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नियमित रूप से नियम क़ायदे बनाकर सरकार ख़ुदरा ई-कॉमर्स के बाज़ार के विस्तार में मदद कर सकती है.
भारत के ख़ुदरा ई-कॉमर्स को बंदिशों से आज़ाद करो
भारत में ख़ुदरा कारोबार का नियमन करना बहुत दुश्वारी का काम है. असल में किसी भी राज्य में व्यापार और वाणिज्य से जुड़े नियम, सीधे तौर पर राज्य सरकारें तय करती हैं. वहीं, जनहित में कुछ ख़ास उत्पादों के मामले में केंद्र सरकार क़ानून बनाकर दखल दे सकती है. कारोबारी और औद्योगिक एकाधिकार, कंपनियों के गठजोड़ और ट्रस्ट से जुड़े राज्यों के क़ानून पर केंद्र का क़ानून प्रभावी होता है.
वर्ष 2011 से ही इस क्षेत्र में सरकारों के बीच अधिकार क्षेत्र का विवाद हावी रहा है. ख़ास तौर से किराना कारोबार में विदेशी निवेश के मामले में जज़्बाती राजनीति होती आई है. जब उस वक़्त बीजेपी विपक्ष में थी, तो वो ख़ुदरा कारोबार में विदेशी निवेश के सख़्त ख़िलाफ़ थी. वामपंथी दल और तृणमूल कांग्रेस भी इस क्षेत्र में इसलिए इस क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के ख़िलाफ़ रहे थे कि उन्हें डर था कि क़रीब 1.2 करोड़ भारतीय ख़ुदरा कारोबारी- जिनमें से ज़्यादातर छोटे और ख़ानदानी किराना दुकानदार हैं- बड़ी विदेशी कंपनियों से मुक़ाबला नहीं कर पाएंगे.
राजनीतिक रूप से व्यापारी और कारोबारी समुदाय बीजेपी के समर्थक रहे हैं. वामपंथी दल पारंपरिक रूप से पूंजीवादी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ थे. तो राजनीतिक अर्थशास्त्र के चलते ही बड़ी विदेशी कंपनियों के भारतीय बाज़ार में दाखिल होने का विरोध होता रहा है.
भारत में बड़ी, संगठित ख़ुदरा कंपनियां 1990 के दशक से ही कारोबार में रही हैं. लेकिन, ये कंपनियां शहरों में ही कारोबार कर रही थीं और इनकी बाज़ार में हिस्सेदारी 2 से 4 प्रतिशत रही है. राजनीतिक रूप से व्यापारी और कारोबारी समुदाय बीजेपी के समर्थक रहे हैं. वामपंथी दल पारंपरिक रूप से पूंजीवादी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ थे. तो राजनीतिक अर्थशास्त्र के चलते ही बड़ी विदेशी कंपनियों के भारतीय बाज़ार में दाखिल होने का विरोध होता रहा है.
दिलचस्प बात ये है कि जब संसद में इस मुद्दे पर गर्मागर्म बहस जारी थी तो IIT दिल्ली से पढ़ने वाले छात्रों की दो अलग अलग जोड़ियों ने बड़ी ख़ामोशी से 2007 में फ्लिपकार्ट और 2010 में स्नैपडील नाम की ई-कॉमर्स स्टार्टअप कंपनियों की स्थापना की. जोखिम वाले विदेशी निवेशकों की पूंजी की मदद से दोनों ही कपंनियों ने ज़बरदस्त तरक़्क़ी की. इससे विदेशी निवेशकों को सीधा संदेश गया: हम आपका पैसा चाहते हैं. लेकिन ख़ुदरा कारोबार का मालिकाना हक़ भारतीयों के हाथ में ही होना चाहिए.
2015 के बाद से बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने तेज़ी से बढ़ रहे ई-कॉमर्स और छोटे-मोटे धंधे और रोज़गार को ख़त्म बचाने के बीच राजनीतिक संतुलन बनाने का काम किया है. इसके लिए विदेशी निवेश पर आधारित, मल्टी-ब्रांड और ख़ुदरा ई-कॉमर्स पर कुछ पाबंदियां लगाई गई हैं.
