Author : Naghma Sahar

Published on Sep 04, 2018 Commentaries 7 Days ago

सच ये है की एक तरफ ये गिरफ्तारियां कमज़ोर होती सिविल लिबर्टी और मौलिक अधिकारों की मिसाल है, आज़ाद आवाज़ के दमन की कोशिश है, तो सच ये भी है की नक्सल्वाद अपराध है, नक्सली हिंसा भी हिंसा है।

#अर्बननक्सल से ‘मी टू अर्बन नक्सल’: विचारधाराओं के टकराव के बीच नक्सली हिंसा

अर्बन नक्सल से लेकर मी टू अर्बन नक्सल के बीच छुपी है नक्सल्वाद की समस्या। पिछले दिनों ये दोनों हैशटैग ट्विटर पर ट्रेंड कर रहे थे। पहले अर्बन नक्सल जिसकी खोज का श्रेय बीजेपी की विचारधारा से प्रभावित फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री को जाता है, जिनकी किताब ने इस शब्द को लोकप्रिय बोलचाल की भाषा में समाहित कर दिया। जब कोरेगांव भीमा में इसी साल की शुरुआत में हुई हिंसा को भड़काने के आरोप में कुछ ही दिनों पहले सिविल सोसाइटी के पांच गणमान्य लोगों की गिरफ़्तारी हुई तो देश भर से सोशल मीडिया पर इसकी कड़ी निंदा हुई। किसी ने इसे अघोषित इमरजेंसी बताया, पत्रकार शेखर गुप्ता ने ट्वीट कर इन गिरफ्तारियों की तुलना अमेरिकी सांसद Mc Carthy की नीतियों से की। सीनेटर John Mc Carthy ने अमेरिका में कम्युनिज्म का डर दिखा कर लोगों में आतंक का माहौल खड़ा किया था।

इसी दौरान विवेक अग्निहोत्री ने ट्विटर पर एक ऐसी लिस्ट तैयार करने की पेशकश की जिसमें शहरी माओवादियों की पहचान की जाए, यानी जो माओवाद का दिमाग हैं, जो शहरों में रहकर माओवाद और उस से जुडी हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं उनकी लिस्ट बनाई जाए। उसके जवाब में शुरू हुआ मी टू अर्बन नक्सल। इसके जवाब में सैकड़ों लोगों ने खुद को अर्बन नक्सल बताया।। ये एक प्रतिक्रिया थी, जो सोशल मीडिया का चरित्र है, फौरी और जज्बाती प्रतिक्रिया। बहरहाल सच इन दोनों के बीच ही है।

सच ये है की एक तरफ ये गिरफ्तारियां कमज़ोर होती सिविल लिबर्टी और मौलिक अधिकारों की मिसाल है, आज़ाद आवाज़ के दमन की कोशिश है, तो सच ये भी है की नक्सल्वाद अपराध है, नक्सली हिंसा भी हिंसा है। अगर राज्य के खिलाफ सशस्त्र हिंसा होती है, तो सरकार को संविधान और कानून के तहत उस पर कार्यवाई का अधिकार है।

लेकिन जो मौजूदा गिरफ्तारियां हुई हैं, जिस कानून के तहत हुई हैं,जिन लोगों की हुई हैं आक्रोश की वजह वो है।

ये एक प्रतिक्रिया थी, जो सोशल मीडिया का चरित्र है, फौरी और जज्बाती प्रतिक्रिया। बहरहाल सच इन दोनों के बीच ही है।

गिरफ्तार हुए लोगों में हैं सुधा भरद्वाज, एक वकील के साथ साथ बहुत ही प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो दशकों से छत्तीसगढ़ में भूमिहीन आदिवासियों की आवाज़ बनी हुई हैं। सुधा भरद्वाज PUCL की अध्यक्ष रहीं हैं और 2015 में बस्तर मे सुरक्षा बलों पर हुए हमले की कड़े शब्दों में निंदा की।इस हमले में STF के 7 जवान, 1 BSF जवान और CAF के 6 जवान मारे गए थे। पत्रकार और हेल्लो बस्तर के लेखक राहुल पंडिता ने ट्वीट कर कहा, “ये पागलपन है। सुधा भारद्वाज का माओवादियों से कोई लेना-देना नहीं है। वो एक कार्यकर्ता हैं और मैं उनके काम को सालों से जानता हूँ और आभारी रहा हूँ।” एक अन्य ट्वीट में राहुल पंडिता ने लिखा, “अगर आपको माओवादियों के पीछे जाना है तो जाइए, लेकिन जो आपसे सहमत नहीं उनको गिरफ़्तार करना मत शुरू कर दीजिए। ये मानना मूर्खता होगी कि सुधा भारद्वाज जैसा कोई पीएम मोदी की हत्या की साज़िश में शामिल होगा।”

