Author : AARUSHI JAIN

Published on Sep 15, 2022 Updated 0 Hours ago

डेनमार्क के नक्शेक़दम पर चलकर भारत समान लिंग के जोड़े के द्वारा बच्चा गोद लेने के मामले में दक्षिण एशिया के लिए एक मिसाल कायम कर सकता है.

LGBTQ+ समुदाय के द्वारा संतान गोद लेने के अधिकार का मसला और उससे जुड़े क़ानून में व्याप्त कमियां!

अप्रैल 2022 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की सांसद सुप्रिया सुले ने लोकसभा में एक निजी सदस्य विधेयक (प्राइवेट मेंबर्स बिल) पेश किया जिसका मक़सद विशेष विवाह अधिनियम (स्पेशल मैरिज एक्ट) के तहत समान लिंग के दो लोगों की शादी को वैधता प्रदान करना था. इस विधेयक के तहत एलजीबीटीक्यू+ (लेस्बियन, गे, बाइ-सेक्सुअल, ट्रांस-जेंडर, क्वीर प्लस) जोड़ों के लिए शादी की उम्र 18 वर्ष निर्धारित की गई. वैसे तो समान लिंग के जोड़ों के बीच शादी के मुद्दे पर बहस और विचार-विमर्श लंबे समय से चल रहा है लेकिन इस चर्चा में एक महत्वपूर्ण पहलू जिसे नज़रअंदाज़ किया गया, वो है LGBTQ+ समुदाय के लिए बच्चा गोद लेने और परिवार का अधिकार. विधायी और न्यायिक क़ानूनों में एलजीबीटीक्यू समुदाय के जोड़ों को समानता, भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जीवन और स्वतंत्रता जैसे मूलभूत संवैधानिक अधिकारों से वंचित रखा गया है. जिस समय पूरी दुनिया एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के प्रति ज़्यादा दोस्ताना होने के लिए क़दम उठा रही है, उस वक़्त भारत को भी समान लिंग वाले जोड़ों के बच्चा गोद लेने पर रोक हटाकर ऐसा करने वाला दक्षिण एशिया का पहला देश बनना चाहिए. 

विधायी और न्यायिक क़ानूनों में एलजीबीटीक्यू समुदाय के जोड़ों को समानता, भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जीवन और स्वतंत्रता जैसे मूलभूत संवैधानिक अधिकारों से वंचित रखा गया है.

वैधानिक रुकावटें

भारत में बच्चा गोद लेने पर एकमात्र संहिताबद्ध क़ानून हिंदू दत्तक और भरन-पोषण अधिनियम 1956 (हामा) हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन धर्म के लोगों पर लागू है. इसके तहत जोड़ों के द्वारा बच्चा गोद लेने के लिए वैवाहिक संबंधों और दोनों जीवनसाथी की सहमति को अनिवार्य बनाया गया है. इस अधिनियम में इस्तेमाल किए गए ‘पति’ और ‘पत्नी’ जैसे शब्द क़ानून के दोहरे दृष्टिकोण की तरफ़ ध्यान दिलाते हैं. पारसियों, ईसाइयों और यहूदियों के लिए कोई ख़ास क़ानून नहीं है. मुसलमानों के लिए तो 2014 के शबनम हाशमी फ़ैसले तक बच्चा गोद लेना एक विकल्प भी नहीं था. शबनम हाशमी फ़ैसले के बाद जुवेनाइल जस्टिस एक्ट (जेजे एक्ट) के तहत बिना किसी भेदभाव के बच्चा गोद लेने की इजाज़त दी गई. लेकिन दोनों क़ानूनों में समलैंगिक जोड़ों और ‘लिव इन’ जोड़ों के द्वारा बच्चा गोद लेने के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है. 

संविधान लागू होने के बाद हर नागरिक को ये हक़ है कि जब भी उसे लगे कि उसके मूलभूत अधिकारों का हनन हो रहा है तो उसे समाधान के लिए न्यायालय के पास जाने का अधिकार है.

केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण (कारा) फिलहाल क़ानूनी तौर पर बच्चा गोद लेने के मामले में सबसे बड़ी क़ानूनी संस्था है. इसे अंतर्देशीय बच्चा गोद लेने पर हेग समझौते की भी मान्यता मिली हुई है. वैसे तो कारा ने पिछले दिनों लिव इन संबंध में रहने वाले साझेदारों के बच्चा गोद लेने पर पाबंदी से जुड़े एक सर्कुलर को वापस ले लिया है लेकिन इस तरह के जोड़े 2021 के सरोगेसी रेगुलेशन एक्ट के दायरे से पूरी तरह बाहर हैं. इससे इस मामले को लेकर सरकार के द्वारा अज्ञानता का लबादा ओढ़ने की बात फिर से ज़ाहिर होती है. इस मामले में समलैंगिक जोड़ों के लिए कोई क़दम नहीं उठाया गया है जिससे उन्हें दोनों में से किसी एक अभिभावक के नाम पर बच्चा गोद लेने जैसे दूसरे रास्तों को तलाशना पड़ता है. वकील और ‘हक़: सेंटर फ़ॉर चाइल्ड राइट्स’ की लीगल फेलो तारा नरुला ने इस बात की तरफ़ ध्यान दिलाया कि हामा या जेजे एक्ट के तहत समलैंगिकों के लिए बच्चा गोद लेने का एकमात्र विकल्प किसी एक अभिभावक के द्वारा बच्चे को गोद लेना है. इसका मतलब ये हुआ कि दोनों में से एक जोड़े को अपने अधिकार का बलिदान देना होगा. व्यक्तिगत क़ानून में मौजूदा कमी के साथ-साथ लगता है कि भारत सरकार ने समलैंगिकों के अधिकारों को लेकर अपनी आंखें मूंद ली हैं. 

