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भारत द्वारा ‘महिलाओं के नेतृत्व में विकास की पहल’ जैसी राजनीतिक शब्दावली के प्रयोग का उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों में महिला-नेतृत्व के लिए ज़मीन तैयार करना है. हालांकि, जैसे-जैसे G20 के नेताओं के शिखर सम्मेलन की तारीख़ नज़दीक आ रही है, पुलिस सेवा में लैंगिक असमानता की स्पष्ट स्थिति पर होने वाली बहसों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है. भले ही दुनिया भर में पुलिस सेवा में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने की मांग की जा रही है लेकिन इसके बावजूद इस दिशा में बहुत धीमी प्रगति हुई है. पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो (BPRD) द्वारा आंकड़ों के मुताबिक, भारतीय पुलिस सेवा में महिलाओं की भागीदारी महज़ 10.49 प्रतिशत है, जो कि दूसरे देशों की तुलना में बेहद कम है. समग्र रूप से देखें तो यूनाइटेड किंगडम में 34.9 प्रतिशत से अधिक महिलाएं कार्यबल का हिस्सा हैं, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में महिला कानून प्रवर्तन अधिकारियों की संख्या 12.6 प्रतिशत है. 1 जनवरी 2021 तक भारत के पुलिस बल में 217,026 महिला पुलिस कर्मी कार्यरत थीं, जो 2019 के आंकड़ों की तुलना में महज़ 0.71 प्रतिशत की वृद्धि को दर्शाता है. यह वृद्धि पदानुक्रम में निचले स्तर के कर्मचारियों तक ही सीमित रही, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर महिला पुलिस अधिकारियों की संख्या महज़ 8.2 प्रतिशत थी. इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के आंकड़ों को देखें तो स्थिति की गंभीरता नज़र आती है, जिसके मुताबिक कुछ राज्यों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण होने के बावजूद इनमें से कोई भी अपने लक्ष्य तक पहुंचने में असफ़ल रहा है. इसमें यह भी कहा गया है कि पुलिस बल को अपने इस लक्ष्य तक पहुंचने में 33 साल लग जाएंगे.
संवैधानिक सुरक्षा उपायों के बावजूद, दुनिया भर में कानून प्रवर्तन क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को भेदभाव का सामना करना पड़ता है, और व्यवस्था के भीतर उनकी स्थिति हाशिए पर मौजूद अल्पसंख्यकों जैसी है.
इंटरपोल, यूनाइटेड नेशंस ऑफिस ऑन ड्रग्स एंड क्राइम (UNODC), और यूनाइटेड नेशंस वूमेन की एक रिपोर्ट के अनुसार, जबकि महिलाएं कानून को और प्रभावी ढंग से लागू करने में योगदान देती हैं, उन्हें पुलिसिया कार्रवाई के सभी पहलुओं में कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है. संवैधानिक सुरक्षा उपायों के बावजूद, दुनिया भर में कानून प्रवर्तन क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को भेदभाव का सामना करना पड़ता है, और व्यवस्था के भीतर उनकी स्थिति हाशिए पर मौजूद अल्पसंख्यकों जैसी है. यह क्षेत्र पारंपरिक रूप से पुरुष प्रधान रहा है, और इसकी प्रकृति आज भी ऐसी ही है क्योंकि इसकी मुख्य वजह यह है कि इसने सामाजिक लैंगिक मानदंडों को और मज़बूत किया है. भारत में, ख़ासकर वरिष्ठ महिला पुलिस अधिकारियों के दिए गए पदनामों में पुरुषवाद की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है. जबकि वैश्विक उत्तर में महिला पुलिस कर्मियों को अक्सर पुरुष सहकर्मियों की तरह समान पदनामों से संबोधित किया जाता है, कई देशों में महिलाओं को ऐसे आधिकारिक नामों से जूझना पड़ता है जिससे उनकी पहचान ख़त्म हो जाती है. इसलिए भारत में एक वरिष्ठ महिला अधिकारी को ‘सर’ या आजकल ‘मैडम सर’ कहकर बुलाए जाने की अधिक संभावना है. जबकि परेड के दौरान दिए जाने वाले कमांड पुरुष अधिकारियों को ध्यान में रखकर तैयार किए जाते हैं. उदाहरण के लिए, “श्रीमान निरीक्षण के लिए तैयार“, यानी मोटे तौर पर कहा जाए तो लैंगिक पहचान की परवाह किए बग़ैर उन्हें कमांड दिए जाते हैं. आधिकारिक तौर पर होने वाले सार्वजनिक संवादों में, निचले पद पर कार्यरत कर्मचारियों को कथित रूप से ‘आपा’ (बांग्लादेश में बहनों को यह कहकर बुलाया जाता है) कहकर संबोधित किया जाता है जबकि उसी पर बैठे पुरुष कर्मचारियों को ‘सर’ कहा जाता है.
