Published on Aug 01, 2022 Updated 0 Hours ago

श्रीलंका के आर्थिक संकट को लेकर चीन के नागरिकों का नज़रिया नकारात्मक है. उन्हें लगता है कि श्रीलंका ख़ुद को ‘पीड़ित बताने का शोर मचाकर’ चीन का ‘फ़ायदा उठाना’ चाहता है.

श्रीलंका के संकट को लेकर चीन में क्या चल रहा है?

श्रीलंका के हालिया राजनीतिक, आर्थिक और मानवीय संकट को लेकर दुनिया के तमाम देशों में सदमे से लेकर हमदर्दी जताने तक की प्रतिक्रियाएं आई हैं. हालांकि, चीन में लोगों के जज़्बात कुछ अलग दिखे हैं. श्रीलंका के संकट को लेकर चीन में ज़्यादातर लोगों ने ग़ुस्सा और क्रोध जताया है. चीन में इंटरनेट पर श्रीलंका की बड़े पैमाने पर कड़ी आलोचना होती दर्ज की गई है. चीन के नागरिक श्रीलंका पर ‘पीड़ित होने का शोर मचाने’ के आरोप लगा रहे हैं. ऐसे भी आरोप लग रहे हैं कि श्रीलंका ने चीन का ‘लाभ उठाया’, उसे एटीएम की तरह इस्तेमाल किया और अब ‘खुलेआम चीन को शर्मिंदा कर रहा’ है. श्रीलंका और उसके नेताओं के लिए चीन में जो लफ़्ज़ इस्तेमाल किए जा रहे हैं, उनमें सफ़ेद आंखों वाला भेड़िया (白眼狼), पीठ में छुरा घोंपने वाला, एहसान फ़रामोश, ओछा, बिल्कुल भी भरोसे के लायक़ नहीं और विश्वासघाती जैसे निंदा करने वाले शब्द शामिल हैं. इसीलिए श्रीलंका को चीन की दया या मदद के लायक़ नहीं भी कहा जा रहा है. इसके बजाय चीन के नागरिक ये कह रहे हैं कि अब समय आ गया है कि श्रीलंका को सबक़ सिखाया जाए और उसे इस धोखेबाज़ी की भारी     क़ीमत चुकाने के लिए मजबूर किया जाए.

श्रीलंका और उसके नेताओं के लिए चीन में जो लफ़्ज़ इस्तेमाल किए जा रहे हैं, उनमें सफ़ेद आंखों वाला भेड़िया (白眼狼), पीठ में छुरा घोंपने वाला, एहसान फ़रामोश, ओछा, बिल्कुल भी भरोसे के लायक़ नहीं और विश्वासघाती जैसे निंदा करने वाले शब्द शामिल हैं.

चीन का सामरिक समुदाय ख़फ़ा क्यों?