सुधा भरद्वाज के अलावा गौतम नौलखा, वामपंथी विचारक और कवी वारावर राव, अरुण फरेरा और वेर्नौन गोंसाल्वेस। फरेरा को पहले 2007 में कांग्रेस सरकार ने भी गिरफ्तार किया था। लेकिन फिर फरेरा पर लगाये कोई भी आरोप साबित नहीं हो पाए और ५ साल जेल में बिताने के बाद उनकी रिहाई हुई। गोंसाल्वेस भी मुंबई के HR कॉलेज में पढ़ाते थे लेकिन 2007 में उन्हें एक टॉप नक्सली होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया।

बड़ा सवाल यही है। नक्सल्वाद एक गंभीर समस्या है जिसे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आतंरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी समस्या बताया था। इस के खिलाफ कार्यवाई निहित है लेकिन क्या विचारधारा में असहमति कार्यवाई की वजह बन सकती है?

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस पीबी सावंत ने इन ताज़ा गिरफ़्तारियों को “राज्य का आतंक” और “भयानक आपातकाल” बताया है। जस्टिस सावंत भीमा कोरगांव में हुई उस एल्गार परिषद् के आयोजक थे जिस पर आज यलगार छिड़ा है। वो कहते हैं, “ग़रीबों के पक्ष में और सरकार के विरोध में लिखना आपको नक्सल नहीं बना देता। ग़रीबों के पक्ष में लिखने पर गिरफ़्तारी संविधान और संवैधानिक अधिकारों की अवहेलना है।” जस्टिस सावंत ने टीवी इंटरव्यू में ये कहा कि गिरफ्तार किये गए लोगों में कोई भीमा कोरेगांव में हुई एल्गार परिषद् में मौजूद नहीं था।

नक्सल्वाद एक गंभीर समस्या है जिसे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आतंरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी समस्या बताया था। इस के खिलाफ कार्यवाई निहित है लेकिन क्या विचारधारा में असहमति कार्यवाई की वजह बन सकती है?

इतिहासकार राम्व्हान्द्र गुहा कहता हैं कि गिरफ्तार किये गए लोग वो हैं जो गरीबों और अधिकारविहीन लोगों के लिए आवाज़ उठा रहे थे। लगता है सरकार नहीं चाहती की ऐसे लोगों का प्रतिनिधित्व हो। गुहा ये भी जोड़ते हैं की ये सब तब शुरू हुआ था जब चिदंबरम गृह मंत्री थे, कार्यकर्ताओं को तंग करना शुरू किया गया था, इस सरकार ने उसे आगे बढाया है। रामचंद्र गुहा की इस बात से ज़रूरी है की ये विस्तार से जाना जाये कि पिछली UPA सरकार के दौरान नाक्साल्वाद के खिलाफ क्या कार्यवाई की गयी।

नक्सली हिंसा के विरुद्ध कांग्रेस की कार्यवाई

याद रहे कि माओवाद के खिलाफ ऑपरेशन ग्रीन हंट की शुरुआत कांग्रेस ने की। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माना था कि नक्सल्वाद देश का सबसे बड़ा आंतरिक खतरा है। सरकार ने नक्सल विरोधी आतंक को ऑपरेशन ग्रीन हंट नाम नहीं दिया लेकिन मीडिया में इसी नाम से इस कार्यवाई को जाना गया जो CRPF ने अक्टूबर 2009 में शुरू की। छत्तीसगढ़ पुलिस और COBRA फ़ोर्स ने दंतेवाडा के माओवादियों के खिलाफ मिल कर साझा अभियान चलाया था। ये ऑपरेशन तीन दिन चला था। नवम्बर 2009 में ये ऑपरेशन अपने पहले फेज़ में गढ़चिरोली में चलाया गया। रिपोर्ट्स के मुताबिक भारत सरकार 80,000 पैरामिलिटरी फ़ोर्स को माओवादियों के खिलाफ अभियान में लगाने को तैनात थी। इसनें वायुसेना के १० हथियारबंद हेलीकाप्टर भी शामिल थे।

माओवादियों ने सत्तर के दशक की शुरुआत में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी क़स्बे से मज़दूर, किसानों और भूमिहीनों के अधिकार और सामंतवादियों के ख़िलाफ़ ‘संघर्ष’ शुरू किया था। फिर जो कुछ हुआ वो इतिहास के पन्नों में दर्ज होता चला गया।

