Author : Aarshi Tirkey

Published on Jun 05, 2018 Updated 0 Hours ago

अंतर्राष्ट्रीय कानून के नित नए उभरते क्षेत्रों के साथ, चीन उसकी संकल्पना में भागीदारी के लिए बेताब है, ताकि वैश्विक कानूनी व्यवस्था में वह अपने विज़न अहसास कराने में सहायक बन सके तथा अपने राष्ट्रीय और राजनीतिक हितों की रक्षा की गुंजाइश रख सके।

क्या है अंतर्राष्ट्रीय कानून के प्रति चीन का नजरिया

यह लेख The China Chronicles श्रृंखला का 55 वीं हिस्सा है।


1970 के दशक में चीन की विदेश नीति ने 1949 में अपने द्वारा अपनाए गए अलगाववादी रवैये को पूरी तरह अलविदा कह दिया। तभी से चीन विविध अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, संधियों और समझौतों का अंग बनकर अंतर्राष्ट्रीय कानूनी व्यवस्था में लगातार शामिल रहा है।वैश्विक राजनीति में चीन के प्रमुख सहभागी के तौर पर उभरने का अभिप्राय यह है कि उसकी कार्रवाइयां, वक्तव्य और राय भविष्‍य के और मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय कानूनी नियमों के निर्धारण और संशोधन दोनों में अहमियत रखती हैं। अमेरिका के घटते सरोकारों और चीन के बढ़ते प्रभाव के बीच देश भूराजनीतिक भविष्य तलाश रहे हैं, ऐसे में मुनासिब यही होगा कि अंतर्राष्ट्रीय कानून के प्रति चीन के उभरते दृष्टिकोण को जाना और समझा जाए।

राष्ट्र की सम्प्रभुता को सबसे आगे रखना

सरल शब्दों में कहा जाए तो “अंतर्राष्ट्रीय कानून” का आशय प्रथाओं और संधियों से ग्रहण किए गए नियमों की व्यवस्था से है,जिन्हें देश एक-दूसरे के साथ अपने संबंधों को बांधने वाला मानते हैं। संधि और प्रथाओं पर आधारित नियम, उदाहरण के तौर पर शांति, संघर्ष, सीमा विवाद, व्यापार और नेविगेशन से संबंधित नियम, स्थिर, शांतिपूर्ण और परस्पर लाभकारी नियम आधारित अंतराष्ट्रीय व्यवस्था तैयार करने में सहायता देते हैं। हालांकि, व्यवहारिक राजनीति के अंतर्गत, देश अपने राष्ट्रीय और राजनीतिक हितों के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय कानूनी नियमों की व्यवस्था करते हैं। 1945 में, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने सरकार की मान्यता और राष्ट्र के उत्तराधिकार से संबंधित नियमों के आधार पर चीन को निष्कासित कर दिया था। पश्चिमी देशों के नेतृत्व में माओ के पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना — जिसका उस समय चीन के भूभाग का वास्तविक नियंत्रण था के स्थान पर ताइवान स्थित चिंयाग-काइ-शेक की निर्वासित सरकार को संयुक्त राष्ट्र में चीन की सीट के आधिकारिक प्रतिनिधि के तौर पर मान्यता दी गई। इन्हीं कारणों से, चीन अंतर्राष्ट्रीय कानून के मामले में सतर्कता बरतता रहा और वह उन्हें आर्थिक शोषण तथा राजनीतिक उत्पीड़न के साधन मानता रहा।

इसके परिणामस्वरूप, अंतर्राष्ट्रीय कानून के प्रति चीन का सामान्य दृष्टिकोण भारत और चीन द्वारा 1954 में स्थापित द्विपक्षीय संधि से ग्रहण किया गया है, जिसे “पंचशील संधि” के नाम से जाना जाता है। इस संधि का उद्देश्य दोनों देशों के आपसी संबंधों को निर्धारित करना था और इसमें क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान और सम्प्रभुता, आंतरिक मामलों में दखल न देना और एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं करने जैसे सिद्धांतों को शामिल किया गया था। इस संधि के मूल सिद्धांतों में “राष्ट्र की सम्प्रभुता” की अवधारणा यानी राष्ट्र के स्वयं पर शासन करने के पूर्ण अधिकार और ताकत तथा किसी अन्य देश के बाहरी हस्तक्षेप के बिना अपने मामलों पर नियंत्रण रखने पर व्यापक बल दिया गया था। अपने मामलों में बाहरी हस्तक्षेप का विरोध करने के लिए चीन द्वारा इन सिद्धांतों का बार-बार उपयोग किया गया जैसे कि तिब्बती स्वाधीनता आंदोलन के दौरान, जो उसकी सम्प्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का अति​क्रमण था।

