पिछले कई वर्षों से चुनावों में स्वास्थ्य कभी मुद्दा नहीं बना। जन स्वास्थ्य को राजनीतिक दल नजरअंदाज करते रहे। लेकिन वर्ष 2004 से प्रमुख दलों ने अपने चुनावी घोषणापत्र में स्वास्थ्य का जिक्र करना शुरु किया है।
वर्ष 2014 के लैंसेट की रिपोर्ट के मुताबिक, कुछ राज्यों में स्वास्थ्य बड़ी तेजी से एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। रिपोर्ट में दो राज्यों के उद्हारण दिए गए हैं। रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2009 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई. एस. आर. रेड्डी के दूसरे कार्यकाल के लिए गरीब परिवारों के लिए राजीव आरोग्यश्री सामुदायिक स्वास्थ्य बीमा योजना की महत्वपूर्ण भूमिका रही । रिपोर्ट में गुजरात के चिरंजीवी योजना की चर्चा भी की गई है। इस योजना के तहत निजी क्षेत्र के सहयोग से गर्भवती महिलाओं के लिए कुशल स्वास्थ्य सेवा प्रदान किया जाता है। नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे,तब इस योजना से उन्हें काफी लोकप्रियता मिली थी।
राजनीतिक और आर्थिक बहस के लिए भी स्वास्थ्य सेवा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, क्योंकि अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा और निजी स्वास्थ्य खर्च हर वर्ष भारत में 5.5 करोड़ लोगों को गरीबी की ओर ले जाता है, जैसा कि 2015 के इस लैंसेंट रिपोर्ट में कहा गया है।
राज्य और जिला स्तर पर ढूंढने होंगे स्वास्थ्य संकट का हल
भारत में अब भी किसी अन्य देश की तुलना में वैस्टड (कद की तुलना में कम वजन) और स्टन्टिड (उम्र की तुलना में कम कद) बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है। भारत में ऐसे बच्चों की संख्या करीब 4 करोड़ है। पिछले 14 वर्षों के दौरान भारत के ग्रामीण इलाकों में मोटापे की दर में 8.6 गुना वृद्धि दर्ज की गई है। वहीं पिछले 20 वर्षों में भारतीय शहरी क्षेत्रों में यह वृद्धि 1.7 गुना रही है। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने जून 2016 में विस्तार से बताया है।
भारत की आधी से ज्यादा ग्रामीण आबादी निजी स्वास्थ्य सेवा का उपयोग करती है। निजी स्वास्थ्य सेवा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की तुलना में चार गुना अधिक महंगा है। निजी स्वास्थ्य सेवा भारत की 20 फीसदी सबसे ज्यादा गरीब आबादी पर उनके औसत मासिक खर्च पर 15 गुना ज्यादा बोझ डालता है। पिछले एक दशक के दौरान सार्वजनिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर डाक्टरों की कमी में 200 फीसदी की वृद्धि हुई है। यहां तक कि मुंबई जैसे महानगरों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के स्टाफ को दोगुना करने की जरूरत है (विस्तार से यहां, यहां और यहां पढ़ा जा सकता है)।
हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि जिन राज्यों में चुनाव हो रहा है, वे पांच राज्य भारत में पोषण और स्वास्थ्य के अच्छे, बुरे या फिर बद्तर स्थिति को दर्शाते हैं। इससे उबरने का कोई एक रास्ता नहीं है। भारत में अच्छे स्वस्थ्य के लिए जिला स्तर पर नहीं, तो कम से कम राज्य स्तर पर सही उपायों की जरूरत है।
