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Published on Jun 19, 2024 Updated 0 Hours ago

क्या, नाइजर से US सेना की वापसी का यह अर्थ लगाया जाए कि अब अमेरिका के पैन-साहेल दृष्टिकोण का अंत हो गया है?

पैन-साहेल में अमेरिकी प्रभाव की समाप्ति

दुनिया भर में तेजी से घटते प्रभाव के बीच यूनाइटेड स्टेट्स (US) ख़ुद को एक और दलदल में फंसता हुआ देख रहा है. इस बार यह दलदल अफ्रीका में है. पिछले वर्ष नाइजर से फ्रांस की सेना की घर वापसी के बाद अब US को भी अपनी सेना यहां से हटानी पड़ेगी. ऐसे में अब फ्रांस और US दोनों की ही सेनाएं यहां मौजूद नहीं हैं. अफ्रीका मेंकू-बेल्टयानी तख़्तापलट-क्षेत्र समझे जाने वाले इलाके में व्यापक तौर पर दिखाई दे रहे रुझान को देखें तो यह साफ़ हो जाता है कि इस इलाके में रूसी सेना की मौजूदगी को पसंद किया जा रहा है. इसी वजह से पश्चिमी सेना को हटना पड़ा है. अफ्रीका के पावर गेम में US और रूस दोनों ही पुराने खिलाड़ी है. शीत युद्ध के दौरान भी तत्कालीन सोवियत यूनियन और US ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ अनेक छद् युद्ध, जैसे कि इथियोपिया और सोमालिया के बीच हुआ ओगाडेन युद्ध हो या फिर अंगोला में हुआ युद्ध हो, लड़े थे. हालांकि, US को इस बार एक ऐसे भौगोलिक इलाके में रूस के मुकाबले पीछे हटना पड़ रहा है जो इलाका उसके आतंकवाद-विरोधी प्रयासों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. US के आतंकवाद-विरोधी प्रयासों के कारण ही मिडिल ईस्ट एंड नॉर्थ अफ्रीकन (MENA) क्षेत्र में इस्लामिक स्टेट और बोको हराम जैसे आतंकी समूह तेजी से अपना प्रभाव नहीं बढ़ा पा रहे थे. हाल के वर्षों में अल-कायदा से जुड़े समूह, जमात नुसरत अल-इस्लाम वल-मुसलमिन (JNIM) और इस्लामिक स्टेट इन ग्रेटर सहारा (ISGS) ने भी इस इलाके में अपनी उपस्थिति को मजबूत किया है. ऐसे में नाइजर से अमेरिकी सेना की वापसी के कारण, US को इस इलाके में स्थापित अपने दोनों सैन्य ठिकानों से हाथ धोना पड़ेगा. ये दोनों सैन्य ठिकाने अमेरिका के आतंकवाद-विरोधी प्रयासों के लिए बेहद अहम थे. इन दोनों सैन्य ठिकानों में 1000 अमेरिकी सैनिकों का बसेरा था

 

पिछले एक साल से नाइजर में अमेरिकी सेना ने नाइजीरियन सेना को प्रशिक्षण या सहायता देना लगभग बंद कर दिया था. इसके बावजूद अमेरिकी सेना की मौजूदगी के चलते जिहादी ताकतों का मुकाबला करने में नाइजीरिया सेना को कुछ बल मिलता था. लेकिन अब जब US ने नाइजर से अपनी सेना को वापस बुलाने का फ़ैसला किया है, तो इस इलाके में दशकों से चल रहे आतंकवाद-विरोधी प्रयासों पर पानी फिर जाएगा. ऐसे में अब तक इस दिशा में हासिल सफ़लता केवल बर्बाद हो जाएगी, बल्कि भविष्य में आतंकवाद के ख़िलाफ़ उठाए जाने वाले कदम भी प्रभावित होंगे. नागरिकों के हाथों में सत्ता सौंपने के लिए जहां नाइजीरिया की जुंटा सरकार यानी सैन्य शासकों ने तीन वर्ष का समय मांगा था, वहीं अमेरिका ने जुंटा सरकार के साथ काम करने से इंकार कर दिया था.

