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पांच सप्ताह में भारतीय रिजर्व बैंक ने दो चरणों में रेपो रेट में 90 बेसिस प्वाइंट (0.9 प्रतिशत) की बढ़ोतरी की है. रेपो रेट वह दर होता है, जिस पर रिजर्व बैंक व्यावसायिक बैंकों को उधार देता है. अब यह दर 4.90 प्रतिशत हो गयी है. इस वृद्धि का मुख्य लक्ष्य मुद्रास्फीति पर लगाम लगाना है. उल्लेखनीय है कि इस वर्ष फरवरी से अप्रैल के बीच मुद्रास्फीति में 170 बेसिस प्वाइंट की बढ़त हुई है.
इसे देखते हुए देश के केंद्रीय बैंक ने अप्रैल में आकलन किया था कि औसत खुदरा मुद्रास्फीति चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में 6.3 प्रतिशत, दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) में 5.8 प्रतिशत, तीसरी तिमाही (अक्टूबर-दिसंबर) में 5.4 प्रतिशत तथा चौथी तिमाही (जनवरी-मार्च, 2023) में 5.1 प्रतिशत हो सकती है. इसका अर्थ है कि रिजर्व बैंक को भरोसा है कि मुद्रास्फीति चार प्रतिशत (दो प्रतिशत कम या अधिक) के स्वीकृत स्तर पर रह सकती है. इस संदर्भ में एक गौरतलब बात यह है कि हाल के समय में अर्थव्यवस्था को सहारा देने के इरादे से सस्ते दर पर ऋण मुहैया कराने की नीति वापस ले ली गयी है. हालांकि अभी भी रेपो रेट महामारी से पहले की दर से कम है, पर हालिया बढ़ोतरी का अर्थ यह है कि यह नीतिगत बदलाव भी हुआ है.
रेपो रेट वह दर होता है, जिस पर रिजर्व बैंक व्यावसायिक बैंकों को उधार देता है. अब यह दर 4.90 प्रतिशत हो गयी है. इस वृद्धि का मुख्य लक्ष्य मुद्रास्फीति पर लगाम लगाना है.
ये निर्णय यह भी इंगित कर रहे हैं कि अंतत: रिजर्व बैंक ने यह मान लिया है कि मुद्रास्फीति है. बीते दिसंबर तक यह तर्क दिया जा रहा था कि थोक मूल्य सूचकांक बढ़ रहा है, लेकिन उपभोक्ता मूल्य सूचकांक नहीं बढ़ रहा है, इसलिए खुदरा मुद्रास्फीति कम है. महामारी के दौरान पहले ही खुदरा महंगाई बहुत बढ़ गयी थी और अगर बाद में थोक मुद्रास्फीति में बढ़त हो रही है, तो देर-सबेर उसका असर खुदरा दामों पर पड़ना स्वाभाविक है.
रिजर्व बैंक का मानना था, जो एक हद तक ठीक भी है, कि अगर आसान दरों पर धन बाजार में मुहैया किया जायेगा, तो लोग क्रेडिट लेंगे, निवेश करेंगे, जिससे उत्पादन क्षमता बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था बेहतर होगी. बड़े उद्योगों ने क़र्ज़ उठाया भी और इस क्षेत्र में सुधार भी सकारात्मक हुआ है, लेकिन मुश्किल सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यमों के संबंध में है. अति लघु और लघु उद्यम बड़े पैमाने पर तबाह हुए हैं. यही वे क्षेत्र हैं, जो सबसे अधिक रोजगार मुहैया कराते हैं.
सस्ते क़र्ज़ देने का एक आधार यह भी था कि अर्थव्यवस्था संतोषजनक गति से बढ़ रही है. इसका कारण यह है कि बड़े उद्योग पटरी पर आ चुके हैं और सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में उनका हिस्सा अधिक है. विडंबना यह है कि जीडीपी में बड़े उद्योगों का बड़ा हिस्सा है, पर रोजगार में छोटे और मझोले उद्यमों का योगदान अधिक है.
अगर आसान दरों पर धन बाजार में मुहैया किया जायेगा, तो लोग क्रेडिट लेंगे, निवेश करेंगे, जिससे उत्पादन क्षमता बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था बेहतर होगी. बड़े उद्योगों ने क़र्ज़ उठाया भी और इस क्षेत्र में सुधार भी सकारात्मक हुआ है, लेकिन मुश्किल सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यमों के संबंध में है.
