Author : Maya Mirchandani

Published on Sep 09, 2019 Updated 0 Hours ago

मोदी 2.0 ने लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करने की जो प्रतिबद्धता जाहिर की है, उसे हासिल करने के लिए सरकार को राजनीति में अल्पसंख्यकों और दूसरे वंचित वर्गों को शामिल करना होगा.

डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत की रैंकिंग गिरने से उठे कई सवाल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सर्वोच्च पद पर पहुंचना देश के लोकतंत्र की मज़बूती का सबूत है. यह देश के एक आम इंसान को चुनाव लड़ने की ताकत देता है. इसी लोकतंत्र के कारण वह भारी जनादेश के साथ देश के प्रधानमंत्री बनने में सफल रहे. इसमें भी कोई शक नहीं है कि प्रधानमंत्री ने हर मौके पर देश की लोकतंत्र की ताकत की सराहना की है, लेकिन विडंबना यह है कि 2014 से 2019 के बीच उनके पहले कार्यकाल के दौरान भारत की लोकतंत्र रैंकिंग में लगातार गिरावट आई. 2018 में भारत को ‘डेमोक्रेसी इंडेक्स’ यानी लोकतंत्र सूचकांक में 41वां स्थान मिला.

ब्रिटिश कंपनी इकॉनमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (ईआईयू) इस इंडेक्स को तैयार करती है. इसमें निष्पक्ष चुनाव, राजनीतिक भागीदारी और बहुलतावाद व सिविल लिबर्टी जैसे पैमानों पर देशों की रैंकिंग की जाती है. 2017 की तुलना में 2018 में इस सूचकांक में भारत की रैंकिंग में एक पोजिशन का सुधार हुआ, लेकिन 2014 से 2019 के बीच मोदी के पांच साल के पहले कार्यकाल में भारत इस सूचकांक में 10 पायदान फिसल गया. 2016 में भारत को इंडेक्स में 32वां स्थान मिला था, जबकि 2017 में वह 42वें नंबर पर आ गया था.

भारत में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव तो होते हैं, बुनियादी नागरिक अधिकारों का भी सम्मान होता है, लेकिन मीडिया की आज़ादी पर अंकुश लगाए जाने जैसी समस्याएं भी यहां बनी हुई हैं.

ईआईयू ने भारत को ‘दोषपूर्ण लोकतंत्र’ बताया है. इसका मतलब यह है कि भारत में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव तो होते हैं, बुनियादी नागरिक अधिकारों का भी सम्मान होता है, लेकिन मीडिया की आज़ादी पर अंकुश लगाए जाने जैसी समस्याएं भी यहां बनी हुई हैं. डेमोक्रेसी इंडेक्स 2017 में इस बात का खासतौर पर ज़िक्र किया गया है कि इंटरनेट बंद करने से दूसरी चीजों के साथ संघर्ष प्रभावित क्षेत्र से पत्रकारों की रिपोर्टिंग भी प्रभावित हुई. इसमें सरकारी मशीनरी के जरिये विरोध को दबाने, खासतौर पर सेक्शन 124ए के तहत दिए गए ‘राष्ट्रद्रोह कानून’ के इस्तेमाल का जिक्र किया गया है, जिसके चलते मुख्यधारा के मीडिया में सेल्फ-सेंसरशिप की संस्कृति फल-फूल रही है.

वैसे, इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं क्योंकि ग्लोबल प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स में 180 देशों में भारत की रैंकिंग 140वीं है. 2017 में ईआईयू ने दक्षिणपंथी धार्मिक विचारधारा के दबदबे और गोरक्षकों के अल्पसंख्यकों को निशाना बनाए जाने से देश की धर्मनिरपेक्ष छवि पर गहरा असर पड़ा है. भारत में लोकतांत्रिक आज़ादी में कितनी गिरावट आई है, इस पर राय बंटी हुई है लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि यह कम हुई है. गोरक्षकों और धार्मिक नारों का सहारा लेकर अल्पसंख्यकों को डराने व प्रताड़ित करने और उनसे मारपीट की घटनाओं को रोकने के लिए कानून का जिस लचर ढंग से इस्तेमाल हुआ है, उससे यह बात साफ तौर पर जाहिर होती है. केंद्र सरकार ने इन्हें सामान्य घटना कहकर ख़ारिज कर दिया और उसने इसके लिए स्थानीय पुलिस को जिम्मेदार ठहराया. दूसरी तरफ, हेट ट्रैकर्स यानी अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित किए जाने वाली घटनाओं पर नजर रखने वालों का कहना है कि अल्पसंख्यक समूहों के ख़िलाफ़ नफरत भरे भाषणों और अपराध के मामलों में बढ़ोतरी हुई है. जनता और राजनीतिक दलों के बीच बहस तीखी हो गई है और उसमें साफ ध्रुवीकरण नज़र आ रहा है. यह ज़हर अब लोकतांत्रिक संस्थानों यानी संसद, मीडिया, यहां तक कि न्यायपालिका और सिविल सोसायटी तक भी रिसकर पहुंचने लगा है. बहुसंख्यकवाद की राजनीति के प्रसार से लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भरोसा कम हुआ है. पिछले पांच साल में आम लोग लगातार मांग करते रहे कि उनके लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों का हनन न हो. कुछ जानकारों का कहना है कि आर्थिक प्रगति और विकास के दावे को सरकार पूरा नहीं कर पाई, इसलिए धार्मिक अल्पसंख्यक विरोधी भावनाओं को भड़काया जा रहा है. इस तरह के कुछ मामलों में केरल की लड़की के सांप्रदायिक दबाव में आए बगैर अपना जीवनसंगी चुनने का संघर्ष, छात्रों के यूनिवर्सिटी कैंपसों में सरकार की गतिविधियों पर सवाल, गोरक्षकों को पशु कारोबारियों को निशाना बनाने के सामाजिक सहमति के ख़िलाफ़ विरोध (इनमें ज्यादातर मुस्लिम या दलितों को निशाना बनाया गया) और राज्य की नागरिकों के निजता के अधिकार को नहीं मानने की कोशिशों की लोगों की तरफ से आलोचना शामिल है.