 

ऐसे वक़्त में जब दुनिया में महाशक्तियों के बीच मनमुटाव तेजी से बढ़ रहा है और रूस और चीन एक-दूसरे के करीब आते जा रहे हैं, वाशिंगटन, व्यापक अफ्रीका और नाइजर में अपनी सैन्य उपस्थिति को बनाए रखने के लिए और ज़्यादा संघर्ष नहीं चाहेगा. हाल ही में कांगोलिस सेना ने यह दावा किया था कि उसने तख़्तापलट की एक ऐसी कोशिश को नाकाम किया है, जिसमें अमेरिकी भी शामिल थे.

 

साहेल में उथल-पुथल 

 

पिछले वर्ष जुलाई में पश्चिम अफ्रीकी देश नाइजर में हुए तख़्तापलट की कोशिश के बाद हजारों नागरिकों ने सड़क पर आकर जश्न मनाया था. ये नागरिक लंबे समय से सत्ता संभाल रहे राष्ट्रपति मोहम्मद बज़ूम को सत्ता से बाहर करने का जश्न बना रहे थे. उसके बाद से ही नाइजर लगातार ख़बरों में बना हुआ है. इस तख़्तापलट के बाद ही 16 सितंबर, 2023 को एलाइंस ऑफ़ साहेल स्टेटस या एलायंस डेस एटैट्स डु साहेल (AES) का गठन किया गया. इसमें नाइजर के साथ बुर्किना फासो और माली भी शामिल हैं. इन दोनों पड़ोसी देशों में भी पिछले दो वर्ष में तख़्तापलट हुआ था और वर्तमान में यहां सैन्य शासन चल रहा है.

 ऐसे में अब तक इस दिशा में हासिल सफ़लता न केवल बर्बाद हो जाएगी, बल्कि भविष्य में आतंकवाद के ख़िलाफ़ उठाए जाने वाले कदम भी प्रभावित होंगे.

यह एलायंस एक ढीला आपसी रक्षा समझौता है. एलायंस ऑफ़ साहेल के तहत इसके सदस्य देशों ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ होने वाले हमले की स्थिति में आपस में सैन्य सहयोग करने का वादा किया है. AES के ढांचे के तहत तीनों देशों ने यह भी तय किया है कि वे हथियारबंद विद्रोह की स्थिति में एक-दूसरे का साथ देकर इसे रोकेंगे या फिर इसे ख़त्म करेंगे. इसके बाद 28 जनवरी, 2024 को AES के तीनों सदस्य देशों ने, 15 सदस्यों वाले पश्चिम अफ्रीकी क्षेत्रीय संगठन इकोनॉमिक कम्युनिटी ऑफ़ वेस्ट अफ़्रीकन स्टेट्स (इकोवास) से बाहर निकलने का निर्णय किया

 

पश्चिम अफ्रीकी देश के पास बड़ी मात्रा में प्राकृतिक संसाधन, विशेषत: परमाणु उद्योग के लिए बेहद ज़रूरी संसाधन, यूरेनियम, उपलब्ध है. नाइजर दुनिया में यूरेनियम का सातवां सबसे बड़ा उत्पादक है. वह फ्रांस के लिए यूरेनियम का सबसे अहम आपूर्तिकर्ता भी है. तख्तापलट से पहले फ्रांस का लगभग 15 फ़ीसदी यूरेनियम तथा यूरोपियन यूनियन को उसकी ज़रूरत का पांचवां हिस्सा नाइजर से ही मिलता था. ऐसे में साफ़ है कि नाइजर में चल रही वर्तमान उथल-पुथल के कारण फ्रांस और व्यापक रूप से यूरोप को काफ़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है.

