संसाधनों की तरफ़ बढ़ रहे हैं. अपने यहां मिले शेल भंडारों की वजह से अमेरिका आज ख़ुद तेल का बड़ा निर्यातक देश बन गया है. वहीं, अमेरिका की विदेश नीति में भी नई परिस्थितियों के मुताबिक़ बदलाव रहा है. आज अमेरिका पश्चिमी एशिया के परस्पर विरोधी भू-राजनीतिक मोर्चों से पैदा होने वाले जोख़िमों का सामना करने की अपनी क्षमता और इच्छाशक्ति, दोनों को नए सिरे से ढाल रहा है. [6]

 इस मक़सद को हासिल करने के लिए अल सऊद ख़ानदान के इस युवा सरदार ने पहले क़बाइली हथियारबंद लड़ाकों के संगठन इख़्वान को खड़ा किया. और फिर, अपना मक़सद हासिल करने के बाद 1932 में इस क़बाइली संगठन को भी कुचल डाला, ताकि बादशाह के तौर पर अपनी सर्वोच्च सत्ता को स्थापित कर सकें, और आज के दौर के सऊदी अरब राष्ट्र की स्थापना कर सकें.

हालांकि, पश्चिमी एशिया में अमेरिकी सेनाओं की तैनाती के ऐतिहासिक तौर तरीक़े में बुनियादी परिवर्तन से भी उल्लेखनीय बात तब हुई जब 2017 में मुहम्मद बिन सलमान को सऊदी अरब का युवराज और देश की सत्ता का वारिस नियुक्त किया गया. [7],[8] इसके बाद से ही सऊदी अरब में नाटकीय बदलावों का एलान होता रहा है. प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान की अगुवाई में सऊदी अरब के शासन तंत्र ने अपनेविज़न 2030’[9]  के तहत दो मक़सद हासिल करने के लिए क़दम उठाने शुरू किए हैं. पहला तो सऊदी अरब को भविष्य में भी सुरक्षित बनाने के लिए ऐसे वैकल्पिक आर्थिक मॉडलों का निर्माण करना, जो तेल पर निर्भर हों; दूसरा, इन बदलावों को हासिल करने के लिए सऊदी अरब को बुनियादी वैचारिक बदलाव लाते हुए रूढ़िवादी इस्लाम या फिर परंपरावाद से परे हटकर नरमपंथी इस्लाम की ओर क़दम बढ़ाना होगा. [10]

इस नए नज़रिए को लागू करने के लिए पहली ज़रूरत तो सऊदी अरब के सत्ताधारी ख़ानदान के भीतर की राजनीति को साधने की थी. कमान संभालने के बाद, प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान ने संस्थागत भ्रष्टाचार से निपटने के नाम पर सैकड़ोंवीआईपीलोगों को जेल में डाल दिया. [11] इनमें शाही ख़ानदान के बड़े बड़े ओहदों वाली शख़्सियतें भी शामिल थीं. जैसे कि प्रिंस अलावीद बिन तलाल को रियाद के रिज़-कार्लटन होटल में क़ैद कर दिया गया था. उनका ये क़दम सत्ता पर नियंत्रण स्थापित करने, विरोधियों को निहत्था करने और उनके दिल में अपनी दहशत क़ायम करने की दूरगामी योजना का एक हिस्सा था.

 

भू-आर्थिक नीति की अगुवाई में इस्लाम को लेकर सोच का विकास

 

एक विचारधारा के तौर पर सियासी इस्लाम, 1920 के दशक से ही पश्चिमी एशिया में मौजूद रहा है. इसकी कमान मिस्र के उलेमा और मुस्लिम ब्रदरहुड के संस्थापक हसन अल-बन्ना जैसे विचारकों के हाथ में रही है. [12] इस्लाम के आध्यात्मिक पहलू में रची बसी वहाबी जैसी विचारधाराओं ने भी सऊदी समाज में जन्म लिया है, और फिर इसने ख़ुद को सरकार और प्रशासन की संरचनाओं के इर्द गिर्द ढाल लिया है. विद्वानों का कहना है कि वहाबी विचारधारा को अल सऊद ख़ानदान के साथ इसलिए जोड़ा गया ताकि, अरब क़बीलों के बीच क़बीलाई [13] और वैचारिक मतभेदों को एक राजनीतिक ढांचे में पिरोकर सऊदी राष्ट्रवाद के जज़्बे को पाला पोसा जा सके. इस्लाम के सबसे पवित्र और अहम ठिकानों वाले देश सऊदी अरब के लिए आर्थिक फ़ायदों के बदले में ऐसी विचारधाराओं से सख़्ती से निपटने के प्रयास अभूतपूर्व हैं. उल्लेखनीय है कि ऐसी चुनौती क़ुबूल करने के मामले में तो मुहम्मद बिन सलमान पश्चिमी एशिया के पहले शख़्स हैं, सऊदी अरब की सरकार अव्वल है. इस मामले में सऊदी अरब अपने छोटे मगर ताक़त में बराबर पड़ोसी संयुक्त अरब अमीरात के मॉडल को अपनाना चाहेगा. मीडिया की ख़बरें बताती हैं कि 2019 तक, यानी मुहम्मद बिन सलमान के सत्ता में आने से दो साल के भीतर ही, संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति मुहम्मद बिन ज़ायद अल नाहयान ख़ुद को प्रिंस सलमान के संरक्षक के तौर पर देखने लगे थे. [14]

