Issue BriefsPublished on Jul 15, 2023
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ग्लोबल स्तर पर उभरती आर्थिक चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिए वर्ल्ड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन (WDO) के गठन का प्रस्ताव

वैश्विक अर्थव्यवस्था वर्तमान में लगातार बढ़ने वाले तीन संकटों का सामना कर रही है: पहला, ऋण का भारी बोझ (सरकारी और निजी); दूसरा, बार-बार होने वाली चरम मौसमी घटनाओं और जलवायु परिवर्तन की वजह से सामने आने वाली विभिन्न आपदाएं (जिनके साथ दुनिया अब केवल सामंजस्य स्थापित कर सकती है, उन्हें कम नहीं कर सकती); और कोविड-19 महामारी की वजह से लंबे समय तक बने रहने वाले सार्वजनिक स्वास्थ्य और अर्थव्यस्था से संबंधित दुष्प्रभाव. ये सभी संकट ख़ास तौर पर कम विकसित देशों (LDCs) के लिए आपातकालीन हालात की तरह हो चुके हैं. ऐसे में यह स्पष्ट है कि इन सभी चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिए और इनसे निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर ठोस प्रयास किए जाने की ज़रूरत है. इन चुनौतियों से निपटने के लिए जो प्रायस किए जाने चाहिए, उनके लिए धनराशि की बहुत कमी है, क्योंकि ज़्यादातर विकसित अर्थव्यवस्थाएं हाल के वर्षों में भारी ऋण के बोझ तले दब चुकी हैं. इस पॉलिसी ब्रीफ़ में उन अंतर्राष्ट्रीय स्रोतों पर विस्तार से चर्चा की गई है, जिनका इस्तेमाल ज़रूरी वित्तपोषण और संसाधन जुटाने के लिए एवं समुचित वितरण तंत्र स्थापित करने के लिए किया जा सकता है, जो कि उपरोक्त चुनौतियों से निपटने की कोशिशों को न केवल सुविधाजनक बना सकते हैं, बल्कि मददगार भी साबित हो सकते है.

Attribution:

एट्रीब्यूशन: राघबेंद्र झा, “वैश्विक स्तर पर उभरती आर्थिक चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिए वर्ल्ड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन (WDO) का प्रस्ताव,” T20 पॉलिसी ब्रीफ़, मई 2023.

  1. चुनौती

देखा जाए तो कोविड-19 महामारी संकट की शुरुआत होने से बहुत पहले से ही पूरी दुनिया में ऋण का दबाव (सार्वजनिक और निजी दोनों) बढ़ रहा था. यह आंशिक रूप से वैश्विक वित्तीय संकट (2008-09) से उबरने की कोशिशों का नतीज़ा था, जिसमें बड़े पैमाने पर राजकोषीय और मौद्रिक प्रोत्साहन से जुड़े प्रावधान शामिल थे. फिर भी, इस अवधि के दौरान कम मुद्रास्फ़ीति की प्रतिक्रिया में ब्याज दरें कम थीं और ऋण संभालने योग्य लगते थे. हालांकि, वर्ष 2020 की शुरुआत में कोरोना महामारी की वजह से सार्वजनिक स्वास्थ्य का संकट सामने आया, साथ ही उसी दौरान आर्थिक संकट भी गहराने लगा और ये दोनों संकट एक दूसरे से संबंधित थे. यानी अगर कोरोना महामारी के नियंत्रण के उपाय (उदाहरण के लिए लॉकडाउन) लागू करने पर, उससे आर्थिक संकट बढ़ता और अगर आर्थिक गतिविधियों की अनुमति दी जाती, तो यह व्यापक स्तर पर कोरोना वायरस का संक्रमण फैलाता. [1] दुनिया भर की सरकारों और नीति निर्माताओं ने आंशिक तौर पर या फिर व्यापक पैमाने पर कहीं न कहीं राजकोषीय एवं आर्थिक प्रोत्साहन प्रदान करके इस संकट से उबरने के लिए अपनी तरफ से पूरी कोशिश की. ये वो समय था जब आर्थिक गतिविधियां ठप सी पड़ गई थीं और टैक्स रेवेन्यू यानी कर राजस्व कम होने की वजह से सरकारों द्वारा आर्थिक प्रोत्साहन के लिए जो भी क़दम उठाए गए थे, वे ऋण-वित्तपोषित थे, अर्थात इन प्रोत्साहनों को ऋण लेकर दिया गया था. धीमी आर्थिक गतिविधि का मतलब है कि ब्याज दरें असामान्य रूप से कम रह सकती हैं. महामारी समाप्त होने के साथ ही शुरू किए गए विभिन्न मौद्रिक और राजकोषीय प्रोत्साहनों की वजह से अर्थव्यवस्था में अत्यधिक तरलता पैदा हुई और नतीज़तन मुद्रास्फ़ीति में वृद्धि हुई यानी चीज़ों की क़ीमतों में बढ़ोतरी का दौर शुरू हो गया. वस्तुओं की धीमी आपूर्ति के हालात, प्रमुख तौर पर वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में व्यवधान का नतीज़ा हैं, इसका स्पष्ट मतलब है कि उत्पादन केवल कुछ ही समय तक क़ीमतों में वृद्धि को रोक सकता है. मुद्रास्फ़ीति लक्ष्यीकरण, अर्थात एक ऐसी मौद्रिक नीति है, जिसमें सेंट्रल बैंक मध्यम अवधि की मुद्रास्फ़ीति दर के लिए एक विशिष्ट लक्ष्य निर्धारित करता है और जनता के लिए मुद्रास्फ़ीति के लक्ष्य की घोषणा करता है. इसका मतलब यह हुआ कि ब्याज दरें बढ़ी हैं और अभी भी तेज़ी के साथ बढ़ रही हैं और ऋण संकट गंभीर होता जा रहा है.