साल 2012 के आख़िर तक आते आते अर्थव्यवस्था की विकास दर धीमी हो गई थी और 2014 के आम चुनाव सिर पर आ चुके थे. ऐसे में ख़ुदरा कारोबार में विदेशी निवेश को मंज़ूरी देकर विकास को बढ़ावा देने और ‘अच्छी’ नौकरियां पैदा करने के लालच की अनदेखी करना मुमकिन नहीं रह गया था. सरकार ने थोक व्यापार में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) और मल्टीब्रांड में 51 फ़ीसद FDI के निवेश की इजाज़त दे दी. इसमें छोटे दुकानदारों की हिफ़ाज़त के लिए पहले सरकार से मंज़ूरी लेने और बड़े शहरों के बाहर स्टोर खोलने और 30 प्रतिशत सामान छोटे सप्लायर और निर्माताओं से ख़रीदने जैसी शर्तें भी जोड़ी गईं.
2015 के बाद से बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने तेज़ी से बढ़ रहे ई-कॉमर्स और छोटे-मोटे धंधे और रोज़गार को ख़त्म बचाने के बीच राजनीतिक संतुलन बनाने का काम किया है. इसके लिए विदेशी निवेश पर आधारित, मल्टी-ब्रांड और ख़ुदरा ई-कॉमर्स पर कुछ पाबंदियां लगाई गई हैं. हालांकि, व्यवहार में शेल कंपनियों के ज़रिए निवेश करके ‘कंपनी की निरपेक्षता’ जैसे कठिन नियमों और प्रावधानों से बचने की कारोबारी साठ-गांठ की अनदेखी की गई है.
छोटे कारोबारियों के दबाव में 2018 में सरकार ने मल्टी-ब्रांड ई-रिटेल को औपचारिक रूप से दो हिस्सों में बांट दिया है. ‘थोक माल रखने वाली ई-कॉमर्स कंपनियां’ जो ख़ुद के उत्पाद भी बेचती और वितरित करती हों. ये कंपनियां केवल भारतीय स्वामित्व में कारोबार कर सकती हैं. ये बात भारत के बड़े व्यापारिक घरानों के लिए भी मुफ़ीद है. ‘ई-कॉमर्स के बड़े बाज़ार वाले मंचों’ में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश की इजाज़त है. लेकिन ऐसी कंपनियां अपने मंच पर सामान बेचने वाली कंपनियों पर मालिकाना हक़ या ‘साझा स्वामित्व’ नहीं हासिल कर सकती हैं. वरना उन पर ये आरोप लगेगा कि वो अपने ‘निजी ब्रांड’ या ‘पसंदीदा सप्लायर्स’ को तरज़ीह दे रही हैं.
अखिल भारतीय व्यापारी परिसंघ (CAIT)- व्यापारियों की एक रजिस्टर्ड संस्था है. वैसे तो इसकी स्थापना 1999 में की गई थी. लेकिन, केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी की सरकार बनने के बाद से ये संस्था काफ़ी सक्रिय दिखी है. CAIT का दावा है कि उसे भारत के आधे ख़ुदरा कारोबारियों का समर्थन हासिल है. इसी साल मार्च के मध्य में CAIT ने सरकार से गुहार लगाई कि (a) मंच की निरपेक्षता को और मज़बूती से लागू किया जाए; (b) ई-कॉमर्स सेक्टर के नियमन के लिए एक अलग रेग्यूलेटर बनाया जाए; (c) प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने की एक अंतिम सीमा तय की जाए (ताकि विदेश से पूंजी लाकर यहां ‘डंप न की जा सके’) हालांकि इस क़दम से भारत में आने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर क्या असर पड़ेगा इसकी समीक्षा नहीं की गई; (d) छोटे कारोबारी ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर आ सकें इसके लिए GST के रजिस्ट्रेशन की अनिवार्यता ख़त्म की जाए; (e) तरज़ीह वाले सप्लायर्स पर पाबंदी लगाई जाए; (f) ‘भारी छूट’ देने पर रोक लगाई जाए; (g) ग्राहकों के आंकड़े तक सप्लायर्स की पहुंच की गारंटी दी जाए या फिर ई-कॉमर्स प्लेटफ़ॉर्म द्वारा ये आंकड़े इस्तेमाल करने पर रोक लगाई जाए; (h) सप्लायर्स के बीच भेदभाव न करने का नियम सख़्ती से लागू किया जाए; और (i) एक एकीकृत साइबर नियामक प्राधिकरण का गठन किया जाए.