 संयुक्त अरब अमीरात (UAE) ने 2007 में ही अपनी अर्थव्यवस्था और कुछ हद तक अपने यहां की राजनीति मेंउदारीकरणकी शुरुआत कर दी थी, ताकि आर्थिक लाभों को बिना दख़लंदाज़ी के विकसित होने दिया जा सके. UAE को एहसास हो गया था कि उसको रूढ़िवादी और कट्टरपंथी इस्लाम के समाज में पैठ बनाने और राज्य प्रायोजित मज़हबी विचारधारा वाली पश्चिमी एशिया की साझा क्षेत्रीय छवि से ख़ुद को अलग करना होगा. [15]

सितंबर 2001 में अमेरिका में आतंकवादी हमलों से पश्चिमी एशियाई क्षेत्र और ख़ास तौर से सऊदी अरब जिस तरह के इस्लाम को बढ़ावा देता है, उसे बड़ा झटका लगा था. उसके बाद इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में युद्धों की वजह से अरब देशों के पास, अलकायदा के ख़िलाफ़ अमेरिका और उसकी अगुवाई वाले वैश्विक गठबंधन से हाथ मिलाने के सिवा कोई और चारा था ही नहीं. क्योंकि अरब देशों का आर्थिक भविष्य और उनकी राजशाहियों की स्थिरता, पश्चिम के आर्थिक मॉडलों और सुरक्षा के ढांचों के साथ एकीकरण पर ही निर्भर थी. यही वजह थी कि वैसे तो अरब देश अमेरिका के व्यापक प्रभाव से कई बार नाख़ुश होते हुए भी उसकी उपयोगिता समझते थे, क्योंकि 1990 और 2000 के दशक में दुनिया पर अमेरिकी दबदबे के सामने कोई चुनौती नहीं थी. [16]

 

मज़बूत आध्यात्मिक झुकाव के इर्द गिर्द किए जाने वाले वैचारिक बदलाव लाना आसान नहीं होता. मानव अधिकारों समेत कई मसलों पर मुहम्मद बिन सलमान को अक्सर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की तरफ़ से आलोचना का सामना करना पड़ता है. फिर भी उनकी अगुवाई में सऊदी अरब को वहाबी विचारधारा और कट्टरपंथी इस्लाम से दूर करके बाज़ार और मज़हबी नरमपंथी वाले ज़्यादा खुली सियासत और समाज बनाने की इस परियोजना को भारत समेत दुनिया के तमाम देशों से व्यापक समर्थन मिल रहा है. [17],[18]

 इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में युद्धों की वजह से अरब देशों के पास, अलकायदा के ख़िलाफ़ अमेरिका और उसकी अगुवाई वाले वैश्विक गठबंधन से हाथ मिलाने के सिवा कोई और चारा था ही नहीं. क्योंकि अरब देशों का आर्थिक भविष्य और उनकी राजशाहियों की स्थिरता, पश्चिम के आर्थिक मॉडलों और सुरक्षा के ढांचों के साथ एकीकरण पर ही निर्भर थी.

 एक पीढ़ी पहले की तुलना में आज सऊदी अरब के लोग पश्चिमी संस्कृति और नरमपंथ को उतनी तिरस्कार भरी नज़र से नहीं देखते हैं. 2018 में सऊदी अरब ने एक किंग सलमान बिन अब्दुल्लाज़ीज़ अल सऊदी के दस्तख़त वाले एक शाही फ़रमान के ज़रिए महिलाओं के गाड़ी चलाने पर लगी पाबंदी हटा ली थी. ऐसा लगता है कि किंग सलमान भीउदारीकरणकी इन पहलों का समर्थन करते हैं. [19]  उसके बाद से सऊदी समाज में और सांस्कृतिक खुलापन लाने के कई क़दम उठाए गए हैं, ताकि तेल के कारोबार से इतर एक नई अर्थव्यवस्था खड़ी की जा सके जिसमें खेल और मनोरंजन उद्योग भी शामिल हैं. मिसाल के तौर पर सऊदी अरब ने फुटबॉल के लिए सऊदी प्रो लीग की शुरुआत की है, जिसमें भारी रक़म देकर कई नामचीन अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों को भी जोड़ा गया है. विडंबना ये है कि इसके लिए तेल से की गई कमाई या पेट्रो-डॉलर को ही लगाया जा रहा है; [20]सऊदी अरब में कई विदेशी कलाकारों के कॉन्सर्ट भी आयोजित किए गए हैं. [21]

एक और वैचारिक बदलाव- जो शायद ज़्यादा मुश्किल और विदेश में सऊदी अरब की छवि को बदलने के लिहाज़ से काफ़ी अहम भी है- वो सऊदी अरब की बदनाममज़हबी पुलिसया मुतावा (शरीयत पुलिस) के पर काटना भी था. इसे आधिकारिक रूप से सवाब को बढ़ावा देने और पाप को रोकने का आयोग कहा जाता है. पिछले पांच दशकों के दौरान सऊदी अरब में पुलिस व्यवस्था के जिस अंग की सबसे ज़्यादा आलोचना की जाती रही है, वोमूतवा की व्यवस्था है. [22] इस शरीयत पुलिस की ज़िम्मेदारी समाज में इस्लाम के रूढ़िवादी उसूलों का सख़्ती से पालन कराने की है. सऊदी अरब के कट्टर धार्मिक झुकाव वाला रास्ता पकड़ने में मूतवा का एक अहम योगदान रहा है. इस झुकाव को अल-सहवा अल-इस्लामिया कहा जाता है, जो 1960 से 1980 के दशक के दौरान हुआ था. [23]