विश्व बैंक के ताज़ा आंकड़ों [2] से पता चलता है कि अकेले निम्न और मध्यम आय वाले देशों का बाहरी ऋण वर्ष 2021 के आख़िर में कुल 9 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर पहुंच गया था. बढ़ती ब्याज दरें वैश्विक विकास के लिए ख़तरा बढ़ाने का काम करती हैं और ऋण संकट को प्रेरित करती हैं. लगभग 60 प्रतिशत अत्यंत ग़रीब देश ऋण संकट के उच्च जोख़िम से जूझ रहे हैं या फिर पहले से ही ऋण संकट में हैं. [3] इसलिए इन देशों को अगर कोविड-19 महामारी के कारण उत्पन्न हुई व्यापक चुनौतियों से निपटना है, तो इन्हें तत्काल प्रभाव से ऋण राहत की आवश्यकता है.

वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर जो दूसरी महत्त्वपूर्ण मांग है, वह जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को बेहतर तरीक़े से संबोधित करने की आवश्यकता है. यह पूरी तरह से ज़ाहिर हो चुका है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचना या इन्हें कम करना अब बेहद दुष्कर कार्य है, ऐसे में जलवायु परिवर्तन के साथ सामंजस्य स्थापित करना, या अनुकूलन ही मानवता के लिए एकमात्र व्यावहारिक और वास्तविक विकल्प है. उल्लेखनीय है कि इस प्रकार के अनुकूलन के लिए आने वाले कुछ वर्षों में चरम मौसमी घटनाओं और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के ख़तरनाक दुष्परिणामों के साथ ही जलवायु परिवर्तन के दूसरे विभिन्न प्रभावों के साथ-साथ मिट्टी की उत्पादकता पर पड़ने वाले प्रभावों से निपटने के लिए वित्तीय एवं तकनीक़ी क्षमता हासिल करने हेतु व्यापक मात्रा में धनराशि की ज़रूरत पड़ेगी. ख़तरे की जद में आने वाले अत्यधिक प्रभावित देशों को जलवायु आपातकाल के मुताबिक़ समन्वय स्थापित करने में मदद के लिए हर साल एक बहुत बड़ी धनराशि की आवश्यता होगी. अनुमान के मुताबिक़ इस दशक के आख़िर तक इस वार्षिक धनराशि की ज़रूरत 160 बिलियन अमेरिकी डॉलर और 340 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बीच होगी, जबकि वर्ष 2050 तक 565 बिलियन अमेरिकी डॉलर की ज़रूरत पड़ेगी. [4] समय से साथ-साथ ठोस और समन्वित जलवायु कार्रवाई की तत्काल ज़रूरत बढ़ती जा रही है और इसमें किसी भी तरह की कमी एवं देरी का ख़ामियाजा बढ़ते मानवीय व पर्यावरणीय दुष्प्रभावों के रूप में भुगतना पड़ेगा.

तीसरी अहम बात यह है कि कोविड-19 महामारी ने स्वास्थ्य सुरक्षा से जुड़े मुद्दों से निपटने के लिए एक अलग फंड बनाने की सख़्त ज़रूरत को सामने लाने का काम किया है. [5] ताकि इस फंड से कोविड-19 महामारी के बाद उपजे वर्तमान संकट का समाधान किया जा सके और भविष्य में भी इसी तरह के किसी संकट की परिस्थिति से मुक़ाबला करने के लिए तैयारी की जा सके. [6] उल्लेखनीय है कि ऐसा करने से पूरी दुनिया को अग्रिम कार्रवाई के लिए कमर कसने में मदद मिलेगी. इतना ही नहीं कोविड महामारी की वजह से पैदा हुए हालातों से निजात पाने और भविष्य में इसी तरह की किसी बीमारी के प्रकोप से निपटने की तैयारी हेतु स्वास्थ्य सुरक्षा को समर्पित एक अलग संस्थान बनाने में ज़रूरत सामने आई है. [7]

