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भारत की G20 अध्यक्षता के दौरान भविष्य में स्वास्थ्य से जुड़े आपातकाल से प्रभावकारी ढंग से निपटने के लिए एक सुसज्जित वैश्विक स्वास्थ्य संरचना के निर्माण का एक अवसर है.
विज्ञान तो मदद के लिए आया लेकिन मानवता नहीं- ये बात विकासशील देश कोविड-19 की समाधि के पत्थर पर लिखेंगे. ये सुनने में भले ही बुरा लगे लेकिन कम आमदनी वाले ज़्यादातर देश, जहां संबंधित उम्र समूह में कोविड-19 के मरीज़ों की मृत्यु दर अमीर देशों के मुक़ाबले दोगुनी थी, के लोगों के लिए महामारी के दौरान आविष्कार के मामले में एक जीवंत अनुभव के बारे में बताती है. अमीर देशों में वैक्सीन भंडार में जमा होकर एक्सपायरी डेट की तरफ़ बढ़ रहे हैं. जल्द ही इन देशों के नेताओं को इस बात पर विचार-विमर्श करना होगा कि जिन दवाओं का इस्तेमाल नहीं हुआ, उन्हें कैसे नष्ट किया जाए. लेकिन कम-आमदनी वाले ज़्यादातर देशों में कोविड वैक्सीन के आने का मतलब ये नहीं हुआ कि उन्हें वैक्सीन लग गई; जीवन बचाने वाले आविष्कार की वजह से वहां के लोगों का जीवन नहीं बचा. इस तरह की मानव निर्मित मुसीबत को टालने के लिए कुछ नियमों को जहां तोड़ने की तो कुछ नियमों को बनाने की आवश्यकता है. सबसे बड़ा सबक़ ये है कि स्वास्थ्य आपातकाल के दौरान तकनीकों का आविष्कार यानी डायग्नोस्टिक्स, वैक्सीन और थेराप्यूटिक्स महत्वपूर्ण है लेकिन पर्याप्त नहीं.
बहुपक्षीय व्यवस्था में आविष्कार को विज्ञान में आविष्कार के साथ-साथ चलने की ज़रूरत है. इसके पीछे मुख्य रूप से दो कारण हैं- पहला, क्रमानुगत आविष्कार की गति तेज़ हो और एक आपात स्थिति में अलग-अलग संदर्भों के अनुकूल बने; दूसरा, जीवन बचाने वाले आविष्कार ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों तक पहुंच सके.
बहुपक्षीय व्यवस्था में आविष्कार को विज्ञान में आविष्कार के साथ-साथ चलने की ज़रूरत है. इसके पीछे मुख्य रूप से दो कारण हैं- पहला, क्रमानुगत आविष्कार की गति तेज़ हो और एक आपात स्थिति में अलग-अलग संदर्भों के अनुकूल बने; दूसरा, जीवन बचाने वाले आविष्कार ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों तक पहुंच सके. बौद्धिक संपदा क़ानूनों, क्लीनिकल ट्रायल, अंतर्राष्ट्रीय नियामक मानकों, दवा एवं टीके के निर्माण और डायग्नोस्टिक्स पर फिर से विचार कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां हमें भविष्य के स्वास्थ्य आपातकाल के लिए तैयार करने में वैश्विक स्तर पर आदर्श परिवर्तन की आवश्यकता है. भारत की अध्यक्षता में G20 महामारी की तैयारी के लिए वैश्विक स्वास्थ्य संरचना पर विचार-विमर्श के दौरान अगर सभी नहीं तो इन ज़्यादातर मुद्दों को स्वास्थ्य निगरानी के तहत प्राथमिकता दे रहा है. क्या दूसरे देश सहमत होंगे?
बौद्धिक संपदा अधिकार एवं पेटेंट, विशेष रूप से अपने स्वरूप की वजह से, आविष्कार को बढ़ावा देते हैं. इसके लिए वो विशेष अधिकार देते हैं और कुछ के हाथ में विचारों और संसाधनों को इकट्ठा करते हैं ताकि इस तरह के पुरस्कार दूसरे लोगों के लिए आविष्कार करने में एक प्रोत्साहन बनें. लेकिन ये मूलभूत कारण किसी स्वास्थ्य संकट के दौरान आविष्कार के लक्ष्य के साथ टकराता है. ये सामान्य समय में तो काम करता है लेकिन कोविड-19 जैसे संकट के दौरान कमज़ोर बन जाता है जहां किसी जीवन बचाने वाले आविष्कार का मक़सद ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों तक आसानी से पहुंचना होता है.
