Author : Vikram Sood

Published on Apr 25, 2017 Updated 0 Hours ago

रूस और चीन जैसी प्रमुख वैश्विक ताकतें और ईरान जैसी क्षेत्रीय ताकतें प्रकट रूप से तो अफगानिस्‍तान में शांति बहाली की खातिर, लेकिन, असल में अपने हितों की खातिर, अब तालिबान को गले लगाने को तैयार हैं।

‘न्यू ग्रेट गेम’ में क्या एशिया का वर्चस्व रहेगा

अफगानिस्‍तान के संबंध में मास्‍को वार्ता का दूसरा दौर 10 अप्रैल को होने वाला है। मेजबान रूस के अलावा अन्‍य प्रतिभागी देशों में भारत, चीन, पाकिस्‍तान, ईरान और अफगानिस्‍तान शामिल हैं। ऐसा लगता है कि यह सम्‍मेलन एशियाई ताकतों और इकलौते अर्द्ध-यूरोपीय देश- रूस के बीच ग्रेट गेम के नए संस्‍करण की शुरूआत भर है। अमेरिका ने इसमें भाग लेने का न्‍यौता नकार दिया है संभवत: इस गेम के बारे में उसके अपने नियम हैं। मुमकिन है कि अमेरिका अपने द्विपक्षीय संबंधों की इस अवस्‍था में रूस से कमतर भूमिका नहीं निभाना चाहता। इसमें भाग लेने वाला प्रत्‍येक देश संकटग्रस्‍त अफगानिस्‍तान को लाभ पहुंचाने की आड़ में स्‍वाभाविक तौर पर अपने निजी एजेंडों पर जोर देगा। इसलिए मास्‍को बैठक के सफल होने की संभावना कम है। केवल एक बात तय है कि रूस और चीन जैसी बड़ी वैश्विक ताकतें और ईरान जैसी क्षेत्रीय ताकतें अब — प्रत्‍यक्ष तौर पर अफगानिस्‍तान में शांति के लिए, लेकिन वास्‍तव में अपने हितों की खातिर, तालिबान को गले लगाने को तैयार हैं।

सबसे पहले, आंतरिक सुरक्षा और राजनीतिक स्थिति की फौरन समीक्षा किए जाने की जरूरत है। अफगानों का कहना है कि सुरक्षा के हालात उतने बुरे नहीं हैं, जैसा बाहरी विशेषज्ञ बता रहे हैं, लेकिन उतने अच्‍छे भी नहीं हैं, जिनका भरोसा अफगान हमें दिलाना चाह रहे हैं। माप का पैमाने चाहे कोई भी हो, लेकिन सच्‍चाई यह है कि तालिबान के कब्‍जे में पिछले साल के मुकाबले अब ज्‍यादा इलाके हैं। हेलमंद सूबे के संगिन जिले का 23 मार्च को तालिबान के हाथ चला जाना शायद देश की सुरक्षा संबंधी समस्‍या का प्रतीक है। हेलमंद नदी और कंधार सूबे के बीच रणनीतिक रूप से स्थित यह जिला अफीम के लाभकारी बाजार का केंद्र है। इसलिए संगिम का नियंत्रण, अफीम के व्‍यापार पर नियंत्रण करने की दिशा में बहुत महत्‍वपूर्ण है और यह तालिबान को हेलमंद और कंधार सूबों के साथ सीधे जोड़ता है। इसलिए हित बहुत ज्‍यादा हैं और साथ ही भ्रष्‍टाचार भी चरम पर है। इसमें हैरानी कोई की बात नहीं कि संगिन में लड़ाइयां बहुत भीषण रही हैं और अफगानिस्‍तान के किसी भी जिले से ज्‍यादा सबसे अधिक संख्‍या में ब्रिटिश और अमेरिकी फौजी भी यहीं मारे गए हैं। वर्ष 2013 से, जब से जिले का नियंत्रण अफगान सुरक्षाबलों के हाथ गया है, सैंकड़ों अफगान भी तालिबान के साथ संघर्ष में मारे गए हैं। मुमकिन है कि अतीत के कई अन्‍य मामलों की ही तरह, संगिन की कमान भी एक से दूसरे हाथ चली जाए, लेकिन फिलहाल इस जिले पर तालिबान का कब्‍जा है।

वर्ष 2016 के दौरान यह संघर्ष लगातार भीषण होता गया और 2017 में इसके और ज्‍यादा प्रचंड होने की आशंका है। तालिबान अपनी पहुंच बढ़ाते हुए 2015 के मुकाबले, देश भर के लगभग 15 प्रतिशत हिस्‍से तक पकड़ बना चुका है। अशरफ घानी के नेतृत्‍व वाली अफगान सरकार का लगभग 60 क्षेत्र पर नियंत्रण है। तालिबान को पाकिस्‍तान की ओर से मिलने वाली मदद में भी कोई कमी नहीं होगी। जब तक अफगान सुरक्षा बलों को बेहद जरूरी हथियार और उपकरण नहीं मिलेंगे, तब तक ए.एन.एस.एफ. बहुत दबाव में रहेंगे।

संस्‍थागत कमजोरियों की भरपाई व्‍यक्तिगत बहादुरी से नहीं हो सकती। मनोबल घटने का असर तालिबान के तेजी से प्रबल और जटिल होते हमलों का मुकाबला कर पाने की योग्‍यता पर पड़ेगा।

अमेरिका अफगानों को फिर से हथियारबंद करने के बारे में पाकिस्‍तान की अति संवेदनशीलता का सदा बेहद सम्‍मान किया है। अफगानों के पास कभी ऐसे साजो सामान नहीं रहे और उन्‍हें कभी ऐसी ट्रेनिंग नहीं मिली कि वे आतंकवाद विरोधी कार्रवाई को प्रभावी रूप से अंजाम देने और सीमा पार के परम्‍परागत खतरों से निपटने सक्षम सेना की तरह काम कर सकें। विडम्‍बना है कि अफगानिस्‍तान की सुरक्षा स्थिति पर नजर रखने वाले विदेशी पर्यवेक्षक अब अफगान सेना की क्षमताओं को ज्‍यादा अहम नहीं मानते, जैसे मौजूदा हालात में, जहां हर मुमकिन काम कारगर रूप से हो पाने की स्थिति में नहीं है, तो इसके लिए केवल अफगान ही जिम्‍मेदार हों। नतीजतन, इन 15 वर्षों में विशेषकर अमेरिका द्वारा खर्च की गई लगभग 780 बिलियन राशि के बावजूद अफगान सेना के पास आज भी साजो-सामान और प्रशिक्षण की कमी है। चतुर, भरपूर साजो-सामान के साथ और बेहद प्रशिक्षित सेना जिसमें स्‍थानीय लड़ाके अपनी सरजमीं के लिए संघर्ष कर रहे हों, उन पर खर्च करना साजो-सामान से युक्‍त और बेहद प्रशिक्षित सेना के मुकाबले ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण होगा।