क्या मौजूदा न्यायिक अड़चनें संविधान के अनुरूप हैं? 

अलग-अलग व्यक्तिगत क़ानूनों की जड़ में वो रीति-रिवाज और परंपराएं हैं जिन पर लोग संविधान बनने से पहले के युग में यकीन करते थे और उनका पालन करते थे. लेकिन संस्कृति एक स्थिर अवधारणा नहीं है, ये बदलते सामाजिक उद्देश्यों और विश्वासों के साथ बदलती और विकसित होती है. संविधान लागू होने के बाद हर नागरिक को ये हक़ है कि जब भी उसे लगे कि उसके मूलभूत अधिकारों का हनन हो रहा है तो उसे समाधान के लिए न्यायालय के पास जाने का अधिकार है. इसका अर्थ ये हुआ कि व्यक्तिगत क़ानून भी संविधान का उल्लंघन नहीं कर सकते जैसा कि अदालतों के द्वारा अलग-अलग फ़ैसलों में कहा गया है. संविधान का उल्लंघन करने पर वो अनुच्छेद 13 के तहत निरस्त हो जाते हैं. 

मौजूदा क़ानून अनुच्छेद 14, जो उचित वर्गीकरण का परीक्षण मुहैया कराता है, के विरोध में है. इसका मतलब ये है कि वर्गीकरण निश्चित रूप से स्पष्ट विशेषता पर होना चाहिए और इस तरह के वर्गीकरण का हासिल किए जाने वाले लक्ष्य के साथ उचित संबंध होना चाहिए. लेकिन ‘समलैंगिक जोड़ों’ को ख़ास तौर पर क़ानून से अलग करने का नतीजा ‘समान लिंग’ को मान्यता देने की लड़ाई में गतिहीनता के रूप में निकला है. इस बात का कोई सबूत नहीं है कि इस तरह समलैंगिकों को अलग करने से एक उचित संबंध बन पाता है. 

इसी तरह संविधान का अनुच्छेद 15 भारत के किसी भी ‘नागरिक’ के ख़िलाफ़, न कि ख़ास तौर से ‘पुरुष’ और ‘महिला’ के ख़िलाफ़, यौन के आधार पर भेदभाव को रोकता है. हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निजता का अधिकार अपने आप में पारिवारिक अधिकारों को समेटे हुए हैं

सामाजिक नैतिकता को सुरक्षित रखना, समलैंगिकों के द्वारा लालन-पालन की अनिश्चितता यानी संतुलित आदर्श (माता-पिता) मुहैया कराना, सामाजिक स्वीकार्यता का डर और बच्चों पर उसका मनोवैज्ञानिक असर कुछ ऐसे उद्देश्य हैं जिन्हें कथित तौर पर हासिल करना है. समाज द्वारा निर्धारित इस तरह की सामाजिक सोच न्यायालय की निष्पक्षता पर दाग़ लगाने और बड़े न्यायिक एवं विधायी फ़ैसलों पर असर डालने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. इस मुद्दे को कोर्ट के सामने 2018 के फ़ैसले, जिसके तहत अनुच्छेद 377 को ऊपरी तौर पर अपराधमुक्त किया गया था, के समय उठाया गया था जहां कोर्ट ने शादी की मर्यादा, सामाजिक समस्याओं, इत्यादि के रूप में आपत्तियों पर विचार किया था. लेकिन इन चिंताओं के विपरीत अलग-अलग अध्ययनों के द्वारा ये साबित हो चुका है कि समान लिंग वाले जोड़ों के द्वारा गोद लिए गए बच्चे ज़्यादा लचीले, खुले दिमाग़ वाले और भावनात्मक तौर पर स्थिर बन जाते हैं. अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन (एपीए) की यौन झुकाव और लैंगिक विविधता पर समिति और कमेटी ऑन वुमेन इन साइकोलॉजी (सीडब्ल्यूपी) के द्वारा साझा रूप से प्रकाशित एक रिपोर्ट भी यही संकेत देती है. 

