Author : Niranjan Sahoo

Expert Speak Terra Nova
Published on Jun 07, 2024 Updated 0 Hours ago

जलवायु परिवर्तन का असर कम करने के लिए कार्बन उत्सर्जन और अनुकूलन के प्रयासों को आगे ले जाने के लिए सहयोगात्मक संघवाद आज वक़्त की मांग है.

जलवायु परिवर्तन: इस चुनौती से निपटने के लिए भारत के पास हो अंतर-सरकारी संस्थान?

यह लेख ‘ये दुनिया का अंत नहीं: विश्व पर्यावरण दिवस 2024’ निबंध श्रृंखला का हिस्सा है.


तेज़ी से बढ़ रहा जलवायु का संकट जो बार बार भयंकर मौसम की घटनाओं के तौर पर नज़र आ रहा है, उसने लोकतांत्रिक व्यवस्था को मुश्किल में डाल दिया है. बहुत से विश्लेषकों को लगता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था (लोकप्रिय संप्रभुता; चुने हुए प्रतिनिधियों के उत्तरदायित्व और प्रतिक्रिया देना; सुस्त नीतिगत प्रक्रिया और अल्पकालिक सोच की वजह से) जलवायु परिवर्तन के तबाही लाने वाले प्रभावों को रोक पाने के लिए सही नहीं है, और जलवायु परिवर्तन के जोख़िमों से तेज़ी से निपटने और इसके उथल पुथल मचाने वाले प्रभावों को कम करने के मामले में तानाशाही हुकूमतें ज़्यादा उपयुक्त हैं. हो सकता है कि इस बात में कुछ सच्चाई हो. पर, तानाशाही व्यवस्थाओं और उनके असरदार होने को लेकर जो तर्क दिए जा रहे हैं, उनमें बहुत सी ख़ामियां हैं. ये बात हाल की मिसालों से और स्पष्ट हो जाती है. इसका एक बड़ा उदाहरण, चीन के कोविड-19 महामारी से निपटने का है. संक्रमण रोकने में शुरुआती सफलता के बावजूद, कोविड-19 महामारी से निपटने में चीन लगातार संघर्ष करता रहा था (ज़ीरो कोविड). ये इस बात का उदाहरण है कि कोई तानाशाही व्यवस्था अपने तुरंत फ़ैसले ले पाने की सारी ताक़त के बावजूद, अक्सर नाकाम हो जाती है. इसकी तुलना में बड़े खुले और विविधता भरे लोकतंत्रों जैसे कि अमेरिका और भारत ने शुरुआती झटकों के बावजूद इस वैश्विक महामारी से चीन और दूसरे तानाशाही व्यवस्था वाले देशों की तुलना में कहीं ज़्यादा असरदार तरीक़े से निपटने में सफलता हासिल की. इस संदर्भ में हम इस लेख में ये तर्क दे रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए संघीय व्यवस्थाओं और विकेंद्रीकृत प्रक्रियाओं को मज़बूत करना आवश्यक है, क्योंकि ये चुनौती आज भारत राष्ट्र और समाज के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बन गई है. इस लेख में तर्क दिया गया है कि भारत में जलवायु परिवर्तन से निपटने के संघर्ष को संघवाद की बुनियाद पर (केंद्र और राज्यों के बीच बहुस्तरीय सहयोग के ज़रिए) आगे बढ़ाना होगा.

 हम इस लेख में ये तर्क दे रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए संघीय व्यवस्थाओं और विकेंद्रीकृत प्रक्रियाओं को मज़बूत करना आवश्यक है, क्योंकि ये चुनौती आज भारत राष्ट्र और समाज के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बन गई है.

जलवायु परिवर्तन और भारत का केंद्र के दबदबे वाला संघीय ढांचा

 

भारत में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन जैसे मसलों से तमाम स्तरों पर और सहयोग की रूप-रेखा के तहत निपटा जाता है, जिसमें कई तरह के संस्थान और प्रक्रियाएं शामिल होती हैं. सत्ता का संवैधानिक बंटवारा (7वीं अनुसूची के मुताबिक़) केंद्र सरकार को अहम क्षेत्रों में (पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में) अधिकार देता है. जैसे कि परमाणु ऊर्जा और खनिज संसाधन, तेल और पेट्रोलियम उत्पाद और खदानों एवं खनिजों के मुख्य बिंदु. साझा क्षेत्रों में जंगल, और बिजली से जुड़े मसलों से केंद्र और राज्यों की सरकारें मिलकर निपटती हैं (हालांकि, इसमें भी आख़िरी फ़ैसला केंद्र सरकार के हाथ में होता है). राज्यों की सरकारों को कृषि, जल, ज़मीन, खनिजों और खदानों के कुछ पहलुओं, गैस और स्थानीय सरकारों से जुड़े अधिकार हासिल होते हैं. हालांकि, अमेरिका, कनाडा और जर्मनी जैसे आदर्श संघीय व्यवस्थाओं वाले देशों की तुलना में भारत की संघीय दबदबे वाली आभासी व्यवस्था में केंद्र को कुछ ज़्यादा ही अधिकार प्राप्त हैं. राज्यों की तुलना में केंद्र सरकार के पास बहुत अधिक वित्तीय अधिकार और संस्थागत क्षमताएं होती हैं और वो जलवायु परिवर्तन से जुड़ी तमाम नीतियों के मामलों में एजेंडा तय करने का अधिकार भी रखती है. इसमें वो अधिकार क्षेत्र भी शामिल हैं, जो राज्यों के विशेषाधिकार माने जाते हैं, जैसे कि पानी और कृषि.

