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यूक्रेन संकट के चलते जो अवसर पैदा हुए हैं, क्या चीन उनका फ़ायदा उठा पाएगा?
यूक्रेन पर चीन के रुख़ का विश्लेषण
ये लेख हमारी सीरीज़, ‘यूक्रेन संकट: कारण और संघर्ष की दशा-दिशा’ का एक हिस्सा है.
यूक्रेन में तबाही मचाने वाली जंग को एक महीने से ज़्यादा वक़्त बीत चुका है. इस दौरान हम चीन के सामरिक परिदृश्य में नए समीकरण बनते देख रहे हैं. ऐसा लगता है कि रूस के साथ चीन की दोस्ती के बारे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सोच को लेकर चीन में चिंता बढ़ती जा रही है.
ऐसा तर्क दिया जा रहा है कि रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध के चलते विश्व भर में रूस की एक नकारात्मक छवि बनी है- बहुत से लोग रूस को हमलावर और यहां तक कि अराजक/ अंतरराष्ट्रीय असामाजिक तत्व के तौर पर देख रहे हैं. रूस के प्रति ऐसे नज़रिए के बीच, चीन के साथ उसकी मज़बूत दोस्ती को लेकर दुनिया में सोच बन रही है कि यूक्रेन को लेकर दोनों देशों ने मिलकर साज़िश रची. चीन के प्रति ये भाव पैदा होने की एक वजह ये भी है कि यूक्रेन में युद्ध शुरू होने से ठीक पहले, शीतकालीन ओलंपिक खेलों के दौरान पुतिन ने बीजिंग का दौरा किया और फिर दोनों देशों ने ‘असीमित दोस्ती’ को लेकर प्रतिबद्धता जताने वाला लंबा साझा बयान जारी किया था. शंघाई इंटरनेशनल स्टडीज़ यूनिवर्सिटी में विशिष्ट प्रोफ़ेसर हुआंग जिंग; और, चाइनीज़ यूनिवर्सिटी ऑफ़ हॉन्ग कॉन्ग के प्रेसिडेंशियल चेयर प्रोफ़ेसर झेंग योंगनियान जैसे चीन के विद्वानों की राय ये है कि इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन की छवि पर नकारात्मक असर पड़ा है, जो चीन ने बरसों की मेहनत से गढ़ी है, जिससे कि वो ख़ुद को अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ऐसा अमनपसंद सदस्य साबित कर सके, जो मानवता के साझा भविष्य के लिए एक समुदाय के निर्माण का प्रयास कर रहा है. लेकिन, रूस और चीन के बीच क़रीबी संबंधों ने उन लोगों का हौसला बढ़ाने का काम किया है, जो चीन की छवि ख़राब करना चाहते हैं. दूसरी बात ये कि अब जबकि अमेरिका और यूरोप ने रूस के ख़िलाफ़ एक मज़बूत साझा मोर्चा बना लिया है, तो रूस के साथ अपने नज़दीकी संबंधों के चलते, कई यूरोपीय देशों के साथ चीन के संबंध तनावपूर्ण होते जा रहे हैं.
बहुत से लोगों को ये लगता है कि अगर आगे चलकर यूक्रेन इस युद्ध में जीत जाता है, तो इसे पश्चिमी जगत और उनकी व्यवस्था की जीत के तौर पर देखा जाएगा और चीन ख़ुद को पराजित पक्ष के साथ खड़ा हुआ पाएगा और विश्व स्तर पर और भी हाशिए पर धकेल दिया जाएगा.