साफ है कि ये तीनों चुनौतियां हालांकि बेहद गंभीर हैं, इसके साथ ही यह भी स्पष्ट है कि इन चुनौतियों का असर एक तरह का नहीं है और न ही इनका समय भी एक तरह का है. फिलहाल ऋण संकट से जुड़ी चुनौती सबसे महत्त्वपूर्ण है और इसका त्वरित समाधान निकालने की ज़रूरत है. ज़ाहिर है कि भविष्य में एक और एंडेमिक या पैनडेमिक की स्थिति में यह ऋण संकट और गहरा जाएगा और इसके दुष्प्रभाव भी बेहद घातक होंगे. इसके साथ ही ज़्यादातर देशों में जलवायु परिवर्तन की चुनौती जारी है, लेकिन फिलहाल यह मध्यम दर्ज़े की है. जब इन चुनौतियों से निपटने के लिए विभिन्न संसाधनों का उपयोग किया जाता है, उनकी प्रकृति और समय को ध्यान में रखा जाना चाहिए.

  1. G20 की भूमिका

G20 समूह इन प्रमुख चुनौतियों का समाधान तलाशने के लिए एक प्रेरणादायक ताक़त को रूप में अपनी भूमिका निभा सकता है. हालांकि, इसके लिए नीति निर्धारण की प्रक्रिया में कई बातों पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा, लेकिन इसमें सबसे अहम वित्तीय संसाधनों को जुटाना होगा. ये पॉलिसी ब्रीफ़ उपरोक्त दिक़्क़तों को दूर करने में सहायता करने के लिए राजस्व के संभावित स्रोतों पर विस्तृत चर्चा करता है. इतना ही नहीं यह पॉलिसी ब्रीफ़ एक वर्ल्ड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन यानी विश्व विकास संगठन (WDO) की स्थापना की वक़ालत करता है, जो कि धनराशि का इंतज़ाम करने और उसे वितरित करने की दोहरी चुनौतियों का समाधान करेगा. इस पॉलिसी ब्रीफ़ में WDO के ऑपरेशन से संबंधित चुनौतियों का समाधान करने में सहायता करने के लिए कुछ साधनों पर भी चर्चा की गई है.

G20 दुनिया की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का समूह है, इसलिए G20 को इस क्षेत्र में पहल अवश्य करनी चाहिए. यदि G20 इन मुद्दों को संबोधित करने और इनका समाधान तलाशने की ओर अग्रसर होता है, तो निसंदेह यह खुद को दुनिया के सबसे सार्थक और प्रासंगिक अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में से एक के रूप में साबित करेगा.

  1. G20 के लिए सिफ़ारिशें

कई पारंपरिक डोनर देशों में ऋण संकट के मद्देनज़र [8] डेवलपमेंट फाइनेंस यानी वैश्विक स्तर पर ग़रीबी से लड़ने और आय की असमानता को कम करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण साधन के लिए वित्तपोषण हेतु अंतर्राष्ट्रीय (सुपरा-नेशनल, अर्थात एक से अधिक देशों को शामिल करना) स्रोतों की तत्काल ज़रूरत है. कुछ दस्तावज़ों में इस मुद्दे पर चर्चा की गई है [9] और डेवलपमेंट फाइनेंस के कई संभावित अंतर्राष्ट्रीय स्रोतों के बारे में सुझाव दिया गया है. इनमें से हर एक नीतिगत उपाय में कुछ बाहरी अलाभगारी स्थिति को ठीक करने का अतिरिक्त फायदा है. वित्तीय संसाधनों के एक ख़ास समूह का चयन करते वक़्त इन संसाधनों की राजस्व संभावनाओं के साथ-साथ एक्सटर्नल इफेक्ट्स, अर्थात वो लाभ और लागत, जो तब उत्पन्न होते हैं जब एक समूह के लोगों की सामाजिक या आर्थिक गतिविधियों का दूसरे समूह पर प्रभाव पड़ता है और जब पहला समूह अपने प्रभावों का पूरा हिसाब देने में विफल रहता है, पर इस प्रकार के संसाधनों को जुटाने से पड़ने वाले असर को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए. इनमें से 21 उपायों को तालिका 1 में बताया गया है.

तालिका 1: अंतर्राष्ट्रीय विकास के लिए ग्लोबल रेवेन्यू हेतु ताज़ा सुझाव

तालिका 1: अंतर्राष्ट्रीय विकास के लिए ग्लोबल रेवेन्यू हेतु ताज़ा सुझाव

उपाय टिप्पणी
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय लेनदेन के आंशिक या संपूर्ण हिस्से पर टैक्स. इसे अक्सर करेंसी ट्रांजेक्शन टैक्स (CTT) के रूप में जाना जाता है. कुछ मामलों में, बांड टर्नओवर या डेरिवेटिव पर टैक्स जोड़ा जाता है.

अर्थशास्त्री जेम्स टोबिन, जिन्होंने पहली बार इसे प्रस्तावित किया था, उनके

नोबल पुरस्कार जीतने के बाद इसे ‘टोबिन टैक्स’ भी कहा जाता है.