उल्लेखनीय है कि 1979 का साल इस पूरे इलाक़े में भयंकर उथल-पुथल वाला दौर था, जिसने सऊदी अरब को मजबूर किया था कि वो राजनीतिक मक़सद के लिए इस्लाम को अपने मूल सिद्धांत के तौर पर इस्तेमाल करें. उस साल ऐसी दो बड़ी घटनाएं हुई थीं, जिन्होंने सऊदी अरब के उस वैचारिक कट्टरपंथ को आकार दिया था, जिसका ढांचा अब मुहम्मद बिन सलमान तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. पहली घटना ईरान में इस्लामिक क्रांति थी, जिसके दौरान प्रदर्शनकारियों ने पश्चिम के समर्थन वाले मुहम्मद रज़ा पहलवी की राज़शाही को उखाड़ फेंका था, और उनकी जगह बेहद रूढ़िवादी आयतुल्लाह रुहोल्लाह मुसावी खुमैनी की सत्ता में वापसी हुई थी. [24] ईरान की सत्ता में इस परिवर्तन की वजह से सऊदी अरब को कट्टरपंथी इस्लामिक विचारधारा के प्रचार प्रसार में और ज़्यादा ज़ोर देना शुरू करना पड़ा था. क्योंकि ईरान में इस्लामिक क्रांति की वजह से शियाओं और सुन्नियों के बीच सांप्रदायिक विभाजन ही आध्यात्मिक और उसकी वजह से इलाक़े में दबदबे को लेकर संघर्ष का आधार बन गया था. [25]

 1979 में एक और बड़ी घटना हुई थी, जिसने सऊदी अरब की सियासी और सुरक्षा संबंधी सोच पर गहरा असर डाला था, हालांकि अब सार्वजनिक परिचर्चाओं में उसका ज़िक्र बहुत कम होता है. असल में नवंबर 1979 में इस्लामिक हिजरी कैलेंडर या मुहर्रम के पहले दिन एक इस्लामिक प्रचारक जुहेमान अल ओतैबी और उसके सैकड़ों हथियारबंद समर्थकों ने मक्का की पवित्र मस्जिद पर क़ब्ज़ा कर लिया था. [26],[27] अल उतैबी और उसके समर्थक अल-जमा अल सलाफिया अल-मुहतसिबा (या JSM) नाम के कट्टरपंथी संगठन के सदस्य थे, जो 1960 के दशक में सऊदी अरब में एक इस्लामिक आंदोलन के तौर पर पनपा था. JSM की विचारधारा बहुत व्यापक आध्यात्मिक सोच पर आधारित थी, जिसका केंद्र बिंदु मुख्य इस्लामिक विचारधाराओं और सरकार प्रायोजित इस्लाम से मुक़ाबला करना था. इसमें वहाबी विचारधारा और मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठनों से टकराव शामिल था. इसके अलावा ये संगठन, तेल की कमाई से बढ़ते उपभोक्तावाद, शहरीकरण और समाज में औरतों और मर्दों के बीच कम होती दूरी के भी ख़िलाफ़ था. [28],[29] सऊदी हुकूमत और उसके सैन्य बलों को मक्का की मस्जिद, इन लड़ाकों के क़ब्ज़े से छुड़ाने के लिए काफ़ी संघर्ष करना पड़ा था. उन्हें फ्रांस की गुपचुप मदद के बाद जाकर इसमें सफलता मिल पायी थी. [30] वैसे तो बाद में अल उतैबी और उसके 60 साथियों को बाद में मार दिया गया था. लेकिन, इस घटना की वजह से सऊदी अरब के भीतर ख़ास तौर से सत्ता, अधिकार, समाज और विचारधारा के मामले में दूरगामी परिवर्तन हुए थे. इसी घटना के बाद सऊदी अरब ने मूतवा या शरीयत पुलिस को अथाव ताक़त दे दी थी, जिससे वो इस्लामिक क़ानूनों के मुताबिक़ समाज मेंनैतिकताको बरक़रार रखे.

आज जब सऊदी अरब तेल पर निर्भरता ख़त्म करने की कोशिश कर रहा है, तो उसके यहां निवेश के लिए दुनिया का भरोसा जगे, इसके लिए इन इस्लामिक मान्यताओं को पलटना आवश्यक है. हालांकि, मुहम्मद बिन सलमान के शासन काल में मूतवा की ताक़त में तो कटौती की गई है, पर उसे पूरी तरह से भंग नहीं किया गया है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि सऊदी अरब एक नाज़ुक और मुश्किल बदलाव के दौर से गुज़र रहा है, जिसकी ज़िम्मेदारी इकलौते नेता के कंधों पर टिकी है. शायद इसमें 1979 की घटनाओं से मिले सबक़ ने काफ़ी अहम भूमिका निभाई है और अभी ये बात मालूम नहीं है कि विशाल अल सऊद ख़ानदान के दूसरे सदस्य, विज़न 2030 के तहत लागू किए जा रहे इन बदलावों को किस तरह से देखते हैं. [31]

आज जब सऊदी अरब तेल पर निर्भरता ख़त्म करने की कोशिश कर रहा है, तो उसके यहां निवेश के लिए दुनिया का भरोसा जगे, इसके लिए इन इस्लामिक मान्यताओं को पलटना आवश्यक है. हालांकि, मुहम्मद बिन सलमान के शासन काल में मूतवा की ताक़त में तो कटौती की गई है, पर उसे पूरी तरह से भंग नहीं किया गया है.

इसके साथ ही साथ, सऊदी अरब खाड़ी क्षेत्र से बाहर एक बड़े निवेशक के तौर पर भी उभर रहा है. अनुमान है कि इस वक़्त सऊदी अरब के पब्लिक इन्वेस्टमेंट फंड के प्रबंधन के तहत 923 अरब डॉलर की संपत्तिया हैं, जिनके भविष्य में एक ट्रिलियन डॉलर पहुंचने की उम्मीद है. [32] दुनिया के बड़े सरकारी वेल्थ फंड में सिर्फ़ एक फंड ही पश्चिमी देशों का है (नॉर्वे का जिसके पीछे भी तेल से हुई कमाई ही है). इसके अलावा बाक़ी सारे सरकारी निवेश फंड अरब देशों के हैं. इनमें संयुक्त अरहब अमीरात (UAE), क़तर और कुवैत के फंड शामिल हैं (Figure 1 देखें).

