Author : Manoj Joshi

Published on Apr 20, 2022 Updated 0 Hours ago

यूक्रेन में युद्ध को देखते हुए यूरोप इस बात की कोशिश कर रहा है कि रूस और चीन- दोनों पर अपनी निर्भरता खत्म करे.

Ukraine Crisis: चीन पर यूक्रेन युद्ध का असर!

लगता है कि यूक्रेन का युद्ध अब चरम बिंदु की ओर बढ़ रहा है. अभी तक की स्थिति को देखते हुए इस युद्ध की भविष्यवाणी करना मूर्खता होगी. रूस को ज़ोरदार आघात लगा है लेकिन उसके पास यूक्रेन में और भी ज़्यादा तबाही और बर्बादी लाने की क्षमता है. जहां तक बात यूक्रेन की है तो अपने जवाब से उसने शायद ख़ुद को भी हैरान कर दिया है. युद्ध से मज़बूत बने यूक्रेन के पास लड़ाई जारी रखने के अलावा कम ही विकल्प हैं.

राजनयिक स्तर पर पिछले 50 दिनों के घटनाक्रम से खींचतान उत्पन्न हो रही है जो क्षेत्रीय और वैश्विक परिदृश्य को नया रूप देगी. उदाहरण के लिए, ख़बरों से पता चल रहा है कि यूरोपीय अधिकारी रूस के कोयले पर प्रतिबंध के बाद अब रूस के तेल उत्पाद पर रोक के लिए योजना का मसौदा तैयार कर रहे हैं. ईयू के लिए रूस सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता है जो उसके तेल आयात का 25 प्रतिशत मुहैया कराता है. अगर इस पर रोक लगी तो ईयू की रफ़्तार थम जाएगी ख़ास तौर पर ईयू की सबसे बड़ी ताक़त जर्मनी रुक जाएगा लेकिन इसके बावजूद जर्मनी ये मुश्किल क़दम उठाने के लिए तैयार है. ईयू ने रूस के ख़िलाफ़ अपने आर्थिक प्रतिबंधों को युद्ध की शुरुआत से ही लागू किया है और उस पर सबसे बड़ी पाबंदी यानी तेल का आयात प्रतिबंधित करने का ज़बरदस्त दबाव है. (गैस के आयात के बारे में सोचना बेहद महत्वपूर्ण है.) इस तरह के प्रतिबंध का यूरोप और रूस के बीच दीर्घकालीन संबधों पर बड़ा असर होगा. युद्ध के मैदान की तरफ़ देखें तो जो देश पूरे शीत युद्ध के दौरान “तटस्थ” थे- स्वीडन और फिनलैंड- उन्हें अपनी स्थिति कमज़ोर लग रही है और वो नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (नेटो) के साथ जाने पर विचार कर रहे हैं. इसके अलावा जर्मनी जैसे देश भी हैं जिन्होंने ख़ुद को जान-बूझकर रूस की ऊर्जा पर निर्भर बना लिया था लेकिन अब वो इस स्थिति से बाहर निकलने का रास्ता तलाश रहे हैं.

चीन ने अपने इस रुख़ को दोहराया कि वो शांति के लिए बातचीत को बढ़ावा दे रहा था और “दुश्मनी ख़त्म करने, बड़े पैमाने पर मानवीय संकट को रोकने और जल्द-से-जल्द शांति की तरफ़ लौटने” के लिए काम जारी रखेगा.

 ईयू-चीन संबंधों पर असर

इससे संकेत मिलता है कि चीन और भारत की तरह दोनों पक्षों से अलग होने की कवायद आने वाले दिनों में और मुश्किल होने जा रही है. इस मामले में भारत भाग्यशाली है. भारत की इस मुश्किल स्थिति के दौरान बाइडेन प्रशासन उसके साथ है और चीन के साथ अपने मुक़ाबले को देखते हुए अमेरिका को व्यावहारिक आधार पर भारत के रुख़ का समर्थन करने में काफ़ी उपयोगिता दिख रही है.

लेकिन चीन के लिए विकल्प और भी मुश्किल हैं. अभी तक चीन मज़बूती से रूस के लिए अपने समर्थन पर कायम रहा है. हाल के दिनों में जब मार्च के आख़िर में ईयू-चीन शिखर वार्ता के दौरान चीन पर रूस का समर्थन नहीं करने का दबाव डाला गया तो चीन की तरफ़ से इस अपील को नज़रअंदाज़ कर दिया गया. चीन ने अपने इस रुख़ को दोहराया कि वो शांति के लिए बातचीत को बढ़ावा दे रहा था और “दुश्मनी ख़त्म करने, बड़े पैमाने पर मानवीय संकट को रोकने और जल्द-से-जल्द शांति की तरफ़ लौटने” के लिए काम जारी रखेगा. शिखर वार्ता में अपने भाषण के दौरान राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी इस मुद्दे से परहेज किया और ईयू-चीन के बीच ऐसे संबंध को लेकर बात की जो लगता है कि पहले ही इतिहास बन चुका है. ये स्थिति तब थी जब दो बड़े बाज़ार सहयोग के ज़रिए वैश्वीकरण को बढ़ावा दे रहे थे और खुलेपन एवं सहयोग को प्रोत्साहन दे रहे थे. यूक्रेन के मुद्दे को दो वाक्यों में खारिज कर दिया गया: “दोनों पक्षों ने यूक्रेन की स्थिति को लेकर विचारों का आदान-प्रदान किया. ईयू के नेताओं ने यूक्रेन संकट को लेकर ईयू के विचारों और सुझावों को पेश किया.”