क्रॉस-बॉर्डर कैपिटल टैक्स (1) का एक प्रकार. अतिरिक लाभ: अत्यधिक काल्पनिक पूंजी प्रवाह को कम करना.
जीवाश्म ईंधन पर टैक्स या फिर आम तौर पर कहा जाए कार्बन टैक्स. जीवाश्व ईंधन के उपयोग को हतोत्साहित कर सकता है.
अंतर्राष्ट्रीय हथियार व्यापार पर टैक्स लगाना.

टैक्स लगने से हथियारों की क़ीमत बढ़ेगी, यानी इस टैक्स का असर अंतर्राष्ट्रीय

हथियार व्यापार को हतोत्साहित करने के लिए हो सकता है.

डाक एवं दूरसंचार राजस्व पर सरचार्ज.

नई क़ीमत इन सेवाओं की वास्तविक सामाजिक लागत को बेहतर ढंग

से प्रकट कर सकती है.

विश्व स्तर पर प्रशासित अंतर्राष्ट्रीय लॉटरी, जिसका बिक्री मूल्य अंतर्राष्ट्रीय सहायता के लिए जा रहा है.

पुरस्कार राशि के आकार और लॉटरी की आवृत्ति के आधार पर,

इससे काफी मात्रा में राजस्व जुटाया जा सकता है.

देश के भीतर उच्चतम इनकम टैक्स दायरे पर सरचार्ज.

इससे देशों के भीतर और विभिन्न देशों में असमानताओं को कम

करने में फायदा होगा.

विलासिता की वस्तुओं पर घरेलू टैक्स लगाने पर सरचार्ज.

इससे विलासिता की वस्तुओं के दाम बढ़ाकर राजस्व

बढ़ाया जा सकेगा.

अंतर्राष्ट्रीय सैटेलाइट्स के लिए पार्किंग चार्ज.

इससे वैश्विक सार्वजनिक वस्तु – यानी, आउटर स्पेस के मूल्य

निर्धारण का अतिरिक्त लाभ होगा.

अंतर्राष्ट्रीय समुद्र में खनन किए गए खनिजों पर रॉयल्टी.

इन खनिजों का वर्तमान में अत्यधिक दोहन किया जा रहा है

क्योंकि इनमें “फ्री गुड” की विशेषता है.

अंतर्राष्ट्रीय जल क्षेत्र यानी समुद्र में मछली पकड़ने एवं समुद्री उत्पादों के मूल्य पर शुल्क.

इससे अंतर्राष्ट्रीय जलक्षेत्रों से समुद्री उत्पादों के उठाव को कम

करने का अतिरिक्त लाभ होगा.

अंटार्कटिका की तलाश खोज या फिर दोहन के लिए शुल्क. कथित तौर पर “मुक्त संसाधन” के अत्यधिक दोहन को
कम करेगा.
इलेक्ट्रोमैगनेटिक स्पैक्ट्रम के उपयोग के लिए शुल्क. कथित “मुक्त संसाधन” के अत्यधिक दोहन को कम करेगा.
हवाई ईंधन पर टैक्स. जीवाश्व ईंधन के उपयोग को हतोत्साहित करने में मदद मिल सकती है.
केरोसीन पर टैक्स. इससे जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने में लाभ मिलता है.
अंतर्राष्ट्रीय शिपिंग पर टैक्स या शुल्क और समुद्र में डंपिंग के लिए शुल्क.

इससे शिपिंग मार्ग के उपयोग के मूल्य निर्धारण एवं समुद्री प्रदूषण

को कम करने में मदद मिलेगी.

ट्रेडेड पॉल्यूशन परमिट्स पर टैक्स.

इससे जीवाश्म ईंधन के उपयोग को हतोत्साहित करने में मदद

मिलती है.

एक वैश्विक एजेंसी को स्वैच्छिक करों का भुगतान. यह लोगों को निस्वार्थ और परोकपकारी उद्देश्य के लिए प्रेरित करेगा.
IMF से स्पेशल ड्राविंग राइट्स यानी विशेष आहरण अधिकार (SDR) के ताज़ा स्टॉक को बड़े पैमाने पर LDCs को वितरित किया गया. इसे कम विकसित देशों यानी LDCs के पास तरल पूंजी के संसाधन बढ़ेंगे.
IMF के सोने के स्टॉक के एक हिस्से की बिक्री, इससे होने वाली आय को LDCs को दिया जाए. इससे कम विकसित देशों के पास तरल पूंजी के संसाधनों में वृद्धि होगी.
इंटरनेट, सोशल मीडिया के उपयोग और संचार के कुछ अन्य माध्यमों पर टैक्स.

इससे पर्याप्त मात्रा में संसाधन जुटेंगे, क्योंकि इनका व्यापक स्तर

पर उपयोग किया जाता है.

स्रोत: लेखक का संकलन झा (2004) और अन्य स्रोतों पर आधारित है.

