Author : Amrita Narlikar

Published on Feb 06, 2019 Updated 0 Hours ago

आज दुनिया में बहुपक्षीयवाद बहुत बुरी स्थिति में है. इसकी तीन प्रमुख वजहें हैं. भूमंडलीकरण से मोह भंग, बहुपक्षीयता के समर्थन में कमज़ोर तर्क वाली परिचर्चाएं और नई चुनौतियों से निपटने के लिए मौजूदा बहुपक्षीय नियम-क़ायदों का नाकाम रहना.

बहुपक्षीयवाद की चरमराती व्यवस्था और एक स्थायी समाधान कोशिश

बहुत से अंतरराष्ट्रीय संगठन अलग-अलग समय पर उतार-चढ़ाव के शिकार हुए हैं. ये कोई नई बात नहीं है. लेकिन, आज जैसी बुरी हालत बहुपक्षीय अंतरराष्ट्रीय संगठनों की है उस का दायरा भी बड़ा है और गहराई भी ज़्यादा है.

ये बीमारी कुछ ख़ास मुद्दों तक ही सीमित नहीं है. और परेशानी की बात ये है कि बहुपक्षीय संगठनों को इस रोग ने तब जकड़ा है, जब अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए संवेदनशील नियमों की पहले से कहीं ज़्यादा शिद्दत से दरकार है. जहां तमाम देशों के बीच व्यापार युद्ध छिड़े हुए हैं. वहीं, विश्व व्यापार संगठन की विवाद निस्तारण संस्था को लकवे ने ग्रस्त कर रखा है. इसकी वजह ये है कि इसकी अपीलीय संस्था में जजों की नियुक्ति या पुनर्नियुक्ति के रास्ते में रोड़े अटकाए जा रहे हैं. आज जलवायु परिवर्तन का वैश्विक संकट आपातकाल में तब्दील हो चुका है. और, इसे लेकर आम लोगों के बीच जागरूकता की ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा है. लेकिन, इस चुनौती से निपटने के बजाय अमेरिका ने जलवायु परिवर्तन के संकट के समाधान के लिए किए गए पेरिस समझौते से ठीक इसी वक़्त हाथ खींच कर इस समझौते को ही बेअसर कर दिया है. पिछले साल नवंबर महीने में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों ने ब्रिटिश पत्रिका द इकोनॉमिस्ट को एक इंटरव्यू दिया था. इस इंटरव्यू में मैक्रों ने उत्तर अटलांटिक संधि संगठन यानी नैटो (NATO) को ‘ब्रेन डेड’ घोषित कर दिया था. इसी इंटरव्यू में मैक्रों ने यूरोप की नाज़ुक स्थिति की तरफ़ भी इशारा किया था. पूरे यूरोप को एकजुट करने की राह में खड़ी तमाम चुनौतियों में से सब से बड़ी है, ब्रिटेन का यूरोपीय यूनियन से अलग होने का फ़ैसला. ब्रिटेन की जनता ने ये तो तय कर लिया कि उन के देश को यूरोपीय संघ से अलग होना है. लेकिन, इसका तौर तरीक़ा तय करने में उन्हें दो साल से ज़्यादा वक़्त लग गया. ब्रेग्जिट अभी भी हक़ीक़त से काफ़ी दूर है. जर्मनी में एएफडी (AFD) यानी ऑल्टरनेटिव फॉर ड्यूशलैंड नाम की पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता, यूरोपीय संघ के लिए एक और बड़ी चुनौती है. ऐसे हालात में बहुपक्षीयवाद ख़तरे में है. एक सार्वभौम व्यवस्था के तौर पर भी और अन्य स्तरों पर भी इसकी स्थिति चिंताजनक है. फिर चाहे आर्थिक मुद्दे हों या फिर सुरक्षा के मसले. आज बहुपक्षीय संगठन ज़बरदस्त दबाव में हैं.

बहुपक्षीयवाद ख़तरे में है. एक सार्वभौम व्यवस्था के तौर पर भी और अन्य स्तरों पर भी इसकी स्थिति चिंताजनक है. फिर चाहे आर्थिक मुद्दे हों या फिर सुरक्षा के मसले. आज बहुपक्षीय संगठन ज़बरदस्त दबाव में हैं.

बीमारी आख़िर है क्या?

