अफ्रीका में कारोबार करने के लिए कौन अफ्रीका का प्रवेश द्वार बनेगा इसके लिए एक दिलचस्प रेस चल रही है जिस पर सबकी निगाहें टिकी हैं।
दक्षिण अफ्रीका, अफ्रीका का सबसे बड़ा देश है और और GDP के लिहाज़ से उसकी अर्थव्यवस्था भी सबसे बड़ी है। अफ्रीका के बाकी देशं के अलावा दुनिया के और देशों के साथ वो बेहतर साधनों से जुड़ा हुआ है। इन सब हिसाब से अफ्रीका का गेटवे होने का हक फिलहाल दक्षिण अफ्रीका को ही है। लेकिन पिछले एक दशक में कुछ ग़लत नीतियां और फैसले, विदेशियों के खिलाफ नफरत, एक बचकानी विदेश नीति और साथ ही कारोबार करने के माहौल का बिगड़ना दक्षिण अफ्रीका के लिए अच्छा नहीं रहा। इस रेस में में वो दुसरे देशों के मुकाबले पीछे पड़ रहा है। मॉरिशस, मोरक्को, केन्या और दुबई ने खुद को पूरे अफ्रीका में कारोबार के लिए एक लांच पैड की तरह पेश करने की कोशिश तेज़ कर दी है।
रेस अभी और तेज़ हो रही है और देखना ये है कि ये प्रतिष्ठित ख़िताब कौन हासिल करता है।
हम रेस में शामिल सभी प्रतियोगियों की कमजोरी और उनकी ताक़त का जायजा लेंगे।
दक्षिण अफ्रीका
हालाँकि दक्षिण अफ्रीका की भौगोलिक स्थिति सबसे अच्छी नहीं है लेकिन उसके पक्ष में कई बातें हैं। उसकी सडकें, बंदरगाह, एक विकसित आर्थिक और कारोबारी ढांचा और कानून। वो अफ्रीका के किसी दुसरे देश के मुकाबले ज्यादा विकसित देश है। बेशक वो एर्न्स्ट एंड यंग के अफ्रीकी देशों के प्रति आकर्षण की लिस्ट में हमेशा सबसे ऊपर रहता है।
लेकिन पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीका में निवेश का माहौल काफी ख़राब भी हुआ है। इसकी कई वजह है, लगातार बदलते पालिसी, २०१५ में कुछ ही दिनों के अन्दर तीन वित्त मंत्री, खनन को लेकर बन रहे घोषणापत्र पर अब तक कोई सहमती नहीं बनना, आर्थिक मामलों में गिरती साख और जटिल कायदे कानून। इसी का नतीजा है कि जनरल मोटर जैसी कंपनी जो 90 सालों से देश में थी अब देश से निकलने का ऐलान कर चुकी है, और साथ ही घरेलु कॉर्पोरेट क्षेत्र निवेश करने में हिचक रहा है। भूमि सुधार में अभी अनिश्चितता बनी हुई है और साथ ही निजी प्रॉपर्टी पर अधिकार को लेकर भी अभी घबराहट का माहौल है।
दुनिया के परिवेश में दक्षिण अफ्रीका की अर्थव्यवस्था एक छोटी और खुली हुई अर्थव्यवस्था है जिसकी वजह से वहां की मुद्रा में काफी उतार चढाव देखा जाता है और इसलिए आर्थिक योजना बनाना कुछ मुश्किल है। इस अनिश्चितता की वजह से व्यापारी यहाँ किसी कारोबार में निवेश करने से हिचकते हैं। इस के ऊपर और कई मुश्किलें हैं जैसे काम का परमिट लेने में मुश्किल, डाटा की ज्यादा कीमत, व्यक्तिगत सुरक्षा की फ़िक्र। इसलिए पिछले एक दशक में FDI में कमी आयी है। ब्लूमबर्ग के मुताबिक 2008 में FDI 10 बिलियन अमेरिकी डॉलर था तो २०१६ में घट कर 2.2 हो गया। और इस दौरान इकॉनमी में कोई बढ़त नहीं देखी गई।
