Published on Sep 21, 2018 Updated 0 Hours ago

RSS अगर अब एक ऐसे हिंदुत्व की बात कर रही है जिसमें सब शामिल हों — उसे इतिहास को याद करना होगा और हिंदुत्व के रौद्र रूप में नरमी लानी होगी।

क्या ‘उदार हिंदुत्व’ की नई विचारधारा को मानेंगे RSS से जुड़े संगठन

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उलूबेरिया, पश्चिम बंगाल का शाखा। फ़ोटो: Press Trust of India

“हम कहते हैं हमारा हिंदू राष्ट्र है, हिंदू राष्ट्र है इसका मतलब इसमें मुसलमान नहीं चाहिए ऐसा बिल्कुल नहीं, जिस दिन ये कहा जाएगा की इसमें मुसलमान नहीं चाहिए उस दिन वो हिंदुत्व नहीं रहेगा।” मोहन भगवत के तीन दिनों के संवाद का सार बहुत लोगों के लिए इस वाक्य में छुपा है।

सवाल है कौन हैं हिंदू, क्या है हिंदुत्व और क्या है हिंदुस्तान। जिस हिंदुत्व की बात मोहन भगवत कर रहे हैं वो हिंदुस्तान में सबसे पहले सावरकर ने लोकप्रिय किया। सुप्रीम कोर्ट ने 1995 के अपने फैसले में हिंदुत्व को एक जीवन पद्धति बताया और कहा कि इसे धर्म से नहीं जोड़ना चाहिए। लेकिन हिंदुओं को एक धार्मिक गुट के तौर पर इकठ्ठा करने की कोशिश RSS ने ही की। हिंदुओं को इकठ्ठा करने के लिए संघ बना।

RSS को खड़ा करने वाले गोलवलकर ने अपनी किताब बंच ऑफ थॉट्स में मुसलमानों और ईसाईयों को हिंदू समाज के लिए खतरा बताया। भागवत कहते हैं कि गोलवलकर के भाषण परिस्थितिवश बोले गए हैं, जो शाश्वत नहीं रहते, समय बदलता है, सोच बदलती है, बदलने की इजाज़त हमें डॉक्टर हेडगेवार से मिलती है जिन्होंने कहा कि हम समय के साथ संगठन में बदलाव के लिए स्वतंत्र हैं। इसलिए अब भागवत कह रहे हैं कि उन्हें किसी दुसरे समुदाय से खतरा नहीं। और अब जब हिंदू राष्ट्रवाद फिर से अपने चरम पर है तो क्यूं मोहन भागवत समावेशी भारत की बात कर रहे हैं।

मोहन भागवत जब कहते हैं कि भारत में जो लोग रहते हैं वो सभी राष्ट्रीयता और पहचान की दृष्टि से हिंदू ही हैं तो वो RSS की पुरानी विचारधारा को दोहरा रहे हैं।

इस हिंदुस्तान ने वो भी दिन देखा है जब हिंदू और मुसलमान एक दुसरे के आमने-सामने तलवार ताने नहीं खड़े थे। तब हिंदुत्व वो था जो दिवाली में मिठाई खाने और दिए जलाने मुसलमानों को बुलाता था, हिंदुत्व वो था जो होली के रंग लगाने दरवाजे पर दस्तक देता था और न लगवाने पर बुरा भी नहीं मानता था और मुसलमानों को भी उसमें कोई कुफ्र नजर नहीं आता था। ये तब की बात है जब सऊदी सुन्नी कट्टर इस्लाम यहां इतना हावी नहीं हुआ था। जब तक अंग्रेजों ने धर्म के आधार पर हिंदुस्तान को दो टुकड़े नहीं कर दिए तब तक हिंदू और मुसलमान के बीच की खाई इतनी गहरी नहीं थी।

भागवत जब कहते हैं कि अंग्रेजों के आने से पहले हमने कभी अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया, तो वो गलत नहीं हैं। उनका बदलने को तैयार होना, सवालों के जवाब देना तारीफ के लायक है, लेकिन ये सवाल भी बना हुआ है कि क्या दिल्ली में उठी ये आवाज सड़कों पर एक धर्म या विचारधारा को बहाना बना कर खून बहाने पर उतारू लोगों तक पहुंचेगी? उम्मीद है कि हां और उम्मीद है कि बजरंग दल जैसे गुट भी इस से सबक लेंगे। RSS अगर अब एक ऐसे हिंदुत्व की बात कर रही है जिसमें सब शामिल हों, जहां सब अपने हों तो उसे इतिहास को याद करना होगा और हिंदुत्व के रौद्र रूप में नरमी लानी होगी।

वो सनातन धर्म जिसकी मिली-जुली संस्कृति को सब से अच्छी तरह से संगीत और कला ने संभाल कर रखा है। भागवत जब कहते हैं कि भारत में जो लोग रहते हैं वो सभी राष्ट्रीयता और पहचान की दृष्टि से हिंदू ही हैं तो वो RSS की पुरानी विचारधारा को दोहरा रहे हैं। RSS ये पहले भी कहता रहा है कि भारत में रहने वाले सब हिंदू हैं और वो गलत भी नहीं है। लेकिन समस्या ये है कि हिंदू और मुसलमान के आधार पर पहचान गहरी होती गई है।