ये हैरानी की बात नहीं थी कि ईयू की विदेश नीति के प्रमुख जोसफ़ बोरेल ने शिखर वार्ता को बधिरों की बातचीत की तरह बताया. उन्होंने ईयू की संसद को बताया कि चीन मुद्दों पर चर्चा नहीं करना चाहता था. ये स्थिति तब थी जब ईयू ने ये साफ़ कर दिया था कि जब बात इस पर आ जाए कि हम “नियम पर आधारित दुनिया में रहते हैं या ताक़त पर आधारित दुनिया में” तो अब ये संभव नहीं है कि मुद्दों को अलग किया जाए.

चीन के घरेलू विश्लेषकों ने भी मज़बूती से रूस का समर्थन किया है और मौजूदा घटनाक्रम के लिए पूरी तरह अमेरिका पर आरोप लगाते हुए उसे ज़िम्मेदार ठहराया. चीन के ज़्यादातर विश्लेषक यूक्रेन संकट के लिए सीधे तौर पर अमेरिका को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. पीएलए डेली में “जून शेंग वॉयस ऑफ द मिलिट्री”  द्वारा 10 भागों के एक विश्लेषण में अमेरिका पर ये कहते हुए हमला किया गया है कि वो “अंतर्राष्ट्रीय नियमों और व्यवस्था का हठीला और अभिमानी विनाशक” है. विश्लेषण में ये दलील भी दी गई है कि यूक्रेन संकट अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अमेरिका की भूमिका को दिखाता है.

चीन शायद ये मानकर चल रहा था कि कुछ ही दिनों में रूस की जीत का नतीजा ये होगा कि यूक्रेन तटस्थ रवैया अपना लेगा और रूस की सुरक्षा मज़बूत होगी. इससे अमेरिका और नेटो की विश्वसनीयता को नुक़सान होता और रूस-चीन का गुट मज़बूत होता.

पीपुल्स डेली ऑनलाइन में चेन ज़ी के एक लेख में अमेरिका पर ये कहते हुए हमला किया गया है कि “दुनिया भर में उथल-पुथल के पीछे दुष्ट शक्ति है”, अमेरिका ने शांति को बढ़ावा देना तो दूर वास्तव में उसने “आग में घी डालने का काम किया है”. चेन के मुताबिक़, वास्तव में “दुनिया भर में होने वाले लगभग हर विवाद और संघर्ष में अमेरिका शामिल है.”

चीन के विश्लेषकों ने यूरोप पर कड़ा रुख़ अपनाने के लिए दबाव डालने की वजह से अमेरिका पर निशाना साधा है. लेकिन ईयू के नेतृत्व ने नाराज़ होकर इसका जवाब दिया है. ईयू की विदेश नीति के उच्च प्रतिनिधि  बोरेल ने कहा कि “जैसा चीन बता रहा है कि ईयू की ओर से रूस की निंदा की वजह ये है कि ‘हम आंख मूंद कर अमेरिका का अनुसरण करते हैं’ लेकिन ऐसा नहीं है बल्कि हम अपने ईमानदार रवैये की वजह से ऐसा कर रहे हैं.”

वैसे तो चीन संप्रभुता और प्रादेशिक अखंडता को कायम रखने की ज़रूरत का एक हठी समर्थक रहा है लेकिन जब बात यूक्रेन पर रूस के हमले की आती है तो लगता है कि वो इस बात को भूल जाता है. इसे ‘विशेष सैन्य अभियान’ या कुछ भी कहिए लेकिन तथ्य यह है कि रूस की कार्रवाई संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के एक सदस्य के क्षेत्र में आक्रमण है और ऐसा करने वाला देश चीन का एक दोस्त और महत्वपूर्ण सैन्य साझेदार रहा है.

2017 में जब भारत ने डोकलाम में हस्तक्षेप किया तो चीन ने अगस्त की शुरुआत में एक लंबे दस्तावेज़ के ज़रिए भारत की कार्रवाई का खंडन किया जो संप्रभुता के संदर्भ से भरा हुआ था. इसमें कहा गया था कि “14 दिसंबर 1974 को अपनाए गए संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव संख्या 3314 के अनुसार राजनीतिक, आर्थिक, सैन्य या कोई और – चाहे कोई भी कारण हो लेकिन कोई भी देश किसी दूसरे देश के क्षेत्र में आक्रमण के लिए इसे जायज़ नहीं ठहरा सकता.”