बहरहाल रामाफोसा की नई सरकार में अब ऐसे शुरूआती संकेत मिल रहे हैं कि विदेश नीति को अर्थव्यवस्था में बढ़त के लिए इस्तेमाल किया जाए। 100 बिलियन डॉलर निवेश की एक ड्राइव शुरू हुई है और राष्ट्रपति रामाफोसा विश्व और इस क्षेत्र के राजनीतिक और आर्थिक मामलों में ज्यादा हिस्सेदारी ले रहे हैं। लेकिन ये देश अपनी जो गंभीरता खो चुका है वो फ़ौरन वापस नहीं आ सकता इसके लिए व्यापर करने की आसानी और इसकी लागत दोनों को ही बेहतर करना होगा। साथ ही दक्षिण अफ्रीका को अपनी ये छवि भी बदलनी पड़ेगी कि वो कूटनीतिक और कॉर्पोरेट नज़रिए से संरक्षणवादी बन रहा है। दक्षिण अफ्रीका को जल्द से जल्द इस रेस में अपनी भागीदारी और ज्यादा तेज़ करनी होगी, डिजिटल ढांचे को मजबूत करना होगा और कौशल को बढ़ाना होगा ताकि वो चौथे औद्योगिक क्रांति का फायदा उठा सके।
मॉरिशस
दक्षिण अफ्रीका की गलतियों से सबसे ज्यादा फायदा मॉरिशस को हुआ है। ये आइलैंड देश अपनी नई नीतियों की वजह से बड़े निवेश खींचने में कामयाब रहा है। परंपरा के मुताबिक जो निवेश दक्षिण अफ्रीका के रास्ते आता था उसे अब मॉरिशस ने सीधे अपनी तरफ खींच लिया है।
वित्तीय क्षेत्र में ये सबसे ज्यादा साफ़ तौर पर हुआ है जहाँ कई प्राइवेट इक्विटी फर्म और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अफ्रीका में दाखिल होने के लिए मॉरिशस को लांच पैड के तौर पर इस्तेमाल किया है। मॉरिशस कई मामलों में दक्षिण अफ्रीका से आगे है, जैसे उसके पास कई भाषा बोलने वाली आबादी है, एक स्थाई सरकार है, टैक्स का ढांचा बेहतर है, आर्थिक साख ऐसी है जहाँ लोग निवेश करना चाहते हैं, कायदे कानून और टैक्स का सिस्टम जिसको व्यापर करने वालों को मानना ज़रूरी है वो भी निश्चित है। इसलिए इस देश को अफ्रीका में कारोबार करने की नीयत से ज्यादा लोग पसंद कर रहे हैं।
इन्ही कोशिशों की वजह से कई वित्तीय या कॉर्पोरेट कंपनियां और बैंक मॉरिशस में चले गए हैं। ये कामयाबी आंकड़ों में ही नज़र आती है। २०१६ में बैंक ऑफ़ मॉरिशस के मुताबिक FDI में ४६ फीसदी की बढ़त दर्ज की गयी। निवेश की प्राइवेट कंपनी Credentia के मुताबिक २०१६ में 70.8 फीसदी FDI ख़ास तौर अफ्रीका के छोटे विकासशील देशों की तरफ गए। फाइनेंसियल सर्विस कमीशन के मुताबिक २०१६-१७ की सालाना रिपोर्ट में ये बताया गया कि मॉरिशस से अफ्रीका के दुसरे देशों में होने वाले निवेश में ९ फीसदी की बढ़त रही।
इस देश ने अफ्रीका के कई देशों के साथ एक समझौते पर दस्तखत किया है जिस के तहत दोहरे टैक्स से छुटकारा मिलेगा। इस वजह से अफ्रीकी देशों के बीच आपस में होने वाले कारोबार में बढ़त हुई है। इसके साथ ही भारत और चीन से उसके अच्छे रिश्ते उसे कई ऐसे देशों की पसंद बनाते हैं जिनका फोकस एशिया पर है। वर्ल्ड बैंक की २०१८ की रिपोर्ट में व्यापर की आसानी में दुनिया में मारीशस २५ वे नंबर पर है जबकि दक्षिण अफ्रीका का नंबर 82 है।
फिर भी सच्चाई ये है कि मॉरिशस एक आला खिलाडी तो है लेकिन उसके कारोबार का दायरा उतना बड़ा नहीं है और न ही देशों के साथ उसकी वैसी कनेक्टिविटी है जैसी दक्षिण अफ्रीका की है। इसलिए वो ज्यादा से ज्यादा एक वित्तीय केंद्र बन सकता है। इस नज़रिए से देश को एक वित्तीय गेटवे तो माना जा सकता है लेकिन सही मायने में अफ्रीका में आर्थिक तौर पर दाखिल होने का दरवाज़ा नहीं। इसलिए अफ्रीका के लिए किसी रणनीति में मारीशस एक सहायक रोल में हो सकता है लेकिन वहां एक विकल्प के तौर पर नहीं जहाँ बड़े पैमाने पर कारोबार की बात हो।