अगर भारत में ई-कॉमर्स के कारोबार के प्रबंधन के लिए बेहतरीन कंपनियों कोआकर्षित करना है, तो इस तरह से मुनाफ़ा कमाने से रोकने पर उन्हें इसके एवज़ में मंचपर अपना सामान बेचने वाले आपूर्तिकर्ताओं से ज़्यादा फ़ीस वसूली जैसे दूसरेकारोबारी विकल्प देने होंगे.
ई-कॉमर्स कंपनियां चलाने वालों द्वारा आंकड़ों और सर्च के नतीजों के ज़रिए अपना नियंत्रण स्थापित करने और कुछ सप्लायर्स पर अन्य को तरज़ीह देने के बारे में कॉम्पिटिशन कमीशन ऑफ़ इंडिया (CCI) का कहना है कि, ‘… मंच पर निजी ब्रांड का इस्तमाल और साझा मालिकाना हक की व्यवस्था के ज़रिए, प्रतिद्वंदियों की तुलना में मंच की अपनी या अपनी कंपनियों की बाज़ार में स्थिति मज़बूत की जा सकती है. क्योंकि इसके ज़रिए ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर प्राथमिकताएं तय की जा सकती हैं’.
निश्चित रूप से ऐसी साठ-गांठ हो रही थी. लेकिन यहां पर प्रासंगिक नियामक मुद्दा ये है कि क्या इससे वाक़ई ग़लत व्यवहार और भेदभाव होता है या फिर इससे सप्लायर या ग्राहक के हितों को चोट पहुंचती है, या फिर इससे कंपनियों का एकीकरण करके सिर्फ़ कोई ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म अपना मुनाफ़ा बढ़ाता है. आम तौर पर ग्राहकों और सप्लायर के बीच भेदभाव अगर पारदर्शी और निष्पक्ष तरीक़े से किया जाए, तो ये एक स्वीकार्य कारोबारी बर्ताव रहा है.
हालांकि, सावधानी से लगातार निगरानी करके और फ़ौरी क़ानूनी क़दम उठाकर, ग्राहकों और आपूर्तिकर्ताओं के बीच अतार्किक भेदभाव की चुनौती से निपटा जा सकता है. गड़बड़ी को पूरी तरह से ख़त्म करने की नियामक व्यवस्था का निर्माण कर पाना अकुशल घुसपैठ सरीखा होगा. CCI इस मामले में उद्योग द्वारा ख़ुद से नियम तय करने और उनका पालन करने का सुझाव देता है और ये कहता है कि जब किसी कंपनी में प्रतिद्वंदी को ग़लत तरीक़े से मात देने की बात सामने आए तो फिर उसकी सेवाएं ली जा सकती हैं.
अगर भारत में ई-कॉमर्स के कारोबार के प्रबंधन के लिए बेहतरीन कंपनियों को आकर्षित करना है, तो इस तरह से मुनाफ़ा कमाने से रोकने पर उन्हें इसके एवज़ में मंच पर अपना सामान बेचने वाले आपूर्तिकर्ताओं से ज़्यादा फ़ीस वसूली जैसे दूसरे कारोबारी विकल्प देने होंगे. एक और विकल्प किसी कंपनी के मंच से जुटाए गए डेटा का इस्तेमाल हो सकता है.
23 फ़रवरी 2019 को सरकार ने राष्ट्रीय ई-कॉमर्स नीति का ड्राफ्ट प्रकाशित किया था. इसके पैराग्राफ 4.2 में सुझाव दिया गया है कि छोटे कारोबारियों को ई-विज्ञापनों की भारी दरों से बचाया जाना चाहिए. इसका मतलब है कि ई-प्लेटफॉर्म (सोशल और कारोबारी) को चाहिए कि फीस, विज्ञान, डेटा जुटाने से होने वाली आमदनी का इस्तेमाल छोटे कारोबारियों को विज्ञापन में रियायतें देने के लिए इस्तेमाल करें. ये ऊपर से नीचे दख़लंदाज़ी वाला नियम है, जो बड़े कारोबारी घरानों के लिए प्रतिबद्धता ज़ाहिर करता है. क्या ये आख़िरी विकल्प है? सरकार अगर कम विज्ञापन दरें तय कर ले और छोटे कारोबारियों को गुंजाइश और छूट दे तो भी ऐसा फ़ायदा हासिल किया जा सकता है.