ऐसे में सवाल ये है कि चीन का सामरिक समुदाय आख़िर श्रीलंका पर इतना ख़फ़ा क्यों है? आख़िर चीन, उस श्रीलंका को अब उसके बेहद मुश्किल वक़्त में पर्याप्त मात्रा में मदद क्यों नहीं देना चाहता है, जिसे कभी वो सदाबहार दोस्त और साझीदार कहता था. चीन में इंटरनेट पर मौजूद तमाम लेख ये दावा करते हैं कि जब श्रीलंका में आर्थिक संकट पैदा हुआ तो चीन ने उसके साथ अपने क़र्ज़ पर नए सिरे से बात करने का प्रस्ताव दिया था. यही नहीं चीन ने श्रीलंका को क़र्ज़ चुकाने के लिए अधिक समय देने, पुराना क़र्ज़ चुकाने के लिए नया लोन देने जैसे विकल्प भी सुझाए थे और श्रीलंका को सरकारी बॉन्ड के बदले एक अरब डॉलर की मदद देने का भी इस शर्त पर प्रस्ताव      रखा था कि श्रीलंका, उसके साथ सहयोग को और बढ़ाए. आख़िर चीन किस तरह का सहयोग श्रीलंका से चाह रहा था? 10 जनवरी को यानी चीन और भारत के बीच सैन्य कमांडर स्तर की 14वें दौर की बातचीत से ठीक पहले, चीन के विदेश मंत्री और स्टेट काउंसलर वैंग यी ने हिंद महासागर के अन्य देशों जैसे कि कोमोरोस और मालदीव के साथ श्रीलंका का भी दौरा किया था. उस वक़्त चीन के विदेश मंत्री ने ‘हिंद महासागर के देशों के साथ विकास के एक मंच’ का विचार सामने रखा था. वैंग यी ने कहा था कि इसका मक़सद आम सहमति बनाना, तालमेल स्थापित करना और इस तरह हिंद महासागर में चीन की अगुवाई में ‘मिलकर मोतियों की माला पिरोना’ है. वैंग यी ने कहा कि ये चीन की वैश्विक विकास की उस पहल का ही एक हिस्सा है, जिसका प्रस्ताव राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सितंबर 2021 में रखा था. इसका मक़सद ख़ास तौर से हिंद महासागर क्षेत्र के देशों की विकास संबंधी ज़रूरतें पूरी करना और महामारी के संकट से उबरकर टिकाऊ विकास में योगदान देना है. वैंग यी ने आगे कहा था कि चीन और श्रीलंका को चाहिए कि वो मिलकर कोलंबो पोर्ट सिटी और हंबनटोटा बंदरगाह के डबल इंजन का बेहतरीन इस्तेमाल करें, क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी के समझौते (RCEP) के अंतर्गत सहयोग बढ़ाएं और श्रीलंका व चीन के बीच मुक्त व्यापार समझौते के लिए बातचीत शुरू करें ताकि बाक़ी दुनिया को (ख़ास तौर से भारत को) अहम संकेत दिए जा सकें. उस वक़्त चीन के विश्लेषकों ने तर्क दिया था कि श्रीलंका की मदद के लिए चीन अगर कुछ अरब डॉलर ख़र्च भी कर देता है तो ये मामूली बात है. लेकिन, इससे दक्षिणी एशिया में भारत का प्रभाव सीमित करने में श्रीलंका से काफ़ी मदद मिलेगी. इससे हिंद महासागर क्षेत्र में चीन का प्रभाव बढ़ेगा और वो बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को कामयाबी से लागू कर सकेगा.

चीन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के उस प्रस्ताव का लगातार विरोध करता आया है, जिसके तहत सभी क़र्ज़ देने वाले देशों से 

आईएमएफ़ के प्रस्ताव का विरोध करता चीन

हालांकि, उसके बाद के महीनों में चीन के ये प्रस्ताव कुछ ख़ास      आगे नहीं बढ़ सके. उसके बजाय चीन को तब और झटका लगा जब श्रीलंका ने अप्रैल में विदेशी क़र्ज़ चुकाने को कुछ वक़्त के लिए टाल दिया. मई महीने में वो समय पर क़र्ज़ चुकाने में नाकाम रहा. जुलाई में श्रीलंका ने ख़ुद को दिवालिया घोषित करके अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मदद मांग ली. चीन के पर्यवेक्षकों का तर्क है कि श्रीलंका के ये फ़ैसले चीन के हितों के ख़िलाफ़ हैं, क्योंकि इनसे चीन को भारी आर्थिक क्षति होगी. चीन ये चाहता था कि श्रीलंका अपने क़र्ज़ चुकाता रहे और इस दौरान चीन उसे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संगठनों से और बेहतर सौदेबाज़ी करके मदद हासिल करने में सहयोग दे. इसका एक मतलब ये भी था कि श्रीलंका से चीन के ख़ज़ाने में पैसे की आमद लगातार जारी रहती. लेकिन, चीन के जानकारों का कहना है कि श्रीलंका ने ‘पश्चिमी देशों/ भारत के प्रभाव में जो रास्ता चुना’ है उससे वो चीन का आर्थिक दुश्मन बन चुका है. इससे चीन को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की ऐसी शर्तों के तहत श्रीलंका को क़र्ज़ में रियायत देनी पड़ी हैं, जो उसके हितों के लिहाज़ से नुक़सानदेह हैं. चीन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के उस प्रस्ताव का लगातार विरोध करता आया है, जिसके तहत सभी क़र्ज़ देने वाले देशों से कहा गया था कि वो श्रीलंका को दिए गए ऋण में से बराबर बराबर हिस्सा माफ़ कर दें. चीन का तर्क है कि इससे चीन जैसे नए क़र्ज़दाता देश को ज़्यादा नुक़सान होगा, जबकि श्रीलंका पर क़र्ज़ के मौजूदा बोझ में ज़्यादातर हिस्सेदारी उसके लिए ‘पुराने क़र्ज़ों’ की है.

