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अमेरिका और चीन के बीच सीमांत (फ्रंटियर) को लेकर टकराव अपरिहार्य है; नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा इस सच्चाई को बस क़रीब लायी है.
जैसी कि उम्मीद थी, 2 अगस्त 2022 को नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा ने बीजिंग को आगबबूला कर दिया, और उसने इसे ‘चीन के साथ विश्वासघात’ क़रार दिया. उसने जवाबी कार्रवाई के रूप में ताइवान के ख़िलाफ़ सैन्य अभ्यासों की एक शृंखला संचालित की और अमेरिका के साथ सैन्य एवं जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर सहयोग रोक दिया. हालांकि, ताइवान को लेकर अमेरिका-चीन रिश्तों का बिगड़ना कोई नयी चीज़ नहीं है, बल्कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह चौथा ऐसा संकट है. शीत युद्ध के बाद ताइवान, अमेरिका और चीन के बीच तनातनी की प्राथमिक वजह रहा है, और अमेरिका-चीन संबंधों को निर्देशित करने वाले तीन आधिकारिक वक्तव्यों (1972, 1979 और 1982) और ‘छह आश्वासनों’ के बावजूद अब भी है. हालांकि, ताइवान को लेकर वर्तमान संकट ने ताइवान की खाड़ी में तनाव को एक संभावित अमेरिका-चीन सैन्य संघर्ष तक बढ़ा दिया है. रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में इस द्वीपीय राष्ट्र पर आसन्न चीनी हमले को लेकर पहले ही गंभीर चिंताएं थीं. इस तरह पेलोसी की यात्रा ने चीन को ‘खोये हुए इलाक़े’ के मुद्दे का निपटारा करने और चीनी कायाकल्प का लक्ष्य पूरा करने के लिए बहाना प्रदान किया. हालांकि, अमेरिका-चीन रिश्तों का बिगड़ना शक्ति की प्रतिद्वंद्विता का नतीजा भर नहीं है, बल्कि यह दो देशों के बीच सीमांतों के संघर्ष (क्लैश ऑफ फ्रंटियर्स) का संकेत है.
शीत युद्ध के बाद ताइवान, अमेरिका और चीन के बीच तनातनी की प्राथमिक वजह रहा है, और अमेरिका-चीन संबंधों को निर्देशित करने वाले तीन आधिकारिक वक्तव्यों (1972, 1979 और 1982) और ‘छह आश्वासनों’ के बावजूद अब भी है.
इस बात पर ग़ौर करना दिलचस्प है कि अमेरिका और चीन दोनों अपने सीमांत अनुभवों के उत्पाद हैं. अगर अमेरिका के विचार ने पश्चिम की ओर अपने उस विस्तार के चलते आकार लिया है जिसका नतीजा रेड इंडियनों के ख़ात्मे और बियाबानों की जीत के रूप में सामने आया, तो वहीं चीन के विचार ने मध्य मैदानी क्षेत्रों से अपने लगातार विस्तार के ज़रिये आकार लिया जिसका नतीजा उसकी उत्तर-पश्चिमी परिधि पर घुमंतू जनजातियों को ‘शांत’ किये जाने के रूप में सामने आया. दोनों देशों में सीमांत के इस विस्तार का अर्थ था सभ्यतागत मूल्यों का विस्तार. उनके सीमांत अनुभवों में अन्यत्व का विचार निहित है, जिसने अनिवार्य रूप से ‘हमारा’ बनाम ‘उनका’ की मानसिकता को प्रोत्साहित किया. इसने दूसरों को बतौर शत्रु बनाये रखकर ख़ुद की वैधता साबित की. शायद, सीमांत के विस्तार और उसे अपने अधीन करने के इस साझा लक्ष्य ने सरज़मीन के विचार, और ख़ास तौर पर, दोनों देशों के राष्ट्रीय मानस और पहचान को आकार दिया है.
