Author : Kabir Taneja

Published on Aug 21, 2023 Updated 0 Hours ago

अरब लीग ने जिस तरह सीरिया की वापसी को हरी झंडी दिखाई है, उससे भारत जैसे अन्य देशों के लिए भी उससे संपर्क बढ़ाने की राह स्पष्ट हुई है. लेकिन, अभी भी ये मसला क्षेत्रीय भू-राजनीतिक चुनौतियों के दलदल में फंसा है.

भारत के सीरिया से दोबारा दोस्ती बढ़ाने की असल वजह क्या है?

पिछले एक दशक से सीरिया कई मामलों में बाक़ी दुनिया से अलग-थलग पड़ा हुआ था. राष्ट्रपति बशर अल-असद की सत्ता को सबसे बड़ी चुनौती तो 2011 में अरब स्प्रिंग के विरोध प्रदर्शनों के बाद अरब लीग से मिली थी. क्योंकि इन विरोध प्रदर्शनों का असर पूरे मध्य पूर्व पर पड़ा था. हालांकि, आख़िरकार असद ने अपनी सत्ता को ईरान और रूस की मदद से बचा लिया था.

आज भी सीरिया में ईरान और रूस की भूमिका काफ़ी महत्वपूर्ण है. ये सच्चाई इस बात से रेखांकित होती है कि ईरान और भारत के राजनयिकों के बीच अक्सर दमिश्क में बैठकें होती हैं.

इसी बीच, सीरिया के दूसरे पड़ोसियों ने भी ख़ुद को असद की हुकूमत के ख़िलाफ़ खड़ा कर लिया था. अरब लीग में सीरिया की सदस्यता निलंबित कर दी गई थी. जब सीरिया राजनीतिक अराजकता के गर्त में डूब रहा था, तो बाक़ी अरब देशों ने उससे कूटनीतिक रिश्ते ख़त्म कर लिए थे और अपने राजनयिक वापस बुला लिए थे. इस्लामिक आतंकवादी समूहों के लिए सीरिया एक अच्छा ठिकाना बन गया था. ख़ास तौर से तथाकथित इस्लामिक स्टेट (ISIS या अरबी में दाएश). धीरे धीरे असद सरकार के ख़िलाफ़ इल्ज़ामों की बौछार तेज़ होती गई. उन पर आरोप लगा कि उन्होंने अपने देश के नागरिकों के ख़िलाफ़ रासायनिक हथियार इस्तेमाल किए और मानव अधिकारों का भयंकर उल्लंघन किया. इस वजह से भारत ने भी सीरिया के साथ दोस्ती से क़दम पीछे खींच लिए. हालांकि, ज़मीनी स्तर पर भारत ने सीरिया में अपनी राजनयिक उपस्थिति लगातार बनाए रखी थी.

भारत-सीरिया संबंध

2011 से 2020 के दौरान भारत और सीरिया के रिश्ते ऑटोपायलट मोड में रहे थे. 2015 में एक मौक़ा ये भी आया था, जब भारत ने दमिश्क में अपने दूतावास का स्तर कम कर दिया था, क्योंकि इस्लामिक स्टेट लगातार कामयाबी हासिल करता जा रहा था और इससे सीरिया में सुरक्षा के हालात बेहद ख़राब हो गए थे. हालांकि, भारत में हमेशा से ही सीरिया के राष्ट्रपति असद के प्रति हमदर्दी मौजूद रही थी. और, जो भारतीय राजनयिक सीरिया में उथल-पुथल में विदेशी ताक़तों का हाथ होने का इशारा करते थे, उनका कहना था कि सीरिया में अगर कट्टरपंथी तत्व कमज़ोर हो रहे हैं, तो इसमें दूसरे देशों का भी हाथ है. सीरिया में भारत के राजदूत रह चुके वीपी हरन  ने 2016 में लिखा था कि, ‘असद ने जिस बात को ठीक से नहीं समझा था, वो ये थी कि अरब देशों और पश्चिमी ताक़तों के बीच उनकी विदेश नीति बहुत नापसंद की जाती थी. उनकी नज़र में अरब क्रांति के रूप में एक ऐसा मौक़ा सामने था, जिससे वो असद की असुविधाजनक  हुकूमत से निजात पा सकते थे.’ हारन ने सीरिया के मसले पर कुछ और जटिलताओं की तरफ़ भी इशारा किया था. जैसे कि सीरिया, ईरान के ज़्यादा नज़दीक है, वो फिलिस्तीन को लेकर हमदर्दी रखता है. इज़राइल से उसके रिश्ते तनावपूर्ण हैं, और वो रूस से भी काफ़ी क़रीबी संबंध रखता है. इसके अलावा, सीरिया में अल्पसंख्यक अलावाइट (शिया) समुदाय हुकूमत करता है, जबकि बहुसंख्यक आबादी सुन्नी अरब मुसलमानों की है.

