Published on Aug 12, 2023 Updated 0 Hours ago

ढाका में कोई सियासी रैली करने पर पाबंदी से लेकर, बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी की वापसी वहां के लोकतंत्र पर गहरे असर डालने वाली है.

बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी की वापसी को समझने की कोशिश

बांग्लादेश की जमात-ए-इस्लामी (BJI) का उदय वैसे तो भारत में से ही जुड़ा हुआ है. लेकिन, पहले भारत और पाकिस्तान, और उसके बाद पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच बंटवारे की वजह से बांग्लादेश में इसकी शाखा अलग हो गई. पिछले एक दशक से बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी मोटे तौर पर ख़ामोश रही थी, क्योंकि मौजूदा प्रधानमंत्री शेख़ हसीना की अगुवाई वाली सत्ताधारी अवामी लीग ने उसके ऊपर प्रतिबंध लगा दिया था. फिर भी, हाल ही में जमात एक बार फिर बांग्लादेश के राजनीतिक मोर्चे पर नज़र आई, जब उसने जून 2023 में ढाका में एक विशाल रैली आयोजित की. जमात-ए-इस्लामी की गतिविधियों पर सख़्त पाबंदियों के बाद, एक बार फिर अगर उसने ढाका में अपनी ताक़त खुलकर दिखाई, तो इसके कई कारण रहे हैं.

1971 में बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान, जमात-ए-इस्लामी ने बांग्लादेश के हितों को नुक़सान पहुंचाते हुए, पाकिस्तानी फ़ौज के साथ साठ-गांठ कर ली थी. जब बांग्लादेश ने आज़ादी हासिल कर ली, तब जमात वहां की राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा बन गई और उसने इस्लामिक हुकूमत स्थापित करने के लिए चुनाव भी लड़ना शुरू कर दिया.

बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी (BJI) का इतिहास

जमात-ए-इस्लामी, इस्लामिक राज क़ायम करने का एक आंदोलन है, जिसकी शुरुआत, हैदराबाद में पैदा हुए विचारक अबुल आला मौदूदी (मृत्यु 1979) ने 1941 में की थी. मौलाना मौदूदी एक करिश्माई वक्ता और लेखक थे, और वो शुरुआती दौर में ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ संघर्ष के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़े रहे थे. लेकिन, बाद में वो कांग्रेस से अलग हो गए थे, क्योंकि कांग्रेस के भीतर हिंदू महासभा गुट का दबदबा था. समय के साथ साथ, मौलाना मौदूदी ने एक ऐसा इस्लामिक संगठन तैयार कर लिया था, जिसका मुख्य लक्ष्य इस्लामिक राज क़ायम करना था. मौदूदी को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने हकीमिया की परिकल्पना को जनता के बीच लोकप्रिय बनाया था. हकीमिया का मतलब है संप्रभुता अल्लाह के हाथ में है, किसी इंसान के नहीं. इसीलिए, मुल्क में इस्लामिक प्रशासन व्यवस्था होनी चाहिए. इसकी वजह से मौलाना मौदूदी सेक्युलरिज़्म  और लोकतंत्र जैसे आधुनिक विचारों के ख़िलाफ़ रहे थे. वो इन्हें ‘पश्चिमी’ परिकल्पनाएं बताते हैं, जिन्होंने ऐसी तमाम गतिविधियों को बढ़ावा दिया, जिनकी इस्लाम में मनाही है. जैसे कि शराबनोशी और वेश्यावृत्ति वग़ैरह.

मौलाना मौदूदी, शुरुआती दौर में पाकिस्तान बनाने के ख़िलाफ़ थे. क्योंकि उनका मानना था कि ये मुस्लिम राष्ट्रवाद पर आधारित है, न कि इस्लामिक सिद्धांतों पर. हालांकि, देश का बंटवारा होने के बाद मौलाना मौदूदी पाकिस्तान जाकर बस गए, और उन्होंने वहां के समाज के इस्लामीकरण में बड़ी भूमिका अदा की. जहां तक जमात-ए-इस्लामी की भारतीय शाखा की बात है, तो उसने तो अपने विचार बदलकर भारत के लोकतंत्र के हिसाब से ढाल लिए और भारत के सेक्यूलरवाद को समर्थन देना शुरू कर दिया. वहीं, पाकिस्तान में जमात (जिसमें पूर्वी पाकिस्तान- बांग्लादेश की शाखा भी शामिल थी), मोटे तौर पर समय के साथ साथ इस्लामिक हुकूमत क़ायम करने के पक्ष में बनी रही.

