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Published on May 30, 2024 Updated 0 Hours ago
पूर्वी एशिया में अवसर: भारत की ग्रीन हाइड्रोजन रणनीति में जापान और कोरिया को प्राथमिकता

1766 में जब हेनरी कैवेंडिश ने हाइड्रोजन का आविष्कार किया था, तब से ही इसके ऊर्जा के परिचालक बनने की संभावनाओं को लेकर व्यापक स्तर पर चर्चाएं होती रही हैं. सच तो ये है कि आज से बहुत पहले सन् 1874 में ही मशहूर उपन्यासकार जूल्स वर्न ने भविष्यवाणी की थी कि एक दिन ऐसा आएगा जब हाइड्रोजन, कोयले का एक व्यवहारिक विकल्प बन जाएगी. उनकी भविष्यवाणी के लगभग डेढ़ सदी बाद आज हाइड्रोजन हरित ऊर्जा परिवर्तन की परिचर्चाओं का केंद्र बिंदु बन गई है. विशेष रूप से भारी उद्योग और लंबी दूरी के परिवहन जैसे उन सेक्टरों में इसकी संभावनाओं को लेकर अधिक चर्चा हो रही है, जिनमें कार्बन उत्सर्जन को कम कर पाना काफ़ी चुनौती भरा साबित हो रहा है.

 

आज की तारीख़ में दुनिया की कुल ऊर्जा खपत में हाइड्रोजन की हिस्सेदारी महज़ 2.5 प्रतिशत है और इसमें से भी 99 फ़ीसदग्रेहाइड्रोजन है, जिसे जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल करके तैयार किया जाता है. इसकी तुलना में ग्रीन हाइड्रोजन को पानी के इलेक्ट्रोलिसिस से बनाया जाता है, जिसके लिए नवीनीकरण योग्य स्रोतों से बनी बिजली का उपयोग किया जाता है.

 कुछ देश ग्रीन हाइड्रोजन को ही प्राथमिकता दे रहे हैं. वहीं अन्य देश कार्बन कैप्चर की तकनीकों से जीवाश्म ईंधन से हाइड्रोजन के उत्पादन की प्रक्रिया को साफ़ सुथरा बनाने की कोशिशें कर रहे हैं.

अब पूरी दुनिया में हाइड्रोजन का इस्तेमाल बढ़ाने पर काफ़ी ज़ोर दिया जा रहा है, और 40 से ज़्यादा देश हाइड्रोजन से जुड़ी रणनीतियां लागू कर रहे हैं. कुछ देश ग्रीन हाइड्रोजन को ही प्राथमिकता दे रहे हैं. वहीं अन्य देश कार्बन कैप्चर की तकनीकों से जीवाश्म ईंधन से हाइड्रोजन के उत्पादन की प्रक्रिया को साफ़ सुथरा बनाने की कोशिशें कर रहे हैं.

 

भारत भी अपने राष्ट्रीय ग्रीन हाइड्रोजन मिसन का ऐलान करके इस होड़ में शामिल हो गया है. इस मिशन के पहले चरण में इलेक्ट्रोलाइज़र के निर्माण और ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन को वित्तीय प्रोत्साहन देकर आपूर्ति की पर्याप्त क्षमता विकसित करने पर ज़ोर दिया जा रहा है और इसके लिए 2030 तक 17 हज़ार 490 करोड़ रुपए ख़र्च करने प्रावधान किया गया है. प्राथमिक लक्ष्य ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन की लागत को कम करना और उसकी क़ीमत ग्रे हाइड्रोजन की बराबरी तक लाना है.

 

वैसे तो आपूर्ति बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन देना एक अच्छी शुरुआत है. लेकिन, शुरुआती स्तर पर ही मांग की एक स्पष्ट योजना तैयार करनी ज़रूरी है. इस सेक्टर में प्रत्यक्ष तौर पर बड़े पैमाने पर निवेश करने और व्यापक स्तर पर उत्पादन और आपूर्ति की व्यवस्था बनाने पर ज़ोर देने की ज़रूरत है, तभी ग्रीन हाइड्रोजन की लागत में कमी लाई जा सकेगी.

 

इसमें कोई शक नहीं कि घरेलू मांग ग्रीन हाइड्रोजन को बढ़ावा देने का एक प्रमुख ज़रिया होगी. इस वक़्त भारत में हाइड्रोजन की खपत 67 लाख टन है और इसमें से 80 प्रतिशत उर्वरक उद्योग (अमोनिया) और रिफाइनरी सेक्टर में इस्तेमाल होती है. भारत में पैदा की जाने वाली 90 प्रतिशत हाइड्रोजन निर्माता अपने इस्तेमाल के लिए बनाते हैं, जो जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल करके स्टीम मीथेन रिफॉर्मेशन विधि से बनाई जाती है. ऐसे में भारत में हाइड्रोजन का बाज़ार बहुत छोटा है. ग्रीन हाइड्रोजन बनाने की लागत जहां 4 से 6 डॉलर प्रति किलोग्राम आती है, वहीं ग्रे हाइड्रोजन में ये लागत दो डॉलर प्रति किलो बैठती है. इस बड़े अंतर को देखते हुए इस बात की उम्मीद कम ही है कि ख़ुद हाइड्रोजन उत्पादन करने वाली कंपनियां अपने इस्तेमाल या फिर बाज़ार में बेचने के लिए ग्रीन हाइड्रोजन बनाने के मूलभूत ढांचे में बड़ा निवेश करेंगी. हो सकता है कि कुछ प्रयोग किए जाएं, लेकिन हाल फिलहाल में बड़े पैमाने पर मांग उठाने की उम्मीद कम ही है.