भारत के जानकारों के बीच एक और बात जिसकी काफ़ी चर्चा होती रही है, वो ये है कि सीरिया में असद की हुकूमत को ईरान और रूस की दख़लंदाज़ी की वजह से ‘बचाया जा सका’ था. जैसा कि ज़ोरावर दौलत सिंह ने लिखा था. इसमें कोई शक नहीं है कि पश्चिमी देशों की दख़लंदाज़ी वाली नीतियां, जो उन्होंने लीबिया में आज़माईं, उनके नतीजे उम्मीद के उलट ही रहे थे. हालांकि, सीरिया की समस्या पहले आम जनता के आंदोलन के तौर पर शुरू हुई थी, जो पूरे मध्य पूर्व में हो रहा था. इस आंदोलन का संकट वैसा ही था, जैसा किसी और अरब देश में था. यानी ये आंदोलन अपने आप शुरू हुआ. ये ग़ैर राजनीतिक था और इनके नेता बहुत अनजान लोग थे और इनके पास कोई वैकल्पिक राजनीतिक योजना भी नहीं थी. कुल मिलाकर, लंबे समय से सत्ता में बने हुए तानाशाही शासकों को हटाने के बाद, हुकूमत किसके हाथ में होगी, इसको लेकर कोई ‘प्लान बी’ विरोध प्रदर्शन करने वालों के पास नहीं था. यहां पर संकट की असल वजह किसी ‘विदेशी ताक़त का हाथ’ होना नहीं थी. हालांकि, आज भी सीरिया में ईरान और रूस की भूमिका काफ़ी महत्वपूर्ण है. ये सच्चाई इस बात से रेखांकित होती है कि ईरान और भारत के राजनयिकों के बीच अक्सर दमिश्क में बैठकें होती हैं.

अरब लीग की सदस्यता बहाल होने की वजह से भारत जैसे देशों के लिए भी सीरिया से संपर्क बढ़ाने का स्पष्ट रास्ता दिखने लगा. विदेश मंत्रालय में सचिव (CP &OIA) डॉक्टर औसाफ़ सईद ने अक्टूबर 2022 में दमिश्क का दौरा किया था.

ऑपरेशन इनहेरेंट रिजॉल्व के तहत अमेरिका और उसके पश्चिमी साथी देशों ने इस्लामिक स्टेट का ख़ात्मा करने की कोशिश की और इसके साथ उनका इरादा, सीरिया में अपनी नाम-मात्र की मौजूदगी बनाए रखने का था. वहीं रूस और ईरान दोनों के लिए यूक्रेन का संकट भी मध्य पूर्व में अपनी स्थिति मज़बूत बनाने का मौक़ा है, क्योंकि अमेरिका और पश्चिमी देशों की सैन्य मौजूदगी इस वक़्त बेहद कम है. इसके अलावा, अमेरिका की घटती हुई ताक़त को लेकर चल रही चर्चाएं भी उसके महाशक्ति बने रहने पर सवालिया निशान लगाती हैं. ख़ास तौर से अगस्त 2021 में अमेरिका द्वारा अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलाने के बाद से तो ये अटकलें और ज़ोर पकड़ रही हैं. अभी हाल ही में अमेरिका के रक्षा मंत्रालय ने इस क्षेत्र में रूस की मौजूदगी से मुक़ाबला करने के लिए अपनी हवाई ताक़त में इज़ाफ़ा करने के लिए सबसे आधुनिक F-35 और F-22 लड़ाकू विमान तैनात किए हैं. ये लड़ाकू विमान, मार्च महीने से लगातार सीरिया में अमेरिकी ठिकानों के ऊपर से उड़ान भरते रहे हैं. अमेरिका ने कहा है कि जनवरी 2021 से उसने कम से कम 78 बार ईरान के समर्थन वाले हमलों का सामना किया है, और केवल तीन बार इन हमलों का जवाब दिया है.

