-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
भारत की सागर पहल हिंद महासागर में सिर्फ़ सुरक्षा तक ही सीमित नहीं है. इसके तहत विकास को भी प्राथमिकता बनाया गया है. यह बात पिछले साल तब स्पष्ट हो गई,
भारत, हिंद महासागर, अंतर्राष्ट्रीय मामले, समुद्री अध्ययन, पड़ोस, पड़ोस, सामरिक अध्ययन, इंडिया आउट अभियान,
अगर मालदीव के अधिकतर निवासी मीडिया में आई उन ख़बरों को लेकर फिक्रमंद रहे होंगे कि भारत मॉरीशस के एक सुदूर द्वीप पर नौसैनिक अड्डा बना रहा है तो अब उनकी यह चिंता दूर हो गई है. मॉरीशस सरकार ने फिर से स्पष्ट किया है कि देश की राजधानी पोर्ट लुइस से 1,100 किलोमीटर दूर अगालेगा द्वीप पर जो हवाई पट्टी और नावों के लिए घाट बनाए जा रहे हैं, वे भारतीय नौसेना के किसी अड्डे का हिस्सा नहीं हैं. यह बात इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि इसने मालदीव में भारत विरोधियों को अपनी नाराजगी सार्वजनिक करने का मौका नहीं दिया. इससे पहले कि वह इस मुद्दे पर कुछ बोल पाते, मॉरीशस सरकार के इस जवाब ने उनका मुंह बंद कर दिया.
यह पूरा बखेड़ा कतर के अल जजीरा की ‘इन्वेस्टिगेटिव यूनिट’ की एक रिपोर्ट से खड़ा हुआ. उसने ‘सैटेलाइट से ली गई तस्वीरों, वित्तीय आंकड़े और जमीनी साक्ष्यों’ के आधार पर दावा किया था कि मॉरीशस के द्वीप पर 25 करोड़ डॉलर की लागत से ‘नौसेना के लिए हवाई पट्टी और बंदरगाह बनाए जा रहे हैं’… ये भारत की खातिर बनाए जा रहे हैं, जो अपना प्रभाव ‘पश्चिम अफ्रीका में बढ़ाना चाहता है.’ अल जजीरा ने दावा किया कि यह भारत की सागर पहल का हिस्सा है, जिसका घोषित उद्देश्य ‘इस क्षेत्र में सबके लिए सुरक्षा और विकास’ सुनिश्चित करना है.
यह पूरा बखेड़ा कतर के अल जजीरा की ‘इन्वेस्टिगेटिव यूनिट’ की एक रिपोर्ट से खड़ा हुआ. उसने ‘सैटेलाइट से ली गई तस्वीरों, वित्तीय आंकड़े और जमीनी साक्ष्यों’ के आधार पर दावा किया था कि मॉरीशस के द्वीप पर 25 करोड़ डॉलर की लागत से ‘नौसेना के लिए हवाई पट्टी और बंदरगाह बनाए जा रहे हैं
शुक्र है, रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि 2015 में हुए एक द्विपक्षीय समझौते में मॉरीशस और भारत के बीच सहमति बनी थी कि ‘सुदूर द्वीप पर समुद्री और हवाई संपर्क को बेहतर बनाया जाएगा…जिससे वहां के निवासियों का जीवनस्तर बेहतर हो’ और इन सुविधाओं का लाभ मॉरीशस के तटरक्षक भी उठा सकेंगे. इससे यह बात साफ हो जानी चाहिए थी कि अगालेगा द्वीप पर जो सुविधाएं तैयार की जा रही हैं, उनका फायदा कोई उठाएगा भी तो वह मॉरीशस के तटरक्षक होंगे, ना कि भारतीय नौसेना.
वैसे इस रिपोर्ट में अल जजीरा ने मॉरीशस के प्रधानमंत्री प्रवींद जगन्नाथ का भी बयान दिया था. इस बयान में उन्होंने इस बात से साफ तौर पर इनकार किया था कि भारत के लिए वहां कोई सैन्य ठिकाना बन रहा है. उन्होंने कहा कि मई 2021 तक यहां ऐसा कुछ नहीं हो रहा था. मॉरीशस के प्रधानमंत्री ने अपनी संसद को बताया था, ‘मैं जोर देकर और बिना लागलपेट के यह बात दोहराना चाहता हूं कि अगालेगा में सैन्य ठिकाना बनाने के लिए मॉरीशस और भारत के बीच कोई समझौता नहीं हुआ है.’ अल जजीरा की रिपोर्ट के बाद फ्रांस की न्यूज एजेंसी एएफपी ने प्रधानमंत्री जगन्नाथ के सलाहकार केन एरियन के हवाले से बताया, ‘कोई समझौता नहीं हुआ है … अगालेगा में मिलिट्री बेस बनाने के लिए’. उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब 2015 में मॉरीशस की यात्रा पर आए थे, तब जो समझौता हुआ था, उसके तहत वहां दो परियोजनाओं पर काम चल रहा है. केन ने भी दोहराया कि ‘इन परियोजनाओं का सैन्य उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाएगा.’
