Published on Sep 20, 2017 Updated 0 Hours ago

विकास की भारत की दीर्घकालिक रणनीति के लिए आर्थिक मॉडल चाहे जो हो, लेकिन इसका वास्तविक आधार हमारी श्रम शक्ति ही हो सकती है। भारत की विकास की गाथा कैसे आगे बढ़ेगी, यह बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि हम सभी हिंदुस्तानियों के लिए जीवन, स्वास्थ्य और रोजगार का अधिकार कैसे सुनिश्चित करते हैं और इसमें देश की बच्चियों और महिलाओं की चिंता प्रमुखता से शामिल हैं।

एनीमिया मुक्त भारत: मानव पूंजी में निवेश

विकास की भारत की दीर्घकालिक रणनीति के लिए आर्थिक मॉडल चाहे जो अपनाया जाए, लेकिन इसका आधार हमारी श्रम शक्ति ही हो सकती है। इसका मतलब यह है कि अगर हमें तेज विकास करना है तो यह महिलाओं की सक्रिय भागीदारी के बिना सुनिश्चित नहीं किया जा सकता, जो देश की आधा आबादी का प्रतिनिधित्व करती हैं।

हाल के सर्वे बताते हैं कि देश के कार्य बल में लैंगिक भेद-भाव लगातार बदतर होता जा रहा है। उदाहरण के तौर पर 2016 में भारतीय नागरिक माहौल और उपभोक्ता अर्थव्यवस्था पर किया गया पारिवारिक सर्वेक्षण दिखाता है कि काम करने की उम्र की सिर्फ 27.4 प्रतिशत महिलाएं ही वास्तव में हमारे कार्य बल में शामिल हैं। यह आंकड़ा भारत के विभिन्न पड़ोसी देशों के लिहाज से भी बहुत कम है। चीन में यह औसत 63.9 प्रतिशत और नेपाल में 79.9 प्रतिशत है। कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए लैंगिक रूप से संवेदनशील नीति अपनाने की विशेषज्ञ लगातार वकालत करते रहे हैं। इनका कहना है कि खास तौर पर महिलाओं को हुनर व कौशल सिखाने व रोजगार दिलाने के कार्यक्रम पर जोर देना होगा।

हालांकि रोजगार में लैंगिक संवेदनशीलता लाने का मुद्दा हमें एक मौलिक प्रश्न की ओर ले जाता है- क्या मौका मिले तो आर्थिक अवसर का लाभ उठाने के लिए भारतीय महिलाएं पूरी तरह तैयार हैं? अगर नहीं हैं तो आखिर वे कौन से कारक हैं जो उनका रास्ता रोक रहे हैं? रोजगार और हुनर हासिल करने के लिहाज से जो चुनौतियां सामने दिख रही हैं, उनसे आगे बढ़ कर और गहराई से इसकी तलाश करने की जरूरत है। अवसर की उपलब्धता का ज्यादा मतलब नहीं रह जाता अगर महिलाएं उस लाभदायक रोजगार का प्रभावशाली तरीके से लाभ उठाने में सक्षम नहीं हैं। प्रशिक्षण और रोजगार के साथ ही भारत में महिलाओं के रूप में मानव पूंजी में दीर्घकालिक निवेश के लिहाज से उनके स्वास्थ्य पर निवेश करना बहुत जरूरी है।

देश की सामाजिक हकीकत को देखें तो महिलाएं जीवन की शुरुआत से ही हर बात में पीछे रखी जाती हैं। चाहे वह पोषण की उपलब्धता हो या फिर स्वास्थ्य और साफ-सफाई की सुविधाएं हों या फिर शिक्षा हो, महिलाओं को बराबर अवसर नहीं मिलता और वे भेद-भाव का शिकार होती हैं। ऐसे में भारत में एनीमिया का व्यापक प्रभाव एक गंभीर मसला है। देश के स्वास्थ्य संबंधी स्थिति के आकलन के लिए सबसे बड़ा स्रोत राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) है और इसकी ताजा रिपोर्ट दिखाती है कि देश के दो तिहाई से ज्यादा जिले ऐसे हैं जहां महिलाओं में यह बहुत अच्च स्तर (>40%) पर है।