इस ड्राफ्ट नीति के पैराग्राफ 4.8 में ‘घाटे पर बेचने’ के ‘आंकड़े पर असर’ और ‘नेटवर्क पर असर’ की ओर इशारा किया गया है. कहा गया है कि बड़ी कंपनियां तो ऐसे नुक़सान आसानी से झेल सकती हैं. मगर कम पूंजी हासिल कर पाने वाले ख़ुदरा कारोबारियों के लिए तो ऐसा घाटा उठा पाना कल्पना से परे है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि भूमंडलीकरण वाली दुनिया में सस्ती अंतरराष्ट्रीय पूंजी का आसानी से प्रवाह और तकनीक पर आधारित तेज़ विकास इस नए कारोबारी मॉडल के विकास की मुख्य वजह है. लेकिन ऐसे तीव्र विकास को रोकने के लिए कठोर नियम बनाना अपने आपको नुक़सान पहुंचाना है. इससे घरेलू अर्थव्यवस्था, तेज़ वैश्विक विकास दर का फ़ायदा उठाने से वंचित रह जाएगी.
अफ़सोस की बात ये है कि भारत के सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों (MSME) की ख़राब नीति का रिकॉर्ड ये कहता है कि ऐसे जब तक ऐसे लाभ पाने वाली कंपनियां बदलने में बेहतर उत्पादकता का वादा न करें, तब तक उन्हें ये रियायत नहीं मिलनी चाहिए.
पैराग्राफ 4.7 में तो ये सुझाव दिया गया है कि प्रतिद्वंदिता बनाए रखने के लिए अधिग्रहण और विलय की इजाज़त ही नहीं दी जानी चाहिए- ये मामला तो CCI के अधिकार क्षेत्र में आता है, जिसने कम से कम अब तक तो ई-कॉमर्स क्षेत्र का प्रबंधन अच्छे से किया है. 2007 से 2018 के दौरान फ्लिपकार्ट की तेज़ तरक़्क़ी जोखिम वाले पूंजी निवेश से ही हुई. उसके बाद अमेरिकी डिपार्टमेंटल स्टोर और हाइपरमार्केट कंपनी वालमार्ट ने 16 अरब डॉलर में फ्लिपकार्ट के मालिकाना हक़ वाले शेयर ख़रीद लिए थे. 2010 में स्थापित की गई स्नैपडील अब एक सार्वजनिक कंपनी बन चुकी है और जल्द ही शेयर बाज़ार में रजिस्टर होने की उम्मीद कर रही है. ये कंपनी फ्लिपकार्ट और धन्नासेठ अमेज़न से मुक़ाबला कर रही है. उधर रिलायंस रीटेल ने भी फ्यूचर रीटेल का कारोबार ख़रीदकर इन्हें चुनौती देनी शुरू कर दी है.
पैराग्राफ 4.13 में प्रस्ताव दिया गया है कि छोटे कारोबारियों को ‘नवजात उद्योग’ का दर्जा दिया जाए. अफ़सोस की बात ये है कि भारत के सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों (MSME) की ख़राब नीति का रिकॉर्ड ये कहता है कि ऐसे जब तक ऐसे लाभ पाने वाली कंपनियां बदलने में बेहतर उत्पादकता का वादा न करें, तब तक उन्हें ये रियायत नहीं मिलनी चाहिए.
ई-कॉमर्स के नियम 2020 बहुत व्यापक हैं. जहां तक बड़े ई-कॉमर्स मंचों का मामला है तो नियम 4 (11) (a) दामों में हेर फेर को प्रतिबंधित करता है (b) एक ही वर्ग के ग्राहकों के बीच भेदभाव पर पाबंदी लगाता है और कंपनियों द्वारा ग्राहकों का इकतरफ़ा वर्गीकरण किए जाने से भी रोकता है. नियम 5 (4) के मुताबिक़ आपूर्ति करने वाले ठेके इस बात को बताएं कि आख़िर किस आधार पर वो मंच अपने यहां एक ही वर्ग के सामान और सेवाओं की आपूर्ति करने वालों के बीच भेदभाव कर सकता है. इस तरह से ये नियम ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म को इस बात के लिए बाध्य करता है कि वो आपूर्ति करने वालों और ग्राहकों के बीच निष्पक्ष, पारदर्शी और समान सेवाएं बनाए रखे.
