Author : Aditya Bhan

Published on Jul 16, 2022 Updated 0 Hours ago

इस बार के विश्व जनसंख्या दिवस पर भारत को युवाओं के बीच व्यापक स्तर पर मौजूद कुपोषण और बेरोज़गारी से निपटने के लिए प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए.

#विश्व जनसंख्या दिवस 2022: भारत के जनसांख्यिकीय(population) विकास का फ़ायदा कैसे उठायें!

ये लेख विश्व जनसंख्या दिवस  सीरीज़ का हिस्सा है. 


संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के मुताबिक़ जनसांख्यिकीय विकास पर्याप्त राष्ट्रीय आर्थिक लाभ की संभावना है जो ऐसी अवधि में आती है जब कामकाजी आबादी स्वस्थ तथा शिक्षित हो और उसे नियमित रोज़गार हासिल हो. इसके साथ ही दूसरों पर निर्भर युवा आबादी कम हो. भारत के बारे में कहा जाता है कि ये अवधि 37 साल तक होगी जो 2018 से शुरू होकर 2055 तक रहेगी. दूसरों पर निर्भरता का अनुपात कम होने की वजह से ऐसा है (पहला आंकड़ा देखिए). 

Figure 1: Duration of demographic dividend in large economies (economictimes.indiatimes.com).

आंकड़ा 1: बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में जनसांख्यिकीय विकास की अवधि (economictimes.inidatimes.com). 

भारत के जनसंख्या पिरामिड से पता चलता है कि दो-तिहाई से ज़्यादा आबादी कामकाजी उम्र के लोगों की है जबकि बुजुर्गों का हिस्सा 7 प्रतिशत से भी कम है (दूसरा आंकड़ा देखिए). वैसे तो सब कुछ अच्छा दिख रहा है लेकिन युवाओं के बीच बेरोज़गारी का परिदृश्य ख़राब तस्वीर पेश करता है. 

आंकड़ा 2: 2022 में भारत का जनसंख्या पिरामिड (population-pyramid.net). 

भारत में 2005 से युवाओं में बेरोज़गारी की दर हर साल बढ़ रही है जो उस वक़्त के 18 प्रतिशत से 2019 में 23 प्रतिशत पर पहुंच गई है (तीसरा आंकड़ा देखें) और इसकी वजह से भारत के लोग हताश हैं. इस पर भी ध्यान देना ज़रूरी है कि युवाओं में बेरोज़गारी की दर इस अवधि में कुल बेरोज़गारी की दर से काफ़ी ज़्यादा है. कुल बेरोज़गारी की दर 2019 में 5 प्रतिशत के मुक़ाबले कोविड-19 महामारी से प्रभावित वर्ष 2020 में बढ़कर 7 प्रतिशत से ज़्यादा पर पहुंच गई. इसका ये अर्थ है कि बेरोज़गारी का बोझ देश के युवाओं पर काफ़ी ज़्यादा है. 

नियमित रोज़गार के सृजन के लिए सरकार की कोशिशों को युवाओं के बीच अशिक्षा और कुपोषण की मौजूदगी की वजह से निश्चित रूप से मदद नहीं मिली. 

बेरोज़गारों लोगों का एक बड़ा हिस्सा अशिक्षित है जो उन्हें ग़रीब बनाता है और जिसकी वजह से वो ख़ुद को शिक्षित करने के लिए पर्याप्त कमाई करने में सक्षम नहीं हो पाते. इस तरह एक दुष्चक्र चलता है. दूसरी तरफ़, यूनिसेफ और नीति आयोग की 2019 की एक रिपोर्ट में 10-19 साल के आधे से ज़्यादा भारतीय किशोरों को दुबला, लंबाई में छोटा, अधिक वज़नदार या मोटा बताया गया है. 

आंकड़ा 3The youth.

इसके बाद देश के युवाओं को हुनरमंद बनाने की भी बात है जिससे कि वो रोज़गार के योग्य बन सकें. सरकार की ‘स्किल इंडिया’ पहल इस दिशा में एक बड़ा क़दम है जिसमें इन्फॉर्मेशन एंड कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी (आईसीटी), इलेक्ट्रॉनिक्स, बीएफएसआई (बैंकिंग, फाइनेंशियल सर्विसेज़ और इंश्योरेंस) और कृषि के क्षेत्र में रोज़गार के लिए योग्य बनाने के लक्ष्य से कोर्स तैयार किए गए हैं. इसके अलावा इस महत्वाकांक्षी अभियान, जिसका उद्देश्य इस साल के अंत तक 40 करोड़ से ज़्यादा युवाओं को नौकरी के हिसाब से उपयुक्त हुनर मुहैया कराना है, को बढ़ावा देते हुए नोएडा की एक मोबाइल हैंडसेट बनाने वाली बड़ी कंपनी लावा इंटरनेशनल ने पिछले महीने आईटीआई बरहमपुर के 270 छात्रों को नौकरी पर रखा है

सरकार की तरफ़ से मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में बड़ी संख्या में नौकरियां बढ़ाने की कोशिश को देश में मौजूद नौकरशाही की लाल फीताशाही से गंभीर चुनौती मिलने की आशंका है. ज़्यादातर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा भारत में अपने काम-काज को सीमित करना इसका उदाहरण है.