 

यूरोप की ऊर्जा सुरक्षा में अहम भूमिका अदा करने के साथ ही नाइजर, अस्थिर साहेल क्षेत्र की स्थिरता में भी महत्वपूर्ण खिलाड़ी है. संपूर्ण साहेल क्षेत्र में US के 1,000 तथा फ्रांस के 1,500 सैनिकों के साथ नाइजर, पश्चिमी देशों की ओर से इस्लामिक आतंक के ख़िलाफ़ चलाए जा रहे आतंकवाद-विरोधी प्रयासों में एक महत्वपूर्ण सहयोगी बना हुआ है. नाइजर में US के दो ड्रोन साइट् यानी ठिकाने भी हैं. इसमें से एक नियामी में है, जबकि दूसरा अगाडेज़ में. छह वर्ष पूर्व ही US ने $110 मिलियन का निवेश करते हुए इन दोनों ड्रोन साइट् का निर्माण किया था. इसके अलावा US इन ड्रोन साइट् के रखरखाव पर सालाना 30 मिलियन US$ भी ख़र्च करता है. किसी जमाने में यहां के कॉलोनाइजर यानी उपनिवेशक रहे फ्रांस के 1,500 सैनिक भी नाइजर में थे, जिन्होंने दिसंबर 2023 में यहां से स्वदेश वापसी कर ली है.

 AES के ढांचे के तहत तीनों देशों ने यह भी तय किया है कि वे हथियारबंद विद्रोह की स्थिति में एक-दूसरे का साथ देकर इसे रोकेंगे या फिर इसे ख़त्म करेंगे.

नाइजर से अपने सैनिकों की वापसी के लिए फ्रांस ने एक बेहद खतरनाक ऑपरेशन चुना था. उसके सैनिक बेहद जटिल रेगिस्तानी रास्तों से गुजरते हुए लगभग 1,700 किलोमीटर का लंबा सफ़र तय कर पड़ोसी देश चाड पहुंचे थे. फ्रांस ने चाड को ही अपने वर्तमान साहेल ऑपरेशन का केंद्र बना रखा है. लेकिन US सैनिकों की स्वदेश वापसी की योजना अभी तय नहीं हुई है और इसे लेकर चर्चा चल रही है. यह उम्मीद जताई जा रही है कि US सैनिक इस वर्ष 15 सितंबर तक नाइजर छोड़ देंगे. इसके साथ ही 9/11, 2002 में हुए आतंकी हमले के बाद शुरू की गई अमेरिका की पैन-साहेल पहल भी लगभग ख़त्म हो जाएगी.

 

महान शक्तिस्पर्धा

 

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में समानता ख़ोजना काफ़ी ज़ोख़िम भरा साबित होता है. नाइजर में तख़्तापलट ऐसे वक़्त में हुआ जब अफ्रीकन देशों के अनेक मुखिया और मंत्री सेंट पीटर्सबर्ग में आयोजित द्वितीय रूस-अफ्रीका शिखर सम्मेलन में हिस्सा ले रहे थे. फ्रांस सैनिकों की घर वापसी के बाद रूस की निजी सेना वैगनर समूह ने बेहद फूर्ती के साथ फ्रांस के सैन्य ठिकानों पर कब्ज़ा कर लिया. इतना ही नहीं लगातार आक्रामक और दबंग होते जा रहे रूसी सेना के लोगों ने नाइजर स्थित एयरबेस 101 में भी प्रवेश कर लिया है. कहा जाता है कि इस एयरबेस में अब भी US के सैनिक मौजूद है. यूक्रेन में चल रहे संघर्ष को देखते हुए US तथा रूसी सेना की यह नज़दीकी संभावित रूप से तनाव बढ़ाने का ही काम करेगी और दोनों को संघर्ष की राह पर डाल देगी.

 एक ऐसी दुनिया जहां अफ्रीका से लेकर लैटिन अमेरिका और इंडो-पसिफ़िक से लेकर यूरेशिया तक, मुख्य शक्तियां विभिन्न अहम क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश में जुटी हुई है. ऐसे में US को दो मुख्य ताकतों-रूस और चीन का बतौर प्रतिद्वंद्वी सामना करना पड़ रहा है.