भारत में एनीमिया की स्थिति

भारत में एनीमिया की स्थिति के आकलन के लिए इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) की हाल में प्रकाशित रिपोर्ट काफी मददगार होगी। यह दिखाती है कि उत्पादक आयु वर्ग की महिलाओं में वर्ष 2006 से 2016 के दौरान बहुत मामूली कमी आई। यह 55 % से घट कर सिर्फ 53 % तक पहुंच सका। चूंकि इस आयु वर्ग की महिलाएं काम करने के लिहाज से भी बहुत अहम होती हैं, ऐसे में यह आर्थिक के साथ ही सामाजिक चुनौती भी है।

राज्यों के आंकड़ों को अलग-अलग कर के देखें तो पता चलेगा कि इस लिहाज से कुछ राज्यों ने कफी अच्छा काम किया है। यहां भी एनएफएचएस आधारित आईएफपीआरआई का विश्लेषण हमें काफी महत्वपूर्ण संदर्भ मुहैया करवाता है। उदाहरण के तौर पर उत्तर-पूर्व के सिक्किम और असम में उत्पादक आयु वर्ग की महिलाओं में एनीमिया में 20 प्रतिशत की कमी आई है। जबकि हिमाचल प्रदेश और पंजाब दो सबसे फिसड्डी राज्य साबित हुए हैं। यहां इतनी लंबी अवधि में सिर्फ 10 प्रतिशत की ही बढ़ोतरी आई।

गर्भवती महिलाओं में एनीमिया की स्थिति के लिहाज से भी यही स्थिति दिखाई देती है। उदाहरण के तौर पर सिक्किम में इस लिहाज से वर्ष 2006 से 2016 के दौरान 38.5 प्रतिशत की काफी आई जो बहुत तेज है। यह 62.1% से घट कर 23.6 % हो गई। जबकि इसी दौरान 25 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश विश्व स्वास्थ्य संगठन की गंभीर श्रेणी (>40%) में आ गए। यहां तक कि बच्चों में भी एनीमिया के लिहाज से राज्यों में काफी अंतर दिखाई देता है। ऐसे में यह देखना बहुत जरूरी हो गया है कि आखिर कुछ क्षेत्र इस लिहाज से बेहतर प्रदर्शन कैसे कर पा रहे हैं।

एनीमिया को काबू करने के लिहाज से अब तक सरकार ने क्या किया?

इस समस्या की भयावहता को देखते हुए भारत सरकार राष्ट्रीय पोषण एनीमिया प्रोफलैक्सिस कार्यक्रम (एनएनएपीपी) के जरिए एनीमिया को नियंत्रित करने का लक्षित कार्यक्रम पिछले साढ़े चार दशक से चला रही है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और उप केंद्रों के जरिए एनएनएपीपी एक से पांच वर्ष के बच्चों, गर्भवती और दूध पिलाने वाली महिलाओं तक पहुंचता है। यह उन्हें आयरन और फोलेट सप्लीमेंट मुहैया करवाता है।

इस कार्यक्रम को प्रभावी तरीके से लागू करना एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। एनीमिया में हो रही बहुत मामूली कमी इस बात की गवाह है। स्वास्थ्य और पोषण के विशेषज्ञ बताते हैं कि इस कार्यक्रम के तहत जितने आयरन टैबलेट बांटे जाते हैं, वास्तव में उतनी संख्या में इनका उपयोग नहीं होता। इसकी एक वजह टैबलेट के साथ जरूरी सलाह और परामर्श नहीं दिया जाना हो सकता है। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन की डॉ. सुतपा नियोगी इंडियास्पेंड को दिए एक इंटरव्यू में कहती हैं “आयरन टैबलेट लेने से उल्टी-दस्त जैसे साइड इफेक्ट हो सकते हैं। गर्भावस्था के दौरान पहले से असहज महिला की समस्या को ये बढ़ा सकते हैं।” फिर भी अगर इन टैबलेट को नियमित रूप से लिया जाए तो ऐसे साइड इफेक्ट कम हो सकते हैं और खून में बढ़ी हुई आयरन की मात्रा जीवन स्तर की गुणवत्ता को बढ़ा सकती है।

उधर, वर्ष 2013 से चल रहे साप्ताहिक आयरन और फॉलिक एसिड (डब्लूआईएफएस) कार्यक्रम के बेहतर नतीजे सामने आए हैं। इस कार्यक्रम के तहत किशोर लड़के और लड़कियों को 13 महीने तक हर सप्ताह एक बार आयरन टैबलेट मुहैया करवाई जाती है। इसके अलावा कार्यक्रम में परामर्श भी शामिल है जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि बच्चे वास्तव में आयरन टैबलेट का उपयोग कर रहे हैं। इस कार्यक्रम के प्रारंभिक शोध से पता चलता है कि टैबलेट के साथ ही परामर्श मुहैया करवाना जरूरी है।