चीन अंतर्राष्ट्रीय कानून के मामले में सतर्कता बरतता रहा और वह उन्हें आर्थिक शोषण तथा राजनीतिक उत्पीड़न के साधन मानता रहा।

अंतर्राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत, संधियां देशों के बीच संबंधों का संचालन और नियंत्रण करने का प्रमुख कानूनी साधन हैं। एक बार संधि लागू होते ही, उसके प्रावधान संबंधित पक्षों के बीच बाध्यकारी होते हैं और उसके उद्देश्यों को नेकनीयत से पूरा किया जाना चाहिए। हालांकि चीन का मानना है कि “असमान संधियों” के नाम से जानी जाने वाली कुछ संधियां बाध्यकारी नहीं हैं।” असमान संधियां” शब्द चीन ने गढ़ा है और उसका इशारा उन संधियों की ओर है, जिनके माध्यम से उसे दबाव में आकर कुछ क्षेत्रीय अधिकार पश्चिमी देशों को देने के लिए विवश होना पड़ा था। इन संधियों पर साम्राज्यवाद के उत्कर्ष के दौरान हस्ताक्षर किए गए थे, इसको देखते हुए चीन का मानना है कि ये संधियां उनकी सम्प्रभुता और अखंडता का उल्लंघन करती हैं, क्योंकि चीन ने जब इनके बारे में बातचीत ​की थी, तो उस समय वह समान स्थिति में नहीं था। यही मुख्य कारण है कि चीन, भारत के अरुणाचल प्रदेश और दक्षिण तिब्बत को निर्धारित करने वाली मैकमोहन लाइन की वैधता पर बार-बार सवालिया निशान लगाता है।

 चीन अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार से संबंधित दायित्वों का अनुसरण नहीं करता और अपने मानवाधिकारों के घरेलू रिकॉर्ड की जांच से बचता रहा है। चीन की ऐहतियात का कारण इन कानूनों का इस्तेमाल सार्वजनिक निंदा, आर्थिक प्रतिबंध और कई मामलों में सशस्त्र हस्तक्षेप और सत्ता परिवर्तन के जरिए देशों के घरेलू मामलों में दखल देने में किए जाने को लेकर है। मानवाधिकार उल्लंघनों या मानवीय संकट की प्रतिक्रिया में संयुक्त राष्ट्र की कार्रवाई का अनुमोदन करने में चीन बेहद बेरुखी दिखाता रहा है। इसका प्रमुख उदाहरण मई 2014 में, सीरिया में मानवीय संकट के संबंध में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को अवरुद्ध किया जाना शामिल है।

अंतर्राष्ट्रीय कानून के उभरते क्षेत्रों के प्रति अलग दृष्टिकोण 

उपरोक्‍त स्थिति अंतर्राष्ट्रीय कानून के नए और उभरते क्षेत्रों जैसे अंतरिक्ष, व्यापार, समुद्र में खनन, साइबरस्पेस और जलवायु परिवर्तन के प्रति चीन के दृष्टिकोण के विपरीत है। चीन के दृष्टिकोण में बदलाव का श्रेय इस तथ्य को दिया जा सकता है कि नए नियम निर्धारित करने की प्रक्रिया ज्यादा समावेशी और भागीदारीपूर्ण है, क्योंकि इसमें विकासशील और अल्पविकसित देशों की ओर से महत्वपूर्ण प्रतिनिधित्व शामिल है। इन नियमों के निर्धारण में चीन को समान महत्व मिलता है और अपनी अर्थव्यवस्था,जनसंख्या, सेना और क्षेत्र के आकार के मद्देनजर चीन की राय और वक्तव्यों को बहुत अहमियत मिलती है। इस कारण, चीन वैश्विक कानून व्यवस्था के लिए इसे अपने विजन को प्रचारित करने के आदर्श अवसर के तौर पर देखता है। उदाहरण के लिए,चीन ने 2014 में प्रथम इंटरनेट सम्मेलन (जिसे वुझान सम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है) की मेजबानी की और “इंटरनेट सम्प्रभुता” की वकालत साइबर गवर्नेंस के आधार के तौर पर की। इंटरनेट की सम्प्रभुता, एक ऐसी व्यवस्था है, जो चीन में पहले से स्थापित है, यह हर एक देश को सम्प्रभु राष्ट्र के रूप में इंटरनेट स्पेस के संचालन और नियंत्रण का अधिकार प्रदान करती है।