एक ऐसी दुनिया जहां अफ्रीका से लेकर लैटिन अमेरिका और इंडो-पसिफ़िक से लेकर यूरेशिया तक, मुख्य शक्तियां विभिन्न अहम क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश में जुटी हुई है. ऐसे में US को दो मुख्य ताकतों-रूस और चीन का बतौर प्रतिद्वंद्वी सामना करना पड़ रहा है. US के लिए यह चुनौती इसलिए भी अहम हो जाती है, क्योंकि इसकी पृष्ठभूमि में रूस और चीन के बीच बढ़ता सहयोग भी है. इतना ही नहीं US, मध्य पूर्व तथा यूक्रेन में भी सैन्य स्तर पर अपनी प्रतिबद्धता को बढ़ा रहा है. इसे देखते हुए इन वर्तमान संघर्षों के कारण वैश्विक व्यवस्था और भी अस्थिर हुई है. एक ओर जहां रूस और चीन मिलकर पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ सहयोगात्मक रणनीति बना रहे हैं, वहीं वाशिंगटन की नेतृत्व करने की इच्छा के कारण उसके पश्चिमी सहयोगी या तो पीछे छूट जाते हैं या फिर वे अपना अलग रास्ता चुन लेते हैं. यह बात अफ्रीका में स्पष्ट रूप से दिखाई भी देती है

 

भविष्य की राह

 

इस क्षेत्र में US की कोशिशों के लिए अफ्रीका बेहद अहम है. बेनिन, घाना तथा आइवरी कोस्ट जैसे देशों में अपनी तटीय मौजूदगी का लाभ उठाकर US यहां ख़ुफ़िया जानकारी एकत्रित करेगा. नाइजर से US सैनिकों की वापसी सामरिक दृष्टि से ज़्यादा महत्वपूर्ण साबित नहीं होगी, क्योंकि अब विभिन्न देश आतंकवाद-विरोधी प्रयासों के लिए तकनीक पर ज़्यादा निर्भर होने लगे है. लेकिन, नाइजर में US की जगह लेने वाले रूस तथा साहेल क्षेत्र में चीन और ईरान के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए यह साफ़ हो गया है कि सैनिकों की वापसी के कारण बतौर वैश्विक नेता US की छवि प्रभावित होगी.

 

फिलहाल नाइजर के लिए सकारात्मक उम्मीद लगाने में कोई तुक दिखाई नहीं देती. इस वक़्त US के समक्ष कुछ सीमित विकल्प ही दिखाई दे रहे हैं : कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाना, सैन्य कार्रवाई करना या दोनों का ही मिश्रित उपयोग करना. लेकिन इसमें से कोई भी कदम उठाया गया तो यह कदम वहां के सैन्य शासकों को पश्चिमी सहयोगियों से और दूर ले जाने वाला साबित होगा. हालांकि एक तीसरा, बातचीत, का उपाय भी उपलब्ध है. नाइजर में लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना और इसके फलस्वरूप क्षेत्र में आने वाली स्थिरता इस बात पर निर्भर करेगी कि दोनों पक्ष इसे लेकर कितने प्रभावी और ईमानदार प्रयास करते हैं. अमेरिका के पैन-साहेल दृष्टिकोण के लिए नाइजर की स्थिरता एक उदाहरण बनकर उभर सकती है


विवेक मिश्रा, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं.

समीर भट्टाचार्य, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो हैं.

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Authors

Vivek Mishra

Vivek Mishra

Vivek Mishra is a Fellow with ORF’s Strategic Studies Programme. His research interests include America in the Indian Ocean and Indo-Pacific and Asia-Pacific regions, particularly ...

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Samir Bhattacharya

Samir Bhattacharya

Samir Bhattacharya is an Associate Fellow at ORF where he works on geopolitics with particular reference to Africa in the changing global order. He has a ...

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