अल जजीरा की रिपोर्ट की बात रहने भी दें तो मॉरीशस की हर सरकार किसी भी देश को सैन्य ठिकाना बनाने का अधिकार देने को लेकर बहुत सावधान रही है. हालांकि, 1960 के दशक के मध्य में देश के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने डिएगो गार्सिया में अमेरिकी सैन्य ठिकाना बनाने का अधिकार दिया था. मॉरीशस ने इसे लेकर मुकदमा लड़ा, लेकिन वह ब्रिटेन में सभी मुकदमे हार गया. हालांकि, इस मामले में संयुक्त राष्ट्र की आम सभा (यूएनजीए) से लेकर दूसरी जगहों पर उसने सारी राजनीतिक दलीलें और मुकदमे जीते.
2019 में यूएनजीए में 6 सदस्यों की गैरमौजूदगी के बीच 116-6 से उसने इस मामले में जीत हासिल की. इसके बाद संयुक्त राष्ट्र ने ब्रिटेन से डिएगो गार्सिया को 6 महीने के अंदर मॉरीशस को वापस करने को कहा. उसी साल हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय अदालत (आईसीजे) ने भी ब्रिटेन को ‘सलाह’ दी कि वह मॉरीशस को चागोस द्वीप लौटा दे, जहां डिएगो गार्सिया स्थित है. हालांकि, दोनों ही अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के फैसलों का कोई नतीजा नहीं निकला.
पुराने मॉरीशस द्वीप के मामले को लेकर यह नई रिपोर्ट ऐसे वक्त आई, जब मालदीव में कुछ समय से चल रहा ‘इंडिया आउट’ यानी भारत को बाहर निकालो अभियान कमजोर होकर अपनी प्रासंगिकता खो रहा था.
असल में, अल जजीरा इस्लामिक देश कतर का मीडिया समूह है. मालदीव भी मुस्लिम बहुल देश है, इसलिए वहां यह चैनल देखा जाता है. अगर मालदीव को केंद्र में रखकर देखें तो अल जजीरा की इस रिपोर्ट की टाइमिंग हैरान करती है. पुराने मॉरीशस द्वीप के मामले को लेकर यह नई रिपोर्ट ऐसे वक्त आई, जब मालदीव में कुछ समय से चल रहा ‘इंडिया आउट’ यानी भारत को बाहर निकालो अभियान कमजोर होकर अपनी प्रासंगिकता खो रहा था. पहली बात तो यह है कि इस अभियान को सिविल सोसाइटी से जोड़ने की कोशिश हुई, विपक्षी दल पीपीएम-पीएनसी ने इस तरह से दिखाया कि उसका इस प्रदर्शन से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन मालदीव के आम लोग उसके झांसे में नहीं आए. इस विपक्षी धड़े को पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन से जोड़कर देखा जाता है, जो अभी जेल में बंद हैं.
दूसरी बात यह है कि मालदीव के अधिकतर निवासी इस बात को नहीं भूले हैं कि एक दशक पहले, 2011-12 में जीएमआर विरोधी अभियान को किस तरह से तब के विपक्ष ने हाइजैक कर लिया था. उस वक्त भी यामीन विपक्ष का हिस्सा थे. जीएमआर विरोधी अभियान को भी कथित तौर पर धार्मिक समूहों ने शुरू किया था और कहने को उस अभियान को भी ‘इस्लामिक राष्ट्रवाद’ से जोड़ा गया था, जिसमें भारत को निशाना बनाया गया.
भारत की इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी जीएमआर के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान एक अहम मोड़ पर उसे माले एयरपोर्ट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट से बाहर करने के लिए दबाव बनाया गया. यामीन ने तब कहा था कि धार्मिक स्वयंसेवक संगठनों को जितना करना था, वे कर चुके हैं. उनसे अब उससे अधिक की उम्मीद नहीं की जा सकती. यामीन ने साफ-साफ कहा था कि इस मामले में भविष्य की राह क्या हो, अब यह फैसला नेताओं (उन जैसों) को करना होगा.
