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यूनियन की सबसे अग्रणी अर्थव्यवस्था होने के बावज़ूद रूस को अभी भी एशिया में एक मज़बूत आर्थिक शक्ति के तौर पर उभरना बाकी है.
रूस की सीमा का भौगोलिक विस्तार यूरोप से लेकर एशिया के एक बड़े भू-भाग को अपने में समेटे हुए है, जो इसे दुनिया भर में कुदरती रूप से यूरेशियन शक्ति के तौर पर अलग पहचान देती है. इतना ही नहीं इसकी दिलचस्पी विश्व के तमाम शक्ति के केंद्रों के साथ नज़दीकियां और हित जोड़ने में है और यही वज़ह है कि सोवियत संघ के बाद के वर्षों में जैसे-जैसे पश्चिमी देशों से इसकी दूरियां बढ़ती गई सोवियत संघ यूरोप से एक अलग पहचान के लिए जूझता रहा. लेकिन जिसकी नीतियों के केंद्र में इस भूखंड में अपनी पहचान को विस्तार देना लक्ष्य रहा हो उसके लिए हाल के दिनों में यूरेशिया की अवधारणा ज़्यादा प्रसांगिक होता दिखता है.
साल 2011 में इस लक्ष्य के साथ घोषणा सामने आई कि यूरेशियन यूनियन एक ऐसी सुपर शक्ति के तौर पर उभरेगी जो आधुनिक विश्व में ‘एक ध्रुव के रूप में अपनी पहचान अख्त़ियार करेगा और जो यूरोप और तेजी से बदलते हुए एशिया पैसिफ़िक क्षेत्र के बीच एक महत्वपूर्ण सेतु के रूप में कार्य करेगा.’ साल 2015 में यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन वज़ूद में आया और रूस, बेलारूस, कज़ाकिस्तान, अमेरिका और किर्ग़िस्तान इसके सदस्य बने. बहरहाल, यह ऐसा आर्थिक सहयोग का मंच है जिसके सदस्य देशों में किसी तरह की राजनीतिक सक्रियता न के बराबर नज़र आती है.
साल 2015 में यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन वज़ूद में आया और रूस, बेलारूस, कज़ाकिस्तान, अमेरिका और किर्ग़िस्तान इसके सदस्य बने. बहरहाल, यह ऐसा आर्थिक सहयोग का मंच है जिसके सदस्य देशों में किसी तरह की राजनीतिक सक्रियता न के बराबर नज़र आती है.
यहां तक कि जब यह विचार अभी विकसित ही हो रहा था, तब साल 2014 में पश्चिमी देशों के साथ रूस के संबंधों में अप्रत्यक्ष तौर पर विघटन का दौर आया जिसने पूर्व के देशों के साथ संबंधों को मज़बूत करने की दृष्टि को बल दिया और जहां एशिया दुनिया में एक नई शक्ति के केंद्र के रूप में अपनी पहचान बना रहा था. साल 2016 में ग्रेटर यूरेशिया की घोषणा के साथ इस बदलाव की पहली झलक को स्वीकार किया गया. यह वही अवधारणा थी जो यूरेशियन यूनियन की धारणा से ज़्यादा विस्तृत थी और जिसमें दोनों ही जियोस्ट्रैटजिक और जियोइकोनॉमिक आयाम शामिल थे और जो ‘अटलांटिक से पैसिफ़िक तक फैला’ हुआ था. विदेश मंत्री सरजेई लावरोव के मुताबिक़ यह यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन(ईएईयू), शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन(एससीओ), आसियान और यूरेशियन महादेश के सभी देश और यूरोपियन यूनियन को शामिल करने की प्रेरणा रखता है.
यह अवधारणा रूस को एक ऐसी अनोखी स्थिति में लाकर खड़ा करती है जिसमें स्थानीय और वैश्विक मामलों में उसकी भूमिका बेहद अलग है. कई विद्वान इस क्षेत्र की पुरानी सभ्यता के साथ इसके संबंधों को जोड़कर देखते हैं. जबकि कुछ लोग एक ऐसी संरचना की उत्पत्ति के बारे में तर्क देते हैं जहां चीन का वर्चस्व नहीं हो. इसके बाद भी ग्रेटर यूरेशिया की संरचनात्मक आयाम को लेकर स्थिति अभी भी स्पष्ट नहीं है.