आखिरकार, अमेरिकी सुरक्षा बल जिन्‍हें 2001 के रक्षक के रूप में देखा गया था, वे अफगानों की नज़र में महज कब्‍जा करने वाली एक अन्‍य फौज बनकर रह गए हैं। इसी बात का फायदा तालिबान ने उठाया है। तालिबान कुछ गैर-पश्‍तूनों को अपने साथ जोड़ने में सक्षम हो सके हैं, जिससे दबावों का सामना करने या देश के अन्‍य हिस्‍सों में सक्रिय होने का उसका सामर्थ्‍य बढ़ा है। अगले कुछ महीनों में कुंदूज, सार-ए-पुल, बघलान जैसे इलाके तालिबान के दबाव में आ सकते हैं।

आज, कोई भी अफगानिस्‍तान की दो प्रमुख समस्‍याओं के बारे में कोई चर्चा नहीं करना चाहता — पहली — अफीम का कारोबार जो तालिबान तथा साधनहीन अफगान किसानों के लिए धन का स्रोत है और दूसरी तालिबान को पाकिस्‍तान की सहायता और उसका ऐसा करना जारी रखना।

पाकिस्‍तान से सटे अफगानिस्‍तान के नांगरहार सूबे में तथाकथित इस्‍लामिक स्‍टेट की मौजूदगी के बारे में काफी कुछ कहा जा रहा है। अफगानिस्‍तान के जानकारों की राय है कि वहां आईएसआईएस-के (दाएश) जैसा कोई गुट नहीं है। कुछ तत्‍व महज आईएसआईएस के झंडे फहरा रहे हैं। दरअसल, ये लोग आईएसआई के करीबी हक्‍कानी नेटवर्क से जुड़े हुए हैं। पश्चिमी देशों के बीच और अब रूस में आईएसआईएस की ब्रेंड इक्विटी है। इसके अलावा, यह पाकिस्‍तान को अफगानिस्‍तान में उसकी कार्रवाइयों की जिम्‍मेदारी से मुक्‍त करता है और उसे निर्दोष ठहराता है। यह शायद मोलभाव के समय हक्‍कानी गुट को अच्‍छा और मानवीय दिखाए। अगर मौके के मुताबिक, तालिबान के बारे में कुछ ताकतों के बीच कहानी बदल सकती है, तो हक्‍कानी नेटवर्क के लिए भी ऐसा किया ही जा सकता है। अफगानिस्‍तान के प्रमुख खतरे तालिबान के लिए आईएसआईएस बेहद सुविधाजनक परिवर्तन हो गया है।

विश्‍व के आकर्षण का केंद्र अफगानिस्‍तान

सोवियत संघ के पतन के बाद, अकेली महाशक्ति के रूप में, अमेरिका दुनिया भर के अन्‍य लोगों के आकर्षण का केंद्र बन गया और वे अपने दमनकारी शासनों के खिलाफ संघर्ष में अमेरिका से सहायता की उम्‍मीद करने लगे। विश्‍व भर को यह आस बंधने लगी कि यह उदार देश वंचित लोगों के उत्‍थान में सहायता करने की कोशिश कर रहा है। इसके विपरीत, उन्‍होंने पाया कि सभी बंधनों से मुक्‍त अमेरिका केवल अपने हित साध रहा है और अपने हितों को बढ़ावा देने के लिए दूसरे देशों का इस्‍तेमाल कर रहा है। इसके अलावा, पिछले कुछ वर्षों में सैन्‍य बल के अधिक इस्‍तेमाल की सीमाएं भी दिखने लगी हैं। 1990 के दशक में जब तालिबान, अफगानिस्‍तान के लिए खतरा बन रहा था, अमेरिका इस उम्‍मीद में तालिबान के साथ काम करना चाहता था कि इससे यूनोकाल जैसी अमेरिकी तेल कम्‍पनियों के तुर्कमेनिस्‍तान गैस कनैक्‍शन में मदद मिलेगी। एक दशक से भी कम अर्सा बाद, अमेरिका विपरीत भूमिका निभाते हुए तालिबान का पीछा कर रहा था। आज, दलील यह है कि अमेरिका को उनसे निपटना चाहिए। इस प्रक्रिया में, अमेरिका की स्थिति विश्‍वसनीयता सूचकांक पर ज्‍यादा अच्‍छी नहीं है। यह महाशक्ति पर एक दुर्भाग्‍यपूर्ण टिप्‍पणी है।

इसबीच, अमेरिका को यह तय करना बाकी है कि अफगानिस्‍तान में उसका अगला कदम क्‍या होना चाहिए। लेकिन व्‍हाइट हाउस की कार्यसूची में कई अन्‍य मद (आइटम्‍स) भी हैं। उनमें अफगानिस्‍तान शामिल नहीं हैं। एक वर्ग अफगानिस्‍तान में व्‍यापक सैन्‍य सम्‍पर्क चाहता है। अफगानिस्‍तान में अमेरिकी कमांडर जनरल निकल्‍सन ने अमेरिकी सैन्‍य बलों में कुछ हजार सैनिक और बढ़ाए जाने की मांग की है। यदि सैनिकों की संख्‍या में यह वृद्धि अफगानिस्‍तान में अमेरिकी दूतावासों और हितों की रखवाली के लिए है, तो यह सही नहीं है। इसका आशय है कि अमेरिका अब उस देश में खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करता, जिसके निवासियों को वह बचाने या डराने निकला था। यदि अतिरिक्‍त सुरक्षा बलों का आशय धारा का रुख मोड़ना है, तो यह हताशाजनक रूप से नाकाफी है। ‘अमेरिका फर्स्‍ट’ घरेलू स्‍तर पर एक अच्‍छा नारा है, लेकिन यह किसी दूसरे देश में कारगर नहीं होगा, वह भी तब, जब सैनिक उस देश की हिफाजत करने के लिए मौजूद हैं।

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गश्त के दौरान सैनिक बच्चों से बातचीत कर रहा है | स्रोत: डिफेन्स इमेजिस

