Author : Nilanjan Ghosh

Originally Published नवभारत टाइम्स Published on Apr 18, 2025 Commentaries 0 Hours ago

ऐसे हालात बनाने होंगे, जिसमें हमारी वर्कफोर्स सिर्फ देश की GDP में योगदान ही न दे, बल्कि सही मायने में रोजगार भी पाए.

रेवड़ी कल्चर: मुफ्त योजनाएं भारत की अर्थव्यवस्था के लिए किस हद तक सही?

पिछले दिनों कई राज्यों में लोकलुभावन वादे पूरे करने में बजट की समस्या देखने को मिली. वोटरों को लुभाने के लिए फ्रीबीज देने में पार्टियों के बीच होड़ लगी है. लेकिन यह अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं है. फ्रीबीज यानी रेवड़ी में अक्सर वे चीजें होती हैं, जो लोगों को सक्षम बनाने का काम नहीं करतीं. फ्रीबीज को तरक्की के वादों से अलग करना होगा. अगर हम अपने संविधान की बात करें, तो उसके अनुच्छेद 32 में साफ लिखा है कि राज्य को लोगों की आमदनी में असमानता कम करने की कोशिश करनी चाहिए. उसे स्टेटस, सुविधाओं और मौकों में जो नाइंसाफी है, उसे खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए.

यहां है दिक्कत

इस नजरिए से देखें, तो बहुत जरूरी हो जाता है कि कुछ ऐसी चीजें हों जो लोगों की जिंदगी का स्तर ऊपर उठाएं और उनके लिए मौके बनाएं. चुनावी कैंपेन के दौरान नेताओं को कुछ वादे करने पड़ते हैं- जैसे नौकरी पैदा करना, रोजगार देना, या स्किल डिवेलप करना. ये राज्य की कुछ अहम जिम्मेदारियां हैं. लेकिन फ्रीबी कल्चर के साथ दिक्कत यह है कि इसमें आप तरक्की के लिए सही माहौल नहीं बना रहे होते. आप एक आलसी और बेकार वर्कफोर्स बनाते हैं, जो बस घर पर बैठकर सब्सिडी का मजा लेगी.  

न तो आप वर्कफोर्स को ट्रेनिंग दे रहे हैं, न ही उनके लिए ऐसे मौके बना रहे हैं, जिनमें वे किसी तरह से GDP और ग्रोथ में योगदान दे सकें. यही वह बिंदु है, जहां रोजगार के हालात बनाने या स्किल्ड लेबर तैयार करने और उस लेबर को बेकार बैठा देने के बीच फर्क साफ दिखता है. इकॉनमी के लिए यह स्थिति उलटी पड़ती है कि लोगों को घर बैठाकर उन्हें 1000 से 10,000 रुपये तक दे दिया जाए.  

कोर्ट ने साफ कहा कि आपको फर्क करना होगा. एक तरफ वे वादे हैं, जिनमें गहने, टीवी सेट, या कुछ कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स मुफ्त में देने की बात हो रही है. दूसरी तरफ असली वेलफेयर ऑफर हैं, जो सच में भलाई करते हैं. भलाई आप तब कर सकते हैं, जब आप लोगों के लिए नौकरी पैदा करें, बेहतर सोशल सिक्यॉरिटी दें.  

अगस्त 2022 में सुप्रीम कोर्ट में तत्कालीन CJI एनवी रमना की बेंच ने भी यही बात कही थी. कोर्ट ने कहा कि आप किसी पॉलिटिकल पार्टी या शख्स को वादे करने से रोक नहीं सकते, खासकर अगर वे वादे संविधान के हिसाब से सही हों और सत्ता में आने पर उन्हें पूरा करने का इरादा हो. लेकिन सवाल यह है कि सही वादा क्या है? और उसे अलग कैसे किया जाए? कोर्ट ने साफ कहा कि आपको फर्क करना होगा. एक तरफ वे वादे हैं, जिनमें गहने, टीवी सेट, या कुछ कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स मुफ्त में देने की बात हो रही है. दूसरी तरफ असली वेलफेयर ऑफर हैं, जो सच में भलाई करते हैं. भलाई आप तब कर सकते हैं, जब आप लोगों के लिए नौकरी पैदा करें, बेहतर सोशल सिक्यॉरिटी दें.  

