Author : Kabir Taneja

Published on Mar 06, 2021 Updated 0 Hours ago

तालिबान की कोशिश अफ़ग़ानिस्तान में करीब दो दशक से जारी संघर्ष को ख़त्म कर काबुल में ख़ुद को एक बार फिर से अहम मुकाम पर पहुंचाने की है.

तालिबान की कामयाबियों का दूसरे जिहादी गुटों पर असर और उनका नज़रिया!

जून 2013 में तालिबान ने क़तर के दोहा में अपना पहला अंतरराष्ट्रीय दफ़्तर खोला था. उस समय तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में राष्ट्रपति हामिद करज़ई की अगुवाई वाली सरकार और वहां अमेरिका और नेटो की सैन्य मौजूदगी के ख़िलाफ़ जंग छेड़ रखी थी. दोहा में खोला गया ये दफ़्तर तालिबान द्वारा बाक़ी दुनिया से ठोस, योजनाबद्ध और बेहतर तैयारी के साथ रिश्ते कायम करने की कोशिश का एक अहम मौका बना. तालिबान की कोशिश अफ़ग़ानिस्तान में करीब दो दशक से जारी संघर्ष को ख़त्म कर काबुल में ख़ुद को एक बार फिर से अहम मुकाम पर पहुंचाने की है. 9/11 के बाद तालिबान ने अमेरिका के नेतृत्व में हुए हमलों के चलते अपनी ये सत्ता गंवा दी थी.

तालिबान के हक़्क़ानी नेटवर्क के अनस हक़्क़ानी के मुताबिक, “अगर हम खुले तौर पर ये ना भी कहें कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की हार हो गई है तो भी ये बात किसी से छिपी नहीं है कि वाकई में अमेरिका यहां पस्त पड़ गया है”. हक़्क़ानी का ये बयान तब आया था जब पश्चिम के दो अगवा हुए प्रोफ़ेसरों के बदले उन्हें 2019 में जेल से रिहा किया गया था. तालिबान ने इन दोनों प्रोफ़ेसरों को 2016 से बंधक बना रखा था.

पश्चिम की बड़ी ताक़तों में धीरे-धीरे ये सोच घर करती जा रही है कि तालिबान को पूरी तरह से हरा पाना अब आगे संभव नहीं रह गया है

क्या तालिबान को पूरी तरह से हरा पाना संभव है?

पिछले कुछ सालों में तालिबान ने दोहा में अपने राजनीतिक दफ़्तर का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय विमर्श को अपने पक्ष में और मज़बूत करने के लिए किया है. ख़ासकर हाल के वर्षों में अफ़ग़ानिस्तान में नेटो और अमेरिका द्वारा जारी अभियानों के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन में गिरावट देखी गई है. पश्चिम की बड़ी ताक़तों में धीरे-धीरे ये सोच घर करती जा रही है कि तालिबान को पूरी तरह से हरा पाना अब आगे संभव नहीं रह गया है. इसी सोच की वजह से डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति रहते अमेरिका ने एक प्रयास शुरू किया था. इसका नेतृत्व अफ़ग़ानिस्तान में सुलह कायम करने के मकसद से नियुक्त किए गए ट्रंप के विशेष दूत एंबेसडर ज़लमे खालिज़ाद कर रहे थे. इस प्रयास का लक्ष्य अफ़ग़ान युद्ध को ख़त्म करना और वहां से अमेरिकी फ़ौज की वापसी से जुड़ी शर्तें तय करना था. इस प्रक्रिया को 1 मई 2021 तक पूरा कर लिया जाना है.