जबकि व्यवस्था के भीतर लैंगिक हास-परिहास, शारीरिक रूप-रंग का मज़ाक उड़ाने जैसी चीज़ें सामान्यीकृत हो चुकी हैं, महिलाओं को, ख़ासकर शारीरिक मुठभेड़ के दौरान समस्या के तौर पर देखा जाता है. पुलिस बल के प्रशिक्षण के दौरान कैडेट की शारीरिक क्षमता उभारने पर ज़्यादा से ज़्यादा ध्यान दिया जाता है और सामाजिक कौशल के विकास को अनदेखा कर दिया जाता है. पुलिस अकादमियों में अक्सर पुरुष कर्मियों से शारीरिक फिटनेस पर ज्य़ादा से ज़्यादा ध्यान देने की अपेक्षा की जाती है, जिससे श्रेष्ठता की धारणा पैदा होती है. ऐसे में इस पेशे में मर्दाना संस्कृति में रची-बसी युवा महिला कर्मियों के आने की संभावना ज़्यादा होती है, जहां उनका ध्यान उन सकारात्मक गुणों पर कम होता है जिन्हें वे अपने कार्यस्थल में लागू कर सकती हैं.
2017 में राजस्थान में 100 महिला पुलिस कर्मियों के बीच किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई कि लगभग 26 प्रतिशत महिला पुलिस कर्मियों ने अपने अधीनस्थों द्वारा और सार्वजनिक जीवन में कामकाज के दौरान यौन उत्पीड़न का सामना किया था.
उपलब्ध अध्ययनों (Burke and Mikkelsen; DeHaas, Timmerman and Hoing; Lonsway, Paynich, and Hall) से भी इस बात के पर्याप्त सबूत मिलते हैं कि महिला कर्मियों को पुरुष कर्मियों की तुलना में उत्पीड़न का कहीं ज़्यादा सामना करना पड़ता है. 2017 में राजस्थान में 100 महिला पुलिस कर्मियों के बीच किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई कि लगभग 26 प्रतिशत महिला पुलिस कर्मियों ने अपने अधीनस्थों द्वारा और सार्वजनिक जीवन में कामकाज के दौरान यौन उत्पीड़न का सामना किया था. यह कई तरीकों से किया जाता है. उदाहरण के लिए, मज़ाक के ज़रिए, मौखिक हिंसा, इशारों में यौन संबंधों की मांग करना, फिटनेस को लेकर भद्दी टिप्पणियां करना, धमकाना और किसी काम के बदले में किसी चीज़ का दबाव डालना जैसे यौन संबंधों की मांग करते हुए उसके बदले नौकरी से जुड़ी सुविधाएं देने की पेशकश करना. ऐसा बताया गया है कि शहरी महिलाएं निचले-स्तर के पदों की बजाय भारतीय सिविल सेवा के ज़रिए उच्च पदों के लिए आवेदन करने की ज़्यादा संभावना रखती हैं. लेकिन क्या ये सभी कारण महिलाओं को इस पेश दूर कर रहे हैं? सबसे पहली समस्या तो यह है कि तो उन सभी कारकों पर शोध नहीं किया गया है जो महिलाओं को इस पेशे को चुनने से रोकते हैं, जिससे पुलिस सेवा में प्रतिनिधित्व का सवाल और कठिन हो जाता है.