इधर बीच, चीन की जनता के बीच दो एक दूसरे के विपरीत राय बनी हैं. एक तरफ़ बहुत से चीनी नागरिक यूक्रेन के प्रति हमदर्दी रखते हैं और रूस के ख़िलाफ़ उसके युद्ध को यूक्रेन की जनता की लड़ाई मानते हैं. ऐसे चीनी नागरिक तो यूक्रेन के संघर्ष को जापान के ख़िलाफ़ ख़ुद चीन के प्रतिरोध वाली जंग से तुलना कर रहे हैं. इसके अलावा, रूस का समर्थन करने वाली चीन की राष्ट्रीय नीति को लेकर भी सवाल उठाए जा रहे हैं. क्योंकि, ज़ार के शासनकाल में रूस ने चीन के कई इलाक़ों पर क़ब्ज़ा किया हुआ था और चीन के प्रति आक्रामक रवैया अपनाते हुए, चीनी जनता पर काफ़ी ज़ुल्म ढाए थे. वहीं दूसरी तरफ़, अमेरिका ने न केवल कभी चीन के किसी इलाक़े पर क़ब्ज़ा किया बल्कि उसने चीन के विकास में भी बहुत सकारात्मक योगदान दिया है. यूक्रेन के युद्ध में मौजूदा गतिरोध को देखते हुए, बहुत से लोगों को ये लगता है कि अगर आगे चलकर यूक्रेन इस युद्ध में जीत जाता है, तो इसे पश्चिमी जगत और उनकी व्यवस्था की जीत के तौर पर देखा जाएगा और चीन ख़ुद को पराजित पक्ष के साथ खड़ा हुआ पाएगा और विश्व स्तर पर और भी हाशिए पर धकेल दिया जाएगा. वहीं, अगर इस मामले में चीन, अमेरिका का साथ देता है या कम से कम उसी तरह सकारात्मक सहयोग का प्रस्ताव देता है, जिस तरह उसने 9/11 के हमले के बाद दिया था, तो इतिहास ख़ुद को दोहराएगा और चीन और अमेरिका के संबंधों में बढ़ रहा तनाव भी कम होगा.
हालांकि, इन तर्कों का बड़ी मज़बूती से विरोध किया जा रहा है और चीन के सामरिक समुदाय के एक तबक़े द्वारा इसके विरोध में भी तर्क दिए जा रहे हैं. इस तबक़े का कहना है कि अगर रूस नहीं होता, तो फिर अमेरिका या पश्चिमी देशों के आर्थिक/ सैन्य आक्रमण का सामना चीन कर रहा होता. अगर, रूस और यूक्रेन का युद्ध दुनिया में सुर्ख़ियां न बटोर रहा होता तो चीन और अमेरिका के बीच व्यापार युद्ध और गंभीर हो जाता और तब अमेरिका, शिनजियांग, हॉन्ग कॉन्ग और तिब्बत जैसे मसलों पर चीन को परेशान करने का कोई भी मौक़ा नहीं गंवाता. इन लोगों का तर्क ये है कि अगर रूस नाकाम होता है, तो इसके बाद चीन का नंबर आएगा और चीन के लिए सामरिक माहौल और घुटन भरा हो जाएगा और चीन को दबाने की अमेरिकी कोशिशें बेलगाम हो जाएंगी.
इतिहास की घटनाओं को देखें, तो उन्हें इस बात का डर है कि शीत युद्ध के दौर की तरह, जैसे तब सोवियत संघ से निपटने के लिए अमेरिका ने चीन से रिश्ते सुधारे थे, उसी तरह मौजूदा हालात में अमेरिका कम ताक़तवर रूस के साथ हाथ मिलाकर चीन को निपटाने की कोशिश करेगा
यहां पर इस बात पर ध्यान देना अहम होगा कि चीनी क़ौम के ज़हन में एक गंभीर चिंता गहरी जड़ें जमाकर बैठी है. इतिहास की घटनाओं को देखें, तो उन्हें इस बात का डर है कि शीत युद्ध के दौर की तरह, जैसे तब सोवियत संघ से निपटने के लिए अमेरिका ने चीन से रिश्ते सुधारे थे, उसी तरह मौजूदा हालात में अमेरिका कम ताक़तवर रूस के साथ हाथ मिलाकर चीन को निपटाने की कोशिश करेगा, क्योंकि इस वक़्त चीन ही अमेरिका के लिए बड़ी चुनौती पेश कर रहा है.
आज के हालात में जब अमेरिका और चीन के रिश्ते बेहद कड़वाहट और टकराव भरे हैं और उनमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं दिख रही है. तब, हुआंग जिंग जैसे चीन के रणनीतिकार, यूक्रेन युद्ध के चलते दो अचानक होने वाली घटनाओं को लेकर आगाह कर रहे हैं. हुआंग जिंग ने विश्लेषण में कहा है कि, ‘देर सबेर पुतिन के बाद का दौर आएगा ही आएगा’ और पुतिन के वारिस द्वारा सामरिक नीति को उलटने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है. वहीं, दूसरी तरफ़ मौजूदा हालात को मद्देनज़र रखते हुए हुआंग जिंग का कहना है कि हो सकता है कि अमेरिका में होने वाले मध्यावधि चुनाव के नतीजे राष्ट्रपति जो बाइडेन के पक्ष में न जाएं और 2024 में उनके दोबारा सत्ता में आने की राह और मुश्किल हो जाए. अगर 2024 में अमेरिका में सत्ता परिवर्तान होता है और ट्रंप जैसा कोई कट्टरपंथी नेता राष्ट्रपति चुना जाता है तो अमेरिका और रूस के रिश्तों में वैसा ही बदलाव देखने को मिल सकता है, जैसा रिचर्ड निक्सन के दौर में चीन और अमेरिका के रिश्तों में देखने को मिला था.