चीन के द्वारा मौजूदा समय में पक्ष लेने का लिया गया फ़ैसला साफ़ तौर पर भू-राजनीतिक फ़ायदे की उम्मीदों पर आधारित है. इसका मतलब सिर्फ़ आर्थिक प्रतिबंधों की मार झेल रहे रूस की मदद करना नहीं है क्योंकि यूरोप में संभवत: उसे ज़्यादा नुक़सान होगा. चीन शायद ये मानकर चल रहा था कि कुछ ही दिनों में रूस की जीत का नतीजा ये होगा कि यूक्रेन तटस्थ रवैया अपना लेगा और रूस की सुरक्षा मज़बूत होगी. इससे अमेरिका और नेटो की विश्वसनीयता को नुक़सान होता और रूस-चीन का गुट मज़बूत होता.

लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध इस पटकथा के मुताबिक़ आगे नहीं बढ़ा और अब चीन पर अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं. अमेरिका अपनी नई इंडो-पैसिफिक आर्थिक रूप-रेखा के साथ इंडो-पैसिफिक को लेकर अटल है. वहीं दूसरी ओर, जापान के ऑकस में शामिल होने की संभावना को लेकर भी अटकलें लग रही हैं.

यूरोप के बदले हुए मिजाज़ का चीन के लिए आर्थिक और राजनीतिक- दोनों तरह का परिणाम है. ये मिजाज़ सिर्फ समझ पर आधारित नहीं है बल्कि यूक्रेन के युद्ध की वास्तविकता और इसकी वजह से यूरोप में आने वाले क़रीब 50 लाख शरणार्थियों के संकट पर आधारित है.

2017 में अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में कहा गया कि चीन और रूस अमेरिकी ताक़त, असर और हितों को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं और अमेरिका को उनके साथ भिड़ने के बदले उन्हें पीछे छोड़ने की ज़रूरत है. दो साल बाद 2019 में ईयू ने एलान किया कि चीन एक “ऐसा विरोधी है जो सत्ता के वैकल्पिक तौर-तरीक़ों को बढ़ावा दे रहा है.”

यूरोप के नेताओं की चिंता

अभी तक चीन ने यूरोप को अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के मक़सद में एक अहम साझेदार, तकनीक और निवेश के एक स्रोत के साथ-साथ अपने महंगे सामान के लिए एक बाज़ार के रूप में देखा है. लेकिन अब यूरोप के नेता, ख़ास तौर पर जर्मनी में, न सिर्फ़ रूस के तेल और गैस बल्कि चीन के बाज़ार और सप्लाई चेन पर निर्भरता को लेकर अपनी चिंता जता रहे हैं.

चीन और यूरोप के बीच पिछले कुछ वर्षों से परेशानी खड़ी हो रही है. इसकी वजह हॉन्ग कॉन्ग और शिनजियांग के मामलों को लेकर यूरोप की आर्थिक पाबंदी के साथ-साथ लिथुआनिया में चीन की घेराबंदी जैसे मुद्दे हैं. 2017 में अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में कहा गया कि चीन और रूस अमेरिकी ताक़त, असर और हितों को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं और अमेरिका को उनके साथ भिड़ने के बदले उन्हें पीछे छोड़ने की ज़रूरत है. दो साल बाद 2019 में ईयू ने एलान किया कि चीन एक “ऐसा विरोधी है जो सत्ता के वैकल्पिक तौर-तरीक़ों को बढ़ावा दे रहा है.”

आज के समय में अमेरिका और यूरोप के लोगों के लिए ये बहुत ज़्यादा “लोकतंत्र” और “अधिनायकवाद” के बीच वैचारिक संघर्ष की तरह दिख रहा है.

इसकी वजह से अमेरिका और ईयू एक-दूसरे के क़रीब आ रहे हैं और आने वाले समय में चीन को लेकर यूरोप का रुख़ सख़्त हो सकता है, ख़ास तौर पर यूक्रेन में रूस की कार्रवाई को लेकर चीन के मज़बूत समर्थन की वजह से. हाल के वर्षों में यूरोप के देशों ने अपनी इंडो-पैसिफिक नीति को विकसित करने में दिलचस्पी के संकेत दिए हैं. अब ईयू के सैन्य खर्च में बढ़ोतरी और अमेरिका के साथ नज़दीकी तालमेल न सिर्फ़ यूरोप बल्कि दुनिया भर में ईयू के भू-राजनीतिक रवैये में बदलाव के रूप में सामने आ सकता है.

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