 

Figure 1: 2022 तक दुनिया के सबसे बड़े वेल्थ फंड

चुने हुए सरकारी वेल्थ फंड, उनके प्रबंधन के अंतर्गत संपत्तियों का मूल्य, ट्रिलियन डॉलर में

Saudi Arabia A Kingdom In Transition

स्रोत: दि इकॉनमिस्ट[33]

 

वैश्क भू-राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन के इस नए दौर में ये फंड फल फूल सकें, इसके लिए ऐसे बाज़ार आवश्यक हैं, जो लंबी अवधि तक रिटर्न दे सकें. सऊदी अरब की जनता को देश की तेल से कमाई गई संपत्ति की सब्सिडी देकर उनके ख़र्चों का बोझ उतारने की जो आदत लगी है, उसे छुड़ाने में मदद के लिए भी ये अहम है. विज़न 2030 दस्तावेज़ ही सऊदी अरब की उभरती आर्थिक और भू-राजनीतिक परियोजनाओं को आगे बढ़ा रहा है, अब इनका मौजूदा मूल्य 1.2 ट्रिलियन डॉलर को पार कर चुका है. [34]  लगातार ऐसे लक्ष्य प्राप्त करने के लिए स्थिरता पहली शर्त है. पड़ोस में ग़ज़ा और  यूक्रेन में युद्ध की वजह से एक स्थिर विश्व व्यवस्था बन पाना मुश्किल है. ऐसे में जो पश्चिमी एशियाई देश अपनी नई आर्थिक व्यवस्था बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उनके लिए भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक चुनौतियां बनी रहने वाही हैं और इनका सऊदी अरब के विज़न 2030 पर भी विपरीत असर पड़ेगा. [35]इस दौरान एशिया के बज़ारों को लाभ होने की संभावना है.

अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते तनाव के साथ ताइवान [36]और साउथ चाइना सी [37] को लेकर विवाद बने रहने के बावजूद, चीन, भारत, और वियतनाम जैसे कई एशियाई देश अभी भी निवेश के आकर्षक केंद्र बने हुए हैं, और जहां वैश्विक और संस्थागत अनिश्चितताओं के बीच, विकास की अच्छी दर बने रहने के पूर्वानुमान जताए जा रहे हैं. [38] अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती नज़दीकी और विशेष रूप से इन दोनों देशों के जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ सुरक्षा संवाद (क्वाड) ने भारत को कनेक्टिविटी बढ़ाने वाली भविष्य की योजनाओं [39],[40] का एक मुख्य किरदार बना दिया है. 2023 के G20 शिखर सम्मेलन के दौरान भारत, मध्य पूर्व और यूरोप के बीच आर्थिक गलियारे (IMEC) पर दस्तख़त ने ये संकेत दिया है कि पश्चिम की साझेदारी के ज़रिए इस क्षेत्र में आपस में जुड़े भविष्य के निर्माण की उम्मीद बनी हुई है. [41]

 अक्टूबर 2023 में इज़राइल पर हमास के हमले और उसके बाद इज़राइल के सैन्य बलों द्वारा ग़ज़ा में अब तक चल रहे सैन्य अभियान छेड़ने ने पश्चिमी एशिया के लिए एक बड़ी चुनौती पेश की है. अब इस इलाक़े के देशों को अपने नए भू-आर्थिक नज़रिए का संतुलन, यहां के सबसे पुराने राजनीतिक संकट से मिलाना होगा. उल्लेखनीय है कि जुलाई 2023 (हमास के हमले के तीन महीने पहले) की एक रिपोर्ट में एक विद्वान ने लिखा था कि, ‘इस बहुआयामी प्रयास [अब्राहम समझौते [d]]] का मुख्य लक्ष्य सऊदी अरब है’. वैसे तो खाड़ी क्षेत्र की इस शक्ति ने कुछ छोटे क़दम उठाए हैं, जैसे कि इज़राइल को सऊदी अरब के हवाई क्षेत्र का इस्तेमाल करने की इजाज़त देना. पर, सऊदी अरब ने ये भी साफ़ कर दिया है कि वो इज़राइल से तब तक संबंध सामान्य नहीं करेगा, जब तक फ़िलिस्तीन का मसला सुलझ नहीं जाता.’ [42] ये सच है कि अमेरिका ने ग़ज़ा के युद्ध [43] के बीच भी सऊदी अरब और इज़राइल के बीच संबंध सामान्य बनाने पर काफ़ी ज़ोर लगाया है. पर,मुहम्मद बिन सलमान ने ये बात साफ़ कर दी है कि इज़राइल के साथ संबंध सामान्य करने पर तब तक विचार नहीं किया जाएगा, जब तक फिलिस्तीन को आधिकारिक रूप से मान्यता नहीं दे दी जाती. [44]

 

सामरिक स्वायत्तता और भू-आर्थिक नीति का विकास

 

