Author : Anshuman Behera

Published on Oct 12, 2022 Updated 0 Hours ago

पीएफआई पर देश भर में कार्रवाई यह सवाल उठाती है कि क्या केवल कट्टरपंथी संगठनों पर प्रतिबंध लगाने से कट्टरपंथ के प्रसार को रोका जा सकता है.

क्या पीएफआई पर लगा ‘प्रतिबंध’ भारत में बढ़ते कट्टरपंथ पर लगाम लगा पाएगा?

27 सितंबर 2022 को भारत सरकार द्वारा पीएफआई संगठन पर प्रतिबंध लगाने के बाद इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन, पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) पर एक्शन जारी है. हालांकि, कुछ लेखों में यह दावा किया गया है कि तटीय कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ ज़िले में इस प्रतिबंधित संगठन की वापसी दोबारा हो रही है. इस तरह के घटनाक्रम से एक प्रासंगिक सवाल उठता है कि क्या किसी संगठन पर प्रतिबंध लगाने जैसी राजनीतिक-कानूनी कार्रवाई वास्तव में भारत में बढ़ते कट्टरपंथ पर अंकुश लगा सकती है? पीएफआई, यक़ीनन सबसे कट्टरपंथी इस्लामी संगठन है, जो क़रीब तीन दशकों से चल रहा है; इसने कई क्षेत्रों में एंट्री कर ली है और कई रूप ले चुका है क्योंकि इसने सरकार द्वारा प्रतिबंधित किए जाने से पहले समान विचारधारा वाले कई समूहों के साथ गठबंधन कर लिया था. पीएफआई और उसके सहयोगियों (इन्हें फ्रंट ऑर्गनाइजेशन पढें) पर कई आरोपों के बाद प्रतिबंध लगाया गया, क्योंकि यह संगठन ‘ग़ैर क़ानूनी गतिविधियों’ में शामिल था जो ‘अखंडता, संप्रभुता और देश की सुरक्षा’ के लिए प्रतिकूल थे. प्रतिबंध के लिए आधिकारिक स्पष्टीकरण में ग़ैर क़ानूनी इस्लामी संगठनों जैसे कि स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) बांग्लादेश स्थित आतंकी संगठन, जमात-उल-मुज़ाहिदीन-बांग्लादेश (जेएमबी) और इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस) के साथ पीएफआई के कथित संबंधों का हवाला दिया गया है. चूंकि ये आरोप अभी तक अदालत में साबित नहीं हुए हैं, इसलिए प्रतिबंध के निहितार्थ को समझने के लिए पीएफआई की स्थापना और गतिविधियों की पहचान करना अहम है.

पीएफआई और उसके सहयोगियों (इन्हें फ्रंट ऑर्गनाइजेशन पढें) पर कई आरोपों के बाद प्रतिबंध लगाया गया, क्योंकि यह संगठन ‘ग़ैर क़ानूनी गतिविधियों’ में शामिल था जो ‘अखंडता, संप्रभुता और देश की सुरक्षा’ के लिए प्रतिकूल थे.

पीएफआई की शुरुआत

पीएफआई की उत्पत्ति को समझने का जब सवाल सामने आता है तो यह जानना चाहिए कि इसकी वैचारिक जड़ें बेहद गहरी हैं. यक़ीनन पीएफआई जमात-ए-इस्लामी-हिंद (जेईआई-एच) संगठन है. पीएफआई, इसके कई अवतार और प्रतिबंध का सामना करने से पहले इस संगठन द्वारा की गई कट्टरपंथी और हिंसक गतिविधियों को जेईआई-एच के शीर्ष विचारक मौलाना मावदुदी के मक़सद से समझा जा सकता है – जो राजनीतिक इस्लाम की स्थापना की वकालत करता है. पीएफआई की जड़ें जेईआई-एच के कट्टरपंथी इस्लामी छात्रों के संगठन सिमी से भी जुड़ी हैं. सिमी के पूर्व सदस्य, जिनकी उम्र 30 वर्ष से अधिक थी और जो केरल स्थित इस्लामिक संगठन, इस्लामिक सेवक संघ (आईएसएस) के तहत काम करते थे, उसने आईएसएस पर प्रतिबंध लगने के बाद 1993 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चा (एनडीएफ) का गठन किया.