सत्तर के ही शुरुआत में ही पश्चिम बंगाल में सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए अप्रत्याशित तरीके से बल का प्रयोग किया, जिसमें कई लोग मारे गए थे।

आंध्र प्रदेश में CPI ML (पीपुल्स वॉर ग्रुप)ने संघर्ष शुरू किया। तब अविभाजित बिहार में CPI ML और MCC के अलावा कई संगठन सक्रिय थे। CPI ML (पीपल्स वॉर ग्रुप) और बिहार में CPI ML (पार्टी यूनिटी) का विलय हो गया। फिर MCC और PWG का भी विलय हुआ और एक नए संगठन- भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का गठन हुआ जिसके बाद राज्य और माओवादियों के बीच संघर्ष पहले से भी ज़्यादा बड़ा हो गया।

सरकार ने नक्सल विरोधी आतंक को ऑपरेशन ग्रीन हंट नाम नहीं दिया लेकिन मीडिया में इसी नाम से इस कार्यवाई को जाना गया जो CRPF ने अक्टूबर 2009 में शुरू की। छत्तीसगढ़ पुलिस और COBRA फ़ोर्स ने दंतेवाडा के माओवादियों के खिलाफ मिल कर साझा अभियान चलाया था। ये ऑपरेशन तीन दिन चला था। नवम्बर 2009 में ये ऑपरेशन अपने पहले फेज़ में गढ़चिरोली में चलाया गया। रिपोर्ट्स के मुताबिक भारत सरकार 80,000 पैरामिलिटरी फ़ोर्स को माओवादियों के खिलाफ अभियान में लगाने को तैनात थी। इसनें वायुसेना के १० हथियारबंद हेलीकाप्टर भी शामिल थे।

छत्तीसगढ़ कांग्रेस के कद्दावर नेता महेंद्र कर्मा ने इसी दौरान बस्तर के इलाक़े में माओवादियों के ख़िलाफ़ ‘सलवा जुडूम’ नाम से अभियान शुरू किया।

कांग्रेस के ख़िलाफ़ माओवादियों का सबसे बड़ा हमला छत्तीसगढ़ के बस्तर की जीरम घाटी में हुआ जिसमें भारत के गृह मंत्री रह चुके विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा के सहित 30 नेताओं की मौत हुई। UPA सरकार ने 128 ऐसी संस्थाओं की लिस्ट बनायीं जिस के माओवाद से सम्बन्ध थे।

क्योंकि केंद्र में ज़्यादातर कांग्रेस की सरकारें रही हैं इसलिए माओवादियों के लिए कांग्रेस बड़ी दुश्मन बनी रही। UPA सरकार ने 22 जून 2009 में CPI माओवादी पर UAPA के तहत प्रतिबन्ध लगा दिया । इस प्रतिबन्ध के बाद से माओवादी UAPA के तहत गिरफ्तार किये जा सकते हैं।

नक्सली हिंसा और सरकार की कार्यवाई

1 जून 2014 को गृह मंत्रालय ने छत्तीसगढ़ में माओवाद के खिलाफ कार्यवाई के लिए मंज़ूरी दी जिसके तहत पैरामिलिटरी सेना के 10,000 सैनिक यहाँ तैनात किये गए।

गृह मंत्रालय के मुताबिक साल 2009 से 6,656 आम नागरिक और 2,517 सुरक्षाकर्मी कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी की हिंसा में मारे गए हैं। और अगर दो दशक के आंकड़े देखे जाएँ तो गृह मंत्रालय के मुताबिक 12,000 लगों की जान माओवादी हिंसा में गयी है, जिसमें 2,700 सुरक्षाकर्मी शामिल हैं।

हाल के सालों में हुए बड़े नक्सली हमले में 24 अप्रैल 2017 का सुकमा हमला है।छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले में माओवादियों के हमले में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) के 26 जवान मारे गए हैं। इस से पहले 11 मार्च को सुकमा जिले में ही माओवादियों के साथ मुठभेड़ में CRPF के 11 जवान मारे गए थे।

इस बार आक्रोश इस बात पर है कि कार्यवाई जिन पर हुई वो कौन लोग हैं। जो इन गिरफ्तारियों का समर्थन कर रहे हैं उनका कहना है: “इन बुद्धिजीवियों की मदद करने के लिए क़ानूनवेत्ता आएंगे और अदालत में जिरह करेंगे।”

2013 में दंतेवाडा में एक बड़ा नक्सली हमला हुआ। 25 मई को छत्तीसगढ़ की दरभा घाटी में माओवादियों के हमले में आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा, कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल समेत 30 लोगों को मौत हो गई थी।