ऐसे में घरेलू बाजार में मांग भी सुस्त है और बाहरी कारणों- रूस-यूक्रेन युद्ध, चीन से आपूर्ति में बाधा, अन्य भू-राजनीतिक कारक आदि- ने भी मुद्रास्फीति को बढ़ाने में योगदान दिया है. रिजर्व बैंक के गवर्नर ने भी कहा है कि बहुत जल्दी महंगाई से राहत मिलने की आशा नहीं है. जो मुद्रास्फीति के अनुमान हैं, उनमें भी एक पहलू यह है कि मानसून अगर सामान्य न रहा, तो आगे भी दबाव बना रहेगा.हालांकि यह एक अलग विषय है, पर इसका उल्लेख भी होना चाहिए, जैसा कि प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के बिबेक देबरॉय ने हाल ही में कहा है कि उनके ख्याल से, और यह हमारे जैसे कई अर्थशास्त्रियों का भी मानना है, पेट्रोलियम पदार्थों को वस्तु एवं सेवा कर के दायरे में लाया जाना चाहिए. इससे मांग बढ़ाने और मुद्रास्फीति कम करने में बड़ी मदद मिल सकती है.
कई जानकार मानते हैं कि रेपो रेट बढ़ाना इसलिए भी जरूरी है कि अगर ये दरें अमेरिकी फेडरल रिजर्व की दरों से कम रहेंगी, तो डॉलर देश से निकलने लगेगा. अभी स्थिति यह है कि विदेशी निवेशक कई कारणों से अपनी पूंजी वापस ले जा रहे हैं. और, इसे केवल दर बढ़ाकर नहीं रोका जा सकता है. इसमें एक पहलू यह भी है कि डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरती कीमत को रोकने के लिए कदम उठाये जाने चाहिए. अगर रुपया गिरता है, तो विदेशी निवेशक को भी घाटा होने लगता है. निवेशक पहले फेडरल रिजर्व में निवेशकों का लाभ शून्य से 0.1-0.2 प्रतिशत था, जो अब एक-डेढ़ प्रतिशत हो गया है. यह निवेश के पलायन का सबसे बड़ा कारण है. यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक अपने धन का एक बड़ा हिस्सा अमेरिकी बॉन्ड में रखता है और यदि वहां मुनाफा बढ़ता है, तो यह निवेश भी उधर अधिक होता है.
अभी स्थिति यह है कि विदेशी निवेशक कई कारणों से अपनी पूंजी वापस ले जा रहे हैं. और, इसे केवल दर बढ़ाकर नहीं रोका जा सकता है. इसमें एक पहलू यह भी है कि डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरती कीमत को रोकने के लिए कदम उठाये जाने चाहिए. अगर रुपया गिरता है, तो विदेशी निवेशक को भी घाटा होने लगता है.
पिछले कुछ समय से रिजर्व बैंक डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा देने के लिए कई उपाय करता रहा है और उसके संतोषजनक परिणाम भी हमारे सामने हैं. रुपे क्रेडिट कार्डों को यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (यूपीआइ) से जोड़ने का निर्णय इसी क्रम में है. बहुत संभव है कि अन्य कार्ड भी आनेवाले दिनों में इस तरह की सुविधा अपने ग्राहकों को दें. इससे डिजिटल भुगतान की मात्रा में वृद्धि की उम्मीद की जा सकती है. इस निर्णय को हम रूस के विरुद्ध लगीं आर्थिक पाबंदियों के संदर्भ में भी देख सकते हैं. यूक्रेन पर हमले के बाद अमेरिका और कई यूरोपीय देशों के प्रतिबंधों के तहत रूस से स्विफ्ट पेमेंट सिस्टम, वीजा, मास्टरकार्ड, पेपाल आदि बैंकिंग सुविधाओं को रूस में बंद कर दिया गया है. रूस को चीनी प्रणाली की सहायता लेनी पड़ रही है.
अगर हमारे देश में विकसित यूपीआइ सिस्टम से बैंकिंग तंत्र और लेन-देन को जोड़ दिया जाए, तो इस तरह की पाबंदियों या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पैदा होने वाले अवरोधों की चुनौती का सामना आसानी से किया जा सकता है. देश में विकसित यूपीआइ सिस्टम के विस्तार से डॉलर आधारित या अमेरिका में स्थित भुगतान तंत्रों पर हमारी निर्भरता भी घटेगी.
इसके अलावा, यूपीआइ के विकास में भी इससे मदद मिलेगी. क्रेडिट और डेबिट कार्डों से ई-मैंडेट के तहत होने वाले आवृत्ति भुगतान निर्धारित सीमा को पांच हजार से बढ़ाकर पंद्रह हजार रुपये कर दिया गया है. यह भी बड़ी संख्या में ग्राहकों और सेवा प्रदाताओं के लिए राहत की बात है. रेपो रेट बढ़ाने से क़र्ज़ भी कुछ महंगा होगा, जिससे उपभोक्ताओं पर दबाव बढ़ सकता है. अब देखना यह है कि इसका क्या असर मुद्रास्फीति और मांग पर होता है. रिजर्व बैंक के निर्णयों का प्रभाव भी सामने आने में कुछ समय लग सकता है.
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यह लेख मूल रूप से प्रभात खबर में प्रकाशित हो चुका है.
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Abhijit was Senior Fellow with ORFs Economy and Growth Programme. His main areas of research include macroeconomics and public policy with core research areas in ...
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