अल जजीरा की रिपोर्ट के बाद हाशिये पर पड़े वैसे समूह जिन्होंने खास मकसद से सोशल मीडिया पर ‘इंडिया आउट’ अभियान शुरू किया था, वे फिर से सक्रिय हो गए. वे खासतौर पर सोशल मीडिया पर अपना अभियान स्थानीय भाषा में चला रहे थे. इसके जरिये अगर वे मालदीव के आम लोगों की दिलचस्पी इस मुद्दे में जगा पाए हों तो इसके साथ उन्होंने उन लोगों को मॉरीशस के उस आधिकारिक संदेश के लिए भी तैयार किया, जिसमें उसने सुदूर द्वीप पर भारतीय नौसेना के लिए किसी निर्माण से इसी साल दो बार इनकार किया था. ‘इंडिया आउट’ अभियान में मालदीव के आम लोगों की दिलचस्पी न होने की वजह समझना उतना मुश्किल नहीं है. प्रदर्शनकारी इस मामले को लेकर कुछ भी कहें, मालदीव के आम नागरिक इसे घरेलू राजनीति का ही विस्तार मानते हैं.
‘इंडिया आउट’ अभियान में मालदीव के आम लोगों की दिलचस्पी न होने की वजह समझना उतना मुश्किल नहीं है. प्रदर्शनकारी इस मामले को लेकर कुछ भी कहें, मालदीव के आम नागरिक इसे घरेलू राजनीति का ही विस्तार मानते हैं.
खासतौर पर उन्हें लगता है कि यामीन कैंप उदार पड़ोसी भारत का इस्तेमाल राष्ट्रपति इब्राहीम इबू सोलिह की गठबंधन सरकार को नीचा दिखाने के लिए कर रहा है. इब्राहीम की मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) इस सरकार का नेतृत्व कर रही है. इस मामले ने उनके मन में उस घटना की याद ताजा कर दी है, जब यासीन के नेतृत्व वाले विपक्ष ने एक दशक पहले ‘जीएमआर कार्ड’ का इस्तेमाल मोहम्मद नशीद की सरकार पर दबाव बनाने के लिए किया था. वह सरकार भी एमडीपी की थी और उसे देश की पहली लोकतांत्रिक सरकार होने का गौरव हासिल था.
इससे भी महत्वपूर्ण बात मालदीव के आम लोगों के मन में भारत की छवि है. वे भारत को अपना ऐसा दोस्त मानते हैं, जिससे किसी भी मुश्किल घड़ी में या यूं भी मालदीव मदद के लिए संपर्क कर सकता है. भारत विरोध और ‘इस्लामिक राष्ट्रवाद’ की हिमायत करने वाले, और यहां तक कि यामीन कैंप या दूसरे धार्मिक समूहों का साथ देने वाले कट्टरपंथियों को भी दशकों से भारत की इस उदारता का निजी तौर पर फायदा हुआ है. जहां उन्हें निजी तौर पर लाभ नहीं हुआ है, वहां बच्चों समेत उनके रिश्तेदारों को भारत में बेहतर शिक्षा और रियायती स्वास्थ्य सुविधाएं मिली हैं. इनके साथ भारत ने मालदीव के लोगों के लिए ‘ओपन वीजा’ पॉलिसी भी अपनाई हुई है.
हालिया संदर्भ की बात करें तो मालदीव के आम लोगों की ‘इंडिया आउट’ कैंपेन में अगर मामूली दिलचस्पी भी रही होगी तो वह यामीन कैंप की हरकतों के कारण खत्म हो गई. यामीन समर्थकों ने ‘कोविड-19 की वजह से लगे लॉकडाउन’ को तोड़कर प्रदर्शन किए और इसी के साथ सोशल मीडिया पर भारत विरोधी अभियान भी चलाया गया. असल में, भारत मालदीव में 50 करोड़ डॉलर की लागत से ‘ग्रेटर माले कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट’ पर काम कर रहा है, जिससे वहां के आम लोगों को फायदा होगा. यामीन कैंप ने इस प्रोजेक्ट के लिए वहां मौजूद भारतीय हवाई जहाजों और कर्मचारियों को हटाने की पुरानी मांग फिर से दोहराई. इसका भी मालदीव के लोगों के बीच अच्छा संदेश नहीं गया. इसका सबूत यह है कि विपक्ष की इस मांग को लोगों का समर्थन नहीं मिला. मालदीव के दूरदराज के द्वीपों में रहने वाले लोगों को कई बार मेडिकल इमरजेंसी और जब समुद्र से यात्रा करना खतरनाक हो, तब भारतीय हवाई जहाजों ने मदद पहुंचाई है. इसलिए वे भारतीय एयरक्राफ्ट और वहां मौजूद दूसरे भारतीयों को लेकर सकारात्मक सोच रखते हैं. दक्षिण मालदीव में भारत ने अद्दू में एक कौंसुलेट खोलने का प्रस्ताव रखा है. इसके विरोध में भी वहां एक अभियान चलाया जा रहा है, लेकिन इस अभियान का स्थानीय लोग ही विरोध कर रहे हैं. असल में उन्हें इस कौंसुलेट की जरूरत है और उनकी इसे लेकर अपनी अपेक्षाएं हैं.