सामरिक स्वायत्तताकी तो कोई ऐसी परिभाषा है, जो सबको स्वीकार हो और ही इसकी कोई रूप-रेखा है, और इसको सबसे अच्छे तरीक़े से किसी देश की राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति के लक्ष्यों के ज़रिए समझा जा सकता है. सामरिक स्वायत्तता का विचार असल में दो या अधिक शक्तिशाली गुटों में से किसी का हिस्सा बनना और इसके बजाय ख़ुद से अपना रास्ता तय करना है. ये विचारधारा कोई नई नहीं है और ये गुटनिरपेक्ष आंदोलन की याद दिलाता है, जो अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध के के बीच उभरा था. भारत और पश्चिमी एशिया दोनों ही अब पुरज़ोर तरीक़े से इस विचार को पुनर्जीवित करने की सोच साझा करते हैं. प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान एश्ले जे. टेलिस, दुनिया को लेकर भारत के दृष्टिकोण कोसदैव गुटनिरपेक्षता[45]  का नाम देते हैं. वहीं, रूस के विश्लेषक निकोले सुर्कोव ने रेखांकित किया है कि पश्चिमी एशिया और ख़ास तौर से अरब राष्ट्र अपनी रणनीति में बदलाव कर रहे हैं औरनिर्भरता और पश्चिम के मोहरोंकी पुरानी भूमिका सेसामरिक स्वायत्तताकी ओर बढ़ रहे हैं. [46]

 हालांकि, सऊदी अरब के लिए ये राजनयिक परिवर्तन लाना एक चुनौती रहा है. क्योंकि वो उस वक़्तस्वायत्तताका ख़्वाहिशमंद है, जब वो अमेरिका से अपनी सुरक्षा की दूरगामी गारंटी सुनिश्चित करना चाहता है, और अमेरिका अभी भी उसकी सुरक्षा की गारंटी लेता है. [47] धीरे धीरे अमेरिका, बाक़ी दुनिया से अपने रिश्ते- और ख़ास तौर से जिन देशों के साथ उसके पहले बहुत नज़दीकी संबंध रहे थे- उनकोहमबनामवोवाली नज़र से देखता है, और इसे लेकरलोकतंत्र बनाम तानाशाहीका नैरेटिव गढ़ रहा है. [48] वैसे पहले तो ये नैरेटिव अमेरिका और चीन के बीच प्रतिद्वंद्विता के इर्द गिर्द बुना जा रहा था. लेकिन, यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस के युद्ध ने अब चीन और रूस को क़रीब ला दिया है. [49]

 

प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के सनकी बर्ताव के बावजूद अमेरिका, फिलहाल इस बात पर रोक लगाने में सफल रहा हैइज़राइल की तकनीक को चीन की क्षमता [50]  के साथ मेल हो सके. इससे पहले चीन, ‘रेगिस्तान में हरियालीलाने के इज़राइल के विज़न के लिए ख़ुद को एक अहम साझीदार के तौर पर प्रचारित कर रहा था. ‘ डेज़र्ट ब्लूमविज़न के ज़रिए इज़राइल अपनी वैज्ञानिक और तकनीकी ताक़त के दम पर अपने सूखे इलाक़ों में खेती करना संभव बनाना चाहता था. [51] हालांकि, चीन अपना ये नज़रिया उम्मीद के मुताबिक़ लागू करने में सफल नहीं हो सका है. क्योंकि, अपने अहम तकनीकी मूलभूत ढांचे से चीन को दूर रखने की अमेरिका की मांग के आगे इज़राइल ने घुटने टेक दिए हैं. [52]चीन के मुक़ाबले में अमेरिका का साथ देकर, इज़राइल नेपक्ष लेनेके अपने दांव का बख़ूबी फ़ायदा भी उठा है. क्योंकि, अक्टूबर 2023 के बाद से ही पहले ग़ज़ा और फिर लेबनान में अपने सैन्य अभियान के लिए इज़राइल को लगातार अमेरिका का समर्थन मिलना रहा है. दोनों के इस रिश्ते को चीन द्वारा फिलिस्तीन का खुलकर समर्थन करने और हमास का नाम लेकर उसकी आलोचना करने में चीन की हिचक से और मज़बूती मिली है. [53]

 कुछ अरब देशों के बीच आपस में प्रतिद्वंदिता को ख़त्म करने (जैसे कि क़तर के ख़िलाफ़ 43 महीने की नाकेबंदी ख़त्म करने) जैसे तेज़ी से हो रहे इन बदलावों को कुछ जानकार इस सच्चाई का सामना करने के तौर पर देख रहे हैं कि अब इस बात के भरोसे नहीं रहा जा सकता कि इन देशों की सुरक्षा की पूरी ज़िम्मेदारी अमेरिका उठाता रहेगा.

हालांकि, मुहम्मद बिन सलमान अभी भी ये नहीं मानते हैं कि सऊदी अरब के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हुआ है. इसमें कोई शक नहीं है कि सऊदी अरब के लिए सुरक्षा की चुनौतियां बढ़ गई हैं. इसके अलावा ग़ज़ा और लेबनान के हालात को लेकर, सऊदी अरब बेरुख़ी नहीं अपना सकता है. फिर भी, अपनी सामरिक स्वायत्तता को मज़बूत बनाना औऱ दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन के साथ कारोबार करना अहम माना जाता है. इस मक़सद को हासिल करने के लिए सऊदी अरब, ज़ोर शोर से भू-राजनीतिक समीकरण बिठाने में जुटा हुआ है. ईरान के साथ संबंध सामान्य बनाना, यमन में हूतियों के साथ बात करना और इज़राइल को दी गई छोटी मोटी रियायतों जैसे कि इज़राइल के यात्री विमानों को अपनी वायु सीमा से होकर गुज़रने की इजाज़त देने (इस चलन की शुरुआत एयर इंडिया ने 2018 में की थी [54]) से पीछे नहीं हटा है. इन सभी क़दमों की मदद से सऊदी अरब को ग़ज़ा के संघर्ष को लेकरनिरपेक्ष स्थितिबनाने में मदद मिली है, क्योंकि इस संघर्ष को वो इज़राइल और ईरान के बीच टक्कर मानता है.