यहां पर रूस और अमेरिका ने जितनी तादाद में अपने सैन्य बलों को तैनात किया है, उससे भी दोनों देशों की रणनीति का अंदाज़ा होता है. दोनों देश, इस्लामिक स्टेट  का मुक़ाबला करने के घोषित इरादे के साथ सीरिया में दाख़िल हुए थे; रूस को तो सीरिया ने सैन्य सहायता के लिए ‘न्यौता’ देकर बुलाया था. इस्लामिक स्टेट के संस्थापक अबु बक्र अल-बग़दादी समेत उसके ज़्यादातर बड़े आतंकवादी अमेरिका की अगुवाई वाले अभियानों में मारे गए हैं. जबकि रूस के अभियान से ISIS के किसी भी आतंकवादी के मारे जाने की बाद सामने नहीं आई है (कम से कम सार्वजनिक रिकॉर्ड तो यही कहते हैं).

जब हम महामारी के बाद की उभरती हुई विश्व व्यवस्था पर नज़र डालते हैं, तो पता चलता है कि रूस और यूक्रेन के युद्ध और अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती प्रतिद्वंदिता के असर की वजह से मध्य-पूर्व की भू-राजनीति में भी नाटकीय ढंग से परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं. बरसों तक सीरिया को अलग-थलग रखने के बाद, इस साल मई में अरब लीग ने सीरिया की सदस्यता फिर से बहाल कर दी. इसके बाद बशर अल-असद ने क़रीब एक दशक के अंतराल के बाद संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और सऊदी अरब का दौरा भी किया. अमेरिका ने तो मज़बूती से सीरिया को दोबारा अरब लीग में शामिल करने का विरोध किया था. लेकिन, उसके ऐतराज़ को दरकिनार कर दिया गया.

अरब लीग की सदस्यता बहाल होने की वजह से भारत जैसे देशों के लिए भी सीरिया से संपर्क बढ़ाने का स्पष्ट रास्ता दिखने लगा. विदेश मंत्रालय में सचिव (CP &OIA) डॉक्टर औसाफ़ सईद ने अक्टूबर 2022 में दमिश्क का दौरा किया था. इससे पहले सीरिया के दौरे पर जाने वाले सबसे उच्च स्तर के भारतीय, तत्कालीन विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर थे, जो 2016 में दमिश्क गए थे. तब बशर अल-असद की सरकार बड़ी चुनौतियो से घिरी थी और एमजे अकबर, कश्मीर मामले पर सीरिया का समर्थन हासिल करने गए थे, क्योंकि भारत को आशंका थी कि इस्लामिक देशों का संगठन (OIC) इस मामले पर विरोध करेगा. इसके बदले में भारत ने उस वक़्त असद सरकार के साथ नियमित राजनयिक संपर्क बनाए रखने का वादा किया था, जब कोई भी देश उनके साथ खड़ा दिखाई नहीं देना चाहता था. इस दौरान भारत में सीरिया के राजदूत डॉक्टर रियाद कमल अब्बास ने कहा था कि, भारत को ‘कश्मीर मसले का समाधान अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ और बिना किसी विदेशी मदद के करने का पूरा अधिकार’ है. इस दौरान सीरिया से उच्च स्तर के अधिकारियों के प्रतिनिधिमंडल नियमित रूप से भारत आते रहे थे. इनमें बशर अल-असद के नज़दीकी सहयोगी भी शामिल थे.