लेकिन सरकार की तरफ़ से मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में बड़ी संख्या में नौकरियां बढ़ाने की कोशिश को देश में मौजूद नौकरशाही की लाल फीताशाही से गंभीर चुनौती मिलने की आशंका है. ज़्यादातर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा भारत में अपने काम-काज को सीमित करना इसका उदाहरण है. जर्मनी की रिटेल कंपनी मेट्रो एजी, स्विट्ज़रलैंड की निर्माण सामग्री बनाने वाली कंपनी होल्सिम, अमेरिका की ऑटोमोबाइल कंपनी फोर्ड, यूके का रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड, अमेरिकी बाइक बनाने वाली कंपनी हार्ली डेविडसन और अमेरिका की बैंकिंग क्षेत्र की बड़ी कंपनी सिटी बैंक ने हाल के वर्षों में या तो भारत में अपना काम-काज बंद कर लिया है या अपना कारोबार कम कर लिया है. उनके इस फ़ैसले के पीछे नियामक अनिश्चितता, ज़्यादा टैरिफ, लाल फीताशाही, असमंजस में डालने वाली भूमि नीतियां, इत्यादि जैसे कारण मुख्य रूप से हैं. 

वास्तव में भारत के भीतर परंपरागत कारोबार को स्थापित करने और उन्हें चलाने में जिन अस्पष्ट परेशानियों का सामना करना पड़ता है, ख़ास तौर पर इसी वजह से भारत आज़ादी से लेकर अभी तक ख़ुद को दुनिया में मैन्युफैक्चरिंग का केंद्र बनाने में काफ़ी हद तक नाकाम रहा है जबकि भारत में कम दाम पर श्रम उपलब्ध है. यहां तक कि 1990-91 की नई आर्थिक नीति, जिसमें उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण पर ध्यान दिया गया था, भी भारतीय अर्थव्यवस्था के कम महत्व के क्षेत्रों को प्रोत्साहन देने में नाकाम रहा. ऐसे में ये कोई हैरानी की बात नहीं है कि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर भारत की जीडीपी में सिर्फ़ छठे हिस्से का योगदान देता है. ये स्थिति तब है जब भारत सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था है

ध्यान देने की बात है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान भारत के विकास को उसके सर्विस सेक्टर के बड़े पैमाने पर विस्तार से रफ़्तार मिली है. लेकिन श्रम पर निर्भरता के मामले में सर्विस सेक्टर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के मुक़ाबले कहीं भी नहीं ठहरता. इसके परिणामस्वरूप भारत ने लंबे समय तक तथाकथित बिना नौकरी वाले विकास को देखा है जो बेरोज़गारी के आधिकारिक आंकड़ों में अक्सर दिखाई नहीं देता क्योंकि वो सिर्फ़ स्थायी बेरोज़गारी को दिखाता है

वैसे तो अलग-अलग क्षेत्रों में हुनर सिखाकर और उचित प्रशिक्षिण देकर सार्थक रोज़गार के लिए युवाओं को तैयार करके श्रम बाज़ार के मांग पक्ष की तरफ़ ध्यान देने में ‘स्किल इंडिया’ कार्यक्रम तारीफ़ के लायक है लेकिन भारत को इस विश्व जनसंख्या दिवस पर देश के बच्चों और किशोरों के बीच व्यापक स्तर पर मौजूद कुपोषण से निपटने के लिए प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए.

आपूर्ति पक्ष को देखें तो किसी भी सरकार के लिए भूमि और श्रम सुधार राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मुद्दा रहा है. लेकिन भारत की अनुकूल जनसांख्यिकी का फ़ायदा उठाने के लिए नौकरशाही की लाल फीताशाही को हटाने के महत्व को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कहा जा सकता. 

मिड-डे मील योजना (एमडीएमएस), जिसे मौजूदा महामारी की वजह से देश के ज़्यादातर हिस्सों के स्कूलों और आंगनवाड़ी में पिछले दो साल से ज़्यादा समय से बंद कर दिया गया था, अब एक बार फिर ज़्यादातर राज्यों में या तो शुरू हो गई है या शुरू होने के क़रीब है. लेकिन पूरी तरह से सामान्य स्थिति बनना अभी बाक़ी है. इसके अलावा एमडीएमएस अक्सर ख़रीद से जुड़ी समस्या से ग्रस्त रही है. केंद्रीय स्तर पर ख़रीद की व्यर्थ कोशिशों और उससे जुड़े भ्रष्टाचार की वजह से आंगनवाड़ी के लिए मिड डे मील योजना में बार-बार बाधा आई है या वो नाकाम हो गई है.  

आपूर्ति पक्ष को देखें तो किसी भी सरकार के लिए भूमि और श्रम सुधार राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मुद्दा रहा है. लेकिन भारत की अनुकूल जनसांख्यिकी का फ़ायदा उठाने के लिए नौकरशाही की लाल फीताशाही को हटाने के महत्व को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कहा जा सकता. इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिये कि नियामक झटकों से मुनाफ़े को भी तेज़ी से झटका लगता है और उम्मीद के मुताबिक़ नीति बनाना निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए ज़रूरी है. 

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