रेवड़ी के वोट

सोशल सिक्यॉरिटी तब देनी चाहिए, जब कोई मुसीबत हो, या फिर बुजुर्गों के लिए बेहतर सोशल सिक्यॉरिटी बनानी चाहिए. ये नहीं कि आप जवान आबादी को, चाहे वह लड़का हो या लड़की, घर पर बैठा दो और सिर्फ इसलिए फ्रीबीज दे दो, ताकि वे आपके लिए वोट करें. ऐसा करके आप न सिर्फ बेकार लेबर बना रहे हैं, बल्कि सिस्टम में एक तरह का नुकसानदेह लेबर बना रहे हैं, जो आलसी हो जाता है. ऐसे लोग फिर दूसरी तरह की गलत हरकतों में पड़ जाते हैं, क्योंकि उनके पास करने को कुछ नहीं होता. 

कई राज्यों में विधानसभा चुनाव के दौरान फ्रीबीज का चलन बहुत देखा गया है. यह एक बड़ा बेकार लेबर तैयार कर रहा है. कोई यह दलील दे सकता है कि पहले भी ऐसा होता था. मुझे याद है, 2019 में कांग्रेस ने अपने इलेक्शन मेनिफेस्टो में कहा था कि वह गरीबी रेखा से नीचे वालों को हर साल 72,000 रुपये देगी. ध्यान रहे कि टारगेटेड या यूनिवर्सल बेसिक इनकम (UBI) भी फ्रीबीज का ही एक रूप है. इतना पैसा देना भी इकनॉमिक्स में एक फिनॉमिना को जन्म देता है, जो खासकर विकासशील और अविकसित देशों में देखा जाता है. इसे कहते हैं 'बैकवर्ड बेंडिंग लेबर सप्लाई कर्व'. इसका मतलब ये कि लोग खुद मेहनत करने की कोशिश ही नहीं करेंगे. अगर उन्हें बिना कुछ किए इतना पैसा मिल रहा है, तो वे प्रॉडक्टिव कामों में हिस्सा क्यों लेंगे ?  

यूनिवर्सल बेसिक इनकम (UBI) विकसित देशों में काफी जगहों पर चलता है, लेकिन वहां का सिस्टम अलग है. वहां सोशल सिक्यॉरिटी का लेवल बहुत ऊंचा है, और वह ज्यादा बराबरी वाला है. साथ ही, उन देशों की प्रति व्यक्ति GDP भी एक खास लेवल तक पहुंच चुकी है.

हालांकि यूनिवर्सल बेसिक इनकम (UBI) विकसित देशों में काफी जगहों पर चलता है, लेकिन वहां का सिस्टम अलग है. वहां सोशल सिक्यॉरिटी का लेवल बहुत ऊंचा है, और वह ज्यादा बराबरी वाला है. साथ ही, उन देशों की प्रति व्यक्ति GDP भी एक खास लेवल तक पहुंच चुकी है. लेकिन यहां अगर हम फ्रीबीज के चक्कर में पड़ गए तो हम अपनी डेमोग्राफिक डिविडेंड, यानी अपनी जवान आबादी का फायदा नहीं उठा पाएंगे. हमारी 65% आबादी 30 साल से कम उम्र की है, और 55% से ज्यादा आबादी 25 साल से कम की. हमारा डेमोग्राफिक डिविडेंड वर्ष 2045-2047 तक रहेगा, फिर खत्म हो जाएगा. 

मौके का फायदा

हमें प्रॉडक्टिव लेबर बनाकर, आबादी को स्किल्ड बनाकर और अगले 20 सालों के लिए प्रॉडक्टिव लेबर तैयार करके इस मौके का फायदा उठाना होगा. फ्रीबीज का कोई भी मैकेनिज्म हमें इस ढांचे में नहीं ले जाएगा. प्रॉडक्टिव लेबर के लिए, प्रॉडक्टिव इकॉनमी बनाने के लिए हमें इस फ्रीबी कल्चर से बाहर निकलना होगा. ऐसे हालात बनाने होंगे, जिसमें हमारी वर्कफोर्स सिर्फ देश की GDP में योगदान ही न दे, बल्कि सही मायने में रोजगार भी पाए.

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Nilanjan Ghosh

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Dr Nilanjan Ghosh is Vice President – Development Studies at the Observer Research Foundation (ORF) in India, and is also in charge of the Foundation’s ...

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