अगर, पश्चिमी देशों द्वारा गिराए गए ‘वित्तीय परमाणु बम’ के हमले में रूस तबाह होता है, तो इससे ये साबित होगा कि पश्चिमी देशों द्वारा लगाए जाने वाले प्रतिबंधों में अभी भी बहुत ताक़त बची हुई है.
मध्यम अवधि में हुआंग जिंग, यूक्रेन के हालात में भी अचानक किसी बदलाव की चेतावनी देते हैं. वो कहते हैं कि अगर युद्ध में रूस की जीत होती है तो एक अधिक सुरक्षित और आत्मविश्वास से भरपूर रूस, अमेरिका और यूरोप से समझौते के लिए ज़्यादा तैयार होगा और हो सकता है कि तब पश्चिमी देश भी हक़ीक़त को स्वीकार करने का तर्क देकर पुतिन से समझौता करने के लिए राज़ी हो जाएं और ख़ुद को ‘यूक्रेन के दलदल’ से निकालने का कोई रास्ता तलाशें. वहीं दूसरी तरफ़, अगर इस युद्ध में रूस अपनी जीत सुनिश्चित करने में नाकाम रहता है तो भी पश्चिमी देशों के साथ रूस के समझौता करने की संभावना और बढ़ जाएगी. किसी भी सूरत में अमेरिका या नेटो देशों के दबदबे में आया रूस, चीन के लिए ख़तरे की घंटी जैसा होगा और चीन किसी भी सूरत में ऐसे हालात बनने से रोकने के लिए पूरी ताक़त लगा रहा है.
ऐसे पसमंज़र में ही चीन का मीडिया, रूस को बदलाव के मसीहा के तौर पर पेश करने का अभियान चला रहा है; उसे नई विश्व व्यवस्था की धुरी बता रहा है, जो पश्चिमी देशों की दादागीरी वाली असमान और नाइंसाफ़ी वाली मौजूदा विश्व व्यवस्था को चुनौती दे रहा है. तर्क ये दिया जा रहा है कि अगर, पश्चिमी देशों द्वारा गिराए गए ‘वित्तीय परमाणु बम’ के हमले में रूस तबाह होता है, तो इससे ये साबित होगा कि पश्चिमी देशों द्वारा लगाए जाने वाले प्रतिबंधों में अभी भी बहुत ताक़त बची हुई है. इससे पश्चिम के विकसित देशों को अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर अपना शिकंजा बनाए रखने में और भी मदद मिलेगी. इसके अलावा ये भी कहा जा रहा है कि देर सबेर अन्य उभरती हुई ताक़तों को भी ऐसी ही चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, फिर चाहे वो चीन हो या भारत. यही वजह है कि चीन दुनिया को एकजुट करना चाहता है. रूस के पक्ष में नहीं, बल्कि इन प्रतिबंधों के ख़िलाफ़. इससे चीन को उन आरोपों से भी निजात मिल जाएगी, जो रूस के साथ खड़े होने के कारण उस पर लग रहे हैं.
चीन को चाहिए कि वो व्यापार की एक वैकल्पिक व्यवस्था को विकसित करे, जिसके केंद्र में चीन रूस और ईरान हों और जिसमें बाद में भारत समेत अन्य विकासशील देश भी भागीदार बन जाएं. इस तरह से चीन ये सुनिश्चित करे कि अमेरिका ने रूस को तबाह करने के लिए जो वित्तीय प्रतिबंध लगाए हैं, वो विश्व में ‘डॉलर की दादागीरी’ ख़त्म करने की शुरुआत बन जाएं.