मणिपुर और गोवा में लड़कियों की कम उम्र शादी और लिंग अनुपात की समस्या
जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, उनमें 18 वर्ष की आयु से पहले शादी हो चुकीं 20 से 24 वर्ष की उम्र की महिलाओं की संख्या में गिरावट हुई है। लेकिन मणिपुर में ऐसा नहीं है। वर्ष 2016 और 2017 में जारी वर्ष 2015-16 के लिए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की रिपोर्ट के अनुसार, मणिपुर में ऐसी महिलाओं की संख्या 12.7 फीसदी से बढ़कर 13.1 फीसदी हो गया है।
वर्ष 2015 में, गोवा की तुलना में पंजाब में 18 वर्ष की आयु से पहले शादी होने वाली महिलाओं का प्रतिशत और भी कम था। पंजाब में ये आंकड़े वर्ष 2005 में 19.7 फीसदी से कम होकर वर्ष 2015 में 7.6 फीसदी हुए हैं। गोवा में अब भी 9.8 फीसदी ऐसी महिलाएं हैं, जिनकी शादी 18 वर्ष की आयु से पहले हो चुकी हैं।
मणिपुर में पूरी तरह से प्रतिरक्षित बच्चों की संख्या भी 65.9 फीसदी है।
जारी हुए नवीनतम एनएफएचएस के आंकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 2005 से 2015 के बीच, मणिपुर में जन्म के समय लिंग अनुपात 1,014 से गिरकर 962 हुआ है। एक ऐसा राज्य जो महिला सशक्तिकरण के प्रदर्शक के रूप में जाना जाता, उसके लिए यह चेतावनी है। मणिपुर में जन्मी किसी लड़की के लिए अधिक शिक्षित होने की संभावना होती है। एक वयस्क के रूप में काम करने की अधिक संभावना होती है। भारत में यह बच्चे के जन्म के लिए सबसे सुरक्षित राज्य है। और भारत के किसी अन्य राज्य की तुलना में यहां महिलाओं के अपराध पीड़ित होने की संभावना कम है।.
उत्तराखंड में भी जन्म के समय लिंग अनुपात में गिरावट दर्ज की गई है। गोवा और पंजाब में भी सुधार देखा गया है। उत्तर प्रदेश के लिए एनएफएचएस डेटा अब तक जारी नहीं किए गए हैं। सरकार के नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) रिपोर्टों से पता चलता है कि वर्ष 2011 से 2014 के बीच उत्तर प्रदेश में जन्म के समय लिंग अनुपात में गिरावट हुई है। ये आंकड़े 875 से गिरकर 869 हुए हैं।
शिशु, मातृ मृत्यु दर में राज्यों के बीच बहुत अंतर
उत्तराखंड में शिशु मृत्यु दर (आईएमआर, प्रति जीवित जन्मों पर मृत्यु) में सबसे धीमा सुधार देखा गया है। हालांकि उत्तर प्रदेश के लिए एनएफएचएस के लिए आंकड़े जारी नहीं किए गए हैं। फिर भी एसआरएस के आंकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 2011 से 2014 के बीच उत्तर प्रदेश का आईएमआर 57 से 48 हुआ है। इसका मतलब है कि वर्ष 2005 और 2015 के बीच एनएफएचएस आंकड़ो में सुधार दिखेगा।
राज्यों के विस्तार से विश्लेषण में हम दिखाएंगे कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में शिशु मृत्यु दर में जिलों के अंदर व्यापक बदलाव हुए हैं। उदाहरण के लिए जिला स्तर पर नवीनतम उपलब्ध आंकड़े वार्षिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2012-13) के अनुसार, श्रावस्ती जिले में आईएमआर 96 था। हालांकि वर्ष 2012 में भारत में सबसे बद्तर शिशु मृत्यु दर मध्य प्रदेश में दर्ज किया गया था, आंकड़े 56 थे। श्रावस्ती जिले का आंकड़ा कानपुर नगर के आंकड़े की तुलना में तीन गुना अधिक था। कानपुर नगर का आईएमआर 37 था। वर्ष 2012 में गुजरात का आंकड़ा 38 था और इससे कानपुर की तुलना की जा सकती है।