भारत में ई-कॉमर्स के विकास के लिए पर्याप्त माहौल मौजूद है. बैंकिंग में जनता की भागीदारी और पैकेज डिलिवरी के मामले में दुनिया में भारत की रैंकिंग भी काफ़ी ऊंची है. हालांकि यहां इंटरनेट का इस्तेमाल अभी भी बहुत कम है. इसकी वजह डिजिटल निरक्षरता, कनेक्टिविटी का अंतर और सेवाओं की गुणवत्ता है. दुनिया भर में जहां 23 प्रतिशत लोग ऑनलाइन ख़रीदारी करते हैं. वहीं भारत जैसे कम आमदनी वाले देशों में ऐसे ग्राहकों की हिस्सेदारी महज़ पांच प्रतिशत है. वहीं चीन जैसे ऊपरी मध्यम आमदनी वाले देशों में ऑनलाइन ख़रीदारी करने वाले ग्राहकों की भागीदारी 16 फ़ीसद और अमीर देशों में ये 53 प्रतिशत है.
भारत में ख़ुदरा ई-कारोबार कामयाबी की दास्तान है. इस क्षेत्र के लेन देन की विकास दर देश की आर्थिक विकास दर से लगभग दो गुनी है. कुल ख़ुदरा ख़रीद में इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से ख़रीद या बिक्री में लगातार बेहतरी आ रही है. 2012 में इसका हिस्सा दो फ़ीसद था और 2020 में कुल ख़रीदारी में इलेक्ट्रॉनिक ख़रीद फ़रोख़्त की हिस्सेदारी 6 से 8 प्रतिशत हो गई और 2026 से 2030 के बीच इसके बढ़कर 20 फ़ीसद होने की उम्मीद लगाई जा रही है. इससे पता चलता है कि इस समय भारत में ई-कॉमर्स का नियामक ढांचा उचित है.
बड़ी ई-कॉमर्स कंपनियों की जनता के प्रति पहली ज़िम्मेदारी ये है कि वो उत्पादकता और विकास को बढ़ाएं. वहीं, सरकार इससे होने वाली टैक्स राजस्व की अतिरिक्त आमदनी का इस्तेमाल ख़ुदरा ई-कॉमर्स सेक्टर का विस्तार करने के लिए कर सकती है.
ई-कॉमर्स के विकास पर ध्यान केंद्रित किए रखने के लिए बाज़ार की कुशलता और समानता के बीच संतुलन बनाए रखने की ज़रूरत है. बड़ी ई-कॉमर्स कंपनियों की जनता के प्रति पहली ज़िम्मेदारी ये है कि वो उत्पादकता और विकास को बढ़ाएं. वहीं, सरकार इससे होने वाली टैक्स राजस्व की अतिरिक्त आमदनी का इस्तेमाल ख़ुदरा ई-कॉमर्स सेक्टर का विस्तार करने के लिए कर सकती है.
ऐसी एक पहल का नतीजा भी निकला है. साल 2021 में सरकार ने ओपेन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स की नौ सदस्यों वाली सलाहकार परिषद की अधिसूचना जारी की थी. जिसमें बड़े बड़े नाम शामिल थे. ये निजी पूंजी और प्रबंधन वाले ऐसे ई-कॉमर्स के विकास के लिए था, जिसका मक़सद मुनाफ़ा कमाना नहीं था, बल्कि इसे अच्छे प्रशासन के नियमों पर चलाया जाना था. इसके पीछे ख़ुदरा ई-कॉमर्स के उस समुदाय को एकजुट करना था जिसमें व्यापारी, सेवा प्रदाता और मंच सभी शामिल हों. सैद्धांतिक रूप से तो ये बहुत शानदार विचार था. मगर अफ़सोस की बात है कि हाल ही में इस परिषद से CAIT के महासचिव प्रवीण खंडेलवाल ने इस्तीफ़ा दे दिया. इससे पता चलता है कि बड़े बड़े लोगों के बीच सत्ता में साझीदारी कर पाना उन लोगों के लिए पचाने लायक़ नहीं होता, जो कमज़ोर तबक़े की हिफ़ाज़त करना चाहते हैं. हालांकि, जर्मनी के श्रमिक संघ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि इस संकुचित सोच को देखकर हैरान ही होंगे.
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Sanjeev S. Ahluwalia has core skills in institutional analysis, energy and economic regulation and public financial management backed by eight years of project management experience ...
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