पीछे मुड़कर देखें तो वो क्या कारण थे जिन्होंने कोविड-19 के दौरान वैक्सीन के आविष्कार को वास्तव में प्रेरित किया? बुनियादी वैज्ञानिक काम अलग हैं लेकिन मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति दवा कंपनियों के लिए सक्रिय नीतिगत समर्थन में बदली; सरकार के नेतृत्व में अनुसंधान एवं विकास के लिए अनुदान ने निजी क्षेत्र को भरोसा दिलाया कि इसकी सफलता में सरकार का हित है और सरकार के द्वारा ख़रीद के लिए अग्रिम गारंटी का मतलब था बन रहे उत्पाद के लिए सुनिश्चित व्यवसाय. केवल एक पेटेंट का स्वामित्व हासिल करने और बिना ये जाने इसका व्यावसायिक इस्तेमाल करना कि इसके लिए कौन भुगतान करेगा, के बदले ये सभी कारण काफ़ी मज़बूत उत्प्रेरक थे. यहां मूलभूत सवाल ये हैं कि- अगर अग्रिम गारंटी और दूसरी नीतिगत सहायता नहीं होती तो क्या वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां तब भी इतने कम समय में इस आविष्कार को लोगों के पास ले जाने में सक्षम होती? साथ ही, जब सरकार अनुदान दे रही थीं और उन्हें ख़रीदने का वादा कर रही थीं तो अंतरराष्ट्रीय नेताओं को ये शर्त नहीं डालनी चाहिए थी कि ‘जीवन बचाने वाले आविष्कारों’ को जितनी जल्दी संभव हो सके अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहिए?
दुनिया किस तरफ़ जा सकती है, इसे देखते हुए भारत और दक्षिण अफ्रीका ने विश्व व्यापार संगठन (WTO) में अक्टूबर 2020 में प्रयास किया कि वैक्सीन के पेटेंट की शर्त से छूट दी जाए लेकिन इस वैश्विक संस्था ने काफ़ी देर से इस पर फ़ैसला लिया.
कोविड-19 जैसे स्वास्थ्य संकट मांग रखते हैं कि विश्व के नेताओं को अलग ढंग से आविष्कार को इनाम देना चाहिए और बौद्धिक संपदा की निष्क्रियता में नहीं फंसना चाहिए जो कि आविष्कार को तेज़ करने के बदले एक जाल बन जाता है. दुनिया किस तरफ़ जा सकती है, इसे देखते हुए भारत और दक्षिण अफ्रीका ने विश्व व्यापार संगठन (WTO) में अक्टूबर 2020 में प्रयास किया कि वैक्सीन के पेटेंट की शर्त से छूट दी जाए लेकिन इस वैश्विक संस्था ने काफ़ी देर से इस पर फ़ैसला लिया. WTO के द्वारा जून 2022 में समय प्रतिबंधित पेटेंट छूट का एक बहुत ही कमज़ोर संस्करण लाया गया लेकिन तब तक काफ़ी नुक़सान हो चुका था. वर्तमान परिस्थितियों में WTO का क़दम न केवल काफ़ी हद तक प्रभावहीन था बल्कि इस वैश्विक संस्था ने भविष्य में स्वास्थ्य आपातकाल के दौरान एक अनुकरणीय उदाहरण पेश करने का एक अवसर भी गंवा दिया.
मेडिसिन पेटेंट पूल जैसे संस्थान हैं जो दवा कंपनियों की ख़ुशामद करते हैं कि वो स्वैच्छिक तौर पर इनोवेशन को साझा करें लेकिन व्यावहारिक रूप से उनका सीमित असर होता है और वो काफ़ी हद तक बड़ी दवा कंपनियों की दया पर निर्भर हैं. विश्व को और साहसिक महत्वपूर्ण खोज को लेकर सहमत होने की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भविष्य के आपातकाल के दौरान सरकारें मिलकर आविष्कार को प्रोत्साहन दे सकें. इसके लिए वो ऐसी प्रणाली की स्थापना करें जो आविष्कार के व्यापक फैलाव को इनाम दें, न कि पेटेंट जैसी व्यवस्था बनाएं जो जीवन बचाने वाले आविष्कार को लोगों तक पहुंचने से रोकते हैं.