बरसों पहले, हिंदुस्‍तान टाइम्‍स के लिए लिखते समय एक बार मैंने कहा था : ”कश्‍मीर में एक ऑपरेटिंग सीजन के दौरान पाकिस्‍तान द्वारा प्रायोजित आतंकवादियों की संख्‍या कभी भी 3,000 से 3,500 से ज्‍यादा नहीं रही, इसके बावजूद अर्द्धसैनिक बलों के साथ तैनात भारतीय सैनिकों की संख्‍या कहीं न कहीं 100,000 तक रही। यदि मान लिया जाए कि अफगानिस्‍तान में 10,000 तालिबान हैं, तो उनसे निपटने के लिए 250,000 सैनिकों की जरूरत होगी। बुनियादी जरूरत थल सैनिकों की है, न कि हवाई हमलों की, जो तबाही करने से कहीं ज्‍यादा तादाद में दुश्‍मन तैयार करते हैं। मौजूदा 40,000 सैनिकों वाले नेटो/अमेरिकी सुरक्षा बल न सिर्फ नाकाफी हैं, बल्कि कम संख्‍या में तैनात होने की वजह से अनुपयोगी भी हैं।”

बुनियादी जरूरत जमीनी सैनिकों की है ना कि हवाई हमलों की, जो तबाही करने से कहीं ज्यादा दुश्मन तैयार करते हैं।

अमेरिकी सेना के पूर्व लेफ्टिनेन्ट कर्नल डेनियल डेविस, जो 2010 के दौरान अफगानिस्तान में सेवाएं प्रदान कर चुके हैं, ने भी इसी तरह कि टिप्पणी की है। उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि जमीन पर एक लाख से ज्यादा अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी के बावजूद अभी भी अफगानिस्तान के बहुत से इलाके ऐसे हैं, जहां मित्र देशों के सैनिक कदम नहीं रख सकते और तालीबान तथा अन्य लड़ाके मुक्त घूमते हैं। [i] उनका कहना है कि जब तक पाकिस्तान तालिबान को अपनी धरती को सुरक्षित पनाहगाहों के तौर पर इस्तेमाल करने से नहीं रोकेगा और जब तक काबुल में सरकार हमेशा की तरह भ्रष्ट रहेगी, तब तक राष्ट्रपति ट्रम्प भले ही अफगानिस्तान में दो लाख सैनिक क्यों न भेज दें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। पाकिस्तान पर निर्भरता के कारण अमेरिका इस मामले पर उस पर ज्यादा दबाव नहीं बना सकता। अफगानिस्तान में आतंकवादियों और आतंकवाद विरोधी सुरक्षा बलों के सामान्य अनुपात को देखते हुए यह आवश्यक है कि अमेरिका को 50,000 तालिबान पर काबू पाने के लिये 500,000 से ज्यादा सैनिक भेजने होंगे। केवल ज्‍यादा तादाद में सैनिक ही नहीं, बल्कि धन की उपलब्धता भी नहीं है।

समीर लालवानी ने अपने निबन्ध एम्बलिंग ब्लाइंडली इन टू पा माउन्टेन्सः 5 हार्ड क्वेस्चन्स फॉर द नेक्स्ट फेज़ इन अफगानिस्तान’ [ii] में पाकिस्तान की हैंडलिंग के लिये उपलब्ध बहुत सी नीतिगत सिफारिशों का उल्लेख किया है। उनका कहना है,: ‘अफगानिस्तान का कायापलट करने की राह में सबसे बड़ी रुकावट पाकिस्तान से निपटने के लिये वास्तविक रणनीति का अभाव है और बहुत से आकलनों में पाकिस्तान की पहचान मुख्य अपराधी के तौर पर की गई है, क्योंकि वह अफगान तालिबान को आर्थिक सहायता और सुरक्षित पनाहगाह उपलब्ध कराता है। यदि पाकिस्तान के व्यवहार को बदलने की कोई रणनीति नहीं है — तो जबर्दस्ती, लालच या ज़ालिम सुरक्षा बल — अफगानिस्तान के स्थिति में व्यापक बदलाव नहीं आएगा। बुनियादी बात यही है।

वास्‍तविक पाप जारी है। हजारों मील दूरी से वातानुकूलित कमरों में बैठकर लड़े गये युद्ध या एलईडी स्क्रीन्स पर ब्लिप्स की तरह दिखने वाले बम उस पीड़ा और दर्द को बयां नहीं कर सकते, जो आसमान से गिरे क्लस्टर बम के कारण उत्पन्न होती है। ड्रोन आतंकवादियों की जान लेते हैं, ज्यादातर, लेकिन वे आतंकवाद का सफाया नहीं कर सकते। ड्रोन जान ले सकते हैं, लेकिन वे आतंकवाद के खिलाफ जारी युद्धों को नहीं जीत सकते, क्योंकि वे किसी स्थान को नियंत्रित नहीं कर सकते। सैनिकों की संख्या ज्यादा न बढ़ाने का सिर्फ एक ही कारण हो सकता है — अफगान युद्ध के नए हथियार और कौशल — आर्म्‍ड ड्रोन का- क्‍लोज़ एयर सपोर्ट या टार्गेट किलिंग में अब ज्यादा इस्तेमाल किया जाएगा।

ड्रोन जान ले सकते हैं, लेकिन वे आतंकवाद के खिलाफ जारी युद्धों को नहीं जीत सकते, क्योंकि वे किसी स्थान को नियंत्रित नहीं कर सकते।

अमेरिका में बहुत से लोग महसूस करते हैं कि ऐसा नहीं लगना चाहिए कि अमेरिका, अफगानिस्तान को छोड़ कर जा रहा है, बल्कि अमेरिका द्वारा स्‍थायी प्रतिबद्धता व्यक्त किए जाने की जरूरत है। इस बात का समर्थन पूर्व एन एस ए, लेफ्टिनेन्ट जनरल माइकल और शायद उनके उत्तराधिकारी लेफ्टिनेन्ट जनरल एच. आर. मैकमास्टर ने भी किया है। यूएस सेन्टकॉम कमान्डर जनरल वोटेल और रिपब्लिकन सेनेटर मैक्केन और ग्राहम जमीन पर ज्यादा तादाद में “ज्यादा अधिकार के साथ” सैनिक उतारने की मांग कर रहे हैं। अमेरिका के अन्य थिंक टैंक्स में भी इस विचारधारा का समर्थन किया जा रहा है। इसके बावजूद कुल मिलाकर यही भावना प्रबल हो रही है कि अमेरिका, इराक और सीरिया की तरह यह जंग भी हार गया है। प्रश्न यह उठता है कि हालात को कैसे सुधारा जाए और नियंत्रण बनाए रखा जाए।