शीत युद्ध के बाद के दौर में मालदीव सहित हिंद महासागर स्थित पड़ोसी देशों को अच्छी तरह पता है कि भारत इस क्षेत्र में अकेला ऐसा देश है, जो उनकी बाहरी शत्रुओं से रक्षा कर सकता है और इसके लिए उन्हें इस क्षेत्र से बाहर की ‘शक्तियों’ की ओर हाथ फैलाने की जरूरत नहीं है.
कौंसुलेट का विरोध जब चरम पर था, तब भारतीय उच्चायुक्त संजय सुधीर ने बताया था कि तूतुकोड़ी से नई फेरी सेवा शुरू होने से दक्षिण मालदीव को क्या फायदे होंगे. उन्होंने भारत से अद्दू के लिए सीधी विमान सेवा की भी बात की थी. दक्षिण मालदीव के लोगों में इन प्रॉजेक्ट्स को लेकर दिलचस्पी थी क्योंकि उन्हें पता था कि इससे उनका पैसा और वक्त बचेगा. उन्हें वीजा लेने की खातिर राजधानी माले नहीं जाना होगा. यहां के व्यापारियों को भी ऐसी पहल से फायदा होने की उम्मीद है.
भारत की कई भाषाओं में ‘सागर’ शब्द का मतलब ‘समुद्र’ होता है. हिंद महासागर में अपने पड़ोसियों की खातिर समुद्री पहल को इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सागर का नाम दिया. वह इस मामले में पिछली मनमोहन सिंह सरकार की नीति पर ही चल रहे हैं, जिन्होंने कहा था कि भारत इस क्षेत्र में ‘सुरक्षा मुहैया कराएगा.’ यानी भारत की सरकारों में विदेश और रक्षा नीति को लेकर एक राजनीतिक सहमति रही है.
शीत युद्ध के बाद के दौर में मालदीव सहित हिंद महासागर स्थित पड़ोसी देशों को अच्छी तरह पता है कि भारत इस क्षेत्र में अकेला ऐसा देश है, जो उनकी बाहरी शत्रुओं से रक्षा कर सकता है और इसके लिए उन्हें इस क्षेत्र से बाहर की ‘शक्तियों’ की ओर हाथ फैलाने की जरूरत नहीं है. मालदीव और मॉरीशस में भारत अभी जिन परियोजनाओं पर काम कर रहा है, वे भी सागर पहल का हिस्सा हैं. इसी के तहत दोनों देश चाहते हैं कि भारत उनके तटरक्षकों के लिए बंदरगाह बनाए. दिलचस्प बात यह है कि मालदीव में इस परियोजना की पहल खुद यामीन सरकार ने की थी.
पिछले साल नवंबर में कोलंबो में 6 साल के अंतराल के बाद भारत, मालदीव और श्रीलंका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की हुई बैठक को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए, जिसमें ठंडे पड़े समुद्री सुरक्षा पहल का दर्जा बढ़ाकर ‘समुद्री और सुरक्षा पहल’ किया गया और उसे ‘कोलंबो सुरक्षा कॉन्क्लेव’ का नाम मिला. यह पहल श्रीलंका की राजधानी से संचालित हो रही है. पिछले साल की इस बैठक में यह सहमति भी बनी कि तीनों देशों के उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अब वर्चुअल बैठक करेंगे, जिनमें खास प्रस्तावों पर चर्चा की जाएगी. इनमें संयुक्त सेनाभ्यास भी शामिल है. इसके साथ रक्षा सहयोग के लिए ‘चार स्तंभों’ पर भी काम करने का निर्णय लिया गया. इनमें समुद्री सुरक्षा, मानव तस्करी, आतंकवाद विरोधी और कट्टरपंथ को रोकने के साथ साइबर सुरक्षा शामिल हैं.
भारत की सागर पहल हिंद महासागर में सिर्फ़ सुरक्षा तक ही सीमित नहीं है. इसके तहत विकास को भी प्राथमिकता बनाया गया है. यह बात पिछले साल तब स्पष्ट हो गई, जब भारत ने कार्गो फेरी सेवा शुरू की, जिसने माले को दक्षिण भारत के तूतुकोड़ी बंदरगाह से जोड़ा. इसे उत्तर मालदीव के कुलहुधूफुशी द्वीप और पश्चिम भारत के तटीय शहर कोच्चि के जरिये जोड़ा गया. इसके बाद से भारत ने मालदीव के कोच्चि-माले फेरी सेवा के लिए स्थायी तौर पर कोलंबो जाने के प्रस्ताव को भी मंजूर कर लिया क्योंकि इससे मालदीव के व्यापारियों को भारतीय बाजार में पैठ बनाने में मदद मिलेगी.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
N. Sathiya Moorthy is a policy analyst and commentator based in Chennai.
Read More +