वो दौर था जब भारत से बाहर जाने वाला हर शख्स हिंदू ही कहलाता था। ये अंग्रेजों का नजरिया रहा या अंग्रेजी हुकूमत का इसमें बड़ा हाथ रहा कि हिंदू सिर्फ धर्म बन गया और इसके मुकाबिल आकर मुसलमान खड़ा हो गया।

जब RSS ये कहता है कि हिंदुस्तान में रहने वाले सब हिंदू हैं तो इतिहास में इसकी मिसाल मिलती है, इसमें कुछ सच्चाई भी है। वो दौर था जब भारत से बाहर जाने वाला हर शख्स हिंदू ही कहलाता था। ये अंग्रेजों का नजरिया रहा या अंग्रेजी हुकूमत का इसमें बड़ा हाथ रहा कि हिंदू सिर्फ धर्म बन गया और इसके मुकाबिल आकर मुसलमान खड़ा हो गया।

गुलाम वो पहले हिन्दुस्तानी पहलवान थे जो पेरिस में कुश्ती के लिए गए और तुर्क पहलवान को हराया। 1900 में उस जमाने के सबसे प्रसिद्ध पहलवान गुलाम को मोतीलाल नेहरू अपने साथ यूरोप के दौरे पर ले गए और गुलाम का खर्च उठा रहे थे एक बंगाली करोड़पति हिंदू। गुलाम की एक ही तस्वीर है जो पेरिस में ली गई थी जिस में उनका माप लिया गया था उसके नीचे भी हिंदू लिखा है।

इस कुश्ती ने प्रेस में हलचल मचा दी और इसके बारे में फ्रेंच प्रेस में जहां भी लिखा गया गुलाम को हिंदू के रूप में संबोधित किया गया।

As soon as the whistle signalled that the two contestants could come to grips, the Hindu, agile and swift, sprang on his adversary and threw him with a marvellous flying mare. (Tour de Bras)

यानी हिंदुस्तान के लोगों को आजादी के पहले तक बाहर की दुनिया में हिंदू बुलाना आम बात थी, तब उनकी पहचान हिंदुस्तानी मुसलमान के तौर पर नहीं थी। ये तो देन है अंग्रेजों की और बंटवारे की। ये वो हिंदुस्तान है जहां मुसलमानों को कभी जरूरत नहीं रही कि कोई उन्हें अपनाए, क्योंकि वो इस मुल्क का वैसा ही हिस्सा रहे जैसे कोई और। ये वो हिंदुस्तान है जहां और संगीतकारों के साथ ध्रुपद की हिफाजत डगर बंधुओं ने की है।

भारत को पहचानना, इसे बनाए रखना और इसे स्वाभाविक ढंग से विकसित होने देना है — जिसे अंग्रेजी में organic growth कहते हैं — ये खुद-ब-खुद होना चाहिए, एक दुसरे के साथ रहने-सहने से।

मुसलमान होते हुए इनको संस्कृत की गहरी जानकारी रही। उन्होंने जो भी गाया उसमें ज्यादातर रचना हिंदू संस्कृति या देवी देवताओं के इर्द-गिर्द रही। उस्ताद बड़े गुलाम अली खान ने ऐसी कई रचनाएं गाईं जिनमें शिव का आह्वान किया गया, और उनकी सबसे लोकप्रिय रचना है हरि ॐ तत्सत। तबला वादक आमिर हुसैन काली पूजा पर बॉम्बे के रामकृष्ण मिशन में तबला बजाते थे। उस्ताद अली अकबर खान के पिता बाबा अलाउद्दीन खान मुसलमान होते हुए मैहर के शारदा मंदिर के भक्त थे।

अमीर ख़ुसरो का जिक्र न हो तो भारतीय संस्कृति की बात अधूरी होगी। हिंदी फिल्मों पर उसके शुरुआती दौर में पारसी थियेटर का बड़ा असर रहा। उसके सारे बड़े संरक्षक पारसी थे, गीतकार, संगीतकार मुसलमान थे। आज भी मोहम्मद रफी और तलत महमूद को कोई मुकेश, किशोर कुमार, हेमंत कुमार से अलग नहीं देखता। संगीत की तरह हिंदुस्तानी फिल्में भी सहज साझा संस्कृति की विरासत रही हैं।