हालांकि, इसका अर्थ ये भी नहीं है कि ईरान को अपना प्रमुख वैचारिक और सामरिक ख़तरा समझने की सऊदी अरब की बुनियादी सोच में कोई बदलाव आया है. खाड़ी देशों ने एक दूसरे के साथ मिलकर सुरक्षा के इकोसिस्टम बनाने, जैसे कि समुद्री और वायु सीमाओं का और मज़बूती से संरक्षण करने का सिलसिला जारी रखा है. कुछ अरब देशों के बीच आपस में प्रतिद्वंदिता को ख़त्म करने (जैसे कि क़तर के ख़िलाफ़ 43 महीने की नाकेबंदी ख़त्म करने) जैसे तेज़ी से हो रहे इन बदलावों को कुछ जानकार इस सच्चाई का सामना करने के तौर पर देख रहे हैं कि अब इस बात के भरोसे नहीं रहा जा सकता कि इन देशों की सुरक्षा की पूरी ज़िम्मेदारी अमेरिका उठाता रहेगा. [55],[56]ये बदलाव इस तथ्य को भी रेखांकित करते हैं कि खाड़ी देशों के सैन्य बलों के पास भले ही आधुनिक और बेहद उन्नत हथियार मौजूद हैं. लेकिन, अपने दम पर युद्ध लड़ने और उन्हें जीतने का इन देशों की सेनाओं के पास बहुत कम अनुभव है. 1967 के योम किप्पुर युद्ध में मिस्र, सीरिया और जॉर्डन की मिली जुली ताक़त को इज़राइल द्वारा शिकस्त देना इस बात का उदाहरण है और अरब देश इस हार के मनोवैज्ञानिक दर्द से आज तक नहीं उबर सके हैं. [57]

 हालांकि, कारोबार को खुलकर बढ़ावा देने, बड़ी मात्रा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित करने और सऊदी अरब को वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए आकर्षक बनाने के लिए मुहम्मद बिन सलमान, वैश्विक भू-राजनीति के खेल को अलग ही दांव पेंचों के साथ खेल रहे हैं. सऊदी अरब के युवराज ने अमेरिका को ये दिखाया है कि रूस और चीन के साथ अच्छे कामकाजी रिश्ते रखने के अपने फ़ायदे हैं. सितंबर 2024 में रूस के मुश्किलों में घिरे राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने शीत युद्ध [58] के बाद से अमेरिका और रूस के बीच क़ैदियों की अब तक की सबसे बड़ी अदला-बदली कराने में मदद के लिए मुहम्मद बिन सलमान का शुक्रिया अदा किया था.  संयुक्त अरब अमीरात भी यही रणनीति अपना रहा है, जिसने युद्ध के दौरान पकड़े गए सैनिकों[59] की अदलात बदली के लिए कई बार रूस और यूक्रेन के बीच समझौते कराने में मदद की है. अमेरिका की नाख़ुशी के बावजूद, सऊदी अरब और UAE दोनों ही रूस के साथ कारोबार जारी रखे हुए हैं. [60]

 

अमेरिका और भारत दोनों क्वाड के सदस्य हैं. फिर भी भारत केसदैव गुटनिरपेक्ष रहनेके रुख़ को स्वीकार करने में अमेरिका को कोई ख़ास दिक़्क़त नहीं आई है. हालांकि, पश्चिमी एशिया में इसी बात को स्वीकार करना इतना आसान नहीं साबित हुआ है. क्योंकि वहां के ज़्यादातर देश अपनी सुरक्षा की गारंटी के लिए अमेरिका के इशारों पर चलते थे और इसके बदले में अमेरिका के दबदबे के व्यापक समीकरण साधने में अहम भूमिका निभाते रहे थे. [61]

निष्कर्ष

 आगे चलकर सामरिक स्वायत्तता हासिल करने और अमेरिका से सुरक्षा का समझौता करने की मुहम्मद बिन सलमान की ख़्वाहिश ट्रंप के आगामी कार्यकाल पर निर्भर करती है. डॉनल्ड ट्रंप की सत्ता में वापसी,  2016 की ही तरह एक बार फिर से सऊदी अरब के लिए एक अच्छा मौक़ा भी होगी और चुनौती भी. ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान सऊदी अरब ने उनके साथ अच्छे संबंध निभाए थे. क्योंकि, ट्रंप जिस तरह इस हाथ ले, उस हाथ दे की राजनीति करते हैं, उसे सऊदी अरब अच्छे से जानता समझता था. [62]

हालांकि, इस बार मुहम्मद बिन सलमान और डोनाल्ड ट्रंप की दोस्ती के सामने चुनौतियां होंगी; याद करिए कि 2019 में जब सऊदी अरब के पूर्वी सूबे में तेल के ठिकानों पर हमले हुए थे, तो सऊदी अरब का आधा तेल उत्पादन ठप हो गया था और उसको 57 लाख बैरल तेल (या दुनिया के रोज़ के कच्चे तेल के उत्पादन का पांच प्रतिशत) का नुक़सान हुआ था और ये हमला ट्रंप के कार्यकाल में ही हुआ था. [63]

 सऊदी अरब इस समय लंबे समय का खेल खेल रहा है. वो जिस तरह की सामरिक स्वायत्तता चाहता है, उससे दूरगामी अवधि में अमेरिका को भी उसके साथ जुड़े रहने में मदद मिलेगी. ये सऊदी अरब के भू-आर्थिक लक्ष्यों के लिहाज़ से भी काफ़ी अहम है. मुहम्मद बिन सलमान अपने देश में जो नाटकीय बदलाव ला रहे हैं, उसको पूरी दुनिया से मिल रहा समर्थन साफ़ दिखता है और इसका लाभ केवल इस क्षेत्र की राजनीति, अर्थव्यवस्था और सुरक्षा को होगा, बल्कि पूरी दुनिया को फ़ायदा मिलेगा.