वैंग यी ने आगे कहा था कि चीन और श्रीलंका को चाहिए कि वो मिलकर कोलंबो पोर्ट सिटी और हंबनटोटा बंदरगाह के डबल इंजन का बेहतरीन इस्तेमाल करें, क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी के समझौते (RCEP) के अंतर्गत सहयोग बढ़ाएं और श्रीलंका व चीन के बीच मुक्त व्यापार समझौते के लिए बातचीत शुरू करें ताकि बाक़ी दुनिया को (ख़ास तौर से भारत को) अहम संकेत दिए जा सकें.

चीन में अब ऐसा मानने वालों की तादाद तेज़ी से बढ़ रही है, जिनकी नज़र में श्रीलंका भी दक्षिण एशिया के बाक़ी देशों की तरह, ‘साज़िश करने वाला और मौक़ापरस्त’ मुल्क है. उनकी नज़र में श्रीलंका, चीन से अपना मतलब तो निकालना चाहता है. लेकिन, इसके बदले में वो अपेक्षा के मुताबिक़, चीन का प्रभाव और उसके साथ सहयोग का दायरा बढ़ाने में सहयोग करने से इनकार करता है. चीन के मुद्दे पर श्रीलंका का कभी हां तो कभी ना कहने का लंबा इतिहास रहा है और आज भी जब श्रीलंका को संकट से उबारने में मदद दी जा रही है, तो भी वो चीन, पश्चिमी जगत और भारत के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है. इसीलिए, भले ही श्रीलंका अभी भी चीन के समुद्री सिल्क रूट का एक अहम ठिकाना बना हुआ है. लेकिन, चीन के विश्लेषकों की नज़र में श्रीलंका को चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को रोकने और इसमें मदद के एवज़ में मोलभाव करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती है. BRI में सहयोग के नाम पर श्रीलंका को चीन पर उसके ऊपर लदे पश्चिमी देशों, भारत, अमेरिका, जापान और अन्य देशों का क़र्ज़ अदा करने का बोझ नहीं डालने दिया जा सकता है. वैसे भी श्रीलंका का दिवालिया होना, उसके आर्थिक संकट का ख़ात्मा नहीं, बल्कि आने वाली चुनौतियों की शुरुआत भर है. ऐसे में अगर श्रीलंका के क़र्ज़ को चुकाने में चीन किसी भी तरह से मददगार बनता है, तो फिर ये अन्य कई देशों पर चीन के क़र्ज़ को उतारने की मिसाल बन सकता है. ऐसे में चीन को चाहिए कि वो ख़ुद को बलि का बकरा बनने से किसी भी क़ीमत पर रोके और इसके बजाय, IMF से मदद पाने की श्रीलंका की कोशिशों को कामयाब न होने दे.

चीन इसलिए और खीझ गया है क्योंकि पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे और चीन में श्रीलंका के राजदूत पलिथा कोहोना समेत देश के कई नेता, चीन के श्रीलंका की मदद करने में दिलचस्पी न लेने पर समय समय सरेआम चिंता जताते रहे हैं. चीन के पर्यवेक्षकों को लगता है कि श्रीलंका के नेताओं के ऐसे बयान पश्चिमी देशों और भारत द्वारा प्रचारित की जा रही उस बात को सही साबित करते हैं कि श्रीलंका पर क़र्ज़ के बोझ का संकट और कई अन्य देशों के आर्थिक संकट के लिए चीन ही ज़िम्मेदार है. चीन के विश्लेषकों का तर्क है कि इससे चीन पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनता है कि वो अपना नज़रिया पेरिस क्लब के हिसाब से बनाए और ‘क़र्ज़ के निपटारे के लिए साझा फ्रेमवर्क’ के रुख़ पर फिर से विचार करे. चीन पर ये दबाव तब बढ़ रहा है जब ख़बर ये है कि वो क़र्ज़ के दबाव से जूझ रहे देशों की मदद के लिए G20 की क़र्ज़ राहत योजना को इस आधार पर रोकने की कोशिश कर रहा है कि वो G20 के कॉमन फ्रेमवर्क फॉर डेट ट्रीटमेंट्स प्रक्रिया को पूरी तरह से लागू करने से पहले, इन देशों को दिए गए अपने ‘क़र्ज़ को लेकर सौदेबाज़ी’ पूरी कर लेना चाहता है.