इसके अलावा देश अभी भी इस ग़लत धारणा से जूझ रहा है कि टैक्स से बचने के लिए वो एक अच्छी जगह है। एक ऐसी जगह जहाँ छुट्टियाँ बिताने के लिए लोग जाते हैं, जहाँ बीच पर पीना कोलाडा के घूँट लेते हुए पेड़ों के नीचे आनंद लेते हैं।
मॉरिशस का एशिया से ऐतिहासिक सम्बन्ध रहा है और यूरोप पर वो काफी निर्भर करता है, अफ्रीकी देशों के साथ कोई भी रिश्ता बनाना उसके लिए एक बिलकुल नए क्षेत्र में जाना होगा। मॉरिशस अपनी नीतियों को अफ्रीका केन्द्रित करने की नीयत से काम कर रहा है फिर भी कूटनीति से लेकर सांस्कृतिक रिश्तों में एक नई समझ चाहिए होगी ताकि ये नया विकसित होने वाला केंद्र कामयाब हो पाए।
मोरक्को
बादशाह मोहम्मद VI की लीडरशिप में साल २०१३ से मोरक्को की विदेश नीति का फोकस यूरोप की जगह अफ्रीका हो गया है। मोरक्को ने हाल ही में जनवरी २०१७ में ३० सालों के गैप के बाद अफ्रीकन यूनियन फिर से ज्वाइन किया है। ये अफ्रीकी कॉन्टिनेंट के साथ और मज़बूत रिश्ते बनाने में एक अहम् क़दम है।
इस घनिष्टता से ख़ास तौर पर अफ्रीका के फ्रेंच भाषी हिस्सों में निवेश में बढ़त दर्ज की गयी है। Cote D’ivoire में ख़ास तौर पर इस रणनीति का असर देखा गया है, Attijariwafa जैसे बैंक ने इस मार्किट में अपनी अच्छी पकड़ बना ली है। बीमा कम्पनी SAHAM, जो २६ अफ्रीकी देशों में सक्रिय है और इसके 60 सहायक हैं, वो भी मोरक्को की बैंकों के तर्ज़ पर अब अफ्रीका में सहारा के दक्षिण वाले क्षेत्र (सब सहारन) में चला गया है।
इस महीने मोरक्को ने एक प्लान का ऐलान किया जिसमें नाइजेरिया के साथ मिल कर ७,५०० Km की एक क्षेत्रीय गैस पाइपलाइन की योजना है जो पांच देशों से जायेगी, जिस से मोरक्को की नीयत साफ़ तौर पर बताई गयी है की वो पूरे कॉन्टिनेंट में फैलना चाहता है इसी दौरान मोरक्को की एयरलाइन रॉयल एयर मोरोक ने ऐलान किया है कि अफ्रीका के पांच और अफ्रीकी शहरों में अपनी उड़ान शुरू करने वाले हैं जिसमें हरारे और मैपुटो शामिल है। ये महत्वपूर्ण है कि सब सहारा क्षेत्र यानी सहारा रेगिस्तान के दक्षिण के क्षेत्र में मोरक्को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी FDI के मामले में दूसरा सबसे बड़ा देश है। पहले नंबर पर है दक्षिण अफ्रीका। २०१६ में अफ्रीकन डेवलपमेंट बैंक के निदेशक अकिंवूमि अदेसिना ने अफ्रीकी महाद्वीप में 85 फीसदी विदेशी निवेश लाने के लिए मोरक्को की तारीफ की थी। इसके अलावा 2008 से २०१६ सब सहारा अफ्रीका के साथ मोरक्को के व्यापर ९.१ फीसदी की दर पर बढ़ा है, जो इस बात का संकेत है कि मोरक्को का प्रभाव इस क्षेत्र में बाधा है और उसकी सामरिक दिलचस्पी भी यहीं है।
सब सहारा अफ्रीका में सबसे ज्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी FDI करने वाले देशों में मोरक्को दक्षिण अफ्रीका के नीचे दुसरे नंबर पर है।