बर्नेट रुबिन ने हाल ही में अपनी कमेंट्री में कहा है कि अफगानिस्तान के पतन की राह तैयार करने वाले तालिबान, दशकों लम्बे चले युद्ध का परिणाम थे, क्योंकि तब दो महाशक्तियां खुद को एक दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने के लिये संघर्ष कर रही थीं। रुबिन का कहना है कि अलकायदा अरब प्रोडक्ट था, जिसका उदय उन जगहों पर हुआ, जो सोवियत संघ और मुजाहिदीन के बीच संघर्ष के दौरान बिना नियंत्रण के छूट गई थीं। आखिरकार इस्लामिक स्टेट, इराक पर अमेरिकी हमले का परिणाम है और अब उसकी मौजूदगी के निशान अफगानिस्तान में भी दिखने लगे हैं। [iii]

चीन के साथ सीपीईसी समझौते और रूस के साथ हाल ही में नये मार्ग खुलने के बाद से पाकिस्तान अब मजबूत हो चुका है, इसके पहले से कहीं ज्यादा कट्टर होने की संभावना है। यदि किसी समाधान तक पहुंचना है, तो बीते दिनों की तरह बहुराष्ट्रीय कूटनीतिक और सैन्य पहल करनी होगी। अमेरिका इस मामले में अब अकेले नहीं चल सकता। अमेरिका तब तक यहां से जा नहीं सकता, जब तक कि वह अफगानिस्तान के भविष्य के लिये सुरक्षित समझा जाने वाला कोई समझौता नहीं कर देता। अन्य पड़ोसी देशों — रूस, चीन, ईरान, पाकिस्तान और भारत के विचारों और हितों को भी ध्यान में रखने की जरूरत है।

रूस की ओर से महत्वाकांक्षा के साथ

ऐसे समय में, जब पूरा क्षेत्र अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है, तो ऐसे में तालिबान सबकी पसंद बन चुका है। अमेरिकी, रूसी, चीनी और ईरानी इस समय कट्टरपंथी मुस्लिमों के इस पीछे हट चुके गुट को रिझाने में जुटे हैं, जबकि पाकिस्तान इस बात को लेकर पूरी तरह सुरक्षित और संतुष्ट महसूस कर रहा है कि तालिबान में निवेश की उसकी नीतियों का फल मिलना अब शुरू हो सकता है। तालिबान का विरोध अकेले अफगानों और भारतीयों द्वारा किया जा रहा है। स्वाभाविक है कि उसे न्यौता देने वालों को सुविधाजनक कहानी तैयार करनी होगी क्योंकि सभी के जहन में अपने हित मौजूद हैं। अफगानिस्तान इन हितों से जुड़ा हुआ है।

रूस, पश्चिम एशिया में अमेरिका की स्थिति कमजोर होने को एक अवसर की तरह देख रहा है। पहले इराक और उसके बाद सीरिया की घटनाओं ने रूसियों को फायदेमंद स्थिति में पहुंचा दिया है। शायद रूस का ऐसा विचार है कि उसकी नौसेना की सीरियाई तट रेखा के माध्यम से भूमध्य सागर में भरोसेमंद मौजूदगी हैं, और यदि अफगान के रस्ते उनकी ईरान तक पहुंच कायम हो जाए, तो उनकी यह पहुंच फारस की खाड़ी तक होगी। ये सेन्टकॉम का उपयुक्त जवाब नहीं हो सकता, लेकिन क्‍या यह ग्वादर में चीन की मौजूदगी और चाहबहार में भारतीय हितों का जवाब हो सकता है। इस तरह रूसी इस क्षेत्र में अपने लिये एक नया अवसर देख रहे हैं बशर्ते कि वे दो नकारात्मक, लेकिन एक दूसरे से जुड़े हुए कारकों से निपट सकें। पहला, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के जरिये उनके लिये बढ़ता इस्‍लामी संकट और दूसरा इससे जुड़ा हुआ, कभी न खत्म होने वाली मादक पदार्थों की समस्या, जो अफगानिस्तान के किसी भी समाधान का मुख्य केन्द्र बिन्दु है। ये चिंताएं वास्तविक हैं।

रूस की इस नई दिलचस्पी की उतनी बड़ी वजह अफगानिस्तान नहीं है, बल्कि उससे कहीं ज्यादा बड़ी वजह पूरे क्षेत्र में अमेरिकी हितों के विरोध में रणनीतिक रूप से योग्य होना है। अमेरिका और उसके यूरोपिय सहयोगियों के साथ रूस का टकराव 2008 में जॉर्जिया से लेकर 2014 में क्रिमिया तक और आखिरकार यूक्रेन तक जारी रहा। इस समय लगाए जा रहे पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान रूस के हस्तक्षेप के आरोप का दायरा बढ़ता जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप उनके आपसी संबंध भी बिगड़ते जा रहे हैं।

रूस 1990 के दशक के अपने रुख से काफी दूर जा चुका है, जब उसने भारत, ईरान, उज़बेकिस्तान और ताजिकिस्तान के साथ मिलकर तालिबान को दूर रखने का साझा प्रयास किया था। यह प्रयास तब तक कामयाब था, जब तक 9 सितम्बर 2001 को अहमद शाह मसूद की हत्या नहीं हुई थी। आत्मघाती हमलावर पाकिस्तान दूतावास से जारी वीज़ा लेकर पाकिस्तान के रास्ते वहां पहुंचे थे। इस घटना के प्रभाव 9/11 की त्रासदी के कारण सामने नहीं आ सके।

पिछले दो वर्षों में रूसियों ने तालिबान प्रतिनिधियों के साथ कई मुलाकातें की हैं। मुमकिन है कि रूस, घानी सरकार को तालिबान की सहायता से अस्थिर करना चाहता हो, जिसे वह यूएस समर्थक शासन समझता है । 1980 के दशक के अफगान ज़िहाद के लिये यह फायदे का समय है। विडम्बना है कि वे अमेरिकियों के लिये तालिबान की घृणा का इस्तेमाल करेंगे। इसके अलावा मध्य एशिया में अपनी सत्ता प्रदर्शित करने के लिये अफगानिस्तान में अपने ठिकाने बनाए रखने के अमेरिका के फैसलों से न तो रूसी, चीनी और न ही ईरानी, खुश हैं। अफगानिस्तान में राष्ट्रपति पुतिन के विशेष दूत जमीर कुबुलोव का कहना है, ‘रूस यह बर्दाश्त नहीं करेगा।’ [iv]