 

इसको उदाहरण के ज़रिए समझना हो तो, केंद्र सरकार मोटे तौर पर राष्ट्रीय नीतियां बनाने, संघीय क़ानून लागू करने और जलवायु परिवर्तन से जुड़े अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों, संवादों और संधियों में देश की अगुवाई करती है. जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में भारत के राष्ट्रीय प्रयासों का नेतृत्व केंद्र सरकार का पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MEFCC) करता है. एक मुख्य संस्था के तौर पर ये मंत्रालय अलग अलग स्तरों पर देश की प्रतिक्रिया में तालमेल बिठाता है. इसमें केंद्र और राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों जैसी अहम संस्थाओं और पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन से जुड़ी अन्य वैधानिक संस्थाओं से अलग-अलग तरह के काम लेता है. जलवायु परिवर्तन से निपटने की ज़ाहिर राष्ट्रीय रणनीति के मामले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने 2007 में जलवायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री की परिषद (PMCCC) के नाम से एक अहम संस्था का गठन किया था, ताकि देशव्यापी प्रयासों में एकजुटता लाई जा सके. इसके एक साल बाद केंद्र सरकार ने जलवायु परिवर्तन पर नेशनल एक्शन प्लान (NAPCC) को शुरू किया था, जिसके अंतर्गत आठ राष्ट्रीय मिशन (जैसे कि सोलर मिशन, वाटर मिशन वग़ैरह) शुरू किए गए थे.

 जलवायु परिवर्तन से निपटने की प्रमुख पहलों को आगे बढ़ाने में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा निजी तौर पर दिलचस्पी लेने की वजह से जलवायु से जुड़े मसलों पर प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) देश के तमाम अभियानों की धुरी के तौर पर उभरा.

वर्ष 2014 में कुर्सी संभालने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्तर के कई संस्थानों और पहलों की शुरुआत की ताकि जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों में तेज़ी लाई जा सके. प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में प्रधानमंत्री किसान ऊर्जा, सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान (PM-KUSUM) की शुरुआत की गई. मोदी सरकार ने 2020 में कारोबारी क्षेत्र, रिसर्च करने वाली संस्थाओं, थिंक टैंक और सामान्य नागरिकों के बीच ज्ञान और तकनीकी विशेषज्ञता को इकट्ठा करने के लिए पेरिस समझौता लागू करने की शीर्ष समिति (AIPA) के नाम से एक नई संस्था का गठन किया था. जलवायु परिवर्तन से निपटने की प्रमुख पहलों को आगे बढ़ाने में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा निजी तौर पर दिलचस्पी लेने की वजह से जलवायु से जुड़े मसलों पर प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) देश के तमाम अभियानों की धुरी के तौर पर उभरा. इसके अतिरिक्त नीति आयोग और राष्ट्रीय ग्रीन ट्राइब्यूनल (NGT) जैसी संस्थाएं भी हैं, जो जलवायु संबंधी मसलों से जुड़ी नीतियों को आकार देती हैं और इनसे जुड़े नियम लागू करती हैं.

 

उप-राष्ट्रीय स्तर की पहलें

 

जहां राष्ट्रीय स्तर की नीतियों और गतिविधियों की अगुवाई केंद्र सरकार कर रही है. लेकिन, लागू करने के मामले में वास्तविक कार्य तो उप-राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे हैं. विशेष रूप से क्षमता निर्माण के मामले में राज्य सरकारों को बेहद अहम ज़िम्मेदारियां दी गई हैं (जिनका ज़िक्र पहले किया गया है); और, जलवायु परिवर्तन से निपटने के संघर्ष में राज्यों की सरकारें ये ज़िम्मेदारियां अपने नीचे काम करने वाली संस्थाओं (विशेष रूप से शहरों/ स्थानीय निकायों) से जुड़ी तमाम संस्थाओं को सौंपती रही हैं. भारत के नेट ज़ीरो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन कम करने के दुनिया से किए गए वादे पूरे करने की ज़्यादातर राज्य स्तरीय पहल को स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (SAPCCs) की अगुवाई में चलाया जा रहा है. क्लाइमेट ग्रुप की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़, हाल के वर्षों में राज्यों की ऐसी 32 कार्य योजनाओं का एलान किया गया है. 

 जलवायु परिवर्तन से निपटने की प्रमुख पहलों को आगे बढ़ाने में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा निजी तौर पर दिलचस्पी लेने की वजह से जलवायु से जुड़े मसलों पर प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) देश के तमाम अभियानों की धुरी के तौर पर उभरा.