 सऊदी अरब, एशिया के साथ अपनी नज़दीकी बढ़ाने का लाभ उठाएगा और बड़ी परियोजनाओं के साथ साथ छोटे और मध्यम दर्जे के उद्योगों के बीच रिश्तों को संस्थागत बनाएगा. भारत से यूरोप के लिए आर्थिक गलियारे (IMEC) जैसी परियोजनाएं आने वाले दशकों में केंद्रीय आर्थिक मार्ग बन सकते हैं और इसमें शामिल देश स्वास्थ्य, डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर, ब्लू इकॉनमी और साइबर सुरक्षा के अच्छे तौर तरीक़ों जैसे बुनियादी ढांचे बनाने के लिए क्वाड से मदद हासिल कर सकते हैं. [64]

 आख़िरकार, सऊदी अरब, मुहम्मद बिन सलमान और विज़न 2030 के लिए सबसे बड़ी चुनौती राजनीतिक स्थिरता की होगी. इसमें कोई शक नहीं कि मुहम्मद बिन सलमान अगले कई दशकों तक सत्ता में बने रहने वाले हैं, और वो तेल के बजाय बाज़ार पर आधारित अर्थव्यवस्था का बहुत कम तजुर्बा रखने वाली अपने देश की युवा और आकांक्षाएं रखने वाली आबादी के साथ मिलकर अपने देश में ये बदलाव करने जारी रखेंगे. [65] पर, उनके लिए ये काम आसान नहीं होगा. हालांकि, मुहम्मद बिन सलमान को इस बात का फ़ायदा मिलेगा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी उनकी तरह इस बदलाव में पूरी दिलचस्पी ले रहा है, क्योंकि प्रिंस सलमान की नाकामी सबके लिए बहुत बड़ा झटका होगी.


Endnotes

[a] The other main branch is Shia Islam.

[b] The current ruling royal family.

[c] Ibn Saud worked through the Ulema (scholars of Islamic law and doctrine) and used quotes from the Quran to prove otherwise.

[d] Bilateral agreements on the normalisation of ties, signed between Israel and the UAE and between Israel and Bahrain in September 2020.

[1] “A Chronology: The House of Saud,” Public Broadcasting Service, August 2024.

[2] Tommy Hilton, “The Capture of Riyadh 1902: How a Daring Raid Shaped Arabia,” The National, January 13, 2022.

[3]  Gawdat Bahgat, “Managing Dependence: American-Saudi Oil Relations,” Arab Studies Quarterly 23, 2001:1-14

[4] Bruce Riedel, “75 Years After the Historic Meeting on the USS Quincy, US-Saudi Relations Are in Need of a Re-Think,” The Brookings Institution, February 10, 2020.

[5] Daniel W Drezner, “The End of American Exceptionalism,” Foreign Affairs, November 12, 2024.

[6] Robert Rapier, “From Ban to Boom: US Set New Oil Export Record in 2023,” Forbes, March 19, 2024.

[7] “Mohammed Bin Salman Named Saudi Arabia’s Crown Prince,” Al Jazeera, June 21, 2017.

[8] Bradley Hope, “Mohammed Bin Salman’s Style Shift Setups Up a New World Order Strategy,” Bloomberg, November 22, 2024.

[9] Karim Sadjapour, “The New Battle for the Middle East,” Foreign Affairs, October 22, 2024.

[10] Yaroslav Trofimov, “A Social Revolution in Saudi Arabia,” The Wall Street Journal, November 15, 2019.

[11] Nicholas Kulish, “Ritz-Carlton Has Become a Gilded Cage for Saudi Royals,” The New York Times, November 6, 2017.

[12] A Z Al-Abdin, “The Political Thought of Hasan Al-Banna,” Islamic Studies28, no. 3 (1989): 219-234

[13] Simon Mabon, “It’s a Family Affair: Religion, Geopolitics and the Rise of Mohammed Bin Salman,” Insight Turkey 20, no. 2 (2018): 51-66

[14] David D Kirkpatrick, “The Most Powerful Arab Ruler Isn’t MBS. It’s MBZ,” The New York Times, June 2, 2019.

[15] Jon Hoffman, “The Arab Autocrat’s New Religious Playbook,” Foreign Policy, April 11, 2023.

[16] Michael C Hudson, “The Middle East Under Pax Americana: How New, How Orderly?,” Third World Quarterly 13, no. 2 (1992): 301-316

[17] Laura Sullivan, “Biden Declassifies Secret FBI Report Detailing Saudi Nationals’ Connections to 9/11,” NPR, September 12, 2021.

[18] Mohan C Raja, “Delhi’s Outreach to Cairo,” The Indian Express, January 27, 2023.

[19] “Saudi Arabia’s Ban on Women Driving Officially Ends,” BBC, June 24, 2018.

[20] Fabrizio Romano, “Christiano Ronaldo Completes Deal to join Saudi Arabian club Al Nassr,” The Guardian, December 30, 2022.

[21] “Metallica Makes History As First Major Metal Band to Perform in Saudi Arabia,” Daily Sabah, November 29, 2023.

[22] “Defanged Saudi Religious Police Bring Relief, Foreboding,” The Straits Times, February 9, 2018.

[23] Arwa Ibrahim, “What is Sahwa, the Awakening Movement Under Pressure in Saudi?,” Al Jazeera, June 5, 2019.

[24] Ali Fathollah-Nejad, “Four Decades Later, Did the Iranian Revolution Fulfil Its Promises?,” The Brookings Institution, July 11, 2019.

[25] “Great Expectations: The Future of Saudi – Iran Détente,” International Crisis Group, June 13, 2024.