कुबुलोव का यह भी कहना है कि क्षेत्र के लिये तालिबान से भी बड़ा खतरा आईएसआईएस है। रूस का पक्ष यह है कि अफगानिस्तान में शांति के लिये तालिबान को राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन समझा जाना चाहिए। [v] रूसियों को विश्वास है कि पाकिस्तान के सहयोग के बिना आईएसआईएस का सफाया नहीं किया जा सकता। इस सहयोग का अर्थ तालिबान के साथ होना है। ईरानियों और चीनियों के साथ बहुत से रूसी भी आईएसआईएस को अपने देश को अस्थिर करने वाले ट्रॉय के घोड़े की तरह देखते हैं, दूसरी ओर अमेरिका का मानना है कि रूसी, चीनी और ईरानी अमेरिका के लिये महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अपना नियंत्रण बढ़ाने के लिये आईएसआईएस की मौजूदगी को हाईलाइट कर रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से कोई भी ताकत पाकिस्तान समर्थित हक्कानी नेटवर्क की भूमिका के बारे में बात तक नहीं करना चाहती। जिसके बारे में ज्यादा कुछ तो सामने नहीं आया, लेकिन उसकी भूमिका विकसित हो रही इस गेम में होगी।

वैसे रूसियों की वास्तविक चिंताएं भी हैं। हर साल लगभग 50,000 रूसी हेरोइन की लत के कारण जान गंवा बैठते हैं। किसी भी देश के लिये यह बहुत बड़ा आंकड़ा है, लेकिन ऐसा देश जिसकी जनसंख्या पहले ही कम हो रही हो, उसके लिये तो यह और भी बड़ी बात है। 15 साल पहले रूस में मुस्लिम आबादी लगभग 10 प्रतिशत थी, आज 13 प्रतिशत से ज्यादा है। मास्को में इस समय डेढ़ से दो मिलियन मुस्लिम रहते हैं और वह यूरोप में दूसरा बड़ा मुस्लिम शहर है। इन मुस्लिमों में ज्यादातर सुन्नी हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर के पास परम्परागत मुस्लिम तौर-तरीके नहीं है। बढ़ते कट्टरवाद के साथ इसमें बदलाव की शुरुआत हो रही है।

रूस की समस्या काफी गंभीर है, अगर इस बात पर गौर किया जाए कि आईएसआईएस के लगभग 5,000 से 7,000 लड़ाके रूसी बोलते हैं, जिनमें से आधे रूसी नागरिक हैं और बाकि मध्य एशिया के हैं। इस तरह रूसी आईएसआईएस में लोकप्रिय दूसरी प्रमुख भाषा है। रूसी दस्ते का अपना कमांड और कंट्रोल ढांचा है। राक्का में एक रूसी बस्ती है जिनकी अपनी किराने की दुकान है और रूसी भाषी स्कूल हैं। आईएसआईएस के ज्यादातर सदस्य मध्य एशिया के हैं और उन्हें रूस में भर्ती किया गया है और कट्टर बनाया गया है। रूसी हुकमरानों ने वही किया, जो अरब शासकों ने अपने जिहादियों के साथ किया — उन्हें अन्य इलाकों की ओर धकेल कर ये सोचा कि हमारी समस्या सुलझ गई है। अनिवार्य रूप से अब इस बात का डर है कि ये जिहादी रूस लौट आएंगे। 2015 तक, युद्ध कला में माहिर ये लड़ाके अपने घर लौटने लगेंगे और पुतिन के चीफ ऑफ स्टाफ सर्गेई इवानोव की टिप्पणी है कि इस्लामिक स्टेट के लिये लड़ने वाले बहुत सारे रूसी घर लौट आए हैं और वे सीधे तौर पर खतरा बन चुके हैं। बाद में, सितम्बर 2016 में यूएनजीए में अपने संबोधन में राष्ट्रपति पुतिन ने कहा कि ये लड़ाके सीरिया में खून का स्वाद चख चुके हैं और वे खतरा बनने के लिए लौटे हैं।

रूस की अगली आशंका यह लगती है कि लौटने वाले ये लड़ाके उत्तरी अफगानिस्तान में अपना ठिकाना बना सकते हैं, जहां से वे उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान में दाखिल हो सकते हैं तथा वे इसके लिए उज़्बेकिस्तान के इस्लामिक मूवमेन्ट का इस्तेमाल कर सकते हैं, जो इसके लिए पहले से अफगानिस्तान में मौजूद है। साथ ही साथ, रूस को लगता है कि तालिबान उत्तरी अफगानिस्तान में उज़्बेक और ताजिक आबादियों में पैंठ बना सकते हैं, जो ताजिक नेताओं के साथ ही साथ जनरल दोस्तम जैसे उज़्बेक नेताओं के नेतृत्व को तनावपूर्ण हालात में पहुंचा सकते हैं।

चीन, शिनजियांग प्रांत में आईएसआईएस या तालिबान के कारण होने वाले इस्लामी प्रभाव को लेकर चिंतित है और ईरान निश्चित रूप से अपनी सीमाओं पर मजबूत सुन्नी उपस्थिति की वजह से असहज महसूस कर रहा है। आतंकवाद से लड़ने के लिये हाल ही में गठित, सऊदी अरब द्वारा प्रायोजित सुन्नी देशों के गठबंधन — इस्लामिक मिलिट्री अलायंस को लेकर भी अब ईरानी आशंकित हैं। इस बात की संभावना काफी ज्‍यादा है कि अब अफगानिस्तान में और उससे संबंधित नीतियां अमेरिका-रूस विरोध का प्रतिबिम्ब मात्र होंगी तथा चीन और ईरान की बढ़ती महत्वकांक्षाओं और आशंकाओं के साथ उनके बीच आपस में संदेह बहुत अधिक हो सकता है।

चाइनीज चैकर्स

सीरिया की ही तरह, यहां भी चीन उन जगहों में दाखिल होना चाहता है, जिन्हें शायद अमेरिका ने खाली किया है, जो वहां से निकलने और समाधान के ऐसे रास्ते खोज रहा है, जिन्हें उसकी नाकामी न समझा जाए। इसके बावजूद चीन अभी हाल तक सैन्य रूप से शामिल होने से बचता आया है और उसने सीरिया में भारी बोझ उठाने का काम रूस पर छोड़ दिया है। वह अपने देश की छवि एक ऐसे जिम्मेदार देश के रूप में बनाना चाहता है, जिसकी जेबें गहरी हों और ज्यादातर लोग उनमें बंद मुट्ठियों को नहीं देख पाते। अफगानिस्तान में खनिज संसाधनों के लिये तय किया गया उसका निवेश भारत से कम है। अफगानिस्तान और मध्य एशिया में चीन के सामरिक हित वन बेल्ट वन रोड प्रोजेक्ट के इर्द-गिर्द घूमते हैं, दक्षिण एशिया के संदर्भ में सीपीईसी जिसका सहायक प्रोजेक्ट है। चीन, ईरान में ऐसा अवसर देख रहा है, जो अफगानिस्तान के रास्ते खाड़ी तक और ईरान के जरिए कैस्पियन सागर तक उसकी पहुंच बनाएगा।

