-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
जो बाइडेन ये समझते हैं कि ये वो समय है जब उन्हें घरेलू मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित करना होगा, जिससे कि उन मूल्यों को संरक्षित किया जा सके, जिनका पालन वो ख़ुद करते हैं. बाइडेन पर ये ज़िम्मेदारी है कि वो अपने देश के विज़न को मज़बूत बनाएं.
एशिया के कई देशों में इस वक़्त ये ख़्वाब देखा जा रहा है कि जो बाइडेन की नीतियों से, दुनिया को रौंदते हुए आगे बढ़ रहे चीन को ज़्यादा मज़बूती, एक होकर और नियमितता से जवाब दिया जा सकेगा. हो सकता है कि ये ख़्वाब सच भी हो जाए. लेकिन, ये काम जो बाइडेन प्रशासन हड़बड़ी में नहीं करना चाहेगा. इसके कई कारण हैं. आसान शब्दों में कहें तो, नए अमेरिकी प्रशासन की अहमियत अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति की तुलना में अलग होंगी. फिर चाहे वो घरेलू मोर्चा हो या विदेश नीति का मामला.
आज अमेरिका जिस मोड़ पर खड़ा है, उसमे जो बाइडेन हों, या कोई और नेता अमेरिका का राष्ट्रपति होता, वो कोविड-19 महामारी से अपने देश में मची तबाही की तल्ख़ हक़ीक़त को अनदेखा नहीं कर सकता. ऐसे में जो बाइडेन को भी तुरंत और लगातार ऐसे प्रयास करने होंगे जिससे इस महामारी के अपने नागरिकों और अर्थव्यवस्था की सेहत पर पड़ रहे बुरे प्रभाव को कम कर सके.
सबसे पहली और प्रमुख बात तो ये है कि आज अमेरिका जिस मोड़ पर खड़ा है, उसमे जो बाइडेन हों, या कोई और नेता अमेरिका का राष्ट्रपति होता, वो कोविड-19 महामारी से अपने देश में मची तबाही की तल्ख़ हक़ीक़त को अनदेखा नहीं कर सकता. ऐसे में जो बाइडेन को भी तुरंत और लगातार ऐसे प्रयास करने होंगे जिससे इस महामारी के अपने नागरिकों और अर्थव्यवस्था की सेहत पर पड़ रहे बुरे प्रभाव को कम कर सके. एक आकलन कहता है कि एक जून 2021 तक अमेरिका में कोविड-19 से होने वाली मौत की संख्या 6 लाख 30 हज़ार 881 तक पहुंच जाएगी. याद रहे कि आज अमेरिका में इस महामारी के शिकार सिर्फ़ बुज़ुर्ग ही नहीं हो रहे हैं. अब तक अमेरिका में जितने लोगों की मौत हुई है, उनमें से लगभग 20 प्रतिशत लोगों की उम्र 25 से 64 वर्ष के बीच रही थी. ज़ाहिर है इनमें से बहुत से ऐसे भी होंगे, जो अमेरिका के कामकाजी तबक़े से ताल्लुक़ रखते होंगे. उनकी मौत और अमेरिकी अर्थव्यवस्था के बहुत से सेक्टर में मची उठा-पटक ने निश्चित रूप से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंचाई है. हार्वर्ड के दो प्रमुख अर्थशास्त्रियों डेविड कटलर और लॉरेंस समर्स का अनुमान है कि कोविड-19 से अमेरिका की अर्थव्यवस्था को 16 ख़रब डॉलर का नुक़सान होने की आशंका है, वो भी तब जब अमेरिका में ये महामारी इस साल के आख़िर तक क़ाबू में कर ली जाए. सेहत को हुए नुक़सान के साथ-साथ ये अमेरिका के आधुनिक इतिहास की सबसे भयानक आर्थिक तबाही है. महामारी से अमेरिका के वास्तविक आर्थिक उत्पादन को 8 ख़रब डॉलर का नुक़सान पहुंचा है. ये आकलन ख़ुद अमेरिका के संसदीय बजट ऑफ़िस का है. अमेरिका को महामारी से हुई आर्थिक क्षति का बाक़ी का हिस्सा असमय मौत और मानसिक सेहत को महामारी से पहुंचे नुक़सान के कारण होंगे. अगर हम तुलनात्मक रूप से समझना चाहें, तो बस ये जान लीजिए कि अमेरिका ने इक्कीसवीं सदी के पहले पूरे दशक के दौरान, व्यर्थ के इराक़ युद्ध में जो रक़म ख़र्च की थी, वो महज़ तीन ख़रब डॉलर थी.
