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Published on Jul 01, 2024 Updated 0 Hours ago

अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल की हालिया धर्मशाला यात्रा लोकतांत्रिक मूल्यों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर वॉशिंगटन की प्रतिबद्धता से तो प्रेरित है ही, साथ ही इसका मक़सद ताइवान के प्रति चीन के बढ़ते आक्रमक रुख का प्रतिकार करना भी है.

तिब्बत पर नज़र: अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के धर्मशाला दौरे से क्यों चिढ़ा चीन?

Source Image: Indian Express

तिब्बत के लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार के समर्थन की पुष्टि के लिए वॉशिंगटन में एक बार फिर से नई आवाज़ उठ रही है. इससे अमेरिका और चीन के रिश्तों में नया तनाव पैदा हो सकता है. अमेरिकी कांग्रेस के एक उच्चस्तरीय द्विदलीय प्रतिनिधिमंडल ने 18 जून को भारत के धर्मशाला आकर तिब्बत के निर्वासित सर्वोच्च आध्यात्मिक नेता दलाई लामा से मुलाकात की. दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले देश यानी अमेरिका और चीन के संबंध हमेशा से ज़ोखिमों से भरे रहे हैं. दोनों देशों के बीच व्यापार युद्ध, कोविड-19 और 2022 में अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी के ताइवन दौरे की वजह से बिगड़े रिश्ते बड़ी मुश्किल से पटरी पर लौट रहे थे लेकिन अब आशंका जताई जा रही है कि दोनों देशों के संबंध फिर तेज़ी से खराब हो सकते हैं.

चीन की सरकार तिब्बत की परिभाषा को सिर्फ़ तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र तक सीमित रखती है, इसके विपरीत ये व्यापक परिभाषा उस मान्यता का समर्थन करती है, जिसे पारंपरिक रूप से तिब्बती क्षेत्र माना जाता है.

इस उच्च स्तरीय अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के वर्तमान धर्मशाला दौरे का मुख्य मक़सद तिब्बत समाधान अधिनियम था. इसे औपचारिक तौर पर ’तिब्बत-चीन विवाद के समाधान को बढ़ावा देने वाला’ एक्ट माना जाता है. ये विधेयक तिब्बत की एक ऐसी वैधानिक परिभाषा का प्रस्ताव करता है, जिसमें ना सिर्फ तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र (TAR) बल्कि किंघई, सिचुआन, गांसू और युन्नान जैसे चीनी प्रांतों के भीतर आने वाले तिब्बती क्षेत्र भी शामिल हैं. चीन की सरकार तिब्बत की परिभाषा को सिर्फ़ तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र तक सीमित रखती है, इसके विपरीत ये व्यापक परिभाषा उस मान्यता का समर्थन करती है, जिसे पारंपरिक रूप से तिब्बती क्षेत्र माना जाता है.

बिल में चीन से ये मांग की गई है कि वो दलाई लामा और तिब्बत के दूसरे नेताओं के साथ फिर से बातचीत करे, जिससे तिब्बत की स्थिति और इस क्षेत्र में शासन से संबंधित इस विवाद का शांतिपूर्ण समाधान तलाशा जा सके. अगर इस अधिनियम को अमेरिकी राष्ट्रपति की मंजूरी मिल जाती है तो फिर विदेश मंत्रालय के लिए ये ज़रूरी हो जाएगा कि वो तिब्बत समस्या के हल के लिए दूसरे देशों की सरकारों के साथ मिलकर साझा कोशिशें करें और बातचीत के ज़रिए इसका समाधन खोजें. इन कोशिशों में राजनीतिक भागीदारी से लेकर तिब्बत पर चीन के दुष्प्रचार का मुक़ाबला करना शामिल है. इस मुद्दे पर वॉशिंगटन की मंशा को चीन के साथ सिर्फ उसके प्रतिस्पर्धात्मक रिश्तों के नज़रिए से नहीं देखना चाहिए. आख़िरकार ये एक तथ्य है कि तिब्बत और चीन के अधिकारियों के बीच 2010 के बाद से कोई औपचारिक संचार नहीं हुआ है. ऐसे में अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल की ये धर्मशाला यात्रा द्विपक्षीय बातचीत को ज़रूरी मदद प्रदान कर सकती है.