चीन के कई ऑनलाइन लेखों में कहा गया है कि चीन की ताक़त को देखते हुए, ऐसा भी मुमकिन है कि श्रीलंका को दिया गया क़र्ज़ वसूलने के लिए चीन के जंगी जहाज़ समुद्र के रास्ते जाकर कोलंबो बंदरगाह पर क़ब्ज़ा कर लें और इसे चीन के नियंत्रण वाला एक और बंदरगाह बना दें.

श्रीलंका को लेकर चीन की ऑनलाइन दुनिया में जो ग़ुस्से से भरी प्रतिक्रिया दिख रही है, उनके पीछे यही कारण हैं. इनमें तर्क ये दिया जा रहा है कि श्रीलंका के प्रति चीन की कोई जवाबदेही नहीं है, और BRI उन देशों के लिए तो कोई मुफ़्त की राहत नहीं है, जो असंवेदशील और पिछड़ते जा रहे साझीदार हैं. तर्क ये दिया जा रहा है कि अगर श्रीलंका को चीन से और रक़म चाहिए, तो पहले वो पुराना लिया हुआ क़र्ज़ वापस करे. अपने यहां चीन के निवेश की सुरक्षा को लेकर अपने वादे पूरे करे और नैतिकता के नाम पर दबाव बनाना बंद करे. चीन की ऑनलाइन दुनिया में ये भी कहा जा रहा है कि श्रीलंका को एक दिवालिया देश की हैसियत से मोल-भाल करना चाहिए, न कि स्वर्णजटित लंका के रूप में, जो सभी से फ़ायदा लेने के चक्कर में तमाम देशों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है.

चीन में श्रीलंकाई संकट की तस्वीर

कुल मिलाकर, श्रीलंका के संकट को लेकर चीन में आम राय यही है कि, ‘या तो श्रीलंका पिछला क़र्ज़ चुकाए या अंजाम भुगते’. जैसा कि चीन के कई ऑनलाइन लेखों में कहा गया है कि चीन की ताक़त को देखते हुए, ऐसा भी मुमकिन है कि श्रीलंका को दिया गया क़र्ज़ वसूलने के लिए चीन के जंगी जहाज़ समुद्र के रास्ते जाकर कोलंबो बंदरगाह पर क़ब्ज़ा कर लें और इसे चीन के नियंत्रण वाला एक और बंदरगाह बना दें. अगर चीन, दुनिया के कड़े प्रतिकार की आशंका को देखते हुए, ऐसा कठोर क़दम नहीं भी उठाता है, तो भी चीन और श्रीलंका की नौसेना के साझा युद्धाभ्यास      करने, सामान की आपूर्ति के लिए चीन की नौसेना को श्रीलंका के बंदरगाहों का इस्तेमाल करने की मंज़ूरी लेने, श्रीलंका के जंगी जहाज़ों की मरम्मत अपने हाथ में लेने, श्रीलंका के बंदरगाहों पर चीन के जहाज़ों के लिए ख़ास तयशुदा ठिकाने बनाने या फिर जिबूती      की तरह श्रीलंका में अपना सैनिक अड्डा बनाने के लिए ज़मीन हासिल करने जैसे अपनी प्राथमिकता वाले हितों को तरज़ीह देते हुए वो श्रीलंका के साथ क़र्ज़ की शर्तों पर बातचीत में और सख़्ती तो निश्चित रूप से अपनाएगा.

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