 

ग्रीन हाइड्रोजन की मांग का एक अन्य स्रोत स्टील, केमिकल या संभवत: परिवहन उद्योग जैसे नए सेक्टर हो सकते हैं. फिर भी, इन सेक्टरों में प्रभावी ढंग से हाइड्रोजन का इस्तेमाल करने के लिए जिन तकनीकों की ज़रूरत है, वो अभी ज़्यादातर प्रायोगिक स्तर पर ही हैं, जिसकी वजह से आने वाले कुछ वर्षों में तो उनको जल्दी से जल्दी अपनाए जाने की उम्मीद कम ही है.

 

यही वजह है कि ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन स्थानीय स्तर पर बढ़ाने के लिहाज़ से निर्यात का बाज़ार काफ़ी अहम हो जाता है, जिसकी मदद से व्यापक उत्पादन व्यवस्था निर्मित की जा सकती है और ग्रीन हाइड्रोजन की लागत कम की जा सकती है.

 

पूर्वी एशिया में निर्यात की संभावनाएं

 

ग्रीन हाइड्रोजन के सेक्टर में जापान और साउथ कोरिया विशेष रूप से निर्यात के अवसर मुहैया कराते हैं. इस संभावना में योगदान देने के पीछे कई कारण हैं. पहला, दोनों ही देशों के लिए नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के विस्तार की राह में कई बाधाएं हैं, जिसकी वजह से घरेलू स्तर पर ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन की लागत काफ़ी बढ़ सकती है. इसी का नतीजा होगा कि वो अपनी घरेलू मांग के ज़्यादातर हिस्से को पूरा करने के लिए आयात पर निर्भर होंगे. आज जब स्टील सेक्टर जैसे भारी उद्योग हरित ईंधन अपनाने की तरफ़ क़दम बढ़ा रहे हैं, तो ग्रीन हाइड्रोजन की मांग बढ़ने की अपेक्षा की जा रही है. जापान में तो परिवहन व्यवस्था का कार्बन उत्सर्जन घटाने में हाइड्रोजन की भूमिका अहम होने वाली है. वहीं, दक्षिण कोरिया तो बिजली के एक स्रोत के तौर पर हाइड्रोजन का इस्तेमाल करने की योजना बना रहा है.

 ग्रीन हाइड्रोजन के सेक्टर में जापान और साउथ कोरिया विशेष रूप से निर्यात के अवसर मुहैया कराते हैं. इस संभावना में योगदान देने के पीछे कई कारण हैं.

दूसरा, दोनों ही देश ग्रीन हाइड्रोजन के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की इच्छा का प्रदर्शन कर चुके हैं, भले ही वो कहीं भी बनी हो. मिसाल के तौर पर हाल ही में जापान ने हाइड्रोजन सोसाइटी प्रमोशन एक्ट लागू किया है, जिसमें अगले 15 वर्षों तक स्वच्छ हाइड्रोजन की पहलों को मदद देने के लिए 3 ट्रिलियन येन (लगभग 1.9 अरब डॉलर) की रक़म का प्रावधान किया गया है. वैसे तो इस क़ानून की बारीक़ियां स्पष्ट होने का इंतज़ार हो रहा है. पर, शुरुआती ख़बरें संकेत देती हैं कि ग्रीन हाइड्रोजन बनाने वाले चाहे किसी भी देश के हों और वो उत्पादन के लिए सब्सिडी लेते हों, पर वो इस क़ानून के तहत जापान से भी सब्सिडी ले सकेंगे. ये तरीक़ा हाइड्रोजन की मांग की संभावना रखने वाले अन्य देशों की तुलना में बहुत अलग है. मिसाल के तौर पर अमेरिका का इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट केवल घरेलू उत्पादन वाली हाइड्रोजन के लिए ही अभूतपूर्व सब्सिडी मुहैया कराएगा.

 

जापान और कोरिया ने हाइड्रोजन और अमोनिया की आपूर्ति का एक साझा नेटवर्क भी स्थापित किया है, जो दोनों देशों के बीच सहयोग का एक अनूठा उदाहरण है. इस नेटवर्क के ज़रिए सरकार के समर्थन वाले वित्तीय संस्थान हाइड्रोजन की परियोजनाओं के लिए कंपनियों को अपने मूल देश से बाहर से भी फंड हासिल करने में मदद करेंगे. इसका अंतिम लक्ष्य कम लागत वाले आयात को बढ़ावा देना है. वैसे तो दोनों देशों का ज़ोर अमेरिका और मध्य पूर्व के अपने पारंपरिक हाइड्रोजन बाज़ारों पर है. मगर, भारत के लिए इस नेटवर्क से अधिक सक्रियता से संपर्क करने का एक अच्छा अवसर है ताकि वो ख़ुद को सस्ती ग्रीन हाइड्रोजन के आपूर्तिकर्ता के तौर पर पेश कर सके.