इन नियमों के निर्धारण में चीन को समान महत्व मिलता है और अपनी अर्थव्यवस्था, जनसंख्या, सेना और क्षेत्र के आकार के मद्देनजर चीन की राय और वक्तव्यों को बहुत अहमियत मिलती है।

विश्व की विशालतम अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के नाते, चीन क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) जैसे द्विपक्षीय और बहुपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों के जरिए लगातार व्यापक व्यापार और आर्थिक एकीकरण पर बल देता रहा है। चीन ने पश्चिम के प्रभुत्व वाली ब्रैट्टन वुड्स सिस्टम के विकल्प के तौर पर एक बार फिर से, एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) और न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनडीबी) जैसी नई बहुपक्षीय वित्तीय संस्थाओं की स्थापना करने का प्रयास किया है। हालांकि व्यापार,आर्थिक और निवेश कानूनों के क्षेत्र में, देशों ने चीन की तरफ से पारदर्शिता के बारे में चिंताएं व्यक्त की हैं। चीन मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं आर्थिक कानूनों की कमियों और खामियों का उपयोग कर अपनी सम्प्रभुता के अधिकारों को बढ़ावा देने के उपाय करना गुपचुप रूप से जारी रखे हुए है। अतीत की घटनाओं जैसे युवान के अवमूल्यन या चीन के बाजारों में बौद्धिक सम्पदा के अधिकारों की शिथिल व्यवस्था का लक्ष्य अन्य देशों के समान हितों की कीमत पर उसके स्वयं के आर्थिक हितों को बढ़ावा देना था।

अंतर्राष्ट्रीय कानून व्यवस्था के भविष्य के लिए चीन का दृष्टिकोण

अतीत में, चीन उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से संबंधित अपने अनुभवों के कारण अंतर्राष्ट्रीय कानून व्यवस्था में भागीदारी से हिचकिचाता था। पूर्व-स्थापित, परम्परागत अंतर्राष्ट्रीय कानूनी नियमों के लिए उसकी प्रतिक्रिया देश की सम्प्रभुता और घरेलू मामलों में हस्तक्षेप न करने जैसी चिंताओं से निर्देशित थी। हालांकि अंतर्राष्ट्रीय कानून के नित नए उभरते क्षेत्रों के साथ, चीन उसकी संकल्पना में भागीदारी के लिए बेताब है, ताकि वैश्विक कानूनी व्यवस्था में वह अपने विज़न अहसास कराने में सहायक बन सके तथा अपने राष्ट्रीय और राजनीतिक हितों की रक्षा की गुंजाइश रख सके। नियमों पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अमेरिका के तेजी से घटते सरोकारों के साथ वैश्विक नेतृत्व में शून्य उत्पन्न हो गया है। वैश्विक स्तर पर बेहद ताकतवर देश की अपनी उभरती भूमिका के मद्देनजर, चीन प्रभावी रूप से इस शून्य को भर सकता है और इस स्थिति का इस्तेमाल करते हुए वह अंतर्राष्ट्रीय कानूनी व्यवस्था के लिए अपने विज़न के साथ तालमेल बैठाते हुए मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय कानूनों में बदलाव ला सकता है और नए कानूनों का निर्माण कर सकता है।

अंतर्राष्ट्रीय कानून के लिए ऐसे मार्ग के अनेक निहितार्थ हैं। उदाहरण के लिए, जहां एक ओर, वह पश्चिमी देशों के मानवाधिकारों की आड़ में “उदारवादी हस्तक्षेपवाद” को हटाने में मदद कर सकता है, लेकिन दूसरी ओर, वह घरेलू स्तर पर मानवाधिकारों के उल्लंघन की अंतर्राष्ट्रीय जांच समाप्‍त करा सकता है और रोहिंग्या शरणार्थियों जैसे संकट को बनाए रखने में मदद कर सकता है। भले ही दोषपूर्ण हों, अंतर्राष्ट्रीय कानूनों ने नियमों और कानूनों से शासित होने वाला विश्व तैयार करने में मदद की है और वैश्विक व्यवस्था को अनुमान लगाए जा सकने लायक और कम अराजक बनाया है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की गतिशील प्रकृति तथा भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था द्वारा निभाई जा रही भूमिका के बीच यह देखना बाकी है कि क्या अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के भविष्य की राह को चीन द्वारा ही आकार दिया जाएगा।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.