अमीर ख़ुसरो
सूफ़ी गायक और कवि अमीर ख़ुसरो।

यानी ये जो इस्लाम हिंदुस्तान का इस्लाम था उसमें हिंदुस्तानी संस्कृति ने बहुत कुछ जोड़ा। हिंदुस्तानी मुसलमानों के त्योहार मनाने के तरीके से लेकर रहन-सहन में स्वाभाविक तरीके से मिली-जुली इस तहजीब की महक है। हमारे त्योहार हमेशा से साझा रहे, दिवाली, होली, ईद, मुहर्रम सब मनाते रहे। आज हमारी भाषा हिंदी अरबी और फारसी के शब्दों से इतनी घुली मिली है की उसके बगैर उसे बोलना मुश्किल है। जिसे भारत का इस्लाम कहते हैं, उसमें भारत की हिंदू संस्कृति ने भी बहुत कुछ जोड़ा है। इस्लामी त्योहारों की जो रंगीनी है, उसमें भारत की अपनी खुशबू है।

ये जो इस्लाम हिंदुस्तान का इस्लाम था उसमें हिंदुस्तानी संस्कृति ने बहुत कुछ जोड़ा। हिंदुस्तानी मुसलमानों के त्योहार मनाने के तरीके से लेकर रहन-सहन में स्वाभाविक तरीके से मिली-जुली इस तहजीब की महक है। हमारे त्योहार हमेशा से साझा रहे, दिवाली, होली, ईद, मुहर्रम सब मनाते रहे। आज हमारी भाषा हिंदी अरबी और फारसी के शब्दों से इतनी घुली मिली है की उसके बगैर उसे बोलना मुश्किल है।

असल बात इस भारत को पहचानना, इसे बनाए रखना और इसे स्वाभाविक ढंग से विकसित होने देना है, जिसे अंग्रेजी में organic growth कहते हैं। ये खुद-ब-खुद होना चाहिए, एक दुसरे के साथ रहने-सहने से। अगर इस चीज में आक्रामकता आ जाएगी, किसी भी तरफ से तो ये फले-फूलेगी नहीं। इसमें टकराव होगा। मैंने हाल में ही विनायक डालमिया का चीन के सॉफ्ट पॉवर पर एक लेख पढ़ा। विनायक कहते हैं कि हॉलिवुड की फिल्मों पर चीन का असर बढ़ रहा है क्योंकि उसमें भी चीन के पैसे लगे हैं।

फुटबॉल जो एक वैश्विक खेल है, उसमें चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने एक क्रांति की अपाल की। चीन के बड़े उद्योगपतियों ने यूरोप के फुटबॉल क्लबों में 2।5 बिलियन डॉलर से भी ज्यादा का निवेश किया। चीन की भाषा फैल रही है और चीन दुनिया भर के चिड़ियाघरों में अपने यहां से पांडा भेजता है। चीन ने अपने सॉफ्ट-पावर को दुनिया भर में फैलाने के लिए एक वॉर रूम बनाया है, जहां युद्ध की रणनीति तैयार होती है और सॉफ्ट पावर एक हथियार की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं। लेकिन सॉफ्ट पावर के लिए सरकार की आक्रामक कोशिशों की वजह से इसकी सफलता में कमी आई है। सॉफ्ट पावर को सॉफ्ट टच यानी कुछ नरमी और organic (स्वाभाविक) विकास की जरूरत होती है।

यही बात कट्टर धार्मिक संगठनों पर भी लागू होती है। मोहन भागवत ने जब इस मंच से कहा की गोरक्षा के नाम पर कानून हाथ में लेने का हम समर्थन नहीं करते, ये संदेश सड़कों पर उन लोगों तक पहुंचना जरूरी है जो गोरक्षा या लव जिहाद के नाम पर हिंसक हो रहे हैं। ये उस उदार हिंदुत्व की तस्वीर नहीं जिसका बखान मोहन भागवत कर रहे हैं।

ये हिंदुत्व की राजनीति है जिसने इसके टक्कर में कट्टर इस्लाम की राजनीति को सामने ला खड़ा किया है। पहले भी राजनीतिक पार्टियों की मेहरबानियों की वजह से मुसलमानों को लेकर राजनीति तो खूब हुई लेकिन वो बन कर रह गए सिर्फ एक वोट बैंक। और जिन पार्टियों के लिए वो वोट बैंक नहीं थे उन्होंने एक हिंदुत्व की राजनीति खड़ी की। ये हिंदुत्व उदार नहीं, आक्रामक था जिसके बहाने हिंदुस्तान के साथ खेल होता रहा।

इसलिए मोहन भागवत का उदारपन, उनका खुल कर सवालों के जवाब देना, सबको साथ लेकर चलने की बात करना सराहनीय है लेकिन हिंदुत्व की उदारता के बखान के पहले उन हजारों कार्यकर्ताओं को समझाना होगा कि वो इस रीति और परंपरा के अनुसार चलें जिसके लिए हिंदुत्व जाना जाता है। ताकि हम भूल न जाएं जीने का सलीका।

मोहन भागवत अगर वाकई मानते हैं कि उनका हिंदुत्व भारत में इस्लामी उपस्थिति के बिना अधूरा है, तो उन्हें यह बात अपने उन संगठनों और सहयोगियों को ज्यादा संजीदगी से समझानी चाहिए जो इस उपस्थिति को बात बात में चुनौती देते रहते हैं।

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