पहली बात तो ये है कि ये बहुत आम है. उदारवादी और मध्यमार्गी राजनीति करने वाले तो ख़ास तौर से बहुपक्षीयवाद के मौजूदा संकट के लिए दो कारण गिनाते हैं. पहली बात तो ये कि बहुत से पर्यवेक्षकों का मानना है कि इसके लिए अमेरिकी राष्ट्रपति और उन की ‘अमेरिका फर्स्ट’ का एजेंडा ज़िम्मेदार है. इन लोगों का सवाल है कि अगर बाक़ी देश भी अमेरिका की इसी नीति को अपनाते हैं, तो क्या ये चौंकाने वाली बात है? जब दुनिया की सब से बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश इतना गैरज़िम्मेदाराना बर्ताव करता है. और उसी व्यवस्था से मुंह फेर लेता है, जिसे कभी ख़ुद उस ने खड़ा किया था, तो क्या होगा? और बहुत से जानकारों के मुताबिक़, बहुपक्षीय संगठनों के लिए संकट की घड़ी इसलिए भी है, क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की ही तरह, दुनिया के कई देशों में मज़बूत छवि वाले नेता राजनीति की क़तार में आगे आए हैं. जो लोकलुभावन राजनीति में यक़ीन रखते हैं और राष्ट्रवादी जज़्बातों को बढ़ावा देते हैं. ये नेता अपने देश की राजनीतिक परिचर्चा को ऐसे गढ़ते हैं जिसमें स्वदेशी लोगों के अधिकारों और हितों का टकराव वैश्विक कुलीन वर्ग से होता दिखे. हालांकि, ये दोनों ही बातें अपने मक़सद से भटकी हुई नज़र आती हैं. और इस मुद्दे की ऐसी ग़लत व्याख्या सिर्फ़ अकादमिक परिचर्चा का ही हिस्सा नहीं है. बल्कि, इन संवादों से जो फौरी समाधान निकलने हैं, वो बहुपक्षीयता के सामने खड़े संकट को और बढ़ा देते हैं. ट्रंप के नारे-मेक अमेरिका ग्रेट अगेन (चलो अमेरिका को फिर महान बनाएं) के जवाब में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों ने नारा दिया-मेक आवर प्लैनेट ग्रेट अगेन (चलो अपनी धरती को फिर से ख़ूबसूरत बनाएं). हालांकि, ऊपरी तौर पर ट्रंप को मैक्रों ने जिस तरह का जवाब दिया उस में कोई ग़लत बात नहीं है. ख़ासतौर से ख़ुद ट्रंप के अपने भौंडे नारे को देख कर तो ये काफ़ी उचित बात लगती है. लेकिन, जिस तरह से मैक्रों के बयान के बाद फ्रांस में यलो वेस्ट आंदोलन छिड़ा, उससे साफ़ है कि ट्रंप को जवाब देने के चक्कर में फ्रांस के राष्ट्रपति जो नैतिक दर्जा पाने की कोशिश कर रहे थे, वो बात बहुत से लोगों के गले नहीं उतरी.