पीएफआई और उसके सहयोगियों का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इनमें से कोई भी संगठन अपने नाम के साथ किसी भी इस्लामिक शीर्षक का उपयोग नहीं करता है. ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि इससे पीएफआई अपने दावे को साबित कर सके कि वह “नव-सामाजिक संगठन” के रूप में दलितों के उत्थान के लिए काम करता है.

एनडीएफ, हालांकि- केरल तक सीमित था लेकिन कट्टरपंथी इस्लामिक और हिंसक गतिविधियों का संचालन करने में भी इसका नाम सामने आया था. 2001 में सिमी पर प्रतिबंध और एनडीएफ को एक हिंसक संगठन के रूप में पहचाने जाने के साथ इसके सदस्यों ने कानून प्रवर्तन एजेंसियों से और संभावित प्रतिबंध से बचने के लिए एक नया संगठन बनाने की ज़रूरत महसूस की. और इस तरह नवंबर 2006 में पीएफआई के गठन से पहले, एनडीएफ के पूर्ववर्ती सदस्यों ने साउथ इंडिया काउंसिल के बैनर तले समान विचारधारा वाले लोगों के साथ दो महत्वपूर्ण बैठकें (25-26 जनवरी 2004 बेंगलुरु में और 26-27 नवंबर, 2005 को हैदराबाद में) की. पीएफआई की नींव रखने के लिए तीन कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों में से एक केरल का एनडीएफ, दूसरा तमिलनाडु से मनिथा नीति पसाराई; और तीसरा कर्नाटक से कर्नाटक फोरम फॉर डिग्निटी (केएफडी) शामिल रहे. पीएफआई ने भारत के अन्य राज्यों में कई समान विचारधारा वाले संगठनों के माध्यम से भी अपनी गतिविधियों को आगे बढ़ाया. इनमें गोवा में नागरिक फोरम, पश्चिम बंगाल में नागरिक अधिकार सुरक्षा समिति, राजस्थान की सामुदायिक सामाजिक और शैक्षिक सोसायटी, कर्नाटक में कर्नाटक फोरम ऑफ डिग्निटी (केएफडी), मणिपुर में लियोंग सोशल फोरम और आंध्र प्रदेश में सामाजिक न्याय संघ शामिल हैं.

पीएफआई और इसकी गतिविधियां

पीएफआई और उसके सहयोगियों का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इनमें से कोई भी संगठन अपने नाम के साथ किसी भी इस्लामिक शीर्षक का उपयोग नहीं करता है. ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि इससे पीएफआई अपने दावे को साबित कर सके कि वह “नव-सामाजिक संगठन” के रूप में दलितों के उत्थान के लिए काम करता है. इस प्रकार पीएफआई  अपनी कट्टरपंथी इस्लामी गतिविधियों को अंजाम देते हुए,  गैर-मुस्लिम संगठनों के साथ गठजोड़ करने की कोशिश करता है ताकि सुरक्षा एजेंसियों की निगरानी से बचा जा सके. जिन प्रमुख संगठनों के माध्यम से पीएफआई ने अपनी कट्टरपंथी गतिविधियों को अंजाम दिया उनमें सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई), कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया (सीएफआई), नेशनल वीमेन फ्रंट (एनडब्ल्यूएफ), रिहैब इंडिया फाउंडेशन (आरआईएफ), और एम्पावर इंडिया फाउंडेशन (ईआईएफ) शामिल हैं. यक़ीनन सबसे सुव्यवस्थित कट्टरपंथी संगठनों में से एक, पीएफआई ने यह सुनिश्चित किया है कि वह अपनी गतिविधियों का कोई निशान या सबूत नहीं छोड़ेगा. हालांकि, इसकी गतिविधियां सीएए विरोधी आंदोलन, 2020 में दिल्ली के दंगों और शैक्षणिक संस्थानों के अंदर हिज़ाब पहनने का समर्थन करने वाले आंदोलनों के दौरान गंभीर जांच के दायरे में आ गई थीं लेकिन पीएफआई पहले से ही लंबे समय से जांच एजेंसियों के रडार पर था. केरल सरकार कई मामलों में पीएफआई की संलिप्तता का आरोप लगाती रही है जैसे कि पैगंबर मोहम्मद के कथित अपमान और केरल में आरएसएस और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की राजनीतिक हत्या पर एक शिक्षक का हाथ काटने (जुलाई 2010) की घटना को लेकर. केरल के पूर्व मुख्यमंत्री (वीएस अच्युतानंदन) ने आरोप लगाया था कि पीएफआई ‘राज्य का इस्लामीकरण करने का प्रयास कर रहा है’. इसी तरह, केरल की कानून प्रवर्तन एजेंसियों ने भी कई हिंसक गतिविधियों में पीएफआई की कथित भूमिका को उजागर किया है. हिज़ाब विवाद को उकसाने में पीएफआई की भूमिका और कर्नाटक में हिंदू संगठन के सदस्यों की हत्या के बाद सरकार को साल 2006 के बाद से इस संगठन की हिंसक गतिविधियों को देखते हुए इस पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने के लिए मज़बूर होना पड़ा.