 

तीसरा, हाइड्रोजन के भंडारण और उसे लाने ले जाने में होने वाले भारी ख़र्च को देखते हुए, पूर्वी एशिया के बाज़ार भारत के ग्रीन हाइड्रोजन निर्यात के लिए, यूरोप और अमेरिका जैसे सुदूर के बाज़ारों से बेहतर विकल्प हैं. आख़िर में भारत का ग्रीन हाइड्रोजन पर ही ज़ोर देना उसे भीड़ से अलग खड़ा कर देता है, बहुत से देश स्वच्छ हाइड्रोजन के तमाम स्वरूपों पर ज़ोर दे रहे हैं, जिसमें कार्बन कैप्चर की तकनीक इस्तेमाल होगी, जिसका अब तक परीक्षण नहीं हुआ है. बहुत से लोग इन देशों के इस रवैये को जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल जारी रखने के बहाने और नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोतों के विकास को लटकाने के तौर पर देखते हैं. अब आयात करने वाले देशों पर इस बात का दबाव बढ़ रहा है कि वो केवल नवीनीकरण योग्य स्रोतों से बनी हाइड्रोजन पर ही ध्यान केंद्रित करें. अगर भारत ख़ुद को ग्रीन हाइड्रोजन के मुख्य आपूर्तिकर्ता के तौर पर स्थापित कर सके, तो वो इन कोशिशों से लाभ उठा सकता है.

 अगर भारत ख़ुद को ग्रीन हाइड्रोजन के मुख्य आपूर्तिकर्ता के तौर पर स्थापित कर सके, तो वो इन कोशिशों से लाभ उठा सकता है.

भारत के बाज़ार में जापान और कोरिया की दिलचस्पी पहले ही बयानबाज़ी से कहीं अधिक है. मिसाल के तौर पर जापान के IHI कॉरपोरेशन ने हाल ही में भारत की ACME से ग्रीन हाइड्रोजन को ओडिशा से जापान निर्यात करने के समझौते को अंतिम रूप दिया है. इसी तरह सिंगापुर की सेम्बकॉर्प इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड ने जापान को ग्रीन हाइड्रोजन निर्यात करने के लिए वहां की दो कंपनियों के साथ साझेदारी की है. इसके अतिरिक्त इसी साल मार्च तक भारत के एक प्रतिनिधिमंडल ने हाइड्रोजन और इससे जुड़ी चीज़ों को लेकर द्विपक्षीय संबंधों पर चर्चा के लिए दक्षिण कोरिया का दौरा किया था. इस प्रतिनिधिमंडल मे भारत के नए और नवीनीकरण योग्य ऊर्जा मंत्रालय (MNRE) और भारत की प्रमुख कंपनियों के प्रतिनिधि शामिल थे.

 

निष्कर्ष

 

इस तरह भारत के लिए अपनी ग्रीन हाइड्रोजन रणनीति में जापान और दक्षिण कोरिया को प्राथमिकता देने का मज़बूत मामला बनता है. इसको बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार को चाहिए कि वो ग्रीन हाइड्रोजन के व्यापार के लिए ऐसे स्पष्ट मानक और नियम लागू करे, जो दिलचस्पी रखने वाले अन्य देशों से मेल खाते हों. ग्रीन हाइड्रोजन मिशन का एक लक्ष्य पूरे देश में ग्रीन हाइड्रोजन के केंद्र स्थापित करना भी है. चूंकि भारत में ग्रीन हाइड्रोजन की 50 प्रतिशत से अधिक घरेलू मांग पश्चिमी क्षेत्रों में ही है, ऐसे में हो सकता है कि इसके केंद्र पश्चिमी भारत में ही स्थापित करना अधिक आकर्षक लगे. लेकिन, इस मामले में अधिक दूरदर्शी सोच अपनाने की ज़रूरत है, जिसके तहत पूर्वी तट पर ग्रीन हाइड्रोजन के केंद्र स्थापित किए जाएं, जिससे पूर्वी एशिया को निर्यात की लागत कम करने में सहायता मिल सके. तमिलनाडु में ग्रीन हाइड्रोजन का एक केंद्र स्थापित करने का एलान एक अच्छी शुरुआत है. आख़िर में, एक इंटरनेशनल ग्रीन हाइड्रोजन प्लेटफॉर्म स्थापित करने की आवश्यकता है, जिसमें सरकार और निजी क्षेत्र के सभी भागीदार एक मंच पर इकट्ठा हों. ये प्लेटफॉर्म भारत में ग्रीन हाइड्रोजन के अवसरों को सक्रियता से बढ़ावा देगा और देश में संभावित विदेशी निवेशों की प्रक्रिया को भी सुगम बनाएगा.

 

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