आज बहुपक्षीय संगठनों के सामने जो संकट खड़ा है, उस की आमद ट्रंप के अंतरराष्ट्रीय मंच पर आने से बहुत पहले हो गई थी. अगर हम इस सच्चाई को स्वीकार करने में नाकाम रहते हैं, तो हम बार-बार उसी अंधेरी सुरंग में पहुंचेंगे, जहां से निकलने का रास्ता बंद है. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों का चलो अपनी धरती को फिर से ख़ूबसूरत बनाते हैं का नारा, हमें उसी सुरंग की तरफ़ ले जाता है. व्यापार के बहुपक्षीयवाद की ही मिसाल लीजिए. ये सच है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने विश्व व्यापार संगठन को अब तक का सब से ख़राब समझौता बताया है. उन्होंने भले ही कई देशों के ख़िलाफ़ इकतरफ़ा और आसानी से जीते जा सकने वाले व्यापार युद्ध छेड़ कर विश्व व्यापार संगठन की व्यवस्था को गंभीर चोट पहुंचाई हो. लेकिन, ट्रंप के इस नाटकीय क़दम के ग़ुबार में हम ये बात भूल जाते हैं कि विश्व व्यापार संगठन की व्यवस्था से असंतुष्टि की बयार कई साल पहले से बह रही थी. पिछले पंद्रह वर्षों से विश्व व्यापार के दोहा राउंड की राह में बार-बार खड़े हो रहे रोड़े इस बात की साफ़ तस्दीक़ करते हैं कि डब्ल्यूटीओ के अलग अलग भागीदारों के बीच असंतोष लंबे समय से पनप रहा है. इसके लिए केवल अमेरिका को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. इसी तरह, ये भी याद रखने वाली बात है कि भले ही आज लोग डब्लूटीओ की अपील करने वाली संस्था में जजों की नियुक्ति की राह में रोड़े अटकाने के लिए ट्रंप प्रशासन को ज़िम्मेदार ठहराते हों. लेकिन, जजों की नियुक्ति की राह में बाधाएं खड़ी करने का ये मामला असल में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के दौर की देन है. हां ये बात और है उस समय ओबामा की सरकार का रुख़ इतना सख़्त नहीं था, जितना आज ट्रंप प्रशासन है. ये भी ओबामा प्रशासन के ही दौर की बात है, जब अमेरिका ने अमेरिकी कामगारों के हितों का ध्यान रखने का शोर मचाना शुरू किया था. तब से ही अमेरिका, दोहा राउंड की वार्ता में ज़्यादा व्यापारिक रियायतें देने में आनाकानी कर रहा था. और फिर से ये याद रखना चाहिए कि ये ओबामा की ही सरकार थी, जिस ने विश्व व्यापार संगठन की बहुपक्षीय व्यवस्था से मुंह फेरना शुरू किया था. ओबामा प्रशासन ने ही ट्रांस अटलांटिक ट्रेड ऐंड इन्वेस्टमेंट पार्टनरशिप और ट्रांस पैसिफ़िक पार्टनरशिप के तौर पर द्विपक्षीय व्यापारिक समझौते करने की शुरुआत की थी. ऐसे में अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति ट्रंप का बहुपक्षीय समझौतों और संगठनों के प्रति ग़ुस्से का खुला इज़हार करने से, या फिर वैश्विक सहयोग की व्यवस्था के ख़िलाफ़ जा कर अमेरिकी जनता के लिए लोक लुभावन बातों का शोर मचाने से बहुपक्षीय संस्थनाओं के सामने खड़ी चुनौतियां बढ़ी हैं. लेकिन, इन्हें समस्या की जड़ नहीं कहा जा सकता.

आज दुनिया में मल्टीलैटरलिज़्म की इतनी बुरी स्थिति क्यों है, इसके तीन मुख्य कारण हैं. पहली बात तो ये है कि लोगों का भूमंडलीकरण से मोह भंग हुआ है. दूसरी बात ये है कि ऐसे बहुपक्षीय संगठनों को लेकर जो परिचर्चा है, वो ही बेदम है. और एक परेशानी ये भी है कि दुनिया के सामने जो नई चुनौतियां उठ रही हैं, उन का समाधान मौजूदा बहुपक्षीय नियमों के दायरे में रह कर नहीं हो सकता.

पहली बात तो ये है कि डोनाल्ड ट्रंप की अमेरिका फ़र्स्ट की नीति हो या ब्रेग़्जिट का समर्थन करने वाले ब्रितानी नेताओं का टेक बैक कंट्रोल का नारा हो. दोनों को अपने अपने देशों में जनता का समर्थन इसलिए मिल रहा है, क्योंकि इन देशों में बहुत से लोगों को लगता है कि भूमंडलीकरण से उन्हें कोई फ़ायदा नहीं हुआ. इसकी मिसाल वो अपने अपने समाज में बढ़ रही असमानता के हवाले से देते हैं. इसके अलावा बेरोज़गारी का संकट और घटती तनख़्वाहों की चुनौती को वो लोग निजी तौर पर झेल रहे हैं. ये अंतरराष्ट्रीय व्यापार की वो क़ीमत है, जो इन देशों की जनता को चुकानी पड़ रही है. ट्रंप या ब्रेग्ज़िट का समर्तन करने वाले जनता के समूहों को जो परेशानियां झेलनी पड़ रही हैं. उन के कई कारण हैं. ये कारण तकनीकी बदलाव से लेकर जन कल्याण की अपर्याप्त व्यवस्थाओं के दायरे तक फैले हैं. इससे संपत्ति का बराबरी से बंटवारा नहीं हो रहा है. लेकिन, दिक़्क़त ये है कि व्यापार को आसानी से बलि का बकरा बनाया जा सकता है. क्योंकि अंतरराष्ट्रीय समझौतों पर ज़िम्मेदारी डाल देना आसान होता है. मौजूदा अमरीकी प्रशासन इस बात की मिसाल है, जिस ने अंतरराष्ट्रीय समझौतों को लेकर लोगों की नाराज़गी को अपना मज़बूत राजनीतिक हथियार बना लिया है. बल्कि ये कहें कि ट्रंप प्रशासन ने लोगों की नाराज़गी को और हवा ही दी है. वो अमेरिका में अमीरों और ग़रीबों के बीच बढ़ती असमानता और ग़रीबी के लिए इन बहुपक्षीय समझौतों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. लेकिन, मौजूदा व्यवस्था से मोह भंग एक हक़ीक़त है और बेहद ताक़तवर राजनीतिक हथियार भी है. अमेरिकी जनता का ये मोह भंग और नाराज़गी आगे भी जारी रहेंगे, भले ही इस साल होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का नतीजा कुछ भी हो.