वैसे तो तालिबान जिन गतिविधियों में शामिल है उन्हें विद्रोही गतिविधियों की ही संज्ञा दी जाएगी. तालिबान के साथ वार्ताओं के इस दौर के बावजूद यहां ये याद रखना ज़रूरी हो जाता है कि अतीत में अफ़ग़ानिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य पर उसका नियंत्रण रहा है. इससे भी ज़्यादा अहम बात ये है कि 1996 के बाद करीब आधे दशक तक तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के आधे से ज़्यादा भूभाग पर कब्ज़ा कर रखा था. लिहाजा समझौता वार्ताओं के दौरान उसे भले ही एक जिहादी विद्रोही संगठन के तौर पर देखा जाता हो,  पर वो खुद को अफ़ग़ानिस्तान की भूतपूर्व राजसत्ता के रूप में ही देखता है. एक ऐसी सत्ता, जिसे अमेरिका ने अपनी फ़ौजी कार्रवाई के दम पर कुर्सी से बेदखल कर दिया था. तालिबान का यही नज़रिया 2015 के बाद से उसकी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति- वार्ताओं और समझौता प्रक्रियाओं का मुख्य दिशानिर्देशक रहा है.

तालिबान को मिलता एक संवैधानिक दर्ज़ा

तालिबान के प्रतिनिधियों ने 2015 से अब तक हज़ारों किमी. की हवाई यात्राएं कर डाली हैं. शायद ही दुनिया के किसी और विद्रोही संगठन के लोगों ने वार्ताओं के मकसद से इतनी लंबी वाणिज्यिक हवाई यात्राएं की होंगी. 2015 में तालिबान के नेताओं ने नॉर्वे से चीन तक की यात्रा की थी. हालांकि, अब उनकी यात्राएं प्रमुख रूप से अपने पड़ोसी देशों ईरान और पाकिस्तान तक ही सीमित रह गई हैं. (बेशक ये पाकिस्तानी सत्ता ही है जिसने ऐतिहासिक रूप से तालिबानी आंदोलन की सांस्कृतिक और सामरिक रूप से उभरने में मदद की थी). हाल ही में तालिबानी नेताओं ने तुर्कमेनिस्तान की यात्रा की थी. इससे इस बात की झलक मिलती है कि तालिबान अपने आसपड़ोस में ख़ुद को किस तरह से पेश कर रहा है या फिर ये कि उसके पड़ोसी किस रूप में उसे देखें इसको लेकर उसकी ख़्वाहिश क्या है. तुर्कमेनिस्तान के साथ अफ़ग़ानिस्तान काफी लंबी सरहद साझा करता है. एक दिलचस्प बात ये है कि तालिबान और तुर्कमानी नेतृत्व के बीच अश्गाबात में हुई बातचीत में तुर्कमेनिस्तान ने लंबे समय से ठंडे बस्ते में पड़ी तुर्कमेनिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान-भारत (टीएपीआई) गैस पाइपलाइन का मुद्दा उठाया था. तालिबानी प्रवक्ता मोहम्मद सुहैल शाहीन के मुताबिक, “इसमें कोई शक़ नहीं कि टीएपीआई, टीएपी और अफ़ग़ानिस्तान से तुर्कमेनिस्तान तक जाने वाली रेल-सड़क परियोजनाओं का निर्माण कार्य अगर बिना किसी देरी के शुरू किया जाता है तो इससे शांति स्थापना के लक्ष्य की प्राप्ति में मदद मिलेगी” शाहीन का आगे कहना था कि तालिबान देश में टीएपीआई पाइपलाइन समेत बाकी तमाम आर्थिक और बुनियादी ढांचों से जुड़ी परियोजनाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करेगा. जिस तरह से तालिबान अफ़गानिस्तान की सरकार के समानांतर व्यापार और आर्थिक मसलों पर चर्चाएं कर रहा है उससे तो यही लगता है कि तालिबान को एक संगठन के रूप में वैधानिकता मिल रही है. इससे ऐसा भी लगने लगा है कि अफ़ग़ानिस्तान के राजनीतिक भविष्य में इसकी बड़ी भूमिका रहने वाली है जिसे दुनिया भर की स्वीकृति भी मिलती जा रही है.

