Author : Kunal Singh

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jun 17, 2024 Updated 1 Hours ago

भारत और अमेरिका के बीच सामरिक मेलजोल कमज़ोर हो सकता है क्योंकि अमेरिका मिडिल ईस्ट और यूरेशिया में चल रहे संघर्षों पर ज़्यादा ध्यान दे रहा है.

भारत-अमेरिका के रणनीतिक मेलजोल में नज़र आते उतार-चढ़ाव!

अमेरिका में एक सिख अलगाववादी की हत्या की कोशिश भारत और अमेरिका के बीच झगड़े की जड़ बन गई है. इसकी वजह से दोनों देशों की खुफिया एजेंसियां अब एक-दूसरे पर निशाना साध रही हैं. इस बात की संभावना है कि इस मुद्दे से अगर समझदारी से निपटा नहीं गया तो ये द्विपक्षीय संबंधों में और ज़्यादा समस्या पैदा कर सकता है. हालांकि ये मुद्दा सिर्फ लक्षण के बारे में बताता है, भारत-अमेरिका संबंधों में समस्या का कारण नहीं बताता है. अगर संरचनात्मक कारक (स्ट्रक्चरल फैक्टर्स) भारत और अमेरिका के बीच मज़बूत सामरिक मेलजोल की तरफ इशारा करते तो कथित हत्या की कोशिश जैसे मुद्दे से चुपचाप और तेज़ी से निपट लिया जाता. 

ये सबको अच्छी तरह मालूम है कि भारत और अमेरिका का सामरिक मेलजोल चीन के द्वारा पेश साझा ख़तरों के कारण है. जितना ज़्यादा अमेरिका रूस या किसी अन्य विरोधी पर ध्यान देता है और भारत पाकिस्तान पर ध्यान देता है, उतना ज़्यादा उनका सामरिक मेलजोल कमज़ोर होता है.

ये सबको अच्छी तरह मालूम है कि भारत और अमेरिका का सामरिक मेलजोल चीन के द्वारा पेश साझा ख़तरों के कारण है. जितना ज़्यादा अमेरिका रूस या किसी अन्य विरोधी पर ध्यान देता है और भारत पाकिस्तान पर ध्यान देता है, उतना ज़्यादा उनका सामरिक मेलजोल कमज़ोर होता है. रूस पर अमेरिका का ध्यान सबसे ज़्यादा नुकसान पहुंचाने वाला फैक्टर है क्योंकि रूस भारत का सबसे प्रमुख सैन्य सप्लायर है. अगर अमेरिका और रूस आमने-सामने हैं तो इससे रूस के द्वारा भारत को सैन्य सप्लाई पहुंचाने की क्षमता कमज़ोर होती है. अगर भारत रूस के सप्लायर्स से बड़ी मात्रा में सैन्य ख़रीदारी की दिशा में आगे बढ़ता है तो इससे भारत पर भी आर्थिक प्रतिबंधों का ख़तरा पैदा होता है. मौजूदा रूस-यूक्रेन युद्ध में अमेरिकी सहायता यूक्रेन की रक्षा और जवाबी हमले की मज़बूती बढ़ाती है. इसलिए रूस को सैन्य और कूटनीतिक समर्थन के लिए चीन पर अपनी निर्भरता बढ़ानी पड़ी है. इसकी वजह से रूस की स्वायत्तता में कमी आई है और इसके परिणामस्वरूप भारत-चीन संघर्ष की स्थिति में भारत के साथ रक्षा समझौतों का सम्मान करने की रूस की क्षमता पर भी असर पड़ता है. ये मान लिया गया है कि कम या मध्यम अवधि में भारत के प्रमुख सैन्य सप्लायर के रूप में कोई दूसरा देश रूस की जगह नहीं ले सकता है. ये भारत के द्वारा मौजूदा रक्षा स्वदेशीकरण की कोशिशों के बावजूद एक उचित मान्यता है.  

