Published on Nov 28, 2016 Updated 0 Hours ago

ट्रंप के शासन काल में अमेरिका-चीन संबंधों की वजह से भारत के तात्कालिक और दीर्घकालिक हित प्रभावित होंगे।

ट्रंप की जीत और भारत-चीन संबंध

अमेरिकी राष्ट्रपति के तौर पर डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव जीतने को दुनिया किस नजर से देखती है और इस लिहाज से भारत की विदेश नीति पर क्या असर पड़ेगा, इस संबंध में शुरू की गई नई श्रृंखला का यह दूसरा भाग है। यह श्रृंखला एक पखवाड़े चलेगी, जिसमें पश्चिमी एशिया, पूर्वी एशिया और यूरोप से विश्लेषण पढ़ने को मिलेंगे।

पहला भाग यहां पढ़ें।

वूजेन/शंघाई: अमेरिका के अगले राष्ट्रपति के तौर पर डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव के हफ्ते भर के अंदर ही चीन ने अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के अनुरूप उदारवाद के मूल्यों का सार्वजनिक अनुमोदन कर दुनिया भर के लोगों को हैरान कर दिया। बताया जाता है कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ट्रंप को बधाई देने के लिए किए अपने फोन कॉल के दौरान कहा कि उनका देश जलवायु परिवर्तन से जूझने के लिए तैयार है, “इसके लिए चाहे जो परिस्थितियां हों।”

पेरिस समझौते के प्रभाव में आने के बाद समझौते में शामिल देशों के पहले सम्मेलन के दौरान माराकेश में बीजिंग के मुख्य जलवायु वार्ताकार ने संयुक्त राष्ट्र ढांचे के तहत काम करते हुए ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने की “वैश्विक जवाबदेही” की बात की थी।

चीनी राष्ट्रपति शी ने एशिया—प्रशांत आर्थक समुदाय सम्मेलन (एशिया पैसिफिक इकनॉमिक कम्युनिटी समिट) से पहले लैटिन अमेरिकी देशों इक्वाडोर, पेरू और चिली की आधिकारिक यात्रा के दौरान दशक भर पुराने व्यापार प्रस्ताव से धूल झाड़ कर उस पर नए सिरे से बातचीत की जरूरत बता दी है। शी ने कहा, फ्री ट्रेड एरिया ऑफ दी एशिया पैसिफिक (एफटीएएपी) प्रस्ताव ही इस क्षेत्र में “मुक्त अर्थव्यवस्था” सुनिश्चित करने की “संस्थानिक व्यवस्था” तैयार करने की चाभी है। एपीईसी की मंत्री स्तरीय बैठक के दौरान चीन के उप—वाणिज्य मंत्री वांग शाऊवेन ने व्यापार संरक्षणवाद के खिलाफ दलील देते हुए सामान व सेवाओं की मुक्त आवाजाही के लिए व्यापार पर बंधनों को हटाने की जरूरत बताई।

इस बीच, चीन के इस शहर वूजेन में हो रहे विश्व इंटरनेट सम्मेलन के दौरान देश के प्रमुख उद्यमियों ने प्रवासियों को चीन की प्रमुख तकनीकी कंपनियों के लिए काम करने और नई खोज करने का आमंत्रण दिया। बाईडू के सीईओ बोबिन ली ने अपने भाषण में कहा, “मैंने पढ़ा कि राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित डोनाल्ड ट्रंप के एक सलाहकार ने उन्हें शिकायत की है कि सिलिकॉन वैली में काम करने वाले तीन-चौथाई इंजीनियर अमेरिकी नहीं हैं। तो मुझे उम्मीद है कि इनमें से बहुत से इंजीनियर चीन आएंगे और हमारे लिए काम करेंगे।”

उदारवादी व्यवस्था के फायदे का एहसास

बीजिंग ने हाल में जो बातें कही हैं, उनके पीछे अमेरिका के बाद अब उदारवाद का रहनुमा बनने की उसकी कोई मंशा नहीं बल्कि इसके लिए उनका अपना स्वार्थ काम कर रहा है। चीन ने लंबे समय तक अमेरिकी प्रबंधन की ओट लेते हुए एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में मुक्त व्यापार का लाभ उठाया है। लेकिन ट्रंप के चुने जाने के बाद इसे डर है कि अब न सिर्फ इसके सबसे मालदार बाजार अमेरिका और यूरोप में बल्कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भी संरक्षणवादी उपाय अपनाए जाएंगे। इसलिए चीनियों ने एफटीएएपी के लिए जोर लगाना शुरू किया है, जो क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) के साथ मिल कर ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप का विकल्प बनने की संभावना रखता है। पेरू और चिली ने टीपीपी के भविष्य पर बहुत अधिक निवेश किया है और इसके निराशाजनक भविष्य को देख कर वे भी एफटीएएपी के समर्थन के लिए प्रेरित हो सकते हैं।