[26] “Mecca 1979: The Mosque Siege that Changed the Course of Saudi History,” BBC, December 27, 2019.

[27] Yaroslav Trofimov, The Siege of Mecca: The Forgotten Uprising in Islam’s Holiest Shrine (Penguin Books, 2008, pp. 45-52)

[28] “Mecca 1979: The Mosque Siege that Changed the Course of Saudi History”

[29] Thomas Hegghammer and Stephane Lacroix, “Rejectionist Islamism in Saudi Arabia: The Story of Juhayman al-Utaybi revisited,” International Journal of Middle East Studies 39, no.1(2007):103-122

[30] Joseph Fitchetz, “Paris Aid to Saudis Cited in Ending Mosque Siege, The Washington Post, January 27, 1980.

[31] “Vision 2030: Kingdom of Saudi Arabia”.

[32] Matthew Martin, “Saudi Arabia’s Nearly $1 Trillion Wealth Fund Swings to Profit,” Bloomberg, July 2, 2024.

[33] “Welcome to a New Era of Petrodollar Power,” The Economist, April 9, 2023.

[34] Christine Burke and Fahad Abuljadayel, “Saudi Arabia’s Vision 2030 Projects Reach $1.3 Trillion in Value,” Bloomberg, September 10, 2024.

[35] Ahmed Al Omran, “Saudi Arabia Scales Back Flagship Projects,” The Financial Times, May 14, 2024.

[36] Andrew S Erickson, Gabriel B Collins, and Matt Pottinger, “The Taiwan Catastrophe,” Foreign Affairs, February 16, 2024.

[37] Don McLain Gill, “China – Philippines Ties: Towards More Escalation in the West Philippine Sea?,” Observer Research Foundation, October 25, 2023.

[38] Ministry of Finance, Government of India.

[39] Kabir Taneja, “India’s New Middle East Strategy Takes Shape, Foreign Policy, November 17, 2023.

[40] “The Wilmington Declaration Joint Statement from the Leaders of Australia, India, Japan and the United States,” The White House, September 21, 2024.

[41] Ministry of External Affairs, Government of India.

[42] Omar Rahman, “Five Reasons Why the Abraham Accords are Ceding Ground to Arab-Iranian De-Escalation,” Baker Institute for Public Policy, July 11, 2023.

[43] Shaun Tandon, “Blinken Says US Almost Ready with Saudi Rewards for Israel Normalization,” Agence-France Presse, April 29, 2024.

[44] “Saudi Arabia Will Not Recognize Israel without Palestinian State, Says Crown Prince,” Al Arabiya, September 18, 2024.

[45] Ashley J Tellis, “Non-Allied Forever: India’s Grand Strategy According to Subrahmanyam Jaishankar,” Carnegie Endowment for International Peace, March 3, 2021, 

[46] Nikolay Surkov, “The Middle East: From Dependency and Clientelism to Strategic Autonomy,” Valdai Discussion Club, February 13, 2024.

[47] Kristian Coates Ulrichsen, “Difficulties Facing a Saudi – US Security Agreement,” Arab Centre Washington DC, June 25, 2024.

[48] “Xi to Biden: Knock off the Democracy vs Autocracy Talk,” Reuters, November 15, 2022.

[49] F Gregory Gause III, “The Limits of a US – Saudi Security Deal,” Foreign Affairs, August 2, 2024.

[50] Raphael Ahren, “In Beijing, Netanyahu Looks to ‘Marry Israel’s Technology with China’s Capacity’,” The Times of Israel, March 21, 2017.

[51] Liu Yangdon, “To Make China – Israel SIT Cooperation Bloom,” Ministry of Science and Technology of the People’s Republic of China, 2014.

[52] “Israel, US Near Deal to Exclude China from Israeli 5G Networks: US Official,” Reuters, August 14, 2020.

[53] Eisa Moradi Afrapoli and Majid Dashtgard, “Why China Has Not Condemned the Hamas Attack on Israel,” Stimson Centre, November 14, 2023.

[54] Rishi Iyenger, “Air India Completes Historic First Flight to Israel Over Saudi Skies,” CNN, March 23, 2018.

[55] Abdullah Baabood, “How Gulf States are Reinterpreting National Security Beyond Their Land Borders,” Carnegie Endowment for International Peace, August 1, 2024.

[56] Kabir Taneja, “The GCC Blockade of Qatar: Can the Gulf and Doha Find Common Ground Again?,” Observer Research Foundation, December 12, 2019.

[57] “Why Are Arab Forces so Ineffective?,” The Economist, May 5, 2024.

[58] “Putin Thanks Saudi Prince for US – Russia Prisoner Swap,” Newsweek, September 5, 2024.

[59] “Russia and Ukraine Exchange 115 Prisoners of War with Help of the UAE,” The Guardian, August 24, 2024.

[60] Diana Galeeva, “Economic Factors Driving Saudi – Russia Relations,” Arab News, April 3, 2024.

[61] Steven Simon and Jonathan Stevenson, “The End of Pax Americana,” Foreign Affairs, October 9, 2015.

[62] Saphora Smith and Dan De Luce, “US-Saudi Ties Were Especially Close Under Trump. Under Biden, That Looks Likely to Change,” NBC, November 12, 2020.

[63] Summer Said, Jared Malsin and Jessica Donati, “US Blames Iran for Attack on Saudi Oil Facilities,” The Wall Street Journal, September 14, 2019.

[64] Sriram Lakshman, “Quad Launches Maritime and Health Initiative, Adopts Strong Language On Aggression,” The Hindu, September 22, 2024.

[65] Basil M K Al-Ghalayani, “Saudi Arabia is Blessed with An Aspiring, Youthful Population,” Arab News, June 4, 2023.

 

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