इंडो-पैसिफिक की जगह सामरिक रूप से अमेरिका की नज़र में रूस की तरफ बदलाव

रूस-यूक्रेन संघर्ष ने अमेरिका का ध्यान चीन से दूर कर दिया है और इसने भारत और अमेरिका के बीच सामरिक मेलजोल काफी हद तक कम करने में योगदान दिया है. बजटीय आवंटन पर एक सामान्य नज़र डालने से पता चलता है कि अमेरिका रूस के ख़िलाफ़ युद्ध में यूक्रेन के समर्थन को अपनी सबसे बड़ी प्राथमिकता मानता है. अमेरिकी कांग्रेस के द्वारा पिछले दिनों पारित 95 अरब अमेरिकी डॉलर के सहायता पैकेज में से 61 अरब अमेरिकी डॉलर की बड़ी रकम यूक्रेन के लिए है जबकि चीन का मुकाबला करने के हिसाब से महत्वपूर्ण क्षेत्र इंडो-पैसिफिक के लिए सिर्फ 8 अरब अमेरिकी डॉलर है. फरवरी 2022 में युद्ध की शुरुआत के बाद से अमेरिका ने कुल मिलाकर 175 अरब अमेरिकी डॉलर युद्ध में यूक्रेन की मदद के लिए दिया है. इसके अलावा मध्य पूर्व में युद्ध ने अमेरिका का ध्यान दूसरी तरफ खींचा है और सामान्य रूप से इंडो-पैसिफिक एवं विशेष रूप से भारत को उपेक्षा का सामना करना पड़ा है. इससे पहले अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि के रूप में भारत के आमंत्रण को ठुकराया था. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने इस साल दो बार अपनी भारत की यात्रा टाली है. साफ तौर पर मौजूदा अमेरिकी प्रशासन के लिए भारत के साथ संबंध कोई प्राथमिकता नहीं है.

अगर अमेरिकी सहायता युद्ध के मैदान में यूक्रेन की सफलता में योगदान देता है तो अतीत की तरह एक बार फिर प्रलोभन मिलेगा कि युद्ध को तब तक जारी रखा जाए जब तक रूस की हार नहीं होती है. वहीं जब यूक्रेन को झटका लगता है तो फिर से ये बातचीत के ज़रिए युद्ध को ख़त्म करने का सही समय नहीं माना जाता है क्योंकि तब रूस अधिक मांग करेगा. 

ये दलील दी जा सकती है कि रूस को कमज़ोर करने की तरफ मौजूदा बदलाव कुछ समय के लिए ही है और अमेरिका एक बार फिर चीन को रोकने, काबू करने और ज़रूरत पड़ी तो लड़ने के लिए आएगा. लेकिन इस दलील के साथ दो समस्याएं हैं. पहली समस्या ये कि लगातार सहायता देने से आगे अमेरिका के पास यूक्रेन में युद्ध ख़त्म करने के लिए कोई योजना नहीं है. जैसा कि तीन प्रमुख अमेरिका विशेषज्ञों ने पिछले दिनों कहा, “ऐसा लगता है कि पैसे बहाने की कोशिश के अलावा कोई योजना नहीं है. नई सहायता छह महीने से लेकर 18 महीने तक रह सकती है. इससे तभी तक काम चलेगा.” अगर अमेरिकी सहायता युद्ध के मैदान में यूक्रेन की सफलता में योगदान देता है तो अतीत की तरह एक बार फिर प्रलोभन मिलेगा कि युद्ध को तब तक जारी रखा जाए जब तक रूस की हार नहीं होती है. वहीं जब यूक्रेन को झटका लगता है तो फिर से ये बातचीत के ज़रिए युद्ध को ख़त्म करने का सही समय नहीं माना जाता है क्योंकि तब रूस अधिक मांग करेगा. दूसरी समस्या ये है कि ऐसा लगता है कि रूस को लेकर अमेरिकी सामरिक समुदाय के सदस्यों में चीन की तुलना में अधिक भावनात्मक प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है. जो कोई भी यूक्रेन को दी जाने वाली सहायता की आलोचना करता है या इसके पीछे के तर्क या प्रभाव पर थोड़ा सा भी सवाल उठाता है, उसे पुतिन समर्थक गद्दार बता दिया जाता है. भारतीय इसको समझते हैं और वो इस समस्या के शिकार भी रहे हैं. भले ही चीन एक बहुत बड़ा ख़तरा है लेकिन लंबे समय से और कभी-कभी आज भी ज़्यादातर भारतीयों ने पाकिस्तान से ख़तरे पर ध्यान केंद्रित किया और उसे प्राथमिकता दी है. कुछ-कुछ वैसा ही आज अमेरिका में हो रहा है. 