साथ साथ कई बड़े पैमाने पर किये गए कांफ्रेंस के ज़रिये देश ने ये दिखाया है कि व्यापर के मामले में वो कितना सहज है, कारोबार की तरफ उसका दोस्ताना रवैय्या है। और साथ ही बादशाह ने कई बार राजकीय दौरा कर के सामरिक रिश्ते और गहरे किये हैं। मोरक्को के साथ कई फायदे हैं, कृषि, डिजिटल ढांचा, रिन्यूएबल ऊर्जा और इस्लामिक कानून के मुताबिक दी जाने वाली वित्तीय मदद। इन सब वजहों से इस देश को उम्मीद है की अपनी सीमा के दक्षिण में उसकी सक्रियता जो बढ़ी है वो उनकी आर्थिक स्थति को सुधरने में गति लाएगी।
मोरक्को के फायदे ज़ाहिर हैं — अरब देशों, अफ्रीका और यूरोप के बीच गेटवे बन जाए। लेकिन कई चुनौतियाँ हैं जो उसे पूरी तरह से एक केंद्र बन ने के रास्ते में उके सामने कई चुनौतियाँ भी हैं।
पहली चुनौती तो मोरक्को और दुसरे अफ्रीकी देशों के बीच शक को खत्म करने की है जिसका इतिहास रहा है। देशों के बीच कूटनीतिक रिश्ते ख़राब रहे हैं क्यूंकि ऐसा माना जाता रहा है कि मोरक्को ने अपनी तरफ से घमंड का रवैय्या रखा और खुद को बेहतर माना है। दक्षिण अफ्रीका, मोजाम्बिक और अंगोला के उपनिवेशवाद को ख़त्म करने के लिए १९६३ में मोरक्को ने अपना समर्थन नहीं दिया था। १९८७ में मोरक्को ने अफ्रीकन यूनियन को छोड़ यूरोपियन यूनियन के साथ जाने की दरख्वास्त की, लेकिन इसे नकार दिया गया। हाल ही में २०१४ में मोरक्को ने एबोला के डर से अफ्रीकी देशों की एक कांफ्रेंस AFCON की मेजबानी करने से इंकार कर दिया जबकि पुचले साल क्लब वर्ल्ड कप की मेजबानी उसने की।
मोरक्को की ये गलतियाँ भुलाई नहीं गयी हैं अगर किसी भी कूटनीतिक प्लेटफार्म पर वोट के पैटर्न पर नज़र डाली जाए तो। हाल ही में फीफा २०१६ वर्ल्ड कप की मेजबानी के लिए जब वोटिंग हो रही थी तब 11 अफ्रीकी देशों ने मोरक्को का समर्थन नहीं किया।
इस रिश्ते को सुधरने में वक़्त लगेगा, ये सिर्फ कुछ मीठी बातों से फुसलाने से ठीक होने वाला नहीं। बल्कि आलोचक तो मोरक्को के गैर अफ्रीकी बर्ताव पर नाराज़ हैं और मानते हैं कि सब सहारन अफ्रीकी देशों के लिए एक केंद्र बना ये देश मौकापरस्त है। फिर पश्चिमी सहारा का मुद्दा भी सब भली भाँती जानते हैं। मोरक्को का सहरावी राज्य पर क़ब्ज़ा बना हुआ है जिसकी वजह से कई अफ्रीकी देशों से उसका टकराव है। दुसरे अफ्रीकी देश मानते हैं की ये क़ब्ज़ा दिखता है कि मोरक्को की नीयत उपनिवेशवाद की है जो अफ्रीकी हित में नहीं।
इसके साथ अश्वेत अफ्रीका से सांस्क्रतिक दूरी और एक अनजानापन मोरक्को के अफ्रीका का गेटवे बनने के रास्ते में एक बड़ी मुश्किल है.. ये सच्चाई है कि मोरक्को एक देश के तौर पर अफ्रीकी देशों के मुकाबले अरब और यूरोप से ज्यादा करीब महसूस करता है, और ये टकराव की बड़ी वजह बन सकती है। पहचान की इस जटिल सियासत में से किस तरह रास्ता बनाया जाएगा उस पर निर्भर करता है कि मोरक्को अफ्रीका में दाखिल होने का दरवाज़ा बन ने में कामयाब होगा या नाकाम।
दुबई