पश्चिम के बड़े पैमाने पर प्रवासन और बसावट का यह युग जो राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन द्वारा लुइजियाना की ख़रीद से आरंभ हुआ था, शांतिपूर्ण नहीं था, बल्कि अपने साथ युद्ध और हिंसा की अमेरिकी कार्रवाइयों की दो से ज़्यादा सदियां समेटे हुए था
मोटे तौर पर, अमेरिकी विस्तार 17वीं सदी के दशकों में पूर्वी अटलांटिक तट पर यूरोपीय औपनिवेशिक बसावट के साथ शुरू हुआ और 20वीं सदी में पश्चिमी प्रशांत तट पर अंतिम कुछ क्षेत्रों को शामिल किये जाने के साथ ख़त्म हुआ. ख़ासकर, पश्चिम के बड़े पैमाने पर प्रवासन और बसावट का यह युग जो राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन द्वारा लुइजियाना की ख़रीद से आरंभ हुआ था, शांतिपूर्ण नहीं था, बल्कि अपने साथ युद्ध और हिंसा की अमेरिकी कार्रवाइयों की दो से ज़्यादा सदियां समेटे हुए था, जिसने ‘मैनीफेस्ट डेस्टिनी’ (नियति का प्रकटीकरण) नाम से जाने जानेवाले विस्तारवादी दृष्टिकोण को जन्म दिया. इसके साथ ही, 1893 में फ्रेडरिक जे. टर्नर द्वारा पेश मशहूर फ्रंटियर थीसिस आयी, जिसने यह सिद्धांत गढ़ा कि ‘सीमांत [विस्तार] ने अमेरिकी लोगों के लिए एक मिलीजुली राष्ट्रीयता के निर्माण को बढ़ावा दिया’. 1890 के दशक तक, जब आंतरिक क्षेत्रीय विस्तार के अवसर ख़त्म हो गये, अमेरिका समुद्र-पार औपनिवेशिक अधिग्रहणों की ओर मुड़ा, और इस तरह अमेरिकी साम्राज्यवाद काल की शुरुआत हुई, जिसके कारण सीमांत विस्तार बंद नहीं हुआ, बल्कि समुद्र-पार गुआम, हवाई और फिलीपींस समेत कई नये सीमांत खुल गये. इसी क्रम में, 1899 में अमेरिका की ओपेन-डोर पॉलिसी घोषित हुई जिसने चीन के साथ व्यापार करने वाले सभी देशों के लिए, चीन के वाणिज्यिक दोहन के वास्ते समान अवसरों का आह्वान किया. 19वीं सदी में जापानी साम्राज्यवाद के उदय के साथ, जापान और अमेरिका के बीच श्रेष्ठता के लिए छिड़ा संघर्ष द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार के साथ जाकर ख़त्म हुआ. हालांकि, जापान की हार ने अमेरिका के युद्ध-बाद सीमांत विस्तार का अंत नहीं किया. इसके बजाय 1950-53 का कोरियाई युद्ध अमेरिका को, द्वितीय विश्व युद्ध के गठबंधन संबंधों के उसके विशाल ढांचे के साथ, पूर्व एशियाई रंगभूमि में वापस ले आया. 1955 की अमेरिका-ताइवान परस्पर रक्षा संधि इस अमेरिकी गठबंधन तंत्र का अभिन्न अंग थी. गृहयुद्ध में कुओमिन्तांग (केएमटी) शासन की पराजय के बाद, चीन को उम्मीद थी कि वह पूर्व एशिया में पहले वाली केंद्रीयता हासिल कर लेगा. लेकिन दोबारा केंद्रीयता हासिल करना तो दूर, चीन का सामना कहीं ज़्यादा अनिश्चितता भरी स्थिति से हुआ. अमेरिका ने ताइवान को संयुक्त राष्ट्र में एकमात्र वैध क़ानूनी इकाई (लीगल एंटिटी) के रूप में मान्यता दी, जिसने जनवादी गणराज्य चीन के लिए गंभीर वैधता संकट खड़ा कर दिया.
चीन के सीमांत अनुभवों की ओर चलें तो, तीन सदी ईसा पूर्व, शक्तिशाली शियोंगनु जनजातियां, जिन्हें चीनी लोग ‘बर्बर’ कहते थे, चीन की उत्तरी सीमा के लिए ख़तरा बन गयीं. उत्तरी सीमा की खोज और विजय की प्रक्रिया में ही मुख्य केंद्रीय साम्राज्य को निर्मित करने वाली चीन की साम्राज्यिक धारणा उदित हुई. उल्लेखनीय है कि ये गैर-चीनी पराये समूह चीनी इतिहास की लगभग आधी अवधि तक चीन के शासक भी रहे. बर्बरों के इस वर्चस्व ने न केवल सभी गैर-चीनियों के लिए एक तरह का भय पैदा किया, बल्कि साम्राज्यिक अतीत में प्रतिस्पर्धी पहचानों की चुनौती को भी सामने लाया. 19वीं सदी में पश्चिमी और जापानी साम्राज्यवाद के उदय के साथ ‘अन्य’ का यह डर केवल बढ़ा ही. इस साम्राज्यवाद ने चीन को न केवल कई औपनिवेशिक छींटमहलों (इन्क्लेव्स) में बांट दिया, बल्कि पूर्व एशियाई व्यवस्था के केंद्र से चीनी शक्ति को बेदख़ल कर दिया. ज़्यादा सटीक ढंग से कहें तो, चीन उस जापान से पराजित हो गया जिसे वह अपने पड़ोस में स्थित एक परिधीय और अधीनस्थ शक्ति के रूप में हिक़ारत से देखता था. शायद, केंद्रीयता को खो देने की यादों से जुड़ी इस असुरक्षा ने चीनियों के बीच भय और अविश्वास की मानसिकता को जन्म दिया. यह थोड़ा अप्रासंगिक है, लेकिन जहां अमेरिका के लिए, सीमांत का अनुभव आशावाद और जीत पर इतराने, तथा मुक्ति और लोकतंत्र के विजय की कहानी थी, वहीं चीन के लिए यह असुरक्षा और दुर्बलता की ही कहानी ज़्यादा थी. बहरहाल, बहस का बिंदु यह है कि दोनों ही अपने सीमांत अनुभवों का उत्पाद हैं. और इस सीमांत ने, जो युद्ध और हिंसा को समाविष्ट किये हुए था, अनिवार्य रूप से विस्तारवाद और शक्ति की प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया.