अमेरिका रूस के ख़िलाफ़ अपने सहयोगियों और साझेदारों से अधिक मेलजोल चाहता है. उम्मीद के मुताबिक दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया जैसे दूर के देशों ने यूक्रेन को सैन्य सहायता भेजी है. पाकिस्तान, जो एक बार फिर अमेरिका की नज़रों में अच्छा हो गया है, ने भी यूक्रेन को हथियार भेजे हैं. दूसरी तरफ, अमेरिका और पश्चिमी देशों में भारत को एक ऐसे देश के रूप में देखा जाता है जिसने अवसरवादी बनते हुए युद्ध का फायदा उठाकर रूस से ज़्यादा तेल ख़रीदा है. भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने भी पिछले दिनों ये दावा किया कि रूस से तेल न ख़रीदने को लेकर “बहुत ज़्यादा दबाव” था लेकिन भारत ने झुकने से इनकार कर दिया. 

चीन की चुनौती क्या कहती है? 

क्या इन सभी बातों का मतलब ये है कि चीन को लेकर अमेरिका बिल्कुल भी गंभीर नहीं है? और अगर ऐसा है तो चीन की चुनौती से निपटने के लिए अमेरिका को भारत की ज़रूरत नहीं पड़ेगी? इन सवालों का जवाब दो भागों में है. पहला, ऐसे संकेत हैं कि अमेरिका को भरोसा है कि कई विरोधियों से निपटने के लिए वो पर्याप्त रूप से मज़बूत ताकत है. जब ये पूछा गया कि क्या अमेरिका यूक्रेन और गज़ा के युद्ध से एक साथ निपट सकता है तो राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जवाब दिया: “भगवान के लिए हम संयुक्त राज्य अमेरिका हैं. इतिहास में सबसे ताकतवर देश, सिर्फ दुनिया में नहीं बल्कि दुनिया के इतिहास में. हम दोनों युद्धों का ध्यान रख सकते हैं और फिर भी अपनी समग्र अंतर्राष्ट्रीय रक्षा बनाए रख सकते हैं.” असाधारण अमेरिकी ताकत के बारे में ये बयान देश में मुख्यधारा के कई विश्लेषणों के अनुरूप है जिनसे पता चलता है कि उसके विरोधी कितने कमज़ोर हैं. यूक्रेन युद्ध में ख़राब प्रदर्शन के लिए रूस का अक्सर मज़ाक उड़ाया जाता है. रूस के द्वारा ईरान और उत्तर कोरिया से सैन्य सप्लाई का सहारा लेने के तथ्य को अमेरिका के विरोधियों की कमज़ोरी के सबूत के रूप में पेश किया जाता है. इसी तरह पिछले दिनों इज़रायल के साथ लड़ाई के बाद अब ईरान की मिसाइल को भी अविश्वसनीय माना जाता है. चीन से चुनौती को लेकर अमेरिका में राय ज़्यादा बंटी हुई है. अगर चीन के अलावा बाकी विरोधी कमज़ोर हैं तो “इतिहास में सबसे ताकतवर देश” अमेरिका को चीन से निपटने के लिए तैयारी करते समय उन देशों का मुकाबला करने में बहुत ज़्यादा नुकसान की आशंका नहीं है. 

दूसरा, इस नतीजे पर पहुंचना आसान है कि इंडो-पैसिफिक में संघर्ष की स्थिति में अमेरिका के लिए भारत की उपयोगिता सीमित होगी. इंडो-पैसिफिक में जिस अनिश्चित घटना की सबसे ज़्यादा चर्चा होती है वो है ताइवान पर चीन का आक्रमण या नौसैनिक घेराबंदी की आशंका. अमेरिकी सेना को ताइवान की रक्षा में शामिल होना पड़ सकता है. ये अक्सर कहा जाता है कि अमेरिका और चीन के बीच इस तरह के सैन्य संघर्ष में भारत फंसने से परहेज़ करेगा. हालांकि इसका ये मतलब नहीं है कि भारत कुछ नहीं करेगा. भारत के द्वारा दो अहम कदम उठाए जाने की संभावना है और इनसे अमेरिका को लाभ होगा. पहला, चीन की दक्षिणी सीमा पर भारतीय सेना की लगातार और संभवत: सतर्क मौजूदगी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के लिए मुश्किल स्थिति बनाएगी. दूसरा, चीन पर आर्थिक प्रतिबंध को लागू करने में भारत अमेरिका के साथ सहयोग करेगा. 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत को एक मैन्युफैक्चरिंग महाशक्ति बनाना चाहते हैं लेकिन इसमें अभी तक उन्हें मिली-जुली सफलता ही मिली है. अगर अमेरिका और यूरोप चीन पर सख्त प्रतिबंध लगाते हैं तो ये भारत के लिए अपनी उत्पादन क्षमता को मज़बूत करने और चीन के साथ बड़े पैमाने पर व्यापार असंतुलन को कम करने का सुनहरा मौका होगा.