 

वॉशिंगटन के संकेत 

तिब्बत और ताइवान पर चीन की कार्रवाई के खिलाफ़ अमेरिकी सरकार और कांग्रेस अक्सर आवाज़ उठाती रहती है. चीन जिस तरह यहां के लोगों के लोकतांत्रिक अधिकार और सबसे महत्वपूर्ण उनके आत्मनिर्णय के अधिकार को ख़ारिज़ करता है, उसे लेकर चीन और अमेरिका के बीच विवाद होता रहता है. वॉशिंगटन ऐतिहासिक रूप से तिब्बत को चीन का हिस्सा मानता है लेकिन चीन जिस तरह तिब्बत के अंदर लोगों के अधिकार, भाषा और उनकी संस्कृति का दमन करता है, उसके ख़िलाफ अमेरिका मुखर रहा है. ऐसे में ये नया एक्ट तिब्बत के मुद्दे को और व्यापक बना सकता है, अमेरिका और चीन के रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित कर सकता है क्योंकि इस पर चीन से कड़ी प्रतिक्रिया आने की संभावना है.


वॉशिंगटन ऐतिहासिक रूप से तिब्बत को चीन का हिस्सा मानता है लेकिन चीन जिस तरह तिब्बत के अंदर लोगों के अधिकार, भाषा और उनकी संस्कृति का दमन करता है, उसके ख़िलाफ अमेरिका मुखर रहा है.

धर्मशाला आए प्रतिनिधि मंडल में शामिल अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की पूर्व अध्यक्ष नैंसी पेलोसी का चीन के ख़िलाफ विरोध-प्रदर्शन का एक लंबा इतिहास रहा है. अपनी तीन दशक से लंबे राजनीतिक सफर में उन्होंने चीन के शासन और अलोकतांत्रिक तरीकों के ख़िलाफ प्रदर्शन किया है. ताइवान में चीन के अधिनायकवादी और अलोकतांत्रिक शासन का विरोध नैंसी पेलोसी की मुहिम के केंद्र में रहा है. ताइवान के मुद्दे पर वो इस हद तक चीन का विरोध करती हैं कि कई बार उनकी राजनीतिक कोशिशें उनके व्यक्तिगत प्रयासों में शामिल हो जाती हैं. उनकी राजनीति का सबसे महत्वपूर्ण पल वो था, जब उन्होंने 1991 में अपनी चीन यात्रा के दौरान प्रदर्शन में मारे गए लोगों के समर्थन में एक बैनर लहराया. ऐसे में इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि तिब्बत पर चीन को आईना दिखाने वाले इस प्रतिनिधिमंडल का सह नेतृत्व भी नैंसी पेलोसी ही कर रहीं थीं.

तिब्बत के मुद्दे को एक बार फिर केंद्र में लाने के लिए अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की विदेश मामलों की समिति के अध्यक्ष माइकल मैकलॉल ने नैंसी पेलोसी के साथ मिलकर वॉशिंगटन की ओर से नई कोशिश की है. अमेरिका के ऐसा करने की दो वजहें हो सकती हैं. पहली, लोकतांत्रिक मूल्यों और दुनियाभर में धर्म और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करने का अमेरिका का एक लंबा इतिहास रहा है. इस पर माइकल मैकलॉल ने ये कहते हुए ज़ोर भी दिया कि “तिब्बत के लोगों के पास एक विशिष्ट धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान है. ऐसे में उन्हें अपने भविष्य के बारे में बोलने का अधिकार होना चाहिए. अपने धर्म का स्वतंत्र रूप से पालन करने की आज़ादी होनी चाहिए”

दूसरी वजह ताइवान के प्रति चीन के दृष्टिकोण में आया महत्वपूर्ण बदलाव हो सकती है, खासकर जब से राष्ट्रपति लाई चिंग ते के नेतृत्व में ताइवान में नई सरकार सत्ता में आई है. इस बदलाव ने तनाव तो बढ़ाया ही है, साथ ही क्षेत्रीय स्थिरता और मानवाधिकार से जुड़े मामलों को संबोधित करने की ज़रूरत पर भी ज़ोर दिया है. इस संदर्भ में अमेरिका सिर्फ़ तिब्बत में ही नहीं बल्कि जिन-जिन क्षेत्रों में लोकतांत्रिक सिद्धांत ख़तरे में हैं, वहां की संस्कृति के संरक्षण के समर्थन के लिए अपनी प्रतिबद्धता को दोहरा रहा है. तिब्बत पर अमेरिका के ये नया फोकस चीन की बढ़ती आक्रामकता का विरोध करने और आत्मनिर्णय और मानवाधिकार से जुड़े अंतर्राष्ट्रीय नियमों के समर्थन की अमेरिका की व्यापाक रणनीति का एक हिस्सा हो सकता है.


घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर मज़बूत बहस और जुड़ाव के मामले में अमेरिकी कांग्रेस काफी लोकतांत्रिक और स्वतंत्र है. इसकी वजह ये है कि अमेरिका में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के अधिकारों का स्पष्ट विभाजन है.

नैंसी पेलोसी ने 2022 में जब ताइवान की यात्रा की थी तब अमेरिका और चीन के संबंधों को बड़ा झटका लगा था. द्विपक्षीय कूटनीति शांत पड़ गई थी. दोनों देशों के बीच सैन्य वार्ता रद्द कर दी गई थी. बात यहां तक बिगड़ गई थी कि चीन ने 2023 में शांगरी-ला डायलॉग के मौके पर अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन की तरफ से भेजे गए बैठक के न्योते को अस्वीकार कर दिया था. सैन्य वार्ता और फेंटेनल ड्रग्स जैसे मुद्दों पर फिर से बातचीत शुरू होने में चीन और अमेरिका को कई महीने लग गए थे.  

घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर मज़बूत बहस और जुड़ाव के मामले में अमेरिकी कांग्रेस काफी लोकतांत्रिक और स्वतंत्र है. इसकी वजह ये है कि अमेरिका में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के अधिकारों का स्पष्ट विभाजन है. इन स्पष्ट विभाजनों के बावज़ूद शासन के ये तीनों अंग जांच और संतुलन बनाए रखने के लिए एक-दूसरे पर प्रभाव डाल सकती हैं. ये स्वतंत्रता इन्हें स्वायत्त तौर पर काम करने की सुविधा तो देती हैं, लेकिन साथ ही जवाबदेही भी होती है.

 

राष्ट्रपति में निहित शक्तियों के आधार पर कार्यपालिका अक्सर कुछ स्वतंत्र कार्रवाई करती है लेकिन ऐसे आदेशों को आम तौर पर अस्थायी जनादेश हासिल होता है. जिन नीतियों का दीर्घकालिक असर होता है, उन्हें विधायिका के ज़रिए ही जाना चाहिए. इसका एक उदाहरण वॉर पावर एक्ट द्वारा राष्ट्रपति को दी गई शक्तियां हैं. इसके अलावा कार्यकारी शाखा कई बार ऐसे मुद्दों को खुद संज्ञान लेती है, जिन पर तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत होती है. उन्हें समझकर और फौरन समर्थन देना होता है. ये कार्रवाइयां अक्सर लोकतांत्रिक सिद्धांतों, हितधारकों और ज़रूरतमंद भागीदारों का समर्थन करने की आवश्यकता से प्रेरित होती हैं. ये कोशिशें दुनियाभर में लोकतांत्रिक आदर्शों को सिद्धांत और मूल्यों से जोड़ने की अमेरिकी प्रतिबद्धता को प्रतिबिंबित करती हैं.

 चीन की आशंकाएं

चीन ने अमेरिकी कांग्रेस को एक चिट्ठी भेजकर इस प्रतिनिधिमंडल के दौरे को विफल करने की कोशिश की लेकिन अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने चीन की चेतावनी और बीजिंग की तरफ से अपेक्षित प्रतिक्रियाओं की परवाह किए बगैर धर्मशाला की यात्रा की. ये अमेरिका की घरेलू राजनीति और व्यापक भू-राजनीतिक के बड़े समूह के लिए एक संदेश भी है. इसके परिणाम दिखने में कुछ वक्त लगेगा. 

तिब्बत को लेकर चीन की चिंता की एक बड़ी वजह ये है कि वो इस क्षेत्र में दलाई लामा के प्रभाव को पूरी तरह ख़त्म नहीं कर पाया है. चीन अपने पूरे इलाकों, खासकर तिब्बत में संगठित धर्म पर और ज़्यादा नियंत्रण पाना चाह रहा है. चीन में सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी (CPC) के वरिष्ठ अधिकारी “राजनीतिक रूप से विश्वसनीय” एक ऐसा धार्मिक वर्ग बनाना चाहते हैं जो अपने धर्म और देश से प्यार करता हो. खास बात ये है कि अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल की धर्मशाला यात्रा के दौरान ही चीन के राष्ट्रपति शी जिंगपिंग भी किंघई प्रांत की राजधानी ज़िनिंग के एक बौद्ध मठ में गए. यहां उन्होंने चीनी राष्ट्र के लिए “समुदाय की भावना” विकसित करने और “राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा” देने की अपनी बात दोहराई. सीपीसी ने बौद्ध संस्थाओं पर कब्ज़ा करने के मक़सद से पुनर्जन्म की कथा में हेरफेर करने की भी कोशिश की थी. उदाहरण के लिए 1990 के दशक में दलाई लामा ने 6 साल के एक बच्चे को ग्यारहवें पंचेन लामा के तौर पर मान्यता दी, लेकिन वो बच्चा और उसका परिवार अचानक ग़ायब हो गया, जिसके बाद चीन ने तिब्बत के बौद्ध धर्म के लिहाज़ से अहम माने जाने वाले इस पद के लिए अपने एक उम्मीदवार को सामने कर दिया. चूंकि, दलाई लामा के उत्तराधिकारी को लेकर सस्पेंस कायम है. ऐसे में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है चीन एक बार फिर ऐसी ही चाल चलने की कोशिश करे.

इस पूरे विवाद पर भारत की करीबी नज़र रखने की ज़रूरत है क्योंकि उसका बहुत कुछ दांव पर लगा है. सीमा पर भारतीय और चीनी सेना के बीच गतिरोध बना हुआ है. 

राजनीतिक तौर पर देखें तो इस यूएस प्रतिनिधिमंडल के धर्मशाला दौरे से अमेरिका और चीन के बीच विवाद का एक नया मोर्चा खुल सकता है. ये यात्रा एक ऐसे समय पर हुई जब दक्षिणी चीन सागर में चीन और अमेरिका के सहयोगी फिलीपींस के बीच सुरक्षा की स्थिति लगातार बिगड़ रही है. संप्रभुता के मुद्दे, ताइवान पर तनाव और हॉन्गकॉन्ग पर चीन का बेरोकटोक नियंत्रण, राजनीतिक दमन, घरेलू कानूनों में बदलाव जैसे मसलों ने अमेरिका को मज़बूर कर दिया है कि वो चीन पर दबाव डालने के नए तरीके खोजे. चीन के अनियंत्रित व्यवहार पर लगाम लगाने के लिए पश्चिमी देशों के लिए ये ज़रूरी  है कि वो चीन पर ज़्यादा नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश करें. रूस और चीन के बीच बढ़ती नज़दीकी और यूक्रेन युद्ध के बाद से ही बीजिंग जिस तरह रूस का समर्थन कर रहा है, उसने भी पश्चिमी देशों के लिए चीन के साथ निपटने के विकल्पों को और जटिल बना दिया. ये देश चीन के साथ पहले से ही कई मोर्चों पर समस्याओं का सामना कर रहे हैं.

बाइडेन प्रशासन को अपनी इंडो-पैसेफिक नीति में कड़ी चुनौतियां का सामना करना पड़ रहा है. इस क्षेत्र में चीन सख़्त रुख़ दिखा रहा है, वहीं मध्य-पूर्व और यूरोप में चल रहे युद्ध की वजह से अमेरिका का ध्यान यहां से भटक गया है. ऐसे में चीन पर इस विधायी दवाब से बाइडेन की चुनावी संभावनाओं पर सकारात्मक असर पड़ सकता है क्योंकि फिलहाल वो लगातार डोनाल्ड ट्रंप से पिछड़ते दिख रहे हैं.

इस पूरे विवाद पर भारत की करीबी नज़र रखने की ज़रूरत है क्योंकि उसका बहुत कुछ दांव पर लगा है. सीमा पर भारतीय और चीनी सेना के बीच गतिरोध बना हुआ है. इसके अलावा हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि 1962 के युद्ध का एक प्राथमिक कारण चीन का ये संदेह भी था कि तिब्बत पर भारत अपनी पकड़ कमज़ोर करना चाहता था. चीन को इस बार भी शक है कि अमेरिका और भारत उसके ख़िलाफ साज़िश कर रहे हैं. ऐसे में भारत को चीन की तरह से हो सकने वाली किसी भी संभावित कार्रवाई के लिए तैयार रहना चाहिए.

 


विवेक मिश्रा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज प्रोग्राम में फैलो हैं.

 कल्पित मानकिकर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज प्रोग्राम में फैलो हैं.

 

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