सरकारी एजेंसियों को अल्पसंख्यक समुदायों को हाशिए पर डालने के किसी भी प्रयास से उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में काम करना चाहिए, इससे कट्टरपंथ की बुनियाद पर चोट करने में मदद मिलेगी वरना सामाजिक स्तर पर व्यापक उपायों के अभाव में यह प्रतिबंधित संगठन फिर से सिर उठाएगा और अपने कट्टरपंथी एज़ेंडे को आगे बढ़ाने के लिए ख़ुद को दलितों की आवाज़ उठाने के लिए प्रताड़ित किए जाने का आरोप लगाता रहेगा.

क्या प्रतिबंध से धार्मिक कट्टरवाद पर नकेल लगेगी?

समूचे भारत में पीएफआई और उसके सहयोगी संगठनों के ख़िलाफ़ कार्रवाई हो रही है लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या किसी संगठन पर केवल प्रतिबंध लगाने से कट्टरपंथ पर अंकुश लग सकता है. इसे लेकर जवाब स्पष्ट नहीं है. एक संगठन से दूसरे संगठन में बदलने के पीएफआई के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए भविष्य में उसी संगठन के एक नए अवतार को देखना कोई हैरानी की बात नहीं होगी. ऐसे में हिंसक गतिविधियों पर अंकुश और एक कट्टरपंथी संगठन पर प्रतिबंध लगाने और उस पर नकेल कसने के लिए राजनीतिक-कानूनी कार्रवाई बहुत आवश्यक है तो कट्टरवाद का समाधान सामाजिक स्तर से निकालना ज़रूरी है. प्रतिबंध के बाद  सरकार को उन समुदायों तक पहुंचना चाहिए जिनसे ये कट्टरपंथी संगठन अक्सर अपना समर्थन प्राप्त करते हैं, जिससे इन संगठनों की नापाक़ गतिविधियों को उजागर किया जा सके और लोगों को इन संगठनों के ख़िलाफ़ जागरूक किया जा सके. इसके अलावा, सरकारी एजेंसियों को अल्पसंख्यक समुदायों को हाशिए पर डालने के किसी भी प्रयास से उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में काम करना चाहिए, इससे कट्टरपंथ की बुनियाद पर चोट करने में मदद मिलेगी वरना सामाजिक स्तर पर व्यापक उपायों के अभाव में यह प्रतिबंधित संगठन फिर से सिर उठाएगा और अपने कट्टरपंथी एज़ेंडे को आगे बढ़ाने के लिए ख़ुद को दलितों की आवाज़ उठाने के लिए प्रताड़ित किए जाने का आरोप लगाता रहेगा.

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