जैसे-जैसे महामारी का प्रकोप बढ़ा, वैसे-वैसे क्लिनिकल ट्रायल की झड़ी लग गई. क्लीनिकल ट्रायल ये टेस्ट करने के लिए होने लगे कि क्या मौजूदा दवाओं में बदलाव करके इलाज किया जा सकता है या नई दवाओं से कोविड-19 की रोकथाम या इलाज में मदद मिल सकती है. इनमें से कई क्लीनिकल ट्रायल ‘पहले से लिखित’ के रूप में प्रकाशित हुए जिसने अनुसंधान के नियमों को बदल दिया. वैसे तो इसका ये मतलब हुआ कि इससे ज़्यादा तेज़ी और मात्रा में अनुसंधान पहले कभी नहीं देखा गया था लेकिन बाद में पता चला कि इनमें से कई अध्ययनों की गुणवत्ता संदिग्ध थी और अगर इनका इस्तेमाल किया गया तो फ़ायदे के बदले हानि हो सकती थी. कोविड-19 को लेकर केवल लगभग 5 प्रतिशत ट्रायल रैंडमाइज़्ड और पर्याप्त रूप से प्रेरित थी (इसका ये मतलब है कि ट्रायल के लिए पर्याप्त लोगों की भर्ती नहीं की गई थी).
ऐसे मामलों में इस निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल हो जाता है कि जिस दवा का परीक्षण किया जा रहा है वो वास्तव में सुरक्षित और प्रभावी हैं कि नहीं. ट्रायल के दौरान एक ही चीज़ को भारी मात्रा में दोहराया भी गया. इसका अर्थ ये है कि काफ़ी समय और संसाधनों को अलग-अलग जगहों पर एक ही स्थिति के लिए, एक ही दवा के परीक्षण पर खर्च किया गया. इसे रोका जा सकता था अगर सभी ट्रायल वैश्विक स्तर पर एक ही रजिस्ट्री में रजिस्टर किया जाता.
निष्पक्ष तौर पर कहें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और दूसरी एजेंसियां इस तरह की रजिस्ट्री चलाती हैं लेकिन निजता के उल्लंघन को लेकर संघर्ष और दूसरी चुनौतियों ने इनकी प्रगति को रोक दिया है. महामारी के लिए तैयार भविष्य का मतलब है कि जब कोई प्रकोप आता है तो क्लीनिकल ट्रायल को एक मानक कुशल प्रोटोकॉल का पालन करना चाहिए और हर क्लीनिकल ट्रायल का नतीजा एक डेटाबेस में उपलब्ध होना चाहिए ताकि प्रत्येक देश एक-दूसरे की ग़लतियों से सीख सकें. इससे मानवता को सहायता मिलेगी कि वो आविष्कार की अंतिम पंक्ति तक जल्दी पहुंच सके, लोगों पर आवश्यक चिकित्सा प्रयोगों को काफ़ी कम कर सके.
वैक्सीन के आविष्कार के बाद भी कई विकसित देशों को कुछ विकासशील देशों में तैयार वैक्सीन को लेकर बहुत अधिक अविश्वास था. इसकी वजह से उन वैक्सीन को लेकर लोगों का भरोसा कमज़ोर हुआ और उन वैक्सीन का पूरा इस्तेमाल नहीं हो सका. अगर वैश्विक स्तर पर नियामक मानकों को एक समान कर दिया जाए तो एक स्वास्थ्य संकट के दौरान नियामक और विश्वास से जुड़े मुद्दों को काफ़ी हद तक कम किया जा सकता है.
रिसर्च एंड डेवलपमेंट और उत्पादन के केंद्रों में विविधता
कोविड-19 के अनुभव ने हमें ये सिखाया है कि कोवैक्स- महामारी के दौरान शुरू एक वैश्विक पहल जिसका उद्देश्य वैक्सीन के मामले में बराबरी को बढ़ावा देना है- के द्वारा परिकल्पित परोपकार या नैतिक आदेश पर निर्भर रहना किसी संकट के दौरान आविष्कार के विकासशील देशों के असुरक्षित लोगों तक पहुंचने को सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त नहीं है.