चीन के सुरक्षा हित शिनजियांग प्रांत को इस्लामी प्रभाव यानी तालिबान और आईएसआईएस के प्रकारों से दूर रखने तक सीमित हैं। दाढ़ी की लम्‍बाई और पर्दा करने पर रोक लगाना इस प्रयास का एक अंग हो सकता है। लेकिन साथ ही यह अपने अशांत सूबे के बारे में चीन के शासकों के बीच बढ़ते डर का भी संकेत है। इतना शायद काफी नहीं है और इसलिये चीनी, पाकिस्तानी सम्पर्कों का इस्तेमाल तालिबान के साथ सम्पर्क कायम करने में कर रहे हैं। वे पाकिस्तान के “अच्छा तालिबान” और “बुरा तालिबान” वाले अंतर के पक्ष में हैं। तालिबान के साथ सीधे सम्पर्क चीन के हित में है, जो तालिबान और पाकिस्तान दोनों को व्यापक वैधता प्रदान करता है और साथ ही चीन खुद को शिनजियांग में सुरक्षित बनाए रखने की आशा करता है। भारत ने भले ही अभी हाल ही में कुछ सीमित सैन्य सहायता (एम 25 युद्धक हैलिकॉप्टर) प्रदान की हो, लेकिन चीन ने भी अमेरिकी फौज के लौट जाने के बाद अपनी उपलब्धता दर्शाने के लिये अफगान सुरक्षा बलों के साथ संयुक्त गश्त लगाई है।

ईरानी हित

1980 के दशक में अफगान जिहाद शुरू होने के समय से ही ईरानी अफगानिस्तान में हो रही घटनाओं को लेकर चिंतित रहे हैं। अपने पड़ोस में सोवियत सैनिकों की मौजूदगी और शैतान अमेरिका की सक्रिय सहायता से सऊदी अरब द्वारा प्रायोजित अफगान जिहाद उसके लिये गहरी चिंता का कारण था। बाद में 1990 के दशक में ईरान ने भारत और रूस के साथ सहयोग कर तालिबान लहर को उखाड़ फैंकने की कोशिश की थी, लेकिन सितम्बर 2001 के बाद कई व्यवस्थाएं अमल में नहीं लाई जा सकीं। पड़ोस में बढ़ती अस्थिरता और आईएसआईएस से संबंधित आशंकाओं ने ईरान को मजबूर कर दिया है कि वह तालिबान को शामिल करते हुए अफगानिस्तान की समस्याओं के समाधान ढूंढ़े। ईरान में अतीत में तालिबानी लड़ाकों को शरण दी है और गुलबुद्दीन हिकमतेयार लंबे अर्से तक ईरान में बना रहा। जाहिर है कि ईरान के नेता ये याद दिलाना चाहते हैं कि वे अफगानिस्तान के साथ हर समय शांत और सुरक्षित सीमा चाहते हैं और इसके लिये उन्हें पाकिस्तान के साथ शर्तें तय करनी होंगी।

ईरान, रूस और चीन के बीच एक त्रिकोणीय संबंध विकसित हो रहा है। यूरेशिया में अफगानिस्तान का विशाल राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य संतुलन का अंग होने का एक कारण है। ये तीनों अमेरिका के नये राष्ट्रपति पर यह जानने के लिये निगाहें टिकाए हैं कि क्या वह चीन और ईरान से सफलतापूर्वक दूरी बनाकर रूस के करीब जा पाते हैं। चीन और ईरान ने नवम्बर 2016 में सैन्य सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किये, जिसमें द्विपक्षीय सैन्य अभ्यास और क्षेत्रीय मामलों पर करीबी सहयोग की परिकल्पना की गई है, सीरिया और आतंकवाद, ईरान की सूची के शीर्ष पर है। लगभग इसी समय, रूस ने भी घोषणा की है कि दोनों देश ईरान को टी-90 टैंकों, तोपखाना प्रणालियों, लड़ाकू विमानों और हैलिकॉप्टरों की सप्लाई से संबंधित दस बिलियन अमेरिकी डॉलर की रकम वाले हथियारों के सौदे के बारे में विचार-विमर्श कर रहे हैं। ईरान पर लगे प्रतिबंध हटने के फौरन बाद चीन के राष्ट्रपति शी झिंगपिंग ने जनवरी 2016 में ईरान का दौरा किया और दोनों देशों ने आपसी व्यापार में 600 बिलियन डॉलर की वृद्धि करने पर सहमति व्यक्त की। दोनों देशों के बीच संयुक्त समझौता सामरिक संबंधों की ओर इशारा करता है। इस साल, ईरान के राष्ट्रपति हसन रुहानी ने मास्को (भारत का नहीं) का दौरा किया था जिसे व्यापक रूप से प्रकाशित किया गया। संकेत अमेरिका के लिये था — कि संबंध सजीव और मजबूत है। इस तरह की त्रिपक्षीय निकटता तालिबान और अफगानिस्तान के मामलों से निपटने जैसे समझौते करना इन तीनों देशों की सरकारों के लिए आसान बना देती है।

पाकिस्तान भू राजनीतिक समस्या

अफगान जिहाद के दौरान पाकिस्तानी सेना के जनरल और आईएसआई के डीजी ने कहा था “काबुल को हर हाल में जलना होगा।” यह 1980 का दशक था, जब अमेरिका, सऊदी अरब और पाकिस्तान, सोवियत और अफगानों पर दबाव बना रहे थे। इस नीति में बदलाव नहीं आया है। केवल जमीनी स्‍तर पर इस नीति के निर्देशकों और कलाकारों को नये नाम मिल गए हैं। पाकिस्तान की अफगानिस्तान के प्रति शत्रुतापूर्ण नीति के कारण काबुल आज भी जल रहा है। पाकिस्तान ऐसा समझ सकता है कि उसने थोड़े ही समय में हवा का रुख बदल दिया है और प्रमुख ताकतें तालिबान के साथ सौदा करने की इच्छुक हो चुकी हैं। किसी को इस बात का अंदाजा नहीं है कि अगर प्रस्तावित इलाज बीमारी से भी बदतर निकला। आतंकवाद कभी भी दयालुता के साथ जवाब नहीं देता। दबाव में आकर दी गई रियायतों के कारण हमेशा और ज्यादा दहशत फैलती है।