छोटे-मोटे स्वार्थों को परे रख कर चीन ने जिस तरह लंबी और थकाऊ व्यापार संधियों के लिए जतन शुरू किया है, उससे यह भी जाहिर होता है कि यह खुद को कैसे एक वैश्विक शक्ति के रूप में देखने लगा है। पूर्व उप—विदेश व्यापार मंत्री और बीजिंग की एक प्रभावशाली आवाज माने जाने वाले लांग योंगटू ने हाल ही में लिखा कि चीन मौजूदा नियम आधारित व्यवस्था में कुछ “घटाए” बिना “जोड़ने” को इच्छुक है। लांग ने लिखा कि “चीन यह नहीं चुन सकता कि उसे कौन से नियमों का पालन करना है और किनको उपेक्षित कर देना है।” उनके विचार चीन के उस विशिष्ट वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो तर्क देता है कि बीजिंग को दूसरे विकासशील देशों के साथ अपने आर्थिक संबंधों के लिहाज से अब ज्यादा निगरानी रखने वाला नजरिया नहीं अपनाना चाहिए। ऐसे लोगों का यह भी मानना है कि एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) और बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट (ओबीओआर) ऐसे साधन हैं, जिनके जरिए चीन भविष्य में आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में अपने नेतृत्व को स्थापित कर सकेगा। ये संस्थान चीन की निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था को तभी मजबूत करेंगे जब चीन के नीति निर्माताओं के पास वास्तव में उनके लिए व्यापक रणनीति हो। अपनी आर्थिक ताकत को राजनीतिक और मानक मूल्य के तौर पर स्थापित करने के लिहाज से चीन का नेतृत्व और कूटनीति अभी तैयार नहीं है। बल्कि ट्रंप की जीत और इसे सुनिश्चित करने में सोशल मीडिया की भागीदारी को देखते हुए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के लोगों का वह नजरिया और मजबूत होगा जिसके तहत ये घरेलू इंटरनेट प्रतिबंधों को ढीला करने या राजनीतिक विचारों पर चर्चा के खिलाफ तर्क देते हैं। फिलहाल सीपीसी से यही उम्मीद है कि वह अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम में ज्यादा गहरे उतरे बिना घरेलू मुद्दों पर ध्यान देगी।

भारत क्या करे?

ट्रंप के शासन काल में अमेरिका-चीन संबंधों की वजह से भारत के तात्कालिक और दीर्घकालिक हित प्रभावित होंगे। अगले चार वर्षों के दौरान उम्मीद की जा रही है कि ट्रंप सरकारी खर्च को घरेलू ढांचागत सुविधाएं विकसित करने पर ज्यादा लगाएंगे और विदेशी मदद व आर्थिक सहयोग के लिए उपलब्ध अमेरिकी डॉलर में और कमी आएगी। विकासशील देशों को अगर अब तक नहीं हुआ तो अब इस बात का एहसास होने वाला है कि चीनी पूंजी ही अगले दशक के दौरान उनकी फंडिंग के लिए संभवतः सबसे विश्वस्त स्रोत होने जा रही है। बीजिंग ने भले ही अब तक ओबीओआर और एआईआईबी जैसी परियोजनाओं के अप्रत्यक्ष लाभ उपलब्ध करवाने की वैसी रणनीति लागू नहीं की हो लेकिन इन चीनी परियोजनाओं को ले कर होने वाला विरोध हमेशा के लिए शांत होने में अब ज्यादा समय नहीं है। यूरोप ने ओबीओआर में पहले ही अपनी बढ़ती दिलचस्पी का संकेत दे दिया है और ब्रेक्सिट के बाद यूके भी आधारभूत ढांचा आधारित परियोजना के लिए एआईआईबी की ओर उम्मीद की नजर से देख रहा है। अमेरिकी नेतृत्व वाली व्यवस्था को आधार देने वाले आर्थिक मूल्यों की वकालत कर चीन ज्यादा से ज्यादा देशों को अपने साथ साझेदारी के लिए सहज बनाता जा रहा है। अगर इसके साथ ट्रंप प्रशासन ने दक्षिण और मध्य एशिया के मामलों में अपनी दिलचस्पी घटा दी तो चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) को ले कर भारत के विरोध को पश्चिमी राजधानियों में सुनने वाले और कम हो जाएंगे। भारत के लिए यह देखना भी अहम होगा कि अमेरिका-अफगानिस्तान-भारत की त्रिपक्षीय वार्ता को ट्रंप प्रशासन किस तरह आगे बढ़ाता है। यह त्रिपक्षीय वार्ता अफगानिस्तान को ले कर होने वाली एकमात्र वार्ता है जो चीन और पाकिस्तान को शामिल नहीं करती और इसको ले कर इस्लामाबाद ज्यादा खुश नहीं। दक्षिण एशिया में चीन का दखल अमेरिकी विदेश नीति से न तो प्रभावित होता रहा है और न ही इस बात की उम्मीद है कि वह इस क्षेत्र में अमेरिका की भूमिका में आ जाएगा। लेकिन इस अवधि के दौरान चीन-पाकिस्तान के सैन्य और आर्थिक संबंध लगातार मजबूत होते जा सकते हैं जो भारत को ऐसे विकल्पों को अपनाने को उकसा सकते हैं जिससे यह साझेदारी बीजिंग को महंगी साबित हो।

उससे भी पहले चीन ट्रंप प्रशासन की हर हलचल पर बारीक नजर रखते हुए यह आंकने की कोशिश करता रहेगा कि दोपक्षीय संबंधों के विवादास्पद मामलों पर ट्रंप प्रशासन क्या रवैया रखता है और एशिया की सुरक्षा को ले कर क्या करता है। इस लिहाज से यह दक्षिण चीन सागर में उकसाने वाले तरीके अपनाने, वास्तविक नियंत्रण रेखा पर कुछ घटनाएं करने या अमेरिका अथवा जापान की ढांचागत सुविधा पर राज्य प्रायोजित साइबर हमला करने जैसे कदमों के जरिए प्रतिक्रिया देखता रहेगा। ऐसा कुछ किए जाने पर भारत की ओर से कूटनीतिक प्रतिक्रिया आवश्यक होगी। लेकिन एक लिहाज से यह बहुत मुश्किल भी होगा, क्योंकि अब तक नए अमेरिकी शासन की नब्ज पर इसका हाथ नहीं पहुंच सका है। ये ऐसी परिस्थितियां हैं, जिनके लिए नई दिल्ली को तैयार रहना है।

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