दुबई इस रेस में एक वाइल्ड कार्ड एंट्री है, जिसे अचानक रेस में शामिल कर लिया गया है लेकिन बहुत से लोगों के लिए अफ्रीका का गेटवे होने के लिए दुबई की दावेदारी तर्कसंगत है। दुबई में रहने वाले अफ्रीका विश्लेषक अहमद सलीम जो Teneo Intelligence से जुड़े हैं उनका मानना है कि अमीरात की विकसित मूलभूत सुविधाएं, व्यापार करने की आसानी और अफ्रीका और एशिया के बीच एक पुल का काम करना पूरे अफ्रीका में कारोबार करने के नज़रिए से दुबई को एक बेहतर स्थति में रखता है। ये फायदे नैरोबी या जोहानेसबर्ग के साथ नहीं हैं। इस के साथ ही UAE की विदेश नीति और वो फैसले जो अफ्रीका UAE के कारोबार और निवेश को बढ़ने में काफी कारगर साबित हुए हैं।
ऐसा लगता होगा कि दुबई यहाँ वाइल्ड कार्ड एंट्री है, यानी बिना इस लायक हुए रेस में शामिल हो गया है लेकिन बहुतों को लगता है की अफ्रीका विभाग चलने के लिए दुबई का चुनाव तर्कसंगत है।
अहमद सलीम के मुताबिक उसके पक्ष में सबसे बड़ी बात है उसकी कनेक्टिविटी.. कई देशों के साथ उसका बेहतर सुविधायों के साथ जुड़ा होना, कई अफ्रीकी देश दुबई से सिर्फ 3 से 8 घंटे की दूरी पर हैं। इस लिहाज़ से अफ्रीका में जाने के लिए वो पहले ही एक गेटवे है, हाँ अगर नैरोबी या दरस सलाम से जोहानेसबर्ग की उड़ान दुबई के मुकाबले सस्ती हो जाए तो अलग बात है वरना दुबई के पक्ष में ये एक बड़ा फायदा बना रहेगा।
फिर भी एक सरल सी कठिनाई ये है की दुबई बहरहाल अफ्रीका में नहीं.. जिन देशों का फोकस अफ्रीका पर है वो अफ्रीकी महाद्वीप में ही मौजूद होना पसंद करेंगे, न सिर्फ स्थानीय ज्ञान के लिए बल्कि रिश्ते बनाने के लिहाज़ से भी ये बेहतर है। ग्राउंड ऑपरेशन का कोई विकल्प नहीं। हालाँकि पहले सूटकेस बैंकिंग यानी देश में आते जाते कारोबार करने का ढंग काफी चला लेकिन आज के दौर में वो मुनासिब नहीं और टिकाऊ भी नहीं। इसलिए उसके तमाम आकर्षण के बावजूद दुबई अफ्रीका का क्षेत्रीय हेड ऑफिस नहीं बन सकता। दुबई का होना अच्छा है लेकिन ज़रूरी नहीं।
केन्या
नैरोबी बहुत तेज़ी से अफ्रीका का तकनीकी केंद्र बंटा जा रहा है। वो देश जिस ने MPesa को जन्म दिया वो अब अपनी कोशिशें तेज़ कर रहा है कि तकनीक और वित्तीय क्षेत्र को मज़बूत करे, अब सिलिकॉन सवाना के नाम से मशहूर हो रहा है।
इंटेलीजेंट कम्युनिटी फोरम के मुताबिक नैरोबी अफ्रीका का सबसे बुद्धिमान शहर है क्यूंकि वहां इन्टरनेट दूर दराज़ इलाकों तक पहुँच गया है और डिजिटल ढांचा बहुत तेज़ी से बेहतर हो रहा है। I Hub के संस्थापक एरिक हर्स्मन के मुताबिक टेक्नोलॉजी से जुड़े स्टार्ट उप के लिए माना जाता है कि यहाँ की नीतियां और कानून काफी सहायक हैं, ख़ास तौर पर टेलिकॉम और बैंक के क्षेत्र में। पूर्वी अफ्रीका में तेल और गैस के भंडार बढे हैं इसलिए पूर्वी और पश्चिमी अफ्रीका की दिलचस्पी भी यहाँ और बढ़ी है। केन्या की हैसियत एक आर्थिक डाइनेमो की है यानी जो इंजन को स्टार्ट करने के लिए ज़रूरी होता है। अपनी इस हैसियत की वजह से केन्या और ख़ास तौर पर उसकी राजधानी नैरोबी पूरे अफ्रीका में निवेश करने वालों के लिए एक लांच पैड की तरह आकर्षक बना हुआ है। इस पर उसकी पढ़ी लिखी आबादी, एक प्रगतिशील बैंकिंग और मूलभूत ढांचे के विकास पर जोर, एक सकारात्मक तस्वीर पेश करते हैं।