पांडिचेरी ऐसे क्षेत्र के रूप में सामने आया है जो महिलाओं और बच्चों दोनों में ही एनीमिया को घटाने में आगे रहा है। ग्रामीण पांडिचेरी के छात्रों पर किए गए 2015 के शोधपत्र में सामने आया है कि जिन छात्रों से इस सर्वेक्षण में सवाल पूछे गए उनमें से 85 % नियमित रूप से इसकी खुराक ले रहे थे। इसे प्रभावी रूप से लागू करने में शिक्षकों की भूमिका बहुत अहम है। वे बच्चों को लगातार इसके लिए प्रेरित करते रहने, इसके बारे में सही सूचना उपलब्ध करवाने और टैबलेट सिर्फ बांटने नहीं, बल्कि उसके सेवन के लिहाज से निगरानी भी रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। अक्सर सरकारी कार्यक्रम सिर्फ सप्लीमेंट्स उपलब्ध करवाने पर ही जोर देता है और प्रोत्साहन-परामर्श की जरूरत को उपेक्षित कर देता है। जबकि पांडिचेरी का उदाहरण परामर्श की जरूरत को साफ तौर पर दर्शाता है।

एनीमिया से लड़ने के लिए यह भी बहुत जरूरी है कि इससे लड़ने के लिए विभिन्न विभाग एकजुट हो कर इस कार्यक्रम के लिए एकीकृत दृष्टिकोण अपनाएं। उदाहरण के तौर पर गंभीर एनीमिया मलेरिया और बैक्टेरियल संक्रमण से संबंधित है। ऐसे में स्वच्छता संबंधी सुविधा उपलब्ध करवाना भी एनीमिया नियंत्रण के व्यापक कार्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए। एनएफएचएस के आंकड़ों का जिलेवार विश्लेषण करने से इस तर्क को और बल मिलता है। जिन जिलों में 20% से कम घरों में स्वच्छता संबंधी सुविधाएं उपलब्ध हैं, वहां 56% गर्भवती महिलाओं में एनीमिया पाया गया। दूसरी तरफ, जिन जिलों में 80 % से ज्यादा घरों में बेहतर स्वच्छता साधन उपलब्ध हैं, वहां गर्भवती महिलाओं में एनीमिया का स्तर 36 % ही पाया गया। सही सूचना एक और कारक है, क्योंकि साइड इफेक्ट का डर और जानकारी की कमी की वजह से लोग अक्सर नियमित तौर पर आयरन टैबलेट का सेवन करने से बचते हैं। इसी तरह जिन जिलों में खुले में शौच का स्तर ज्यादा है और 18 की उम्र से कम में विवाहित हो जाने वाली महिलाओं का औसत ज्यादा है वहां गर्भवती महिलाओं में एनीमिया का औसत भी ज्यादा होता है। जैसे-जैसे हम इस कार्यक्रम में आगे बढ़ते हैं, इन तत्वों को भी मुख्य कार्यक्रम से जोड़ने पर ध्यान देना चाहिए।

हमें यह भी समझना होगा कि भारत में एनीमिया क्यों लगातार बना हुआ है। इसे समझने के लिए हमें महिला के पूरे जीवन काल को समझना होगा। एनीमिया का दुष्चक्र जन्म के पहले वर्ष से ही शुरू हो जाता है। खास कर बालिकाओं को आयरन से भरपूर खाद्य सामग्री उपलब्ध नहीं होती। बालिका जैसे-जैसे किशोरावस्था की ओर बढ़ती है पोषक खुराक से उसकी दूरी और बढ़ती जाती है। एक तो विकास के लिए उसकी आयरन से भरपूर भोजन की जरूरत बढ़ जाती है, साथ ही मासिक धर्म शुरू होने की वजह से हर महीने उसके शरीर में खून की क्षति भी होती है। ऐसे में अक्सर किशोरियों को एनीमिया हो जाता है और आगे चल कर गर्भावस्था के दौरान यह और बढ़ जाता है।

सामान्य महिलाओं के मुकाबले एनीमिया से ग्रसित महिला की प्रसव के दौरान मृत्यु होने की आशंका ज्यादा होती है, इसी तरह गर्भपात और जन्मजात बीमारी के साथ पैदा होने वाले बच्चों का प्रतिशत भी ऐसी महिलाओं में ज्यादा होता है। 2014 के एक अध्ययन में पाया गया है कि एनीमिया मातृत्व मृत्यु का एक प्राथमिक कारण है। देश में मातृत्व मृत्यु के लगभग आधे मामले इसी से जुड़े होते हैं।