दंतेवाडा में ही साल 2010 में माओवादियों ने अब तक के अपने सबसे बड़े हमले में CRPF की 62वीं बटालियन और छत्तीसगढ़ पुलिस के जवानों की टुकड़ी पर हमला किया।इस हमले में 75 CRPF जवान मारे गए थे। दंतेवाड़ा में 17 मई 2010 को दंतेवाड़ा से सुकमा जा रहे सुरक्षाबल के जवानों पर माओवादियों ने बारूदी सुरंग लगा कर हमला किया था।इस हमले में सुरक्षाबल के 36 लोग मारे गए थे।

नक्सल्वाद का खतरा बड़ा है और कार्यवाई होनी चाहिए इस से कोई इंकार नहीं। इस बार आक्रोश इस बात पर है कि कार्यवाई जिन पर हुई वो कौन लोग हैं। जो इन गिरफ्तारियों का समर्थन कर रहे हैं उनका कहना है: “इन बुद्धिजीवियों की मदद करने के लिए क़ानूनवेत्ता आएंगे और अदालत में जिरह करेंगे।” सरकार की एजेंसियों से प्रमाण मांगेंगे। अगर उनके (एजेंसियों के) पास प्रमाण नहीं होगा तो अदालत उन्हें मुक्त कर देगी। लेकिन अब बाद में ये रिहा भी होंगे तो भी ये सच है की जिस UAPA के तहत उन्हें गिरफ्तार किया गया है वो कानून एक सख्त आतंक विरोधी कानून है, Unlawful Activities Prevention Act जो 1967 में बना था। इसी के तहत इसी साल जून में भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के आरोप में ही ५ दुसरे दलित कार्यकर्ताओं को भी गिरफ्तार किया गया था।

UAPA क्या है? इन गिरफ्तारियों के लिए इस कानून की अहमियत क्या है?

1967 में लागू हुए इस कानून के तहत भारत की संप्रभुता और एकता बचने के लिए बिना वारंट के रेड और गिरफ़्तारी की जा सकती है। अगर सरकार को लगता है कि कोई संस्था गैरकानूनी या आतंकी संगठन है तो उसके सदस्यों को गिरफ्तार किया जा सकता है। 2004 में कई और संशोधन से इसे और मज़बूत किया गया। इसके अंतर्गत किसी अपराधिक या आतंकी गतिविधि के लिए फण्ड जुटाना, आतंकी संगठन की सदस्यता अपराध है। साथ ही आरोप पत्र दायर करने की समय सीमा 90 से बढाकर 180 दिन कर दी गयी है। 2008 में हुए मुंबई हमले के बाद इसमें फिर से बदलाव किया गया और फिर 2012 में। आतंकवाद की परिभाषा बदली गयी और इसके दायरे में वो अपराध भी डाले गए जिस से आर्थिक सुरक्षा को खतरा हो।

नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी पर सांप्रदायिकता की राजनीति करने के आरोप लगते रहे हैं। कहा गया कि जो लोग मोदी सरकार और उनकी पार्टी की आलोचना करते हैं, उन्हें “अर्बन माओवादी” या राष्ट्र विरोधी करार दे दिया जाता है। कुछ वैसे ही जैसे अमरीका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप पत्रकारों को “लोगों का दुश्मन” कहते रहे हैं।

तो बेशक नक्सल्वाद और नक्सली हिंसा पर कार्यवाई हो, लेकिन जिन पांच बुद्धिजीवियों पर अभी एक तालमेल के साथ अलग अलग शहरों में कार्यवाई की गई है वो खुद ही एक भ्रम सा है क्यूंकि इस मामले में जो शुरुआती FIR दर्ज की गयी वो पुलिस की छानबीन पर नहीं एक राईट विंग कार्यकर्ता की शिकायत पर दर्ज की गयी थी। इसमें इन पाँचों में से एक का भी नाम नहीं था। कहा गया है कि ये CPI माओवादी के सदस्य थे और इनमें से कुछ को पहले भी जेल भेजा गया था। लेकिन वो ये भूल गए कि इन्हें सभी आरोपों से बरी भी किया गया, चाहे वारावर राव हों, अरुण फरेरा या गोंसाल्वेस। इसलिए सोशल मीडिया पर इनके खिलाफ जो अर्बन नक्सल की बमबारी हुई वो यही दिखाता है कि आज के समाज में एक भीड़ की मानसिकता हावी है, जो भीड़ के साथ नहीं वो अर्बन नक्सल कहलायेगा।

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