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भारत में 24 मार्च 2020 को “संपूर्ण लॉकडाउन” की घोषणा की गई थी. इसके बाद के महीनों में छपी अनेक तस्वीरों और लेखों से सामाजिक-आर्थिक असमानता की ये स्याह हक़ीक़त उभर कर सामने आई.
वैश्विक महामारी ने भारत समेत दुनिया भर में फैली सामाजिक-आर्थिक विषमता के बदनुमा चेहरे को पूरी तरह से बेपर्दा कर दिया है. भारत में 90 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी असंगठित क्षेत्र में काम करती है. लॉकडाउन के बेहद कड़े प्रावधानों ने यहां की इन सामाजिक विषमताओं को फिर से सबके सामने लाकर खड़ा कर दिया है. भारत में 24 मार्च 2020 को “संपूर्ण लॉकडाउन” की घोषणा की गई थी. इसके बाद के महीनों में छपी अनेक तस्वीरों और लेखों से सामाजिक-आर्थिक असमानता की ये स्याह हक़ीक़त उभर कर सामने आई.
लॉकडाउन के इसी कालखंड में बड़े स्तर की कई विवादित परियोजनाओं को पर्यावरण से जुड़ी मंज़ूरी हासिल हुई. मंज़ूरी के साथ ही इनके ख़िलाफ़ आवाज़ें उठनी चालू हो गईं. पहले से ही कोविड-19 संकट की मार झेल रहे हाशिए पर ज़िंदगी गुज़ार रहे समुदाय की परेशानियां इन परियोजनाओं की मंज़ूरी से और बढ़ गईं. आर्थिक तरक्की और विकास के नाम पर बनाई गई इन सभी परियोजनाओं का कई स्तरों पर भारी विरोध शुरू हो गया. इनमें कर्नाटक की हुबली-अंकोला रेल लाइन परियोजना, अरुणाचल प्रदेश की एटालिन पनबिजली परियोजना, गोवा को कोयला उत्पादन का बड़ा केंद्र बनाने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर बनाई गई तीन बड़ी परियोजनाएं और व्यावसायिक स्तर पर कोयला खनन की शुरुआत जैसी योजनाएं शामिल हैं. ये परियोजनाएं इस बात की सीधी मिसाल हैं कि किस तरह आर्थिक तरक्की के नाम पर पर्यावरण और स्थानीय समुदायों के हितों को ताक पर रख दिया जाता है. विडंबना देखिए कि इन परियोजनाओं के समर्थन में इन्हीं समुदायों का भला होने की दलील दी जाती है.
भारत दुनिया भर में सबसे ज़्यादा सामाजिक-आर्थिक विषमताओं वाले देशों में से एक है. यहां इस प्रकार की असमानता पहले से ही काफ़ी अधिक है और हाल के दशकों में इसमें और बढ़ोतरी हो रही है.
यहां ये बात याद रखनी चाहिए कि ऐसा बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं है कि जीडीपी के हिसाब से मापी गई आर्थिक प्रगति लोगों के जीवन में उसी हिसाब से सुधार भी लाए. कई अध्ययनों से ये बात उभर कर सामने आई है. वैसी आर्थिक तरक्की जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए, ग़रीब और हाशिए पर जी रही आबादी की आजीविका और उनकी सांस्कृतिक विरासत को तबाह कर दे, उसे अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी ने ‘परभक्षी विकास’ की संज्ञा दी है.
आर्थिक फ़ायदे को मद्देनज़र रखते हुए किया गया इस तरह का विकास लोगों और पूरी पृथ्वी को तबाही की ओर ले जाता है. ऑक्सफ़ैम इंडिया की एक हालिया रिपोर्ट में भारत में उपभोग, आमदनी और धन-संपदा की मौजूदा प्रवृतियों की पड़ताल की गई. इस अध्ययन में ये पाया गया कि भारत दुनिया भर में सबसे ज़्यादा सामाजिक-आर्थिक विषमताओं वाले देशों में से एक है. यहां इस प्रकार की असमानता पहले से ही काफ़ी अधिक है और हाल के दशकों में इसमें और बढ़ोतरी हो रही है. ख़ासतौर से 1991 के बाद, जब से भारत में उदार आर्थिक सुधारों को लागू किया गया, तब से समाज में इस प्रकार की असमानता और बढ़ गई है. पिछले साल भारत की सबसे अमीर एक प्रतिशत आबादी के पास इस देश में पैदा हुई धन संपदा का 73 प्रतिशत हिस्सा आया. ये विषमता सिर्फ़ मौद्रिक नहीं है बल्कि इसका असर स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण जैसी बुनियादी सुविधाओं तक पड़ता है. इन सुविधाओं तक पहुंच में भेदभाव के रूप में भी ये विषमता उभर कर सामने आती है.