भारत के लिए समस्या ये है कि वो दोनों कदम उठा सकता है और वो भी अमेरिका से किसी प्रोत्साहन की आवश्यकता के बिना. पिछले दशक में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर घुसपैठ और गतिरोध में बढ़ोतरी के बाद भारतीय बल चीन के साथ लंबी और विवादित सीमा पर चैन से नहीं बैठ सकते. इसके अलावा चीन सीमा पर एक और समस्या पैदा कर सकता है. वो या तो भारत को अमेरिका की मदद करने से रोक सकता है या अमेरिका को भारतीय सहयोग के जवाब में प्रतिबंध लगा सकता है. वैसे प्रतिबंधों की बात करें तो चीन की आर्थिक ताकत को कम करना न सिर्फ़ अमेरिका या ताइवान बल्कि भारत के हित में भी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत को एक मैन्युफैक्चरिंग महाशक्ति बनाना चाहते हैं लेकिन इसमें अभी तक उन्हें मिली-जुली सफलता ही मिली है. अगर अमेरिका और यूरोप चीन पर सख्त प्रतिबंध लगाते हैं तो ये भारत के लिए अपनी उत्पादन क्षमता को मज़बूत करने और चीन के साथ बड़े पैमाने पर व्यापार असंतुलन को कम करने का सुनहरा मौका होगा. दूसरे शब्दों में कहें तो भारत का सहयोग ‘हासिल’ करने के लिए अमेरिका को कुछ भी ‘देने’ की ज़रूरत नहीं है. भारत के पास फायदा उठाने का मौका नहीं है और इंडो-पैसिफिक में अमेरिका के कई दूसरे सहयोगी हैं. 

इसमें कोई संदेह नहीं है कि पिछले 25 वर्षों में भारत-अमेरिका संबंधों ने एक लंबा रास्ता तय किया है लेकिन अब समय आ गया है कि हम अतीत की उपलब्धियों का गुणगान करने से आगे बढ़ें. आज अगर ध्यान दें तो ऐसा लगता है कि संबंधों में खटास आ रही है क्योंकि इसकी बुनियाद में जो सामरिक मज़बूती थी वो कमज़ोर हो रही है. 

भारत-अमेरिका सबंधों में ठहराव

निश्चित तौर पर भारत-अमेरिका संबंधों में कुछ नई पहल हुई हैं. अमेरिका ने भारत में जेट इंजन के निर्माण के लिए GE-HAL के समझौते को हरी झंडी दी है. ये ऐसा कदम है जिसे “क्रांतिकारी” बताया गया है. इसके अलावा भारत और अमेरिका ने मई 2022 में क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजी (महत्वपूर्ण एवं उभरती तकनीक या iCET) में पहल की घोषणा की. हालांकि हम अभी भी भारत को उस तकनीक के हस्तांतरण के स्तर के बारे में नहीं जानते जिसकी अनुमति जेट इंजन के निर्माण की प्रक्रिया में होगी. इसके अलावा चमकदार नाम के साथ हर नई पहल सफल नहीं होती है. सामरिक मेल-जोल कमज़ोर होने के साथ काम करने के लिए नौकरशाही और राजनीतिक दबाव भी कम हो सकता है. इसके अलावा खालिस्तानी ख़तरे की कोशिश को लेकर मौजूदा असहमति जैसी संबंधों में बाधा भी आड़े आ सकती है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि पिछले 25 वर्षों में भारत-अमेरिका संबंधों ने एक लंबा रास्ता तय किया है लेकिन अब समय आ गया है कि हम अतीत की उपलब्धियों का गुणगान करने से आगे बढ़ें. आज अगर ध्यान दें तो ऐसा लगता है कि संबंधों में खटास आ रही है क्योंकि इसकी बुनियाद में जो सामरिक मज़बूती थी वो कमज़ोर हो रही है. 


कुणाल सिंह मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से पॉलिटिकल साइंस में PhD कर रहे हैं. 

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