चीन उस जापान से पराजित हो गया जिसे वह अपने पड़ोस में स्थित एक परिधीय और अधीनस्थ शक्ति के रूप में हिक़ारत से देखता था. शायद, केंद्रीयता को खो देने की यादों से जुड़ी इस असुरक्षा ने चीनियों के बीच भय और अविश्वास की मानसिकता को जन्म दिया.
अतीत को छोड़ मौजूदा भू-राजनीति पर आएं तो, सीमांत ने चीन और अमेरिका दोनों को प्रभावित करना जारी रखा हुआ है. 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद एक अग्रसक्रिय (प्रोऐक्टिव) चीन देखने को मिला, अमेरिका को अपनी परिधि पर दबदबे से बाहर करने पर उतारू. लिहाज़ा बीजिंग ने ‘पश्चिम की ओर चलो’ नीति बनायी, जो शी जिनिपंग के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) का आधार बनी. राष्ट्रपति ओबामा के शासन के तहत 2011 में बनी अमेरिका की ‘रीबैलेंस टू एशिया’ रणनीति से मुक़ाबले के लिए, चीन ने अपनी ख़ुद की एक धुरी बनायी जिसने उसकी भूराजनीतिक प्राथमिकताओं को पश्चिम की ओर खिसका कर यूरेशिया, दक्षिण और पश्चिम एशिया, और अफ्रीका-लैटिन अमेरिका पहुंचा दिया, और इस तरह, उसने सीमांत की धारणा को पुनर्विन्यासित किया जिसमें न सिर्फ़ पड़ोसी क्षेत्र, बल्कि अमेरिका भी शामिल था. शी जिनपिंग के तहत, दुनिया को रीजन्स (पूर्व एशिया, दक्षिण एशिया, मध्य एशिया, या एशिया-प्रशांत) में बांटने वाले पश्चिमी नज़रिये से हटते हुए परिधीय रणनीति को और बढ़ावा मिला. इसकी जगह दुनिया को तियानक्सिया (एक स्वर्ग के तले सब) के चीनी फ्रेमवर्क में देखा जाने लगा, जहां परिधि को चीनी केंद्रीय राज्य (झोंग गुओ) के लिए एक स्वाभाविक इकाई बनाने के रूप में माना जाता है. सीमांत की इस पुनर्विन्यासित धारणा में, बीआरआई न सिर्फ़ परिधीय नीति को लागू करने का एक रणनीतिक औज़ार है, बल्कि ज़्यादा महत्वपूर्ण ढंग से, इसने चीनी सरज़मीन की हदों से काफ़ी परे के इलाक़ों को अपने दायरे में लिया. परिधि की यह विस्तृत चीनी परिभाषा स्वाभाविक रूप से अमेरिका के सीमांत के विचार, जो उसकी हिंद-प्रशांत रणनीति में रेखांकित है, से प्रतिस्पर्धा करती है.
2017 की अमेरिका की मुक्त एवं खुले हिंद-प्रशांत की रणनीति चीनी आक्रामकता को नियंत्रित करने के लिए एक जैसी सोच वाले राष्ट्रों का नेटवर्क तैयार करने के ज़रिये, एक स्तर पर, चीनी बीआरआई का अमेरिकी जवाब थी. दूसरे स्तर पर, यह लोकतंत्र के सिद्धांतों, मानवाधिकारों, क़ानून के शासन, समुद्रों की स्वतंत्रता में रेखांकित अमेरिकी आदर्शों और मूल्यों के प्रसार के ज़रिये अमेरिकी सीमांत रणनीति को बनाये रखने का द्योतक है. इस तरह सीमांत रणनीति का लक्ष्य अमेरिकी मानदंडों व मूल्यों को क़ायम रखना और इसे शी जिनपिंग के समाजवादी मूल्यों व सामूहिक भावना वाली विश्व दृष्टि के मुक़ाबले बेहतर विज़न के रूप में पेश करना है.
इस तरह, वर्तमान अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता ग्लोबलाइज्ड विश्व व्यवस्था पर दबदबे के लिए शक्ति की प्रतिस्पर्धा भर नहीं है, बल्कि यह दोनों के बीच सीमांतों का संघर्ष ज़्यादा है. दोनों अपने प्रधान मूल्यों का सार्वभौमीकरण करते हुए अन्य को हाशिये पर डालने से प्रेरित हैं. और इस प्रक्रिया में, इस संघर्ष का लक्ष्य सीमांत को नये मर्म के रूप में स्थापित करना है. जैसा फ्रेडरिक टर्नर ने बिल्कुल दुरुस्त कहा था, ‘पश्चिम की ओर बढ़ते हुए, सीमांत और अधिक अमेरिकी होता चला गया.’
वास्तव में, अमेरिका और चीन के बीच सीमांत का संघर्ष अपरिहार्य है. और नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा इस सच्चाई को बस क़रीब लायी है.
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Abanti Bhattacharya is Professor at the Department of East Asian Studies University of Delhi. She teaches courses on Chinese foreign policy Chinese History India-China relations ...
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