शिक्षाविद लंबे समय से कहते आ रहे हैं कि पुलिस व्यवस्था लैंगिक रूप से तटस्थ नहीं है और अक्सर पुरुषवाद को सम्मानित करती है और उसका महिमामंडन करती है. इसे “पुलिसिया संस्कृति” का नाम दिया गया है, जो महिलाओं को उनके साथियों द्वारा बराबर का दर्जा देने से रोकती हैं और इसके कारण क्षमता के बावजूद जानबूझकर महिलाओं को उच्च पदों पर पहुंचने से रोका जाता है, जिससे उनकी सामाजिक पहचान कमज़ोर होती है. कई अध्ययनों (Brown and Heidensohn; Segrave, and Jackson) से पता चलता है कि 20वीं सदी के आख़िर में महिलाओं को धीरे-धीरे “विशेषज्ञ विभागों” जैसे किशोर अपराध, यौन हिंसा या प्रशासनिक पदों तक सीमित किया जा रहा था जबकि अपराध से लड़ने या रोकने से जुड़ी सारी जिम्मेदारियां पुरुषों के लिए आरक्षित कर दी गई थीं.
महिला पुलिस कर्मियों को अक्सर ‘मैरिज टैक्स’ का बोझ झेलना पड़ता है, यानी कि अगर उनकी शादी किसी पुलिसकर्मी से होती है तो उन्हें अपने पतियों की महत्त्वाकांक्षाओं के लिए अपने करियर की संभावनाओं को ताक पर रखना पड़ता है.
अध्ययनों में बार-बार यह सामने आया है कि इस पेशे में पुरुषों की तुलना महिलाओं के द्वारा पदोन्नति के अवसरों को ठुकराने की संभावना कहीं ज्य़ादा होती है क्योंकि उन पर देखभाल, मातृत्व से जुड़ी ज़िम्मेदारियां होती हैं और इसके लिए कार्यस्थल से लंबी दूरी भी एक बड़ा कारण है. महिला पुलिस कर्मियों को अक्सर ‘मैरिज टैक्स’ का बोझ झेलना पड़ता है, यानी कि अगर उनकी शादी किसी पुलिसकर्मी से होती है तो उन्हें अपने पतियों की महत्त्वाकांक्षाओं के लिए अपने करियर की संभावनाओं को ताक पर रखना पड़ता है. नेतृत्व में असमानता की बात करें, तो निचले पदों से लेकर वरिष्ठ कर्मियों तक सभी महिला पुलिसकर्मियों को इसका सामना करना पड़ता है. भारत की शीर्ष जांच एजेंसियों जैसे केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और रिसर्च एनालिसिस विंग (रॉ) ने आज तक किसी महिला प्रमुख की नियुक्ति नहीं की है. 1908 में फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (FBI) की स्थापना से लेकर आज तक कुल 20 निदेशकों की नियुक्ति (कार्यवाहक निदेशकों को मिलाकर) की गई है, जिनमें से कोई भी महिला नहीं रही है. CNN के अनुसार, न्यू यॉर्क पुलिस विभाग (NYPD) ने अपने 176 साल के इतिहास में 2021 में पहली बार किसी महिला प्रमुख को नियुक्त किया. पुलिस सेवा में ग्लास क्लिफ़ फिनोमेना अवचेतन के स्तर पर भी मौजूद है, जहां संकट की स्थिति में प्रगतिशील सुधार के नाम पर या फिर जब असफलता की संभावना बहुत ज़्यादा हो तो महिलाओं को नेतृत्व दे दिया जाता है.
बिना किसी सुधार के महिला कार्यबल में बढ़ोतरी का कोई मतलब नहीं है. ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों ने यह साबित किया है कि विभागों को और अधिक समावेशी बनाने से महिलाओं की भर्ती और उनकी पेशे से जुड़े रहने की संभावना को बढ़ावा दिया जा सकता है.
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Arundhatie Biswas Kundal was a Senior Fellow Observer Research Foundation India ...
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