इसी वजह से बांग्लादेश की जमात-ए-इस्लामी और मौलाना मौदूदी दोनों ही बांग्लादेशी राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ थे. एक बार फिर इसके पीछे यही वजह थी कि ये मौदूदी के इस्लामिक सिद्धांतों और मुस्लिम देश पाकिस्तान से अलग होने पर आधारित था. बाद में 1971 में बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान, जमात-ए-इस्लामी ने बांग्लादेश के हितों को नुक़सान पहुंचाते हुए, पाकिस्तानी फ़ौज के साथ साठ-गांठ कर ली थी. जब बांग्लादेश ने आज़ादी हासिल कर ली, तब जमात वहां की राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा बन गई और उसने इस्लामिक हुकूमत स्थापित करने के लिए चुनाव भी लड़ना शुरू कर दिया. हालांकि, शुरुआत में जमात को कामयाबी नहीं मिली. मगर, जमात-ए-इस्लामी ने देश की दोनों बड़ी पार्टियों, मौजूदा सत्ताधारी अवामी लीग (1986, 1995-1996) और देश के मुख्य विपक्षी दल बांग्लादेशी नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) के साथ मिलकर काम किया.

जमात ए-इस्लामी पर क़ाबू पाने के लिए प्रधानमंत्री शेख़ हसीना की कोशिशों की तारीफ़ की गई थी. लेकिन, बाद में उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधी, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) को कुचलने के लिए भी उसकी इस्लामीकरण और कट्टरपंथ का बहाना बनाया, जिसकी वजह से उन्होंने जमात पर कार्रवाई की थी.

हाल ही में यानी 2008 के चुनाव में अवामी लीग ने अपना चुनाव अभियान, जमात-ए-इस्लामी के सारे नेताओं के ख़िलाफ़ युद्ध का मुक़दमा चलाने के मुद्दे पर चलाया था. इन सभी नेताओं पर 1971 के स्वतंत्रता संग्राम में पाकिस्तानी फौज से गठजोड़ करने के इल्ज़ाम थे. चुनाव जीतने के बाद, शेख़ हसीना ने अपना वादा पूरा भी किया और 1970 के दशक के जमात के बहुत से नेताओं को क़ैद और मौत की सज़ाएं दिलाने में मदद की. 2013 आते आते, जमात के एक सियासी दल के तौर पर काम करने पर भी पाबंदी लगा दी गई थी. बांग्लादेश के ज़्यादातर नागरिकों ने जमात पर इस प्रतिबंध का स्वागत किया था और इसके समर्थन में रैलियां भी निकाली थीं. मगर, अब एक दशक बाद उस नीति को पूरी तरह से उलट दिया गया है. इस पर बांग्लादेश ही नहीं, पूरी दुनिया में लोग हैरानी जता रहे हैं.

बांग्लादेश के हालात और जमात-ए-इस्लामी

चूंकि, राजधानी ढाका में एक सियासी रैली करने के लिए पुलिस और सरकार की इजाज़त चाहिए होती है. ऐसे में ये तो बिल्कुल साफ़ है कि जमात को लेकर शेख़ हसीना सरकार की नीति पूरी तरह बदल गई है. सरकार ने ये फ़ैसला क्यों लिया होगा, इस बात को पूरी तरह समझने के लिए हमें संक्षेप में बांग्लादेश के राजनीतिक हालात पर एक नज़र डालनी होगी.

एक वक़्त में बांग्लादेश को दक्षिणी एशिया की सबसे तेज़ी से तरक़्क़ी कर रही अर्थव्यवस्था कहा जा रहा था. यही नहीं, महिलाओं और अपने यहां के श्रमिक वर्ग के लिए अपनी तमाम उपलब्धियों की वजह से बांग्लादेश, मानव विकास सूचकांक के मामले में तमाम दक्षिण एशियाई पड़ोसियों से आगे था. जमात ए-इस्लामी पर क़ाबू पाने के लिए प्रधानमंत्री शेख़ हसीना की कोशिशों की तारीफ़ की गई थी. लेकिन, बाद में उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधी, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) को कुचलने के लिए भी उसकी इस्लामीकरण और कट्टरपंथ का बहाना बनाया, जिसकी वजह से उन्होंने जमात पर कार्रवाई की थी.

बांग्लादेश ने आर्थिक मोर्चे पर जो कामयाबियां हासिल की थीं, वो समय के साथ साथ खत्म होने लगीं. इसकी वजह दो बड़ी घटनाएं थीं- कोविड-19 की वैश्विक महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध. इन दोनों की वजह से बांग्लादेश में बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी फैली, और रोज़ी-रोटी के संसाधनों को नुक़सान हुआ, और ईंधन की क़ीमतें बढ़ गईं. इसी वजह से खाने-पीने के सामान और दूसरी ज़रूरी चीज़ों की क़ीमतें आसमान छूने लगीं.