राजस्व के इन संभावित स्रोतों बारे में पूरा और विस्तृति विवरण एटकिंसन (2004) और झा (2004) में उपलब्ध है. यह पॉलिसी ब्रीफ़ इनमें से राजस्व एकत्र करने वाले आय के दो स्रोतों की संभावनाओं को लेकर संक्षेप में चर्चा करता है और उनके बारे में अपडेट उपलब्ध कराता है. राशि जुटाने के यह दो संभावित स्रोत हैं करेंसी ट्रांजेक्शन टैक्स और ग्लोबल कार्बन टैक्स. हालांकि देखा जाए तो उपरोक्त सभी नीतिगत उपायों को अमल में लाया जा सकता है, लेकिन इनमें से करेंसी ट्रांजेक्शन टैक्स और ग्लोबल कार्बन टैक्स शायद राजस्व की संभावनाओं के साथ ही ख़राब बाहरी परिस्थितियों को सुधारने के लिहाज़ से ज़्यादा भरोसेमंद हैं. इन कर उपायों को अमली जामा पहनाने में सबसे बड़ा व्यवधान कई देशों की कुछ टैक्सेशन अथॉरिटी को एक सुपरा-नेशनल बॉडी को सौंपने के लिए रज़ामंद नहीं होना है. वैश्विक अर्थव्यवस्था के समक्ष मंडरा रही गंभीर समस्याओं के मद्देनज़र यह G20 देशों पर निर्भर है कि वे दूरदर्शी नीतियों की शुरुआत करें, जो कि पूरे विश्व के कल्याण से जुड़े सरोकारों को पूरा करने का काम करेंगी.

करेंसी ट्रैंजेक्शन टैक्स (CTT) या टोबिन टैक्स विदेशी मुद्रा के सभी लेनदेन पर और अन्य परिसंपत्तियों जैसे डेरिवेटिव और टी-बिलों (T-bills) पर लगाया जाना चाहिए. ईयू के एक दस्तावेज़ [10] का अनुमान है कि केवल 0.1 प्रतिशत के CTT से प्रति वर्ष रेवेन्यू में 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक एकत्र होगा. ऐसा तब भी होगा, जब यह मान लिया जाए कि वर्तमान विदेशी मुद्रा लेनदेन की संख्या आधी हो गई है, 20 प्रतिशत छूट दी गई और अन्य 20 प्रतिशत टैक्स की चोरी की गई. इतना सब होने के बाद भी CTT से जो राशि एकत्र होगी, वह संयुक्त राष्ट्र (UN) और उसकी एजेंसियों द्वारा दुनिया भर में स्थिरीकरण के कार्यक्रमों, विकास और मानवीय सहायता, शांति स्थापित करने के ऑपरेशन्स और अन्य गतिविधियों पर ख़र्च की गई कुल धनराशि के दोगुने से भी अधिक होगी. [11] अर्थशास्त्री जेम्स टोबिन ने जब बुनियादी तौर पर CTT का प्रस्ताव रखा था, तो उनकी दिलचस्पी मुख्य रूप से वित्तीय बाज़ारों में अस्थिरता को कम करने में थी. उनका विचार था, “थ्रोइंग सैंड इन दि व्हील्स ऑफ फाइनेंस” अर्थात वित्तीय बाज़ारों को धीमा करने और उन्हें आर्थिक बुनियादी सिद्धांतों के अधिक करीब लाना, ताकि वास्तविक दुनिया में इस वित्तीय अस्थिरता के प्रभाव को कम किया जा सके. [12] वर्तमान संदर्भ में देखा जाए, तो इसमें डेवलपमेंट फाइनेंस का एक प्रमुख स्रोत बनने का सामर्थ्य है. इस दस्तावेज़ में CTT की विशेषताओं और कमियों के बारे में व्यापक तौर पर समीक्षा की गई है. ऐसा दिख रहा है कि CTT को नोबेल पुरस्कार विजेताओं समेत कई प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों से व्यापक समर्थन मिल रहा है. [13] हालांकि इसका नकारात्मक पक्ष यह है कि CTT वित्तीय बाज़ारों के लिए नुक़सानदेह साबित होगा. हालांकि, यह ज़रूर है कि राजस्व बढ़ाने और वित्तीय बाज़ारों में अत्यधिक अटकलबाज़ी को कम करने के लिहाज़ से इस टैक्स का लाभ होगा. [14]