कुछ लोगों का कहना है कि धर्म, जाति, वर्ग और लैंगिंग आधार पर सामाजिक तनाव सिर्फ इसी सरकार के कार्यकाल में नहीं हुए हैं. जब देश में धर्मनिरपेक्ष सरकारें थीं, तब भी ऐसे तनाव होते रहते थे. राष्ट्रद्रोह और मानहानि के क़ानूनों का भी पहले भी दुरुपयोग होता रहा है (भले ही किसी पार्टी की सरकार रही हो). कई बार तो इनका दुरुपयोग आज की तुलना में कहीं अधिक गंभीर था. इसके अलावा, सरकार ने सुरक्षा के नाम पर हमेशा नागरिकों के निजता के अधिकार में दख़लअंदाज़ी की कोशिश की है, भले ही इसका तरीका समय के साथ बदला हो. इसलिए देश के लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट के लिए पिछली सरकारें भी दोषी हैं.

मोदी सरकार उन लोगों के साथ संवाद नहीं चाहती, जो उसकी नीतियों-रणनीतियों के आलोचक रहे हैं. पिछले पांच साल में यह मोदी सरकार की एक तरह से पहचान बन गई है.

हालांकि पिछले पांच साल में इनमें नाटकीय ढंग से गिरावट आई है. अल्पसंख्यकों और मीडिया व सिविल सोयासटी जैसे स्वायत्त संस्थानों की आज़ादी को दबाने की कोशिश हुई है. सामाजिक और मुख्यधारा की मीडिया में होने वाली बहस में गाली-गलौज का इस्तेमाल बढ़ा है और इसने एक भद्दी शक्ल अख़्तियार कर ली है. न्यूज़ टेलीविजन में होने वाली बहसों में खासतौर पर ऐसा हो रहा है. मोदी सरकार उन लोगों के साथ संवाद नहीं चाहती, जो उसकी नीतियों-रणनीतियों के आलोचक रहे हैं. पिछले पांच साल में यह मोदी सरकार की एक तरह से पहचान बन गई है. अब जब सरकार दूसरे कार्यकाल में और भी बड़े जनादेश के साथ लौटी है तो क्या इसमें और तेज गिरावट की उम्मीद करनी चाहिए?

मई 2019 में शानदार जीत के बाद और पांच साल के लिए सत्ता में लौटने पर प्रधानमंत्री मोदी संविधान के सामने घुटनों के बल बैठकर उसके प्रति सम्मान जाहिर किया था. उनके ऐसा करने से संविधान को सभी भारतीयों के लिए ‘पवित्र’ किताब का दर्जा मिला, भले ही उनकी जाति या समुदाय कुछ भी हो. मोदी 2.0 ने लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करने की जो प्रतिबद्धता जाहिर की है, उसे हासिल करने के लिए सरकार को राजनीति में अल्पसंख्यकों और दूसरे वंचित वर्गों को शामिल करना होगा. सरकार को डेमोक्रिटक रिन्युअल के लिए एक एजेंडा की घोषणा करनी चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता तो यही माना जाएगा कि मोदी की लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता सिर्फ दिखावा है. साथ ही, यह आरोप लगेगा कि यह दिखावा इसलिए किया जा रहा है ताकि बहुसंख्यकवाद की राजनीति की छाया पिछले चार दशक में देश के सबसे लोकप्रिय और सबसे ताक़तवर प्रधानमंत्री की बेहद सावधानी से बनाई गई छवि पर न पड़े.

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