आज दुनिया में मल्टीलैटरलिज़्म की इतनी बुरी स्थिति क्यों है, इसके तीन मुख्य कारण हैं. पहली बात तो ये है कि लोगों का भूमंडलीकरण से मोह भंग हुआ है. दूसरी बात ये है कि ऐसे बहुपक्षीय संगठनों को लेकर जो परिचर्चा है, वो ही बेदम है. और एक परेशानी ये भी है कि दुनिया के सामने जो नई चुनौतियां उठ रही हैं, उन का समाधान मौजूदा बहुपक्षीय नियमों के दायरे में रह कर नहीं हो सकता.

दूसरी बात ये है कि बहुपक्षीय व्यवस्था के ख़िलाफ़ जो माहौल बनाया गया है, उस का मुक़ाबला करने के लिए एक ताक़तवर परिचर्चा का अभाव है. जो लोग नाराज़ हैं, या जिन का ऐसी व्यवस्थाओं से मोह भंग हो चुका है. उन्हें सिर्फ़ ये कह देने भर से नहीं समझाया जा सकता कि उन्हें अपने से पहले धरती के बारे में सोचना चाहिए. इससे उन्हें उन निजी आर्थिक मुश्किलों से निजात नहीं मिलेगी, जिस का वो सामना कर रहे हैं. बल्कि इसका उल्टा ही असर होगा. इससे उन लोगों के प्रति जनता की नाराज़गी और बढ़ेगी, जो आम लोगों की नज़र में भूमंडलीकरण से पैदा हुआ कुलीन वर्ग है. जिसे वो अपनी मुश्किलों के लिए ज़िम्मेदार मानते हैं, क्योंकि वो अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के समर्थन में हैं. अगर तमाम देशों की नाराज़ जनता को ऐसी बातों का झुनझुना पकड़ाया जाएगा, तो उस का नतीजा यही निकलेगा जैसा हम अमरीका में ट्रंप और जर्मनी में एएफडी की लोकप्रियता के तौर पर देखते हैं. जहां अमेरिकी जनता का एक बड़ा वर्ग ये कहता है कि ट्रंप ही उनकी तकलीफ़ समझते हैं. वहीं, जर्मनी में आल्टरनेटिव फॉर ड्यूशलैंड के समर्थक कहते हैं कि यही पार्टी है जो उन के हितों के लिए खुल कर मुक़ाबला करती है.

तीसरी बात ये है कि, उदारवादी लोगों का बहुपक्षीय व्यवस्था के बिखराव के लिए बार-बार डोनाल्ड ट्रंप को ज़िम्मेदार ठहराना मक़सद का हल नहीं है. बल्कि इसकी वजह से बहुपक्षीय व्यवस्था के विखंडन के लिए ज़िम्मेदार एक और कारण की चर्चा नहीं हो पाती. और वो है एक आक्रामक मुल्क के तौर पर चीन का बढ़ता कद. इसकी एक बड़ी वजह ये है कि ख़ुद चीन इस मोर्चे पर काफ़ी अच्छा काम कर रहा है. कम से कम हाल के दिनों तक.[1] वो ख़ुद को भूमंडलीकरण के संरक्षक के तौर पर पेश करता है. और बहुपक्षीय संगठनों का खुल कर समर्थन करता है. मिसाल के तौर पर जिस तरह चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने दावोस में विश्व आर्थिक मंच की बैठक में मौजूदा विश्व व्यवस्था का समर्थन किया, उस के मुक़ाबले अगर हम अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के ग़ुस्से में किए गए ट्वीट और व्यापार युद्धों को देखते हैं, तो समझ में आता है कि ट्रंप किस तरह मौजूदा व्यवस्था को तबाह कर रहे हैं. जब कि चीन उसे बचाने में जुटा है. लेकिन, हाल में हेनरी फैरेल और अबे न्यूमैन ने एक रिसर्च की है, जