Author : Niranjan Sahoo

Published on Jul 31, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत में व्याप्त बेरोजगारी संकट पर रौशनी डालता अग्निपथ योजना के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन.

आख़िर क्यों ‘अग्निपथ’ योजना का विरोध भारत के लिए एक चेतावनी की घंटी है?

ये लेख, निबंध श्रृंखला का एक अंग है: अग्निपथ स्कीम – कट्टरपंथी या तर्कहीन? 


हाल ही में, राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार द्वारा देश के सैन्य प्रतिष्ठानों में अल्पावधिक बहाली के लिए लाये गये अग्निपथ योजना ने देश के कई शहरों में हिंसक विरोध प्रदर्शनों की श्रृंखला का सामना किया है. ये विरोध जो सबसे पहले 16 जून को बिहार से शुरू हुई, शीघ्र ही सार्वजनिक संपत्ति को भारी क्षति पहुंचाते हुए और आम जीवन को उद्वेलित करते हुए जंगल की आग की तरह 15 से ज्य़ादा भारतीय प्रदेशों तक फैल गयी. अंततः सरकार कड़ी पुलिसिया कार्यवाही एवं रियायतों के मेल से इन विरोध प्रदर्शनों को शांत कर पाने में सफल रही. केंद्रीय सरकार, इस विरोध की प्रकृति और इसकी गहराई से काफी अचंभित रह गई. अग्निपथ योजना के विरुद्ध हुए ये विरोधप्रदर्शन किस बात की ओर इशारा करती हैं? क्यों आख़िर युवाओं ने अस्थाई तौर पर ही सही, परंतु ट्रेनिंग और रोज़गार के इस आकर्षक अवसर के खिलाफ़ विरोधी रुख़ अपानाया?  

अग्निपथ योजना के विरुद्ध हुए ये विरोधप्रदर्शन किस बात की ओर इशारा करती हैं? क्यों आख़िर युवाओं ने अस्थाई तौर पर ही सही, परंतु ट्रेनिंग और रोज़गार के इस आकर्षक अवसर के खिलाफ़ विरोधी रुख़ अपानाया?  

इस हिंसक प्रदर्शन के पीछे की प्रमुख वजह इस नौकरी का अस्थाई प्रवृत्ति का होना एवम् रिटायरमेंट के उपरांत किसी प्रकार के फ़ायदों का न होना है, जो कि किसी नियमित सशस्त्र बलों की नौकरी में दी जाती है. प्रदर्शनकारी इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि जिस प्रकार के रोज़गार की पेशकश की जा रही हैं वो किसी नियमित सशस्त्र बल की नौकरी से प्राप्त होने वाली सुविधाओं की तुलना में न तो किसी प्रकार का सामाजिक स्टेट्स देने वाला है न ही कोई आर्थिक फायदा. इस मुद्दे की सच्चाई ये है कि काफी लोग सामाजिक प्रतिष्ठा, इज्ज़त, और इसके साथ ही सेवानिवृत्ति के उपरांत मिलने वाली आकर्षक फायदों की वजह से इस नौकरी को करने के काफी इच्छुक रहते हैं. फिर भी, इस चार साल की नौकरी के दरम्यान ना तो किसी प्रकार का मेडिकल, और न ही सेवानिवृत्ति के फायदे मिलेंगे (उन 25 प्रतिशत लोगों को भी जो कि बाद में नियमित काडर के रूप में, ज्वाइन करेंगे), उन लोगों के लिए ये काफी निराशाजनक है. इसके साथ ही सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि इस जॉब में मात्र एक चौथाई लोगों को ही नियमित तौर पर रखा जाएगा. 

रोज़गार का बढ़ता संकट  

अग्निपथ के खिलाफ़ हो रहे प्रदर्शन को विभिन्न सेक्टरों में, विशेषकर सार्वजनिक एवं प्राइवेट सेक्टरों में, रोजगार में बढ़ती कमी के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है; सेंटर ऑफ़ मॉनिट्रिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) द्वारा प्रकाशित हालिया रिपोर्ट के अनुसार, दिसंबर 2021 के अंत  तक, कुल नौकरीपेशा लोगों में से 19 प्रतिशत (जो 2019-20 में 21.2 प्रतिशत था उससे नीचे जाते हुए) नौकरीपेशा वर्कर शामिल है. आँकड़े बताते हैं कि, इस दौरान लगभग 9.5 मिलियन नौकरियां खत्म हो गई हैं. उल्लेखनीय तौर पर, उद्यमियों के बीच ही लगभग 1 मिलियन नौकरियां ख़त्म हो गई हैं. इस समय के दौरान उचित संख्या में नौकरियों का सृजन भी हुआ है, जिसके अंतर्गत कंस्ट्रक्शन, कृषि और कई अन्य कम लाभकारी पेशों में, काफी बड़ी संख्या में कम पगार पर नौकरियों का सृजन हुआ है. एक तरफ जहां इससे उबरने के संकेत नज़र आ रहे थे, वहीं भारत की हाल की श्रम सांख्यिकी इसके विपरीत एक धुंधली छवि बनाती है. CMIE के निदेशक, महेश व्यास के अनुसार,  मई माह में, भारतीय रोज़गार 404 मिलियन से भारी गिरावट के साथ 390 मिलियन तक गिर गई है. ग़ैर-लॉकडाउन के महीनों के दौरान, रोज़गार दर में अब-तक की सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई है. उनके अनुसार, पिछले 12 महीनों में, जून माह में रोज़गार अपने न्यूनतम संख्या पर थी. 

सेंटर ऑफ़ मॉनिट्रिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) द्वारा प्रकाशित हालिया रिपोर्ट के अनुसार, दिसंबर 2021 के अंत  तक, कुल नौकरीपेशा लोगों में से 19 प्रतिशत (जो 2019-20 में 21.2 प्रतिशत था उससे नीचे जाते हुए) नौकरीपेशा वर्कर शामिल है. आँकड़े बताते हैं कि, इस दौरान लगभग 9.5 मिलियन नौकरियां खत्म हो गई हैं

‘गतिहीन’ निजी क्षेत्र 

पिछले तीन दशक से भी ज्य़ादा समय से निजी क्षेत्र, नई नौकरियों के लिए एक प्रमुख आधार स्तंभ रहा है, ख़ासकर के, 1990 की शुरुआत में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के बाद, आज ये सेक्टर काफी बुरे दौर से गुज़र रहा है. पिछले एक दशक में, सभी क्षेत्रों में भर्ती, ख़ासकर के नियमित और कमोबेश उच्च देय वेतन वाली उत्पादन वाली नौकरीयों में काफी तीव्र गिरावट आयी है. संख्याओं से इतर, निजी क्षेत्र से जुड़ी नौकरियों की असल परेशानी है नौकरी की गुणवत्ता. बहुराष्ट्रीय कंपनियां बेहतरीन पे-मास्टर होते हैं, ये एक प्रचलित धारणा है, साथ ही ये भी कि इनकी वजह से मार्केट के भीतर बेहतर सैलरी स्ट्रक्चर तय करने में मदद हुई है, वो कर्मचारियों की एक बहुत ही छोटे प्रतिशत तक ही सीमित है. निजी क्षेत्र के श्रमशक्ति पर, कम पगार वाले श्रमिकों की संख्या बहुतायत में कायम है. अन्य कारण जो निजी क्षेत्र की नौकरियों को और भी ज्य़ादा अनाकर्षक बनाता है, वो है बहुत ही थोड़ी सामाजिक सुरक्षा कवर युक्त बढ़ता हुआ संविदाकारण या कॉन्ट्रैक्चुअल नौकरी. कोविड-19 महामारी की उपज के उपरांत, नौकरी की सुरक्षा संबंधी मुद्दा और भी गहरा हो गया. कोविड-19 महामारी की मार और उसके उपरांत लगी लॉकडाउन और उससे संबंधित प्रतिबंधों की वजह से लगभग 11 मिलियन नौकरियां तत्काल प्रभाव से प्रभावित हुई हैं. उड्डयन, यात्रा और हॉस्पिटैलिटी सरीखे सेक्टर, विशेष तौर पर प्रभावित हुए हैं.   

सरकारी नौकरियों के प्रति रुझान 

कार्यकाल सुरक्षा ने सरकारी कर्मचारियों को इस महामारी और सतत् आर्थिक मंदी के दुष्प्रभाव से लगभग सुरक्षित रखा है. और जिस चीज़ ने सरकारी कर्मचारियों को उनकी नौकरी के अलावे भी सुरक्षा प्रदान की वो है अपेक्षाकृत उच्च मज़दूरी. उदाहरण के लिए, पीरियॉडिक लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन (PLFP) डाटा (2019-20) के अनुसार, एक तरफ जहाँ सरकारी नौकरियों की औसत तनख़्वाह़ लगभग 28,000 रूपए है, वहीं निजी फर्मों में ये सैलेरी 17,000  रूपए की सीमा में है. स्कॉलर सोनल देसाई के अनुसार, अगर हम 10वीं-12वीं तक की पढाई किये हुए व्यक्ति की बात करें तो इनमें से जो किसी सरकारी महकमे में कार्यरत है, वो प्रतिमाह 25,000 रुपये कमाता है, जबकी उनकी तुलना में इतना ही शिक्षित व्यक्ति जब किसी निजी फर्म में काम करता है तो वो प्रति माह 12,000 रुपये कमाता है. तुलनात्मक तौर पर उच्च सैलेरी के अलावे भी, सार्वजनिक क्षेत्र में कार्यरत व्यक्ति और भी अन्य सुविधाओं को पाता है जिनमें प्रोविडेंट फंड/पेंशन, ग्रेच्युटी और मेडिकल ख़र्चे शामिल है, जिसका वो उपभोग करता है. निजी सेक्टर में कार्यरत काफी बड़ी संख्या के कर्मचारीयों को शायद ही उपरोक्त सुविधाएं प्राप्त होती हैं. सारांश में, औसत सैलेरी, सुरक्षित रोज़गार, और सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में सालो से सरकार और निजी क्षेत्र के मध्य काफी बड़ी खाई बन चुकी है. 

बहुराष्ट्रीय कंपनियां बेहतरीन पे-मास्टर होते हैं, ये एक प्रचलित धारणा है, साथ ही ये भी कि इनकी वजह से मार्केट के भीतर बेहतर सैलरी स्ट्रक्चर तय करने में मदद हुई है, वो कर्मचारियों की एक बहुत ही छोटे प्रतिशत तक ही सीमित है.

सरकारी नौकरियों में आर्थिक फ़ायदों के अलावे भी काफी चीजें हैं. सरकारी नौकरी से स्टेट्स, सामाजिक प्रतिष्ठा, और सामाजिक आवागमन के लिए व्यापक अवसर प्राप्त होती हैं. जैसा की विश्लेषक सही कहते हैं, सरकारी नौकरी लोगों को निजी तौर पर एक “सरकारी अधिकारी” का नया व्यवसायिक पहचान प्रदान करती हैं, जो कि गहन सशक्तिकरण का प्रतीक है. इसके आगे, सुविधाजनक नियम व शर्तें, कार्यकाल सुरक्षा, और सरकारी नौकरी में सैलेरी का नियमित रूप से ऊपर की ओर होने वाला संशोधन (पे कमीशन) ने समाज के मनःस्थिति पर गहरी छाप छोड़ी है जो बाज़ार को नाम मात्र का महत्व देता है. 

फिर भी, कडवी सच्चाई ये भी है कि पिछले दशक में, सार्वजनिक सेक्टर में चंद नौकरियों को ही अब ही जोड़ा जा सका हैं. इसे आगे नए बहाली के गंभीर आंकड़ों द्वारा स्पष्ट किया गया है. एक तरफ जहाँ 2020  में, केंद्रीय सरकार ने लगभग 119,000 लोगों को स्थायी नौकरी के तौर पर बहाल किया है, वहीं 2021 में, ये संख्या नाटकीय ढंग से 87,423 तक गिर गयी. ये स्थिति राज्य स्तर पर भी काफी अधिक अनिश्चित रही है. जहाँ राज्यों ने सन् 2020  में कुल 4,96,052  लोगों की बहाली की, वो 2021 आते-आते घट कर 389,052  लोगों तक आ गयी. एक तरफ जहाँ इन सबका संबंध कोविड-19 से रहा है, वहीं कई अन्य सरकारी विभागों में, जिन्हें काफी बड़े रिक्रूटर के तौर पर जाना जाता है, वहां पर भी काफी ज़्यादा गिरावट लगातार दर्ज की जा रही है. उदाहरण के लिए, भारतीय रेलवे, जो की एक काफी विशाल रोज़गारदाता है, उन्होंने भी विभिन्न विभागों में कुल 72,000  पोस्ट को खाली करायी है. ना सिर्फ़, सरकारी विभागों में बहाली में काफी तीव्र गिरावट आयी है, किन्तु ‘अस्थाईकरण’ (आकस्मिक और अस्थायी भारती) की प्रवृत्ति में भी काफी तेज़ी आयी है.  

सारांश 

एक तरफ जहाँ सरकार के भीतर प्रमुख नीति-निर्माता, अग्निपथ जैसे इस संभावित आकर्षक योजना के खिलाफ़ राष्ट्रव्यापी हिंसा जनित विरोध से अचंभित हैं, ये भी तय है कि उन्होंने विगत कई वर्षों से ऐसे ख़तरे की घंटी को नजरअंदाज़ नहीं किया है. निजी सेक्टर के रोज़गार में आई इस भयानक गिरावट खासकर के रोज़गार की क्वॉलिटी, और समय सुरक्षा में गिरावट के आलोक में, युवा काफी बेसब्री से सरकारी नौकरी की तरफ बाट जोहते नज़र आ रहे हैं. जहाँ इस चीज़ को हम काफी बड़ी संख्या में उच्च शिक्षित युवाओं (१५ मिलियन) द्वारा हाल के वर्षों में, रेलवे में, चंद हजार डी-श्रेणी के नौकरी का आवेदन करते दर्ज किये गए हैं, और बिहार और उत्तर प्रदेश में रेलवे और सेना में भरती में और अन्य मदों में हो रही विलंब के आलोक में किये गए हिंसक विरोध द्वारा परिलक्षित हुआ है. 

सरकारी नौकरियों में आर्थिक फ़ायदों के अलावे भी काफी चीजें हैं. सरकारी नौकरी से स्टेट्स, सामाजिक प्रतिष्ठा, और सामाजिक आवागमन के लिए व्यापक अवसर प्राप्त होती हैं. जैसा की विश्लेषक सही कहते हैं, सरकारी नौकरी लोगों को निजी तौर पर एक “सरकारी अधिकारी” का नया व्यवसायिक पहचान प्रदान करती हैं, जो कि गहन सशक्तिकरण का प्रतीक है.

इसके बावजूद, सरकार और अन्य स्टेकहोल्डर द्वारा इस दिशा में किये गए किसी भी प्रकार के सार्थक प्रयास, दृष्टव्य नहीं हैं. इस संकट को ध्यान में रखते हुए, हाल ही में केन्द्रीय सरकार ने, 18 महीनों में मिशन मोड में रहकर लगभग 10 लाख लोगों को रोज़गार प्रदान करने की घोषणा की है. एक तरफ जहाँ ये स्वागतयोग्य कदम है, फिर भी व्याप्त बेरोज़गारी और  जनसांख़ियकीय उभार, जो भारत में व्याप्त है, के मद्देनज़र, ये प्रयास समुद्र में एक बूँद मात्र है. आज, दो तिहाई भारतीय काम करने के उम्र में हैं. सारांश में, हाल के दिनों में, इससे पहले की लोग सडकों पर उतर जाएँ, इस बढ़ते हुए बेरोज़गारी और युवाओं में बढ़ते मोहभंग के प्रति हर स्तर पर स्थित सरकारों को इस मुद्दे पर गंभीर चिंतन करने की दरकार है.  

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