रूस, चीन और पाकिस्तान के त्रिपक्षीय सम्‍पर्क ने भी काम करना शुरू कर दिया है। तीनों देशों ने मास्को में बैठक कर अफगानिस्तान के बारे में लचीला रुख अपनाते हुए तालिबान के कुछ चुनिंदा नेताओं पर लगे प्रतिबंधों को हटाने जैसे कदम उठाने पर चर्चा की। इसके पीछे पाकिस्तान के “अच्छा तालिबान” और “बुरा तालिबान” का विचार रहा होगा। [vi] दक्षिण एशिया में अपनी मौजूदगी को व्यापक बनाने के लिये रूस के लिये अफगानिस्तान और पाकिस्तान महत्वपूर्ण हैं। इस बीच, पाकिस्तान अपने यहां की सुरक्षित पनाहगाहों से गतिविधियां चलाने वाले गुटों के जरिये अफगानिस्तान पर दबाव बनाना जारी रखेगा।

पाकिस्तान का रुख निरंतर एक सा रहा है। तालिबान अफगान राजनीति के सच्चे प्रतिनिधि हैं और उन्हें समर्थन देने की आवश्यकता है इस उम्मीद की काबुल में बैठी पाकिस्तान की मित्र सरकार डूरेंड लाइन को मान्यता देगी और भारत को आफगानिस्तान में कोई सार्थक प्रोफाइल नहीं बनाने देगी। हमें इस दृष्टिकोण में किसी तरह के बदलाव की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। पाकिस्तान अफगानिस्तान को भारत का मित्र और भारत के प्रति उसकी नीतियों के कारण दंडित करता है।

दो यूएस जनरलों द्वारा हाल ही में सीनेट की सशस्त्र सेना समिति के समक्ष दिये अपने वक्तव्यों में पाकिस्तान के बारे में जो कहा है, उस पर गौर करना प्रासंगिक होगा। फरवरी में जनरल जॉन निकल्सन ने कहा था कि तालिबान और हक्कानी नेटवर्क से अफगानिस्तान की सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा है, उनके नेता दबावों से मुक्त हैं और पाकिस्तान की सुरक्षित पनाहगाहों में रहकर मनचाहे कदम उठाने के लिये स्वतंत्र हैं। इसलिये उनके पास सुलह करने का कोई प्रलोभन नहीं है। बाद में मार्च, 2017 में, सेन्टकॉम कमांडर जनरल जोसेफ वोटेल ने स्पष्ट रूप से कहा कि अमेरिका द्वारा नामित अफगानिस्तान-पाकिस्तान उप क्षेत्र में गतिविधियां चलाने वाले 20 आतंकवादी संगठनों में से सात पाकिस्तान में है। “जब तक इन गुटों को पाकिस्तान में सुरक्षित पनाह मिलती रहेगी वे अफगानिस्तान के दीर्घकालिक स्थिरता के लिए खतरा बने रहेंगे।” हक्कानी नेटवर्क हमारे लिये विशेष रूप से चिंता का कारण है, जो अफगानिस्तान में कार्रवाई कर रही गठबंधन सेनाओं के लिये बहुत बड़ा खतरा है। ये बिल्कुल स्पष्ट है कि दुश्मन को पाकिस्तान की ओर से मिल रही पनाह और सहायता इसे स्थायी युद्ध में बदल रही है। [vii]

यदि आईएसआईएस को उन लोगों द्वारा वैश्विक खतरे के रूप में देखा जा रहा है, जो जल्द ही मास्को में बैठक करने वाले हैं, तो ऐसे में इससे निपटने का तरीका भी वैश्विक प्रयास होने चाहिए न कि किसी क्षेत्रीय खतरे — तालिबान का तुष्टिकरण। इस तरीके से इससे तालिबान से निपटकर हम केवल इसके मेंटर और प्रायोजक को अफगानिस्तान और अन्य स्थानों पर अपनी नीतियों को जारी रखने के लिए ही प्रोत्साहित करेंगे।

एशिया का दिल लहुलुहान है

अमेरिकियों को अब खुद से कहना होगा कि यह उनकी सबसे लंबी जंग है जिसमें कर के दिखाने को कुछ खास नहीं है इसके अलावा कई बिलियन डॉलर खर्च हो चुके हैं और कई अमेरिकी जानें जा चुकी हैं। अमेरिकी और अन्य सैनिक अपना सामान बांध कर अफगानिस्तान से जा सकते हैं। ये उनका देश नहीं है। अफगान कहां जाएं? शायद कुछ जर्जर शरणार्थी शिवरों में। इसलिये अब सब अफगान लोगों पर छोड़ दीजिये। उन्होंने लगभग 40 वर्ष तक जंग और उथल-पुथल देखी है। यहां बच्चों ने जन्म लिया है और युवा होने से पहले ही मारे गए हैं। बहुत से युवा अफगानों को शांति के मायने तक नहीं मालूम हैं। आज उनके पड़ोसी अफगानों के सबसे बड़े अत्‍याचारियों के साथ सौदा करने की तैयारी में हैं, जो मादक पदार्थों और हिंसक रुढि़वाद का कारोबार करते हैं। अफगानों को बताया गया है कि ऐसा करना उनके हित में है। क्या मज़ाक है?

अफगानिस्तान अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण दंडित हो रहा है। उसी वजह से पाकिस्तान पुरस्‍कृत रहा है और भारत की अनदेखी हो रही है। यही वास्तविक राजनीति है।

अफगानिस्तान को आने वाले दशकों तक अपनी अर्थव्यवस्था तैयार करने के लिये बड़ी मात्रा में अंतर्राष्ट्रीय सहायता की जरूरत होगी। इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है। अफगानों को खैरात और हैंडआउट्स नहीं चाहिए। उनकी सबसे पहली जरूरत मादक पदार्थों की बुराई पर काबू पाना और उसका सफाया करना है, जो आतंकवादियों के लिए धन का स्रोत है और देश को खोखला कर रही है। समस्या यह है कि हर कोई जानता है ऐसा किया जाना चाहिए लेकिन कोई भी ऐसा कर नहीं रहा है। केवल अफीम की खेती पर कीटनाशकों का छिड़काव करने से ही बात नहीं बनेगी। आवश्यकता इस बात की है कि तालिबान और ड्रग के कारोबारियों के इस पैसे के स्रोत को खत्म कर दिया जाए। आतंकवाद से निपटने के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन मादक पदार्थों की बुराई के बारे में बहुत कम लिखा या किया गया है।

अफगानिस्तान को अपनी सेना और वायु सेना को अत्‍याधुनिक सशस्त्र बल बनाने के लिये उन्हें तत्काल उन्नत बनाने की जरूरत है। इसी तरह उसकी कानून और व्यवस्था प्रणालियों को भर्ती, प्रशिक्षण और उपकरण में सुधार लाने की जरूरत है। कमजोर सुरक्षा प्रणालियों से बेकाबू आतंकियों से निपटना निश्चित रूप से विफलता दिलाता है। अफगान सरकार को खुद पर थोपी गई व्‍यवस्‍था की जरूरत नहीं है।