राज्यों से नीचे (तीसरे स्तर की व्यवस्था में) पंचायतें (ग्रामीण स्थानीय निकाय) और शहरी स्थानीय निकाय (ULBs) हैं. इन्हें जलवायु परिवर्तन संबंधी योजनाएं लागू करने की अहम संस्थाएं माना जाता है. आज जलवायु परिवर्तन से लड़ने के अधिकार और ज़िम्मेदारियों को ज़्यादा से ज़्यादा इन्हीं स्थानीय निकायों को सौंपा जा रहा है. मिसाल के तौर पर केरल इंस्टीट्यूट ऑफ लोकल एडमिनिस्ट्रेशन (KILA) ने जलवायु परिवर्तन से मुक़ाबले की योजनाओं और रणनीतियों को जारी किया है. केरल की कम से कम 300 पंचायतें भी जलवायु के लिए मुफ़ीद सरकारी योजनाओं को लागू करने की पहलों में शामिल हो गई हैं. वहीं, आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय (MHUA) ने शहरी स्थानीय निकायों से गुज़ारिश की है कि वो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए शहर के स्तर की पहलों और आंशिक अप्रवास से जुड़ी योजनाओं की अगुवाई करें.

 

अंतर-सरकारी संस्थान: समय की मांग

 

वैसे तो बहुस्तरीय प्रशासन कागज़ों पर बहुत मज़बूत और आपसी तालमेल वाला मालूम होता है. लेकिन, अगर हम हाल के दिनों में देश भर में चल रही हीटवेव को लेकर इनकी सुस्त और लचर प्रतिक्रिया देखें, तो पता चलता है कि ये ढांचा कितना अलग-थलग और अराजक है. रिकॉर्ड तोड़ने वाली हीट वेव और इससे जुड़ी अन्य समस्याओं जैसे कई राज्यों में पानी की क़िल्लत की वजह से केंद्र और राज्यों की सरकारों के बीच आरोप प्रत्यारोपों की बाढ़ आ गई है.

 कुल मिलाकर देखें, तो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करने और अनुकूलन से जुड़े व्यापक क़दमों को लागू करने के लिए सहयोगात्मक संघवाद आज वक़्त की मांग बन चुका है.

ये समस्या काफ़ी हद तक ख़राब संस्थागत ढांचे की वजह से पैदा होती है. एक विशाल देश में अपनी ज़बरदस्त वित्तीय शक्ति की वजह से ज़्यादातर प्रयासों की अगुवाई केंद्र सरकार करती है. लेकिन, दुनिया से किए गए भारत के वादे और विदेश नीति संबंधी प्रतिबद्धताएं लागू करने की ज़िम्मेदारी उप-राष्ट्रीय इकाइयों के हवाले होती है. जबकि इन इकाइयों के पास वो क्षमताएं और अहम वित्तीय संसाधन नहीं हैं, जो इन्हें लागू करने के लिए ज़रूरी हैं. मिसाल के तौर पर SAPCCs को काफ़ी तवज्जो दी गई है. फिर भी, संसाधनों और प्रतिबद्ध नेतृत्व के अभाव की वजह से इनमें से ज़्यादातर राज्य स्तरीय योजनाओं में मामूली या न के बराबर प्रगति हुई है. जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ लड़ाई के अहम पहलुओं के मामलों में केंद्र और राज्यों की सरकारों के बीच नीतिगत तालमेल का अभाव साफ़ नज़र आता है. प्रशासन के तीसरे स्तर पर वैसे तो संविधान के 73वें और 74वें संशोधन क़ानूनों ने विकेंद्रीकृत प्रक्रिया के अहम पहलुओं में खुलापन लाने का काम ज़रूर किया है. फिर भी पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों को जलवायु के मुफ़ीद कार्ययोजनाएं लागू करने के मामले में विशाल चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. क्योंकि, राज्यों की तरफ़ से उन्हें पर्याप्त ज़िम्मेदारियां और वित्तीय संसाधन नहीं दिए गए हैं.

 

कुल मिलाकर देखें, तो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करने और अनुकूलन से जुड़े व्यापक क़दमों को लागू करने के लिए सहयोगात्मक संघवाद आज वक़्त की मांग बन चुका है. वैसे तो नेतृत्व प्रदान करने के मामले में केंद्र सरकार एक अहम स्रोत है. लेकिन, अलग अलग क्षमताओं और जलवायु परिवर्तन संबंधी कमज़ोरियों की वजह से राज्यों को लंबी लड़ाई की कमान अपने हाथ में लेनी होगी. चूंकि, संघीय व्यवस्था वाले किसी भी बड़े देश में मतभेद और तालमेल की कमी स्वाभाविक होती है, ख़ास तौर से जलवायु परिवर्तन जैसे जटिल मसलों को लेकर. ऐसे में भारत के नेतृत्व के लिए समय आ गया है कि वो इन संघर्षों को कम करने के लिए एक मज़बूत अंतर सरकारी संस्था का गठन करे, और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर तालमेल वाली नीतियों और कार्ययोजनाओं को आकार देने में मदद करे.

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