कारणों की व्याख्या

इन परिस्थितियों में, ज़ाहिर अमेरिका ने शेख़ हसीना की बढ़ती हुई तानाशाही प्रवृत्तियों से चिंतित होते हुए, हाल ही में बयान दिय था कि वो बांग्लादेश के ऐसे किसी भी राजनेता (पूर्व के या वर्तमान) पर शिकंजा कसेगा, जो लोकतंत्र को नुक़सान पहुंचाते हैं. बांग्लादेश के राजनेता गयेश्वर रॉय के मुताबिक़, अगर सरकार ने बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी (BJI) को ढाका में रैली करने की इजाज़त दी, तो इसकी प्रमुख वजह अमेरिका की धमकी भी रही थी. सरकार को इस बात का डर था कि कहीं बाद में, शेख़ हसीना के अमेरिका में प्रवेश करने पर प्रतिबंध न लगा दिए जाएं. यहां ये बात ध्यान देने लायक़ है कि सरकार की इस रियायत का फ़ायदा सिर्फ़ जमात-ए-इस्लामी को नहीं मिला. मुख्य विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने भी मई में, 14 साल बाद पहली बार बिना किसी प्रतिबंध के अपनी रैली आयोजित की, जिसमें सरकार की तरफ़ से कोई दख़लंदाज़ी नहीं दी गई थी.

ज़्यादातर लोगों की नज़र तो आने वाले चुनाव में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के प्रदर्शन पर रहेगी. इस बात पर अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी कि लोगों के चुनावी विकल्पों पर जमात किस तरह असर डालेगी और आगे चलकर उसका सरकार बनाने में क्या रोल होगा.

इसके अलावा, कई ख़बरों में कहा गया है कि विपक्षी BNP और जमात-ए-इस्लामी ने वॉशिंगटन में लॉबी करने वालों को रखा है, जिससे वो अमेरिका सरकार से कहें कि वो बांग्लादेश की हुकूमत पर मानव अधिकारों (और पहले युद्ध अपराधों के मसले पर) दबाव बनाए. यहां उल्लेखनीय है कि अमेरिकी सरकार की पिछली रिपोर्टों में एक सियासी दल के तौर पर BJI पर पाबंदी लगाने के लिए सत्ताधारी अवामी लीग की आलोचना की थी.

तीसरा, ये भी अहम है कि एक सियासी दल के तौर पर अपने ऊपर पाबंदी लगने, और सरकार द्वारा उस पर निगरानी रखे जाने के बावजूद, जमात दूसरे क्षेत्रों में काफ़ी सक्रिय रही थी. मिसाल के तौर पर, उसकी छात्र शाखा बांग्लादेश इस्लामी छात्र शिबिर कई विश्वविद्यालयों में सक्रिय है. जबकि उसके कई नेताओं की धर-पकड़ भी की गई थी. इसके अलावा, कुछ लोगों का कहना है कि जमात के नेता कई अलग अलग मौक़ों पर बैठकें भी करते रहे हैं.

निष्कर्ष

ये बात महत्वपूर्ण है कि बांग्लादेश की राजनीति में जमात-ए-इस्लामी की वापसी, वहां के सियासी मंज़र और 2024 के चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली है. हालांकि, आने वाले चुनाव में इस संगठन पर ज़्यादा ध्यान नहीं केंद्रित रहने वाला है. भले ही जमात की जनता के बीच थोड़ी बहुत पैठ हो, पर वो पिछले चुनावों में कभी भी बहुमत लायक़ सीटें हासिल नहीं कर सकी हैं. हालांकि, इस वजह से वो किंगमेकर की भूमिका में ज़रूर आ गई थी और, पहले जमात या तो BNP या फिर अवामी लीग को सरकार बनाने में मदद कर चुकी है.

इसीलिए, जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश की घरेलू सियासत और अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की नज़र में एक छोटा सा मोहरा भर है. ज़्यादातर लोगों की नज़र तो आने वाले चुनाव में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के प्रदर्शन पर रहेगी. इस बात पर अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी कि लोगों के चुनावी विकल्पों पर जमात किस तरह असर डालेगी और आगे चलकर उसका सरकार बनाने में क्या रोल होगा. लेकिन, जमात की तरफ़ से अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए लगातार की जा रही कोशिशें, आने वाले चुनाव पर असर तो ज़रूर डालेंगी.

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