अगर हम आतंकवाद को परिभाषित करने वाले और उससे सामूहिक रूप से निपटने वाले सार्वभौमिक घोषणा पत्र के साथ शुरूआत नहीं करेंगे और चुनिंदा तुष्टिकरण को तरजीह देंगे, तो हम रसातल में जाएंगे। तालिबान के खिलाफ सम्मिलित आतंकवाद विरोधी कार्रवाई करने की बजाए, हम अब देख रहे हैं कि दुनिया की कुछ बेहद शक्तिशाली ताकतें यह तय करने के लिए बैठक कर रही हैं कि उन्‍हें बिना विरोध के स्‍वीकार कैसे किया जाए। नतीजतन, जिस विश्‍व को वे बचाना चाहते हैं सहित विश्‍व को क्‍या मिलेगा, कुल मिलाकर एक ही बात है। शायद उससे भी बदतर है। अफगान जिहाद के समापन को एक महाशक्ति पर धर्म की जीत के तौर पर देखा गया था। तालिबान के साथ सौदा भी इसी तरह की किसी व्‍याख्‍या का कारण बनेगा, जिसके परिणाम पाकिस्‍तान सहित हम सबको भुगतने होंगे।

भारत दर्शक या खिलाड़ी ?

सबसे पहला कदम तो यह तय करना होगा कि क्‍या हम अपनी ताकत लगाना चाहते हैं या नहीं। दूसरा, अफगानिस्‍तान भारत से काफी अपेक्षा रखता है, इसलिए पहले मामले पर अपने फैसले पर निर्भर करते हुए, हम क्‍या करने को तैयार हैं। अन्‍य देशों के विपरीत, हम अफगानों के लिए कुछ ऐसा करना होगा कि वे अपनी मदद खुद कर सकें। खुद को यह बताना अपनी ही सराहना करने के समान होगा कि अफगानों के बीच हमारा स्‍टॉक अधिक है, हमारी छवि अच्‍छी है और हमारी सॉफ्ट पॉवर की सराहना की जाती है। पहला खतरा यह है कि यह छवि बदल सकती है। दूसरा खतरा यह है कि लम्‍बे अरसे तक इतना ही काफी नहीं रहेगा। हमें अपने कार्य की व्‍यवस्‍था खुद करनी होगी और वह ताकत बनना होगा, जिसके बारे में हमारा कहना है कि हम हैं। इसका अर्थ है कि हमें परियोजनाओं, कौशलों में प्रशिक्षण, तकनीकी और चिकित्‍सा शिक्षा या जिस चीज की भी अफगानों को जरूरत हो, उसके सदंर्भ में कहीं ज्‍यादा आर्थिक विकास संबंधी सहायता देनी होगी। भारत-अफगानिस्‍तान आर्थिक कार्य बल कुशल और सशक्‍त है, वह त्‍वरित फैसले लेता और उन्‍हें त्‍वरित रूप से लागू करता है। स्‍वास्‍थ्‍य और चिकित्‍सा (अनुसंधान उत्‍पादन और स्‍वास्‍थ्‍य सेवा सुविधाएं) और अकादमिक, भारत और अफगानिस्‍तान दोनों जगह और तो और भारत से बाहर कुछ छात्रवृत्तियां भी मददगार होंगी। विविध किस्‍मों, जल प्रबधंन, वै‍कल्पिक फसलें, छोटे पैमाने पर विनिर्माण कुछ अन्‍य गतिविधियां हैं, जिनसे मदद मिलेगी। कौशलों और रोज़गार के अवसरों के सृजन के लिए इन सभी को एकत्र किया जाना चाहिए।

हमें सिर्फ अफगानिस्‍तान के लिए हमारी सैन्‍य सहायता बढ़ानी होगी। हमें इस बारे में शर्मिंदा नहीं, बल्कि बिल्‍कुल बेबाक होना चाहिए। भारत का हित अफगानिस्‍तान के लिए सुदृढ़ और व्‍यापक सैन्‍य सहायता में निहित है, जो अफगान नेशनल डिफेंस और सुरक्षा बलों को मजबूती देगा। चीन और रूस जैसी बड़ी शक्तियों से इस प्रकार की सहायता नहीं मिलने से हमें हतोत्‍साहित नहीं होना चाहिए, इसके विपरीत, हमें इसे एक अवसर की तरह देखना चाहिए। एक क्षेत्रीय ताकत के रूप में, हमें हमेशा अपने कंधों की ओर ही नहीं देखते रहना चाहिए और हमारे कार्यों के लिए अनुमोदन नहीं मांगते रहना चाहिए। हमें अपनी सुरक्षा की सहायता के लिए अफगान सुरक्षा को सहायता देनी होगी। निकट खुफिया और सुरक्षा सहयोग आवश्‍यक है। भारत और अफगानिस्‍तान ने सामरिक सहयोग समझौता किया है। इसे ऊर्जा प्रदान की जानी चाहिए। इसके लिए, हमें यह याद रखने की जरूरत है कि हम अपने पड़ोस में हर वक्‍त चीन के हायर प्रोफाइल के कारण दो-तरफा अनिश्चितता का सामना कर रहे हैं। हमें याद रखना होगा कि आखिरकार इस गेम में हम बिना किसी की सहायता के हैं। यहां कुछ भी मुफ्त नहीं है।


संदर्भ

[i] Why America Can’t Win the War in Afghanistanhttp://nationalinterest.org/print/feature/why-america-cant-win-the-war-afghanistan-19857

[ii] https://warontherocks.com/2017/02/ambling-blindly-back-into-the-mountains-5-hard-questions-for-the-next-phase-of-afghanistan/

[iii] America Can’t Terror-Proof Afghanistan http://nationalinterest.org/print/feature/america-cant-terror-proof-afghanistan-19870

[iv] Putin’s Dance with the Taliban, Brahma Chellaney, 6 March 2017
https://www.project-syndicate.org/commentary/russia-support-afghan-taliban-by-brahma-chellaney-2017-03

[v] Peace in Afghanistan-A bridge too far, Chayanika Saxena http://southasiamonitor.org/news/peace-in-afghanistan-a-bridge-too-far/sl/21720

[vi] India-Russia in testy waters?, Himani Pant https://www.orfonline.org/research/india-russia-testy-waters/

[vii] How Pakistan Warped into a Geopolitical Monster Robert Cassidyhttp://nationalinterest.org/feature/how-pakistan-warped-geopolitical-monster-19978

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