दूर दराज़ इलाकों तक इन्टरनेट की पहुँच की सबसे तेज़ दर और एक बेहतरीन और तेज़ी से विकसित होता डिजिटल ढांचा, इस वजह से इंटेलीजेंट कम्युनिटी फोरम को नैरोबी को इंटेलीजेंट सिटी का नाम दिया है।
फिर भी भ्रष्टाचार, सुरक्षा का डर, राजनितिक अनिश्चित्ता निवेशकों के लिए बड़े मुद्दे बने हुए हैं.. कारोबारी करने में अभी भी लाल फीताशाही और अफसरशाही की अडचनें हैं जैसा की देश के ब्याज दर की सीमा तय करने के मामले में मिली नाकामी से ज़ाहिर है। केन्या की रेटिंग B है, वो निवेशकों को सुरक्षा देने में नाकाम है जो उसके दुसरे प्रतिद्वंदी दे सकते हैं, साथ ही उसकी संस्थाएं भी अभी उतनी परिपक्व नहीं हैं, वो बड़े पैमाने पर बड़े निवेश को फण्ड कर सकने की स्थिति में है। मॉरिशस की तरह केन्या भी जोहानेसबर्ग के स्तर के बराबर नहीं है फिर भी उसकी अपनी खूबियाँ हैं। तकनीकी जानकारी और क्षेत्र में बेहतर पहुँच उसके पक्ष में हैं जिसका फायदा उठाया जा सकता है।
तो निवेशकों को किसे अफ्रीका के गेटवे के तौर पर चुनना चाहिए?
गेटवे का दर्जा किसे मिलेगा ये इस पर भी निर्भर है कि कंपनियां किस तरह का कारोबार करना चाहती हैं। मिसाल के लिए किसी देश में फैक्ट्री बनाना, वहां वित्तीय या तेच्नोल्ग्य के स्टार्ट उप में निवेश करने या बैंक की स्थापना करने से बहुत अलग है.. किसी कंपनी की पसंद क्या है उस पर वहां की भौगोलिक स्थिति, भाषा और संस्कृति का तालमेल, साथ ही ऐतिहासिक सम्बन्ध काफी असर डालते हैं। मिसाल की तौर पर फ्रांस का कोई भी निवेश मोरक्को की तरफ आकर्षित होता है, जबकि गल्फ देश दुबई से काम करना पसंद करते हैं। जबकि पश्चिमी निवेश अंग्रेजी बोलने वाले शहर नैरोबी और जोहानेसबर्ग की तरफ जाते हैं।
कुल मिला कर दक्षिण अफ्रीका ज़्यादातर लोगों के लिए पसंदीदा विकल्प बना हुआ है क्यूंकि व्यवहारिकता और अपने स्केल के नज़रिए से वो बेहतर विकल्प है। मॉरिशस ने अपने लिए वित्तीय क्षेत्र में एक ख़ास दर्जा हासिल किया है, जबकि नैरोबी की बढती टेक्नोलॉजी और पूर्वी अफ्रीका के बाज़ार तक उसकी पहुँच उसे आकर्षक बनती है। हालाँकि मोरक्को इसमें देर से शामिल हुआ है, फिर भी महत्वकांक्षी है और उस पर नज़र रखना दिलचस्प होगा। दुबई उनलोगों की पसंद बना हुआ है जिनका अफ्रीका में कारोबार MENA (मिडिल ईस्ट और उत्तरी अफ्रीका) क्षेत्र तक सीमित है।
आख़िरकार हर एक जगह की अपनी खासियत है, सब अपनी जगह बना सकते हैं। सभी देश को अपनी कमजोरी पहचानना, अपनी ताक़त को जानना ज़रूरी है ताकि वो चालाकी से अपनी चाल चल सकें। ये मुमकिन है कि एक दुसरे का सहयोग करता हुआ कई केंद्र बनाया जाए जो एक दुसरे से टकराव में न हों और जो अलग अलग ज़रूरतों के हिसाब से समाधान बताएं।
अगर इसे सही तरह से लागु किया जाए तो हर देश की अपनी ताक़त न सिर्फ उन देशों की बल्कि इस क्षेत्र के विकास में मदद कर सकती है।
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.