इसमें कोई संदेह नहीं है कि कार्बन उत्सर्जन ने पहले से ही पूरी दुनिया में जलवायु आपातकाल जैसे हालात पैदा कर दिए हैं. वैश्विक अर्थव्यवस्था को उच्च तापमान और इससे संबंधित समस्याओं की ओर बढ़ने से रोकने के लिए, एक साधन के तौर पर कार्बन टैक्सेशन को अब कई देशों द्वारा अपनाया गया है. कार्बन टैक्स के दो स्वरूपों पर चर्चा की गई है. [15] एक तथाकथित इमिशन ट्रेडिंग स्कीम यानी उत्सर्जन व्यापार योजना (ETS) है. यह योजना ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन के कुल स्तर को सीमित करती है और कम उत्सर्जन वाले उद्योगों को अपने अतिरिक्त लाभ को बड़े उत्सर्जकों को बेचने की अनुमति देती है. ETS उत्सर्जन लाभ के लिए आपूर्ति और मांग पैदा कर, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए मार्केट वैल्यू स्थापित करती है. दूसरा विकल्प ग्लोबल कार्बन टैक्स है, जिसके अंतर्गत कार्बन की क़ीमत सीधे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन या जीवाश्म ईंधन के कार्बन कंटेंट पर निर्धारित की जाती है. यह ETS से अलग है क्योंकि कार्बन टैक्स के साथ उत्सर्जन में कमी पूर्व निर्धारित नहीं होती है, जबकि ETS के मामले में उत्सर्जन की कमी पूर्व निर्धारित होती है. कोई भी देश अपनी परिस्थितियों के मुताबिक़ इनमें  से किसी भी एक विकल्प को चुन सकता है. अंतर्राष्ट्रीय सहायता के लिए धनराशि केवल ग्लोबल कार्बन टैक्स से ही एकत्र की जा सकती है. वर्ष 2030 तक वैश्विक स्तर पर कुल 436 बिलियन अमेरिकी डॉलर कार्बन टैक्स राशि एकत्र होने का अनुमान है. [16] इसमें से कुछ धनराशि का इस्तेमाल कम विकसति देशों (LDCs) को अंतर्राष्ट्रीय सहायता देने के लिए किया जा सकता है.

विश्व की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं होने के चलते G20 देशों की कम विकसित देशों को इस प्रकार की अंतर्राष्ट्रीय मदद उपलब्ध कराने में अहम भूमिका हो सकती है. इस पॉलिसी ब्रीफ़ में प्रस्ताव किया गया है कि G20 के सदस्य देश एक वैश्विक विकास संगठन (WDO) की स्थापना को लेकर पारस्परिक सहमति बनाएं, जिसका प्रमुख मकसद इस लेख में ऊपर सूचीबद्ध किए गए स्रोतों में एक या अधिक स्रोतों (और इस पॉलिसी ब्रीफ़ में सूचीबद्ध नहीं किए गए अन्य स्रोतों) के माध्यम से रकम एकत्र करनी होगी. ज़ाहिर है कि इस पूरी क़वायद का स्पष्ट उद्देश्य LDCs को उनके समक्ष आने वाली तीन महत्त्वपूर्ण चुनौतियों से निपटने में सहायता के लिए धनराशि उपलब्ध कराना है. WDO की स्थापना के लिए कई बिल्डिंग ब्लॉक पर सहमति की आवश्यकता होगी: (i) WDO के अंतर्गत जी-20 सदस्य देशों द्वारा वेटिंग/निर्णय लेने के लिए एक तंत्र पर माथापच्ची करनी होगी; (ii) LDCs के बीच धनराशि के वितरण के बारे में फॉर्मूला विकसति करना होगा; (iii) इस सहायता को टाइड एड और अनटाइड एड के बीच विभाजित करने पर सहमति बनाने की ज़रूरत होगी. टाइड एड से तात्पर्य है कि इसके तहत जो धनराशि दी जाती है, उससे वस्तुएं एवं सेवाएं केवल डोनर देशों से या फिर सीमित देशों से ही ख़रीदी जा सकती हैं, जबकि अनटाइड एड से तात्पर्य है कि इसके तहत दी जाने वाली धनराशि से सभी देशों से वस्तुएं एवं सेवाएं ख़रीदी जा सकती हैं.; और (iv) कम विकसित देशों को जो इतनी व्यापक मदद दी जाएगी, उसके कुछ प्रतिकूल प्रभावों से बचाव के लिए भी इंतज़ाम किए जाने की ज़रूरत होगी.

हालांकि, इससे एक सवाल उठना लाज़िमी है कि इन स्रोतों के माध्यम से जो भी आमदनी होगी, उसे विश्व बैंक या फिर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के ज़रिए वितरित क्यों नहीं किया जा सकता है और इस कार्य के लिए एक नई संस्था बनाने की आवश्यकता क्यों है. ज़ाहिर है कि वर्ल्ड बैंक और IMF के कामकाज का संचालन लगभग सभी देशों द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता है और अच्छी तरह से परिभाषित प्रक्रियाओं के माध्यम से किया जाता है. उन देशों की हिस्सेदारी और वोटिंग का तरीक़ा पहले से निर्धारित हैं, साथ ही इसको लेकर समय-समय पर समीक्षा भी की जाती है. दूसरी तरफ, WDO का संचालन भागीदार देशों द्वारा किया जाएगा और उनकी भागीदारी किस प्रकार की होगी, इसके तौर-तरीक़ों को स्पष्ट करने की आवश्यकता है. अन्य बातों के अलावा, वर्ल्ड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन के भीतर मतदान के तरीक़े एवं जुटाई गई सहायता राशि के वितरण का निर्धारण भी शामिल होगा. इस संगठन के कुशलतापूर्व संचालन को कम से कम अफ़सरशाही, अर्थात अधिकारियों के कम से कम दख़ल के साथ किया जाना चाहिए. कुल मिलाकर देखा जाए, तो कम से कम दो चीज़े तो बेहद ज़रूरी होंगी, पहला WDO में निर्णय लेने के लिए मतदान का एक तंत्र और दूसरा, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर टैक्स लगाने के पश्चात जो धनराशि एकत्र होगी उसे वितरित करने के तरीक़े का निर्धारण.