चीन के कुछ विद्वानों और टिप्पणीकारों की राय ये है कि चीन को विकासशील देशों और ख़ास तौर से उन देशों को संगठित करने का ये मौक़ा हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए, जो प्रतिबंधों की इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ हैं. चीन को चाहिए कि वो व्यापार की एक वैकल्पिक व्यवस्था को विकसित करे, जिसके केंद्र में चीन रूस और ईरान हों और जिसमें बाद में भारत समेत अन्य विकासशील देश भी भागीदार बन जाएं. इस तरह से चीन ये सुनिश्चित करे कि अमेरिका ने रूस को तबाह करने के लिए जो वित्तीय प्रतिबंध लगाए हैं, वो विश्व में ‘डॉलर की दादागीरी’ ख़त्म करने की शुरुआत बन जाएं.
इस बीच, चीन इस बात में भी अपने लिए मौक़ा देखर रहा है कि, रूस और यूक्रेन के इस युद्ध में अमेरिका यूरोप और रूस समेत दुनिया के कई बड़े देशों को ‘यूक्रेन के जाल’ में फंसा दिया है. इसका नतीजा ये हुआ है कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश अपनी योजना के मुताबिक़ हिंद प्रशांत क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित कर पाने में न केवल असमर्थ हैं, बल्कि वो अपनी चीन नीति को लेकर भी दुविधा में हैं. मतलब ये कि कहीं उनके बहुत दबाव बनाने से कहीं रूस और चीन के बीच का गठजोड़ और भी मज़बूत न हो जाए.
माना जा रहा है कि आज जब अमेरिका का ध्यान यूक्रेन पर लगा हुआ है, तो चीन को चाहिए कि वो हिंद प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ अपने संबंध सुधारे और मध्य एशिया, मध्य पूर्व, दक्षिण एशिया, दक्षिणी पूर्वी एशिया, अफ्रीका और यहां तक कि लैटिन अमेरिका में अमेरिका द्वारा ख़ाली की गई जगह को भरने की कोशिश करे.
चीन के कई विद्वान जैसे कि फुडान यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर अमेरिकन स्टडीज़ के निदेशक वू शिनबो; हुआंग जिंग; और झेंग योंगनियान का ये मानना है कि चीन को अपने हाथ आए इस मौक़े का बख़ूबी फ़ायदा उठाना चाहिए और जो बाइडेन प्रशासन के साथ सक्रिय संवाद और विचारों का आदान-प्रदान बढ़ाना चाहिए, और रूस के साथ रिश्तों का हवाला देकर चीन की तमाम चिंताओं और मांगों को लेकर अमेरिका पर दबाव बनाना चाहिए. यूक्रेन युद्ध को चीन के लिए अपने आस-पास के क्षेत्र में स्थिरता बनाने के मौक़े के तौर पर भी देखा जा रहा है. माना जा रहा है कि आज जब अमेरिका का ध्यान यूक्रेन पर लगा हुआ है, तो चीन को चाहिए कि वो हिंद प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ अपने संबंध सुधारे और मध्य एशिया, मध्य पूर्व, दक्षिण एशिया, दक्षिणी पूर्वी एशिया, अफ्रीका और यहां तक कि लैटिन अमेरिका में अमेरिका द्वारा ख़ाली की गई जगह को भरने की कोशिश करे. चीन के सामरिक समुदाय के बीच इस बात को लेकर भी मज़बूत आम राय है कि चीन को ख़ुद को विश्व की आर्थिक व्यवस्था के साथ और क़रीब से जोड़ने का प्रयास भी जारी रखना चाहिए और ख़ास तौर से यूरोपीय देशों के साथ अपने आर्थिक संबंधों को और मज़बूत बनाना चाहिए, जिससे कि जब समय आए तो पश्चिमी देशों के लिए ख़ुद को ज़्यादा नुक़सान पहुंचाए बिना, चीन के साथ रूस वाला बर्ताव कर पाना नामुमकिन हो जाए.
यहां इस बात पर ध्यान देना अहम होगा कि यूक्रेन युद्ध को लेकर चीन में चल रही इन्हीं चर्चाओं के बीच, विदेश मंत्री वांग यी पिछले हफ़्ते भारत के दौरे पर आए थे.
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Antara Ghosal Singh is a Fellow at the Strategic Studies Programme at Observer Research Foundation, New Delhi. Her area of research includes China-India relations, China-India-US ...
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