जबकि, इस धारणा के आर्थिक संस्थानीकरण के केंद्र में ईएईयू है जो इसे विस्तृत यूरेशियन सहयोग के लिए चीन के बेल्ट एंड रोड की पहल से जोड़ने का समझौता करता है लेकिन सच्चाई यही है कि इसके तहत अभी भी साझा परियोजनाओं की शुरुआत नहीं हो सकी है. जबकि फ्री- ट्रेड एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए गए हैं और कुछ देशों के साथ बातचीत चल रही है, लेकिन सच ये है कि ये वार्ता ग्रेटर यूरेशिया के फ्रेमवर्क के तहत अंजाम नहीं दी गई है. यूनियन की सबसे अग्रणी अर्थव्यवस्था होने के बावज़ूद रूस को अभी भी एशिया में एक मज़बूत आर्थिक शक्ति के तौर पर उभरना बाकी है. यही नहीं चीन पर रूस की बढ़ती निर्भरता चिंताजनक है और पश्चिमी प्रतिबंधों के चलते यूरोपियन यूनियन के साथ रूस के रिश्ते बिगड़ रहे हैं. राजनीतिक मोर्चे पर संस्थानीकरण कुछ ज़्यादा ही पेचीदा नज़र आता है क्योंकि ईएईयू के सदस्य देश संगठन के फ्रेमवर्क के तहत हमेशा से ज़्यादा राजनीतिक आपसी सहयोग के ख़िलाफ़ रहे हैं. ग्रेटर यूरेशियन की धारणा को साकार करने के मक़सद से एससीओ और आरआईसी जैसे संगठनों पर ध्यान केंद्रित करने की चुनौती हाल में काफी बढ़ गई है. इसकी बड़ी वज़ह यह है कि एक तरफ भारत और चीन के बीच प्रतिस्पर्द्धा हर क्षेत्र में बढ़ती जा रही है तो दूसरी तरफ अमेरिका और चीन के बीच प्रतिद्वन्दिता अपने चरम पर है.
यूनियन की सबसे अग्रणी अर्थव्यवस्था होने के बावज़ूद रूस को अभी भी एशिया में एक मज़बूत आर्थिक शक्ति के तौर पर उभरना बाकी है. यही नहीं चीन पर रूस की बढ़ती निर्भरता चिंताजनक है और पश्चिमी प्रतिबंधों के चलते यूरोपियन यूनियन के साथ रूस के रिश्ते बिगड़ रहे हैं.
इस बीच रूस की सरकार एशियाई, मध्य पूर्व, सेंट्रल एशिया और अफ्रीकी देशों के साथ अपने संबंधों को लगातार बढ़ाने में जुटी है. इसके साथ ही रूस यूरेशिया की योजना पर भी निरंतर काम कर रहा है. हालांकि, यह धारणा काफी कीमती है और एक ऐसे क्षेत्र में बेहद दीर्घकालिक है जहां चीन का उभार मुख्य रूप से एक महत्वपूर्ण ताकत के रूप में हुआ है. हालांकि, एक विस्तृत यूरेशियन भूखंड में और ऊपर दी गई चुनौतियों के बीच अपनी दृष्टि को सफल बनाने के लिए रूस को अपने राजनीतिक और आर्थिक संबंधों में सुधार लाने की आवश्यकता है. यूरेशिया के इर्द गिर्द अभी भी जो गतिविधियां हो रही हैं वो हाल की घटनाएं हैं, लिहाज़ा इस आधार पर इसकी सफलता और विफलता के बारे में कोई भी टिप्पणी करना अभी जल्दबाज़ी होगी. हालांकि, इन कदमों के महत्व को नज़रअंदाज़ कर पाना इतना आसान नहीं है क्योंकि, रूस ख़ुद को बतौर एक यूरोपीय शक्ति की पहचान से अलग करने की कोशिशों में जुटा है तो तेज़ी से बदलती वैश्विक व्यवस्था में अपनी भूमिका की तलाश दोबारा करने में लगा है.
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Nivedita Kapoor is a Post-doctoral Fellow at the International Laboratory on World Order Studies and the New Regionalism Faculty of World Economy and International Affairs ...
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