जिस तरह से तालिबान अफ़गानिस्तान की सरकार के समानांतर व्यापार और आर्थिक मसलों पर चर्चाएं कर रहा है उससे तो यही लगता है कि तालिबान को एक संगठन के रूप में वैधानिकता मिल रही है. 

अंतरराष्ट्रीय पटल पर तालिबान जिस तरह से अपने हाथ-पांव मार रहा है उससे इसी प्रकार के दूसरे लड़ाका संगठनों को भी ऐसा ही रास्ता अपनाने की नसीहत मिलेगी. ख़ासतौर से उन संगठनों को, जो किसी ख़ास भूभाग पर कब्ज़ा जमाए हुए हैं और जिनके और भी कई साझा परिवर्तनशील निजी हित हैं. ग़ौरतलब है कि सोवियत संघ के आक्रमण के बाद तालिबान की जड़ें एक विद्रोही संगठन के तौर पर जमनी शुरू हुई थीं. इसके बाद अफ़ग़ानिस्तान की मुख्य धारा में तालिबान का प्रवेश हुआ और तालिबान ने ख़ुद को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के लिए और ज़्यादा स्वीकार्य बनाने की दिशा में काम करना शुरू कर दिया. पिछले कुछ सालों में अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान द्वारा हासिल की गई ‘फ़तहों’ और अमेरिका-तालिबान समझौते को भी इसी सिलसिले में गिने जा सकते हैं. हथियारबंद विद्रोही संगठनों के समाज के आम जनजीवन और मुख्यधारा में प्रवेश करने, शांतिपूर्ण, और अधिक स्वीकार्य तौर पर ख़ुद को ढालने के उदाहरण दूसरी जगहों में भी देखे जाने लगे हैं. जैसे लेबनान में चुनावों के ज़रिए हिज़्बुल्लाह ने संसद में प्रतिनिधित्व हासिल किया है.

सीरिया का एक प्रमुख जिहादी संगठन हयात तहरीर अल-शाम (एचटीएस) भी इसी रुझान की एक मिसाल है. इस संगठन ने ख़ुद को एक नरमपंथी जिहादी संगठन के तौर पर पेश करना शुरू कर दिया है ताकि वो अपना भविष्य सुरक्षित कर सके. इस संगठन की उत्पत्ति अल-क़ायदा के सहयोगी जब्हात अल-नुसरा और तथाकथित इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस या अरबी में दयेश) के पूर्व सहयोगी संगठन के रूप में हुई थी. अमेरिका और रूस ने इसे आतंकी संगठन करार दे रखा है. एचटीएस का नेता अबु मोहम्मद अल-जोलानी अमेरिकी पत्रकार मार्टिन स्मिथ के साथ एक तस्वीर मे नज़र आया था. स्मिथ ने सीरिया के अशांत इलाक़े इदलिब में पीबीएस के लिए उसका इंटरव्यू किया था. युद्धक्षेत्र में सैनिक वेशभूषा में नज़र आने वाला जोलानी इस तस्वीर में स्मिथ के साथ चटक शूट और शर्ट में नज़र आया था. इदलिब सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद की सरकार, रूस, तुर्की और अमेरिका के बीच के टकराव का एक बड़ा केंद्र है. सीरिया का ये आख़िरी बड़ा विद्रोही गढ़ भूराजनीतिक तौर पर काफी अहम इलाक़ा बना हुआ है. यहां पर एचटीएस सौदा बनाने-बिगाड़ने के खेल में अपनी भूमिका निभाता रहा है. जिस वक़्त जोलानी का ये इंटरव्यू सामने आया था उस वक़्त अमेरिकी विदेश विभाग के रिवॉर्ड्स फ़ॉर जस्टिस अरेबिक पेज ने ट्विटर पर डाले गए पोस्ट में जोलानी को याद दिलाया था कि उसके नाम पर अब भी 1 करोड़ डॉलर का इनाम है.