गोवा और मणिपुर जैसे छोटे राज्यों के लिए सरकार मातृ मृत्यु दर (एमएमआर यानी प्रति 100,000 जन्मों पर मृत्यु) के आकलन प्रदान नहीं करती है, जैसा कि जुलाई 2016 में समाचार पत्र वायर ने बताया है। जबकि एमएमआर की तरह और ऐसे संकेतक नहीं हैं, जो भारत के अलग-अलग राज्यो में स्वास्थ्य विविधताओं को दर्शाते हों।
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का एमएमआर, केरल की तुलना में पांच गुना अधिक है। हम बता दें कि प्रमुख राज्यों में केरल के आंकड़े सबसे कम हैं। फिर भी, उच्च मातृ मृत्यु दर वाले राज्यों की राजनीतिक पार्टियां हालात को सुधारने के लिए कोई चर्चा नहीं करती, कोई रणनीति नहीं बनाती हैं।
चुनाव होने वाले पांच राज्यों में खराब स्वास्थ्य का प्रमुख कारक अल्पपोषण
चुनाव होने वाले सभी पांच राज्यों में खराब स्वास्थ्य का प्रमुख कारक अल्पपोषण है। इन राज्यों में जन स्वास्थ्य के हालात में बहुत अंतर नहीं दिखता। लेकिन एमएमआर के आंकड़े तो राज्यों के बीच अंतर बताते ही हैं।
उदाहरण के लिए, चुनाव के लिए तैयार राज्यों में पांच सालों से कम आयु के स्टंड बच्चों का अनुपात एक समान है। आंकड़ों में देखें तो वर्ष 2015-16 में मणिपुर में 29 फीसदी, गोवा में 20 फीसदी, पंजाब में 26 फीसदी और उत्तराखंड में 34 फीसदी कम आयु के स्टंड बच्चे थे । उत्तर प्रदेश के लिए नए आंकड़ों का इंतजार अब भी है।
स्वास्थ्य सेवा की एक और कहानी- कहीं बहुत ज्यादा, कहीं बहुत कम मदद
स्वास्थ्य सेवा की कम उपलब्धता एक प्रमुख भारतीय समस्या है। लेकिन कभी-कभी स्वास्थ्य सेवा की उपलब्धता भी समस्या बन जाती है।
उदाहरण के लिए वर्ष 2015 में, पंजाब के कपूरथला जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में निजी अस्पतालों और क्लीनिकों में 61.5 फीसदी प्रसव ऑपरेशन के बाद कराए गए थे। मणिपुर के इंफाल के पश्चिम जिले में निजी अस्पतालों में हर तीन प्रसव में दो बच्चे सीजेरियन थे। सार्वजनिक सुविधाएं भी सीजेरियन प्रसव को बढ़ावा देतीं हैं।
इसी तरह, अल्पपोषण की तरह अधिक पोषण भी एक बड़ी समस्या है। वर्ष 2015-16 में एनएफएचएस द्वारा पंजाब के फतेहगढ़ साहिब जिले में किए गए सर्वेक्षण में 36.5 फीसदी पुरुष मोटे या अधिक वजन के पाए गए। महिलाओं के लिए ये आंकड़े 41 फीसदी रहे। उत्तराखंड के देहरादून, नैनीताल और ऊधमसिंह नगर जैसे जिलों में सर्वेक्षण किए गए तो हर चार में से एक महिला अधिक वजन की पाई गई।
देश में मौत का एक प्रमुख कारण गैर संचारी रोग हैं और उपर से कुपोषण और खराब स्वास्थ्य का दोहरा बोझ। इस पर नीति के विकल्पों पर चर्चा की सख्त जरूरत है।
क्या चुनावी के लिए तैयार हो रहे राज्यों में इस तरह के स्वास्थ्य और पोषण से संबंधित मुद्दों पर चर्चा होगी? क्या लोग बेहतर स्वास्थ्य और पोषण की मांग करेंगे? क्या राजनेताओं को उनके समर्थक उनके निर्वाचन क्षेत्र में विकास की योग्यता पर परखेंगे? आने वाले हफ्तों में शायद कुछ जवाब मिल सकते हैं। इस बीच जिला स्तर के आंकड़ों के विश्लेषण से कुछ और मुद्दे सामने आएंगे।
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