जहां तक वोट की बात है, इसका अधिकार किसी भी देश के लिए WDO के ऑपरेशन्स को प्रभावित करने की उसकी ताक़त को निर्धारित करने वाला होगा. WDO में योगदान देने वाले G20 देशों के बीच वोटिंग होगी. [17] वोटिंग के अधिकार और उसकी अहमियत को लेकर निम्नलिखित तरीक़े हो सकते हैं: (i) WDO में हुए कुल योगदान के किसी देश द्वारा किए गए योगदान की राशि; (ii) देश के आकार की गणना यानी देश की GDPPPP (PPP की परिभाषा में GDP) या फिर जनसंख्या का पैमाना; और (iii) बेहतर ढंग से किए जा रहे व्यापक आर्थिक प्रबंधन का पैमाना. फर्ज़ कीजिए कि WDO के भीतर कुल वोट 10,000 हैं, तो हम इन वोटों को G20 सदस्य देशों के बीच निम्न तरीक़े से बांटा जा सका है:

किसी विशेष साल के लिए इस इंडेक्स को पांच वर्ष के व्यापक आर्थिक प्रदर्शन के औसत के रूप में परिभाषित किया गया है, इसमें शामिल है: (a) GDP के प्रतिशत के रूप में सरकारी घाटा; (b) GDP के प्रतिशत के रूप में चालू खाता (अधिशेष या घाटा); (c) मुद्रास्फ़ीति; और (d) प्रति व्यक्ति वास्तविक GDP की वृद्धि दर. राजकोषीय घाटा, चालू खाता घाटा और मुद्रास्फ़ीति अवांछनीय हैं और प्रत्येक के लिए एक समान नकारात्मक मूल्य हो सकता है. वास्तविक प्रति व्यक्ति GDP की वृद्धि वांछनीय है और इसे सरकारी घाटे, मुद्रास्फ़ीति एवं चालू खाता घाटे पर प्रभाव के योग के बराबर सकारात्मक महत्व दिया जा सकता है. प्रत्येक पॉजिटिव फ्रैक्शन्स का महत्व है, उनका योग एक के बराबर है और मिसाल के तौर पर α1>α2>α3> है. एक बार जब WDO की स्थापना हो जाए, तो उसके बाद इसके ऑपरेशन्स का विस्तृत ब्योरा तैयार किया जा सकता है. [18]

कम विकसित देशों के बीच सहायता का वितरण एक फार्मूले के मुताबिक़ हो सकता है, जो विशेष LDC को दिए गए प्वाइंट्स को निर्धारित करता है.

सहायता का बंटवारा:

तीसरा अहम विचार-विमर्श WDO से मिलने वाली बंधी हुई और मुक्त सहायता का मिश्रण है. ज़्यादातर टिप्पणीकारों ने अनटाइड यानी मुक्त सहायता को बेहतर माना है. [19] चाहे कुछ भी हो, लेकिन यह सच है कि आमदनी का स्रोत अंतर्राष्ट्रीय होगा और सहायता की ऐसी धनराशि को बांध कर रखना गंभीर विवाद का मुद्दा नहीं होगा. फिर भी, सहायता के कुछ हिस्से पर बंधन लगाने पर विचार किया जाना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सकते कि कम विकसित देश इन फंड्स को बड़े पैमाने पर ऊपर उल्लेख किए गए तीन प्रमुख क्षेत्रों पर ख़र्च करें, यानी, (i) ऋण की अदायगी और कर्ज़ का पुनर्गठन; (ii) जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और इसके कम करने संबंधी नीतियां; एवं (iii) वर्तमान व भविष्य की महामारियों का मुक़ाबला करने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर पुख्ता तैयारी.

आख़िरी बात, जिस पर ध्यान देने की ज़रूत है, वो यह है कि कम विकसित देशों को इतनी बड़ी मात्रा में धनरशि दिए जाने से विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर ‘डच डिसीज’ प्रभाव पड़ सकता है, अर्थात अर्थव्यवस्था के एक क्षेत्र (विशेष रूप से प्राकृतिक संसाधन) के तेज़ी से विकास की वजह से अन्य क्षेत्रों में गिरावट हो सकती है, नतीज़तन कम विकसित देशों की मुद्राओं में तीव्र बढ़ोतरी हो सकती है. इसके फलस्वरूप इन देशों के निर्यात, ख़ास तौर पर मैन्युफैक्चरिंग एक्सपोर्ट में गिरावट लगभग अवश्यंभावी है, यानि कि इसे टाला नहीं जा सकता है. [20] नतीज़तन इन देशों में चिंताजनक स्थिति तक औद्योगीकरण में कमी दिखाई दे सकती है. इसलिए, इन सभी दुष्प्रभावों को दूर करने के लिए सुधारात्मक कार्रवाई की ज़रूरत होगी. कुछ अर्थशास्त्रियों ने इन फंड्स को विदेशों में सुरक्षित फाइनेंशियल सेंटर्स में रखे जाने और उन्हें धीरे-धीरे वितरित किए जाने की बात कही है, [21] ताकि डच डिसीज़ के प्रभावों के साथ ही काफ़ी विचार-विमर्श के बाद बनाई गई इन वित्तीय नीतियों को संतुलित किया जा सके.