युद्धक्षेत्र में सैनिक वेशभूषा में नज़र आने वाला जोलानी इस तस्वीर में स्मिथ के साथ चटक शूट और शर्ट में नज़र आया था. इदलिब सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद की सरकार, रूस, तुर्की और अमेरिका के बीच के टकराव का एक बड़ा केंद्र है

करीब एक साल पहले फ़रवरी 2020 में जोलानी ने इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप को भी एक इंटरव्यू दिया था. उस समय एचटीएस को नरमपंथियों और उग्रवादियों के बीच विभाजित करने को लेकर तुर्की पर रूसी दबाव लगातार बढ़ता जा रहा था. जोलानी ने तब बताया था कि कैसे एचटीएस अब एक समावेशी स्थानीय संगठन बन गया है और उसका अब आगे सीरिया को विदेशी हमलों के लिए इस्तेमाल किए जाने में कोई दिलचस्पी नहीं है. बताया जाता है कि अपनी बात को साबित करने के लिए एचटीएस ने यूरोप से आए विदेशी लड़ाकों और अल-क़ायदा समर्थित संगठनों जैसे हुरस अल-दीन के नेताओं को गिरफ़्तार भी किया था. इन गिरफ़्तारियों के पीछे का मकसद एचटीएस को वैचारिक रूप से हिसंक संगठनों से अलग दिखाना था. इन संगठनों ने असद के ख़िलाफ़ चल रहे सीरियाई संघर्ष से ख़ुद को जोड़ लिया है. हाल ही में तालिबान ने एक बयान जारी कर अपने कैडर से ये कहा है कि वो अपने बीच विदेशी लड़ाकों को शामिल न करें. अमेरिका के साथ हुए समझौते में तालिबान ने ऐसा करने का वादा भी किया था. हालांकि, यहां भी, तालिबान ने बेहद चालाकी से ख़ुद को इस तरह पेश किया है मानो वो इस समझौते का पूरी तरह से पालन कर रहा है. इतना ही नहीं उसने ग़नी सरकार और अमेरिका पर समझौते में किए गए वादों से भटकने का आरोप भी लगाया है.

एचटीएस द्वारा अपनी छवि बदलने की कोशिश

एचटीएस द्वारा अपनी छवि बदलने की कोशिशों को लेकर जो राय सामने आ रही है वो भी दिलचस्प हैं. अमेरिकी पत्रकार के साथ जोलानी की तस्वीर पर आई प्रतिक्रियाओं पर स्कॉलर एलिज़ाबेथ सुरकोव ने लिखा, “पीबीएस के पत्रकार के साथ एचटीएस के नेता की छपी तस्वीर की इदलिब के निवासियों ने कड़ी आलोचना की. यहां तक कि इसको लेकर तरह-तरह की अटकलों का दौर शुरू हो गया. तब एचटीएस ने दलील दी कि जोलानी के इंटरव्यू का मकसद बाक़ी दुनिया द्वारा इस इलाक़े पर थोपे गए अलगाव को दूर करना और विदेशी श्रोताओं तक अपनी बात पहुंचाना था”

हालांकि, ऐसा नहीं है कि अफ़ग़ान शांति वार्ताओं और अमेरिका के साथ समझौते से तालिबान द्वारा हासिल किए गए लक्ष्यों को सिर्फ़ एचटीएस ही अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल कर रहा हो. तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) ने भी पिछले कुछ महीनों में अपनी बेहतर छवि बनाने और बाक़ी दुनिया तक अपनी पहुंच बनाने के काम को गंभीरता से लिया है. इसी कड़ी में उसने और ज़्यादा औपचारिक तरीके से संगठन को पेश करना चालू कर दिया है. सोशल मीडिया और ऑनलाइन प्रोपेगैंडा उपायों के ज़रिए इस संगठन ने ख़ुद को पेशेवराना अंदाज़ में खड़ा किया है और अपनी छवि बदलने में कामयाबी पाई है. आईएसआईएस द्वारा हासिल की गई कामयाबियों की तरह ही टीटीपी भी अपने असर वाले इलाक़े को अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान डूरंड रेखा के पार और आगे तक बढ़ाना चाहता है. स्कॉलर टोरे हैमिंग का कहना है कि टीटीपी ने इससे पहले सीरिया में आपसी टकराव में उलझे विभिन्न जिहादी संगठनों के बीच सुलह कराने के लिए अपना प्रतिनिधिमंडल भेजने की पेशकश भी की थी.