भारत के स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया, जो वर्तमान के G20 विचार-विमर्श में स्वास्थ्य निगरानी का नेतृत्व कर रहे हैं, ने प्रस्ताव दिया है कि एक्सेस टू कोविड-19 टूल्स (ACT) एक्सीलेटर- जो कि संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों, सरकारों, व्यवसायों और ग़ैर-लाभकारी संगठनों का एक वैश्विक सहयोग है और जिसका निर्माण कोविड-19 के टेस्ट, इलाज और वैक्सीन को विकसित, उत्पादित और वितरित करने के लिए किया गया है- का विस्तार करके ज़्यादा क़ानूनी शक्ति और एक स्पष्ट जवाबदेही की संरचना प्राप्त करके इसके लक्ष्य में कोविड-19 से आगे स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी दूसरी चुनौतियों के समाधान को शामिल करना चाहिए. उन्होंने G20 के नेताओं से ये अपील भी की है कि अलग-अलग वैक्सीन-थेराप्यूटिक्स-डायग्नोस्टिक्स नेटवर्क का समर्थन करें ताकि संकट के दौरान सप्लाई चेन से जुड़े मुद्दे इलाज से जुड़ी आवश्यकताओं तक पहुंच में आघात नहीं पहुंचाएं.
भारत दुनिया में दवाओं और वैक्सीन के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है. भारत ने जीवन रक्षक दवाओं की क़ीमत कम की है और कोविड-19 की वैक्सीन का एक बड़ा उत्पादन केंद्र है. ऐसे में जब भारत स्वास्थ्य देखभाल के इकोसिस्टम में बदलते प्रतिमान की बात करता है तो वैश्विक मंचों जैसे कि G20 पर उसे सुना जाता है.
स्पष्ट तौर पर, विकासशील देशों को एक व्यापक वैश्विक स्वास्थ्य संरचना के हिस्से के तौर पर ख़ुद के अनुसंधान एवं उत्पादन केंद्र का निर्माण करना चाहिए ताकि जो देश इस समय इनोवेशन के लाभ से वंचित हैं उनके पास अगले संकट के दौरान उस तक पहुंचने की क्षमता और अच्छा माध्यम हो. यह पूरी तरह से सही चीज़ है क्योंकि कोविड-19 की वैक्सीन बनाने वाली 69 प्रतिशत कंपनियां ज़्यादा आमदनी वाले देशों में स्थित हैं. कभी-कभी इनोवेशन को लेकर भौगोलिक आधार पर इस अंतर का ये अर्थ होता है कि m-RNA वैक्सीन जैसा आविष्कार, जिसे शून्य से कम तापमान में वितरित करने की आवश्यकता है, विकासशील देशों की कमज़ोर स्वास्थ्य प्रणाली के लिए उपयुक्त नहीं है.
ये इस बात पर विचार करते हुए चुनौतीपूर्ण साबित होगा क्योंकि बड़ी दवा कंपनियों ने कोविड-19 वैक्सीन को लेकर काफ़ी रहस्य की स्थिति बना रखी थी और विकासशील देशों को तकनीक के हस्तांतरण की किसी भी पहल को लेकर अनिच्छुक थी. वैसे भारत इस तरह के किसी भी वैश्विक विचार-विमर्श का नेतृत्व करने के लिए विशिष्ट रूप से उपयुक्त है. भारत दुनिया में दवाओं और वैक्सीन के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है. भारत ने जीवन रक्षक दवाओं की क़ीमत कम की है और कोविड-19 की वैक्सीन का एक बड़ा उत्पादन केंद्र है. ऐसे में जब भारत स्वास्थ्य देखभाल के इकोसिस्टम में बदलते प्रतिमान की बात करता है तो वैश्विक मंचों जैसे कि G20 पर उसे सुना जाता है.
जिस तरह बड़ी दवा कंपनियां अपने शेयरधारकों के प्रति उत्तरदायी हैं, उसी तरह वैश्विक नेताओं को अपनी बहुपक्षीय ज़िम्मेदारी के हिस्से के रूप में इनोवेशन में किए गए निवेश पर उनकी सफलता की समीक्षा के लिए स्पष्ट मानक की आवश्यकता होती है. सामूहिक सफलता के इन सूचकों को ये मापना चाहिए कि जीवन बचाने वाले आविष्कारों से कितने लोगों को लाभ मिल सकता था और कितने लोगों को वास्तव में फ़ायदा मिला है. ये नेताओं को जवाबदेह बनाएगा क्योंकि मानवता की तरफ़ से दुनिया को आकार देने वाले फ़ैसले वही लेते हैं. इसका मतलब शायद ये भी हो सकता है कि जब इंसानियत अगली महामारी का सामना करने के लिए रिले रेस जैसा जवाब तैयार करेगी तो विकासशील देशों का बढ़ा हुआ हाथ इंतज़ार करता और खाली न रहे.
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