G20 समूह के वर्तमान अध्यक्ष के रूप में भारत, GDPPPP, व्यापक आर्थिक स्थिरता एवं और आर्थिक प्रगति के तीन क्षेत्रों के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में अपने प्रभावशाली प्रदर्शन की वजह से इस मामले में नेतृत्व करने के लिए अच्छी तरह से तैयार है. [22] प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कई मौक़ों पर G20 को ग्लोबल साउथ की तरफ फिर से मोड़ने की ज़रूरत पर बल दिया है. [23]


एट्रीब्यूशन: राघबेंद्र झा, “वैश्विक स्तर पर उभरती आर्थिक चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिए वर्ल्ड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन (WDO) का प्रस्ताव,” T20 पॉलिसी ब्रीफ़, मई 2023.


(लेखक की टिप्पणी: मैं इस ब्रीफ़ के शुरुआती ड्राफ्ट पर उपयोगी कमेंट्स के लिए दो गुमनाम समीक्षकों का आभारी हूं.)

Endnotes:-

[1] Raghbendra Jha, Macroeconomics for Development: Prognosis and Prospects, (Cheltenham and Nottingham: Edward Elgar, 2023), 124-141.

[2] World Bank, “International Debt Report 2022,” accessed March 16, 2023.

[3] World Bank, “International Debt Report 2022”

[4] United Nations, “More funding needed for climate adaptation, as risks mount,” November 3, 2022.

[5] National Library of Medicine, “New Funds proposed to prevent pandemics,” July 16, 2020.

[6] Council on Foreign Relations, “1899-2023 Major Epidemics of the Modern Era,” accessed March 20, 2023.

[7] Garrett Wallace Brown et al., “Global Health Financing after COVID-19 and the new Pandemic Fund,” December 7, 2022.

[8] Trading Economics, “United States Gross Federal Debt to GDP,” March 17, 2023.

[9] Raghbendra Jha, “Innovative Sources of Development Finance: Global Cooperation in the 21st Century,”  World Economy, 27, no.2 (February 2004): 193-214; Anthony, Atkinson, ed., New Sources of Development Finance. New York: Oxford University Press. 2004.

[10] European Parliament, “The Feasibility of an International ‘Tobin Tax’,” March 1999.

[11] Jha, “Innovative Sources of Development Finance: Global Cooperation in the 21st Century”

[12] Barry Eichengreen, James Tobin and Charles Wyplosz, “Two Cases for Sand in the Wheels of International Finance”. Economic Journal, 105, no.428 (January 1995):162-172.

[13] Paul Krugman, “Taxing the Speculators,” New York Times, November 27, 2009.

[14] Amy Youngblood Avitable, “Saving the World One Currency at a Time: Implementing the Tobin Tax,” Washington University Law Quarterly Review, 80, no.1, (January 2002): 391-417.

[15] World Bank, “Carbon Pricing,” accessed May 9, 2023.

[16] Shinichiro Fujimori, Tomoko Hasegawa and Ken Oshiro, “An assessment of the potential of using carbon tax revenue to tackle poverty,” Environmental Research Letters, 15, no. 114063, (Spring 2020): 1-8, DOI 10.1088/1748-9326/abb55d

[17] The following discussion follows some results in Raghbendra Jha (2004).

[18] The voting structure within the WDO would appear similar to those in the World Bank and IMF with one crucial difference- the World Bank and IMF are funded from contributions of member states, whereas revenue collected for the WDO would come from international activity and the voting formula should reflect the geographical origins of such resources.  See: Raghbendra Jha and Mridul Saggar, “Towards a More Rational IMF Quota Structure Suggestions for the Creation of a New International Financial Architecture,” Development and Change, 31 no.3, (December 2002): 579-604.

[19] Arthur Johnson, Hirushi Muthukumarana and Anuk Kariyawasam, “Tied vs. Untied Aid: What is the best for of Foreign aid?” October 1, 2022.

[20] James Chen, “What is the Dutch Disease? Origins of Term and Examples,” October 31, 2021.

[21] Joseph Stiglitz, “We can now cure Dutch Disease,” Guardian, August 18, 2004.

[22] Australian Government Department of Foreign Affairs and Trade, “The G-20,” accessed 21 March 2023.

[23] Sanjaya Baru, “India Can Still be a Bridge to the Global South,” accessed 21 March 2023, As G-20 President, India Can Still Be a Bridge to the Global South (foreignpolicy.com).

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