अगर भारत खुले तौर पर तालिबान से बात करता है तो उसके अपने भूभाग में सक्रिय विद्रोही और आतंकी संगठनों को वैधानिकता मिलने की संभावना से जुड़े सवाल खड़े होने लगेंगे.

ऊपर के उदाहरणों से साफ़ पता चलता कि आतंकी संगठनों को मुख्यधारा में शामिल कराने की एक कोशिश चल रही है. इसके पीछे की सोच यही है कि या तो उन्हें मुख्यधारा में शामिल कर लिया जाए या फिर उन्हें एक हद तक राजनीतिक और सामाजिक तौर पर जायज़ दर्जा दे दिया जाए. लंबे समय से चले आ रहे संघर्षों को ख़त्म करने के एक उपाय के तौर पर इसका इस्तेमाल किया जा रहा है. भारत जैसे देश के हिसाब से देखें तो कारण स्पष्ट हो जाते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में अपने हितों के बावजूद भारत ने तालिबान के साथ सार्वजनिक तौर पर कोई संपर्क क्यों कायम नहीं किया है. अगर भारत खुले तौर पर तालिबान से बात करता है तो उसके अपने भूभाग में सक्रिय विद्रोही और आतंकी संगठनों को वैधानिकता मिलने की संभावना से जुड़े सवाल खड़े होने लगेंगे. विद्रोही उग्रवादी संगठनों को राजनीतिक या संस्थागत रूप से वैधानिकता देना कभी भी किसी राजसत्ता का पहला विकल्प नहीं होता है. इसका इस्तेमाल अक्सर आख़िरी उपाय के तौर पर किया जाता है. हिंसा और टकराव को ख़त्म करने के लिए विद्रोही संगठनों या आतंकी गुटों को मुख्य धारा में शामिल कराने की प्रक्रिया के लिए अक्सर महंगी क़ीमत चुकानी होती है. अमेरिका के साथ वार्ता की मेज़ पर बैठे तालिबान के हाथों में मज़बूत पत्ते हैं. इससे पता चलता है कि हम जिस महंगी क़ीमत की बात कर रहे हैं दरअसल वो क्या है. ख़ासकर दक्षिण एशिया के भूराजनीतिक परिदृश्य के हिसाब से देखें तो इस इलाक़े के पास किसी दूर बैठे देश अमेरिका की तरह दूरी का लाभ नहीं है.

जब कभी एक जायज़ राजनीतिक किरदार के तौर पर तालिबान को अफ़ग़ान संसद में फिर से घुसने में कामयाबी मिलेगी तब इसी तरह की विचारधारा वाले दूसरे संगठन आने वाले दशकों तक इसे अपनी फ़तह मान जश्न मनाएंगे. तालिबान के मिसाल को एक विसंगति या अपवाद के तौर पर ही देखा जाना चाहिए. इस प्रक्रिया को राजसत्ताओं की ख़राब विदेश नीतियों और जंग छेड़ने के उससे भी बुरे फ़ैसलों के नतीजों के तौर पर देखते हुए एक सबक के तौर पर लिया जाना चाहिए. इसे उन विचारधाराओं और कार्यों को जायज़ ठहराने के मॉडल के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए जिनसे हमें दरअसल राजनीतिक और सामाजिक मोर्चों पर लड़ने की ज़रूरत है और हमें लड़ना भी चाहिए.

 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.