इसी तरह संविधान का अनुच्छेद 15 भारत के किसी भी ‘नागरिक’ के ख़िलाफ़, न कि ख़ास तौर से ‘पुरुष’ और ‘महिला’ के ख़िलाफ़, यौन के आधार पर भेदभाव को रोकता है. हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निजता का अधिकार अपने आप में पारिवारिक अधिकारों को समेटे हुए हैं: “निजता के मूल में व्यक्तिगत अंतरंगता, पारिवारिक जीवन की मर्यादा, शादी, यौन झुकाव शामिल हैं.” अदालतें सामाजिक नियमों को तय करने और उनमें बदलाव के मामले में सामाजिक इंजीनियर के रूप में काम करती हैं और इस तरह उनके पास राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दूसरी अदालतों और समाजों को प्रभावित करने की शक्ति है. संवैधानिक प्रावधानों के अनुपालन के साथ ‘बच्चों की भलाई’ के मानक को लागू करना इस मामले में सामाजिक संवाद में बदलाव की ज़रूरत की ओर ध्यान दिलाता है. 

LGBTQ+ और दक्षिण एशिया 

इक्वलडेक्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ समलैंगिक जोड़ों को दुनिया के 50 देशों में क़ानूनी रूप से बच्चा गोद लेने की इजाज़त है, एशिया में इज़रायल इकलौता देश है जिसने ये मंज़ूरी दी है. समलैंगिकों के बच्चा गोद लेने के मामले में 50 प्रतिशत क़ानूनी समानता के साथ दक्षिण अमेरिका सबसे आगे है जबकि सिर्फ़ 2 प्रतिशत समानता के साथ एशिया काफ़ी पीछे है. 40 प्रतिशत क़ानूनी समानता के साथ यूरोप दूसरे पायदान पर है और यहां डेनमार्क दुनिया का पहला ऐसा देश है जिसने समलैंगिक साझेदारों के दर्जे के साथ-साथ उनके द्वारा बच्चा गोद लेने को मान्यता दी है. डेनमार्क के इस फ़ैसले के बाद कई यूरोपीय देशों ने इसी तरह के क़दम उठाए हैं और दुनिया भर में इसकी आवाज़ आज भी गूंज रही है, स्लोवेनिया ने 2022 में डेनमार्क जैसा फ़ैसला लिया है

जहां तक दक्षिण एशिया की बात है तो योग्याकार्टा सिद्धांत के 24वें सिद्धांत में कहा गया है कि: “हर किसी को परिवार को पाने का अधिकार है चाहे उसका यौन झुकाव या लैंगिक पहचान कुछ भी हो.” 2006 में प्रकाशित इन सिद्धांतों को थर्ड जेंडर को मान्यता देने के लिए नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने पंत बनाम नेपाल सरकार केस में और भारत के सुप्रीम कोर्ट ने नालसा बनाम भारत सरकार केस में लागू किया. पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका ने भी क्रमश: 2011, 2013 और 2016 में ‘थर्ड जेंडर’ को पूरी तरह मान्यता दी. भूटान ने 2021 में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किया जबकि अफ़ग़ानिस्तान और मालदीव जैसे देशों में अभी भी समलैंगिकों को सज़ा देने का प्रावधान है.  

जहां तक दक्षिण एशिया की बात है तो योग्याकार्टा सिद्धांत के 24वें सिद्धांत में कहा गया है कि: “हर किसी को परिवार को पाने का अधिकार है चाहे उसका यौन झुकाव या लैंगिक पहचान कुछ भी हो.”

एलजीबीटीक्यू+ जोड़ों को लेकर अपेक्षाकृत ज़्यादा प्रमाणित नियमों के साथ और मौजूदा क़ानूनों को उनके लिए समान बनाकर भारत दक्षिण एशिया के देशों के लिए उसी तरह मिसाल स्थापित कर सकता है जैसे डेनमार्क ने यूरोपीय देशों के लिए किया है. विधि और कार्मिक मंत्रालय को लेकर संसद की स्थायी समिति के द्वारा एक व्यावहारिक सुझाव ये दिया गया है कि संसद में एक समान नागरिक संहिता लाई जाए और हिंदू दत्तक एवं भरन-पोषण अधिनियम और जुवेनाइल जस्टिस एक्ट को सुसंगत किया जाए. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल ही में केंद्र सरकार को एक नोटिस जारी कर सभी के लिए बच्चा गोद लेने और संरक्षण क़ानून को एक समान लागू करने की मांग की है. 

क़ानून, अदालतें, बहस और चर्चा समाज पर गहरा असर डालती हैं और सामाजिक बदलाव को नियंत्रित करती हैं. नवतेज सिंह जोहर फ़ैसले के पहले ट्रांसजेंडर और समलैंगिकता को मान्यता देने को लेकर समाज में मिले-जुले विचार थे लेकिन इस ऐतिहासिक फ़ैसले के बाद धीरे-धीरे सामाजिक स्वीकार्यता मिलने लगी. जब एलजीबीटीक्यू+ के द्वारा बच्चों के लालन-पालन में समानता के मामले में विधायी एवं न्यायिक क़दम उठाए जाएंगे तब समान लिंग के जोड़ों के द्वारा बच्चा गोद लेने को लेकर अंतर्निहित सामाजिक रूढ़ियों का भी मुक़ाबला धीरे-धीरे किया जा सकता है.

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