अरब लीग की सदस्यता बहाल होने की वजह से भारत जैसे देशों के लिए भी सीरिया से संपर्क बढ़ाने का स्पष्ट रास्ता दिखने लगा. विदेश मंत्रालय में सचिव (CP &OIA) डॉक्टर औसाफ़ सईद ने अक्टूबर 2022 में दमिश्क का दौरा किया था.

इस साल फ़रवरी में तुर्की और सीरिया में तबाही मचाने वाला भूकंप आया. इस ज़लज़ले से सीरिया में भारी तबाही मची. पहले ही युद्ध से तबाह मूलभूत ढांचा और बुरी तरह बर्बाद हो गया और हज़ारों लोगों की जान चली गई. इस प्राकृतिक आपदा ने भी सीरिया को मुख्यधारा में लौटने में मदद की. भारत ने तुर्की और सीरिया, दोनों की मदद के लिए ‘ऑपरेशन दोस्ती’ के नाम से राहत और बचाव अभियान में मदद का विशाल अभियान चलाया. ये बात इसलिए अहम थी, क्योंकि सीरिया के जो इलाक़े भूकंप के शिकार थे, उनका बड़ा हिस्सा असद सरकार के नियंत्रण में था ही नहीं. लेकिन, इस आपदा ने सीरिया के राष्ट्रपति को मौक़ा दिया कि वो अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपनी दूरी को कम कर सकें.

निष्कर्ष

इन गतिविधियों की पृष्ठभूमि में भारत के विदेश राज्यमंत्री वी मुरलीधरन ने जुलाई महीने में सीरिया का दौरा किया. 2016 के बाद ये किसी भारतीय मंत्री का पहला सीरिया दौरा था. इस दौरान वो राष्ट्रपति बशर अल-असद से भी मिले. अरब लीग में सीरिया की सदस्यता बहाल होना वो पहला क़दम है जिसके ज़रिए अरब देशों ने इस सच्चाई को स्वीकार किया है कि असद ने अपनी सत्ता के सामने खड़ी चुनौतियों पर जीत हासिल कर ली है. भूकंप ने सीरिया की तबाह हो चुकी अर्थव्यवस्था, बर्बाद मूलभूत ढांचे और जन सेवाओं को को बहाल करने में मदद की ज़रूरत को रेखांकित किया है, जिससे वहां का मानवीय संकट और गंभीर न हो. ख़ास तौर से पश्चिमी देशों के नज़रिए से देखें, तो इसका मक़सद अप्रवासियों की नई बाढ़ को अपने यहां आने से रोकने के लिए सीरिया की मदद करना ज़रूरी है.

हालांकि, अरब लीग के फ़ैसले के बाद ऐसा नहीं है कि सीरिया का संकट समाप्त हो गया है. सीरिया में आज भी हथियारबंद उग्रवादी संगठनों की भीड़ जमा है (इनमें ईरान समर्थक  लड़ाके भी शामिल हैं). सीरिया पर अक्सर इज़राइल की सेना हमला करती है. वहीं, भले ही ये कहा जा रहा हो कि अरब लीग ने सीरिया की सदस्यता बहाल करके उसको ईरान के पाले में जाने से रोक लिया है. लेकिन, जिस तरह रूस और ईरान ने असद को अपनी सत्ता बचाने में मदद की है, उससे वो इन देशों के एहसान तले दबे हैं. फिर भी अरब देश सीरिया से संपर्क बढ़ाकर ये उम्मीद कर रहे हैं कि वो सीरिया को पूरी तरह से ईरान के इशारों पर नाचने से रोक सकेंगे. आख़िर में हालात ‘सामान्य होने’ की जिस स्थिति का भारत फ़ायदा उठाने की कोशिश कर रहा है, वो तो अस्ल में क्षेत्र की भू-राजनीतिक चुनौतियों के सही ढंग से समाधान होने पर टिकी है. हालांकि, कम से कम अभी तो ये समस्याएं अनसुलझी ही हैं.

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