महामारी से अमेरिका के वास्तविक आर्थिक उत्पादन को 8 ख़रब डॉलर का नुक़सान पहुंचा है.
जो बाइडेन को उलझाए रखने वाली एक अन्य प्रमुख घरेलू चुनौती, देश की राजनीति के चलते अमेरिकी समाज में हुआ बंटवारा है. आज जो बाइडेन एक ऐसे अमेरिका के राष्ट्रपति हैं, जहां के नागरिकों की बड़ी संख्या ये मानती ही नहीं कि बाइडेन ने वैधानिक तरीक़े से चुनाव जीता है. ऐसे में बाइडेन प्रशासन की नीतियां निश्चित रूप से घर में समर्थन न होने से कमज़ोर होंगी. इसीलिए, जो बाइडेन की प्राथमिकता अमेरिका को राजनीतिक रूप से एकजुट करने की होगी. तभी वो विश्व मंच पर अपनी मज़बूत उपस्थिति का एहसास करा सकेंगे. आप देख सकते हैं कि कोविड-19 महामारी से निपटने में नाकामी और कैपिटल हिल पर हुए दंगों ने विश्व में अमेरिका की हैसियत को काफ़ी नुक़सान पहुंचाया है. ऐसे में जो बाइडेन का ध्यान इस बात पर होगा कि वो आर्थिक गतिविधियों में आई कमी से जूझ रहे औद्योगिक क्षेत्रों और वायरस की वजह से दर-बदर हुए अपने नागरिकों की मदद कर सकें. अमेरिका की अर्थव्यवस्था के इस संकट से उबरने और कोविड-19 से पहले के स्तर पर 2022 से पहले पहुंच पाने की उम्मीद कम ही है. हो सकता है कि देश में रोज़गार के हालात स्थिर होने में इससे भी ज़्यादा समय लग जाए.
जो बाइडेन ने जिस दिन राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी, उसी दिन उन्होंने ‘अमेरिका को बचाने’ की दो चरणों वाली योजना का एलान किया था. इसका पहला क़दम ये था कि टीकाकरण, ज़्यादा से ज़्यादा टेस्ट करने और प्रभावित लोगों को तुरंत मदद पहुंचाकर वायरस के दुष्प्रभावों का मुक़ाबला किया जाए; वहीं अमेरिका रेसक्यू प्लान के दूसरे चरण में अच्छे वेतन वाली लाखों नौकरियों का सृजन किया जाए. जलवायु संकट और तेज़ी से बढ़ रही नस्लीय असमानता की चुनौतियों का डट कर सामना किया जाए. अपने प्रचार अभियान के दौरान भी जो बाइडेन ने अपने देश में नई जान फूंकने के लिए विशाल बिल्ड अमेरिका प्लान की घोषणा की थी. इस योजना का लक्ष्य न सिर्फ़ ये था कि अमेरिका के निर्माण क्षेत्र की ताक़त को दोबारा बहाल किया जाए, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को एक ऐसी नई राह पर आगे बढ़ाया जाए, जिससे वो चीन का मुक़ाबला कर सके. इस योजना के केंद्र में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम इन्फॉर्मेशन, एडवांस्ड मैटेरियल, स्वास्थ्य, दवाओं, बायोटेक, ऑटो और एयरोस्पेस क्षेत्र में इनोवेशन के लिए 300 अरब डॉलर की फंडिंग की व्यवस्था करना था. कुल मिलाकर कहें तो, जो बाइडेन का इरादा अमेरिका को तकनीक के क्षेत्र में चीन से सीधे मुक़ाबले के लिए तैयार करना है. इसीलिए इस योजना के तहत, जो बाइडेन इनोवेशन और मैन्यूफैक्चरिंग को हर क्षेत्र में बढ़ावा देना चाहते हैं, जिससे कि वो अमेरिका के सभी इलाक़ों और नागरिकों तक पहुंचे. इसके लिए उच्च स्तर के प्रशिक्षण के कार्यक्रमों के माध्यम से कामगारों को तैयार किया जाएगा.
अपने प्रचार अभियान के दौरान भी जो बाइडेन ने अपने देश में नई जान फूंकने के लिए विशाल बिल्ड अमेरिका प्लान की घोषणा की थी.