खराब पोषण का यह चक्र पैदा हो रहे अगले व्यक्ति में भी पहुंच जाता है। शोध बताते हैं कि अगर एनीमिया से ग्रसित मां सुरक्षित रूप से बच्चे को जन्म दे भी देती है तो भी ऐसी मां से पैदा हुए बच्चे विकास संबंधी दूसरी समस्याओं से ग्रसित होते हैं और जन्म के समय इनका वजन कम होने की आशंका ज्यादा होती है। एनीमिया की वजह से पैदा होने वाले बच्चे में आईक्यू का स्तर पांच से दस प्रतिशत तक कम हो सकता है। इसलिए एनीमिया से लड़ने के लिए हमें विभिन्न चरणों में इससे लड़ने की योजना बनानी होगी। जैसे कि बचपन के लिए जब यह शुरू होता है, किशोरावस्था के लिए जब यह और जोर पकड़ता है और गर्भावस्था के दौरान जब इसका प्रभाव दूसरे प्राणी तक भी पहुंचने की आशंका होती है।

एनीमिया से लड़ने के लिहाज से भारत दूसरे विकासशील देशों से भी बहुत पीछे है। ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट 2016 के मुताबिक एनीमिया से ग्रसित महिलाओं के लिए किए गए सर्वेक्षण में शामिल 180 देशों की सूची में भारत 170वें स्थान पर रखा गया है। एनीमिया का इतने व्यापक स्तर पर होना आर्थिक उत्पादकता को गंभीर रूप से प्रभावित करता है, खास कर जो शारीरिक श्रम में लगे हुए हैं। एनीमिया की वजह से थकान और बदन दर्द महसूस होता है जिसका सीधा असर काम के प्रदर्शन पर पड़ता है। 2003 में प्रकाशित पोषण संबंधी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का 0.9 प्रतिशत सिर्फ आयरन की कमी की वजह से होने वाले एनीमिया की वजह से नष्ट हो जाता है। भारतीय जीडीपी पर विश्व बैंक के 2016 के आकलन के मुताबिक यह रकम 20.38 अरब अमेरिकी डॉलर है।

सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के स्वास्थ्य संबंधी बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए भारत को एनीमिया से लड़ने के लिए गंभीर प्रयास करने होंगे। 2012 में भारत ने छठे विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन में वादा किया था कि वह पोषण संबंधी लक्ष्य को हासिल कर लेगा। इस लक्ष्य के मुताबिक उत्पादक उम्र की महिलाओं में एनीमिया के स्तर को 50 फीसदी कम करना है। इस लिहाज से पहले से चल रहे कार्यक्रमों के दौरान हासिल हुए सबक को जरूर ध्यान रखना होगा।

जमीनी स्तर पर शिक्षकों, स्कूल के परामर्शदाताओं और फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को इस समस्या से जूझने के लिए विशेष तौर पर प्रशिक्षत करना होगा। क्योंकि परामर्श उपलब्ध करवाने का इस लिहाज से बहुत अधिक महत्व है। बड़े स्तर पर एनीमिया नियंत्रण कार्यक्रम को राज्य विशेष की जरूरत के मुताबिक बनाना होगा और इसका नेतृत्व भी राज्य के हाथ में देना होगा, क्योंकि हर राज्य की स्थिति में भारी अंतर है। भारत की विकास की गाथा कैसे आगे बढ़ेगी, यह बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि हम सभी हिंदुस्तानियों को जीवन, स्वास्थ्य और रोजगार का अधिकार कैसे सुनिश्चित करते हैं और इसमें देश की बच्चियों और महिलाओं की चिंता प्रमुखता से शामिल हैं।

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Authors

Malancha Chakrabarty

Malancha Chakrabarty

Dr Malancha Chakrabarty is Senior Fellow and Deputy Director (Research) at the Observer Research Foundation where she coordinates the research centre Centre for New Economic ...

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Oommen C. Kurian

Oommen C. Kurian

Oommen C. Kurian is Senior Fellow and Head of Health Initiative at ORF. He studies Indias health sector reforms within the broad context of the ...

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Tanoubi Ngangom

Tanoubi Ngangom

Tanoubi Ngangom is a Chief of Staff and Deputy Director of Programmes. Tanoubi is interested in the political economy of development — the evolution of global ...

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