आर्थिक विकास का हमारा मौजूदा मॉडल धरती की क्षमताओं पर हद से ज़्यादा दबाव डाल रहा है. आर्थिक तरक्की कैसे हासिल होती है और इस प्रकार की प्रगति से हासिल धन संपदा का वितरण कैसे होता है- ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनको हम नज़र-अंदाज़ नहीं कर सकते. लिहाजा, महामारी के बाद की दुनिया में जब हम संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत-विकास लक्ष्यों या एसडीजी को हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं तो हमें इस बात पर फिर से विचार करना चाहिए कि हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था न्याय और टिकाऊ विकास के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए किस प्रकार काम कर सकती है.
एक विचार जिसे पिछले कुछ वर्षों में काफ़ी लोकप्रियता हासिल हुई है वो है- डिग्रोथ.
डिग्रोथ शब्द का प्रयोग इस सदी के पहले दशक की शुरुआत में फ्रांस में शुरू हुआ था. जल्दी ही ये विचार पश्चिमी यूरोप के दूसरे हिस्सों ख़ासकर स्पेन तक फैल गया. मीडिया में अक्सर इसे एक ख़ास तरीके से पेश किया जाता है लेकिन इसके उलट डिग्रोथ का मतलब सामान्य रूप से सिर्फ़ जीडीपी में कमी लाना नहीं है. डिग्रोथ का अर्थ है सामाजिक और पारिस्थितिक नज़रिए से समानता से जुड़ी बहसों पर एक नई प्रकार की राजनीति शुरू करना. साथ ही इसका अभिप्राय है- आर्थिक निर्णय लेने की प्रक्रिया में सामाजिक और पर्यावरण की सलामती को केंद्र में रखना. इसके तहत बुनियादी रूप से एक अलग तरह के समाज की कल्पना की गई है. एक ऐसा समाज जो लोकतंत्र, समानता और सरलता की परिकल्पना पर आधारित हो और जिसमें ग़रीबी-अमीरी, नस्ल, लिंग, जाति या धर्म के आधार पर होने वाले भेदभावों के लिए कोई जगह न हो.
डिग्रोथ के सिद्धांतों और प्रस्तावों पर अनेक स्पष्ट और सुसंगत लेखों के बावजूद अक्सर ये सवाल उठाया जाता है कि दक्षिणी गोलार्द्ध के अपेक्षाकृत निर्धन देशों यानी ग्लोबल साउथ के लिए ये परिकल्पना किस तरह से प्रासंगिक होगी. परभक्षी विकास, बेरोज़गारी और बढ़ती विषमता के आंकड़ों से ये साफ़ है कि सिर्फ़ आर्थिक वृद्धि को ही केंद्र में रखे बिना सामाजिक और पारिस्थितिक न्याय की कल्पना मौजूदा समय की मांग है. आर्थिक नीति का ज़ोर लोगों और समूची धरती की सलामती पर होना चाहिए. इसके साथ ही विकास का एजेंडा सदैव संदर्भ आधारित होना चाहिए और उसका निर्धारण तमाम संबंधित पक्षों से विचार-विमर्श के बाद ही किया जाना चाहिए.
परभक्षी विकास, बेरोज़गारी और बढ़ती विषमता के आंकड़ों से ये साफ़ है कि सिर्फ़ आर्थिक वृद्धि को ही केंद्र में रखे बिना सामाजिक और पारिस्थितिक न्याय की कल्पना मौजूदा समय की मांग है.
कुछ सामाजिक कार्यकर्ता और विद्वान पिछले पांच वर्षों से भी ज़्यादा समय से डिग्रोथ के बारे में ऐसी बहसों के लिए जगह बनाते रहे हैं. इस सिलसिले में 2014 में नई दिल्ली में दो दिन का सम्मेलन आयोजित किया गया था. इसमें भारत में आर्थिक प्रगति, हरित विकास और डिग्रोथ पर चर्चा की गई थी. इस सम्मेलन में 140 शोधकर्ताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नीति निर्माताओं और छात्रों ने हिस्सा लिया था.
हालांकि, ये याद रखना ज़रूरी है कि डिग्रोथ का आदर्शवादी दृष्टिकोण अभी तय हो रहा है. हमारे ताज़ा सहयोगात्मक कार्यों से भी ये बात स्पष्ट तौर से उभर कर सामने आई है. ये शोध मैंने ऑटोनॉमस यूनिवर्सिटी ऑफ़ बार्सिलोना के इंस्टीट्यूट ऑफ़ एनवॉयरमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी के सदस्यों के साथ मिलकर किया है. इंस्टीट्यूट के ये तमाम साथी रिसर्च एंड एक्टिविज़्म कलेक्टिव- रिसर्च एंड डिग्रोथ के भी सदस्य हैं. हमारे शोध से ये बात साबित हुई है कि वैश्विक विषमताओं पर ध्यान देने की ज़रूरत पर चाहे जितने भी ज़ुबानी जमा खर्च किए गए हों पर सच्चाई ये है कि भारत समेत ग्लोबल साउथ के तमाम देशों में डिग्रोथ और दूसरे बौद्धिक और सामाजिक आंदोलनों के बीच की नज़दीकियों और विरोधाभासों पर गुणवत्तापूर्ण शोध का हमेशा अभाव रहा है.
भारत के लिए डिग्रोथ का प्रस्ताव दुनिया के दूसरे हिस्सों के डिग्रोथ एजेंडे के मुक़ाबले काफ़ी अलग शक्ल वाला होगा. इस एजेंडे को अनेक दृष्टिकोणों, सलामती और न्याय से जुड़ी मौजूदा तमाम आवाज़ों- जिनमें कट्टर पारिस्थितिकीय लोकतंत्र शामिल है
लिहाजा महामारी के बाद की दुनिया में अगर हम वाकई संयुक्त राष्ट्र के एजेंडा 2030 को पूरा करने के लिए गंभीरतापूर्वक कदम उठाना चाहते हैं तो हमें रिसर्च एजेंडे ‘फ़्रॉम द मारजिन्स’ का अनुसरण करना होगा. इसमें विस्तृत विकल्पों के हिसाब से विभिन्न सिद्धांतों और ज्ञानमीमांसा से जुड़ी परंपराओं को शामिल किया गया है. मूल समुदायों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं का ध्यान रखते हुए समाज और पर्यावरण की सलामती के लिए उनके पास मौजूद पारंपरिक ज्ञान के भंडार का ठीक ढंग से लाभ उठाया जाना चाहिए. जैसा कि एरटुरो एस्कोबार ने बताया है कि लैटिन अमेरिका के लिए डिग्रोथ के एजेंडे में प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन में कमी लाने के प्रस्तावों और विकास के पाश्चात्य सिद्धांतों के विरोध पर चर्चा किया जाना ज़रूरी है. इसी प्रकार भारत के लिए डिग्रोथ का प्रस्ताव दुनिया के दूसरे हिस्सों के डिग्रोथ एजेंडे के मुक़ाबले काफ़ी अलग शक्ल वाला होगा. इस एजेंडे को अनेक दृष्टिकोणों, सलामती और न्याय से जुड़ी मौजूदा तमाम आवाज़ों- जिनमें कट्टर पारिस्थितिकीय लोकतंत्र शामिल है, के साथ विचार विमर्श के बाद तैयार किया जाना चाहिए.
भारत के संदर्भ में डिग्रोथ का मतलब सिर्फ़ विकास की कल्पना का विकेंद्रीकरण ही नहीं है बल्कि हाशिए पर रह रहे समुदायों के लिए सम्मानजनक परिस्थितियां सुनिश्चित करना भी है. उनको ज्ञान और विशेषज्ञता का स्रोत और भविष्य के लिए बराबरी का भागीदार समझा जाना चाहिए. इस पूरी कवायद का ध्यान समूची धरती और यहां निवास करने वाले इंसानी और ग़ैर-इंसानी सभी प्रकार के निवासियों के लिए संरक्षण, न्याय और सलामती पर होना चाहिए.
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Brototi Roy is a PhD candidate at Institut de Ciencia i Tecnologia Ambientals Universitat Autnoma de Barcelona (ICTA-UAB) where she is researching environmental justice movements ...
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