जो बाइडेन ने राष्ट्रीय आर्थिक परिषद के प्रमुख के तौर पर ब्रायन डीस का चुनाव किया है. ब्रायन डीस का कहना है कि प्रेसिडेंट बाइडेन तकनीकी क्षेत्र में अमेरिका को अगुवा बनाए रखने के लिए उसकी मूल शक्तियों को नए सिरे से निर्मित करना चाहते हैं. ब्रायन डीस का कहना है कि जो बाइडेन, नए प्रतिबंध और व्यापार कर लगाकर चीन के विस्तार को रोकने की कोशिश करने में समय बर्बाद नहीं करना चाहते. इसीलिए, जो बाइडेन प्रशासन घरेलू निवेश पर ज़ोर देंगे, जो सिर्फ़ उद्योगों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि वो कामकाजी लोगों में भी निवेश करेंगे. जो बाइडेन की व्यापक रणनीति में अमेरिका के सहयोगी देशों और गठबंधन के साथियों के साथ सहयोग की भी महत्वपूर्ण भूमिका होगी.
बाइडेन प्रशासन की विदेश नीति संबंधी प्राथमिकताएं क्या होंगी, इसकी जानकारी ख़ुद राष्ट्रपति बाइडेन ने 4 फ़रवरी को विदेश विभाग में अपने भाषण के ज़रिए दी थी. जो बाइडेन ने सबसे स्पष्ट तौर पर कहा था कि उनकी नज़र में रूस ही अमेरिका का सबसे बड़ा दुश्मन है. बाइडेन ने कहा था कि अमेरिका, ‘रूस की हरकतों का डटकर सामना करेगा. फिर चाहे वो अमेरिका के चुनावों में दख़लंदाज़ी हो, साइबर हमले हों या ख़ुद अपने नागरिकों को ज़हर देने की घटनाएं हों.’ जो बाइडेन ने रूस के विपक्षी नेता एलेक्सी नवालनी के साथ हुए बर्ताव को लेकर भी रूस की आलोचना की और कहा कि नवालनी को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है, क्योंकि वो अपने देश में फैले भ्रष्टाचार को उजागर कर रहे हैं.
जो बाइडेन प्रशासन घरेलू निवेश पर ज़ोर देंगे, जो सिर्फ़ उद्योगों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि वो कामकाजी लोगों में भी निवेश करेंगे. जो बाइडेन की व्यापक रणनीति में अमेरिका के सहयोगी देशों और गठबंधन के साथियों के साथ सहयोग की भी महत्वपूर्ण भूमिका होगी.
बाइडेन के भाषण में चीन को लेकर भी रवैया सख़्त ही रहा था. उन्होंने ‘चीन के आर्थिक अपराधों के लिए उसे चुनौती देने; चीन की आक्रामक और दादागीरी वाली हरकतों का जवाब देने; मानव अधिकारों, बौद्धिक संपदा और वैश्विक प्रशासन के मुद्दों पर चीन को मुंह तोड़ जवाब देने’ की ज़रूरत बताई थी. हालांकि, बाइडेन ने ये भी कहा था कि, ‘अमेरिका के हितों के लिए ज़रूरी होने पर हम चीन के साथ मिलकर काम करने को भी तैयार हैं.’
जो बाइडेन ने विदेश विभाग में अपने भाषण में ये भी कहा था कि, ‘हमें सहयोग और लोकतांत्रिक गठबंधनों की ताक़त को मज़बूत बनाने की आदत दोबारा डालनी होगी.’ बाइडेन ने दोस्ती मज़बूत करने के लिए जिन देशों का नाम लिया वो हैं- कनाडा, मेक्सिको, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, नैटो, जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया. यहां आप ध्यान दीजिए कि बाइडेन के भाषण में भारत या दक्षिणी पूर्वी एशिया और मध्य पूर्व के देशों का ज़िक्र तक नहीं आया. यहां तक कि उन्होंने इज़राइल का भी नाम नहीं लिया. कहने की ज़रूरत नहीं है कि बाइडेन के भाषण में ‘हिंद-प्रशांत’ शब्द का भी कोई ज़िक्र नहीं था.
इस बात की बड़ी चर्चाएं हो रही हैं कि जो बाइडेन, मध्य एशिया से हटाकर अमेरिका का ध्यान एशिया पर केंद्रित करेंगे. लेकिन, ये कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल है. मध्य पूर्व में अभी ऐसे बहुत से मिशन हैं, जो अधूरे हैं और जिन्हें ख़त्म करना ज़रूरी है. जैसे कि यमन में भयंकर युद्ध का समापन करना, ईरान के साथ परमाणु समझौते को दोबारा पटरी पर लाना और इज़राइल-फ़िलीस्तीन का मसला तो है ही.
इस बात की बड़ी चर्चाएं हो रही हैं कि जो बाइडेन, मध्य एशिया से हटाकर अमेरिका का ध्यान एशिया पर केंद्रित करेंगे. लेकिन, ये कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल है. मध्य पूर्व में अभी ऐसे बहुत से मिशन हैं, जो अधूरे हैं और जिन्हें ख़त्म करना ज़रूरी है.
जो बाइडेन ने एशिया संबंधी नीति के लिए एक प्रभावशाली टीम का गठन किया है. हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए उन्होंने कुर्ट कैंपबेल की अगुवाई में जो टीम बनाई है, वो अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में किसी भी क्षेत्र के लिए गठित सबसे बड़ी टीम है. इसी से अमेरिका के लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र की अहमियत स्पष्ट हो जाती है. चीन, जिसे जो बाइडेन ने, ‘हमारा सबसे गंभीर प्रतिद्वंदी’ कहा है, वो निश्चित रूप से जो बाइडेन की विदेश नीति की टीम की सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी. इसमें तकनीक, वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा, रक्षा, लोकतंत्र, मानव अधिकार और अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र जैसे मुद्दे शामिल होंगे. और निश्चित रूप से अमेरिका के नए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी चीन को प्राथमिकता के आधार पर देखेंगे.
लेकिन, यहां ये ध्यान देने वाली बात है कि कुर्ट कैंपबेल, कैबिनेट स्तर के पद पर नहीं नियुक्त किए गए हैं. बाइडेन ने अपनी विदेश नीति संबंधी टीम में जिन लोगों को कैबिनेट रैंक पर नियुक्त किया है, उनमें विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकेन हैं, जो मध्य पूर्व मामलों के विशेषज्ञ माने जाते हैं. ब्लिंकेन की मातहत विदेश उप मंत्री वेंडी शरमन भी मध्य पूर्व की विशेषज्ञ कही जाती हैं. वहीं, संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की नई राजदूत लिंडा थॉमस ग्रीनफील्ड को अफ्रीका मामलों की जानकार कहा जाता है. अमेरिकी व्यवस्था ऐसी है, जिसमें बारीक़ जानकारियों और सूचना को बहुत अधिक तवज्जो दी जाती है. ऐसे में बहुत से मुद्दों से अक्सर ध्यान भटक जाता है. अहम मुद्दों के साथ ऐसा न हो, इसके लिए अमेरिकी अफ़सरशाही की व्यवस्था में ऐसे विषयों को लगातार आगे बढ़ाते रहने की ज़रूरत पड़ती है.
लेकिन, आप इस बात को लेकर निश्चिंत हो सकते हैं कि एक अनुभवी राजनेता होने के नाते, जो बाइडेन ये बात अच्छी तरह समझते हैं कि ये समय घरेलू मसलों पर ध्यान देने का है. तभी वो उन मूल्यों और अपने देश के उस विज़न को संरक्षित कर सकेंगे, जिन पर उनका ख़ुद यक़ीन रहा है. इसीलिए, विदेश नीति के मसले को वो अपने मातहत अधिकारियों के हवाले कर देंगे. हां, कभी-कभार विदेश नीति के किसी गंभीर संकट के दौरान ज़रूर उनका दख़ल देखने को मिलेगा. अमेरिका के सामने तो ऐसे संकट अक्सर खड़े हो जाते हैं. हमने देखा है कि विदेश नीति के मसलों ने कई राष्ट्रपतियों के घरेलू एजेंडे को पटरी से उतारा है, जिन्होंने अपने देश पर ध्यान देने का वादा किया था. हम जॉर्ज डब्ल्यू बुश, बराक ओबामा और कुछ हद तक ख़ुद डॉनल्ड ट्रंप के दौर में ऐसा देख चुके हैं. लेकिन, अभी तो अमेरिका के सामने जो सबसे बड़ा संकट है, वो उसकी अपनी ज़मीन पर है, किसी सुदूर इलाक़े में नहीं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Manoj Joshi is a Distinguished Fellow at the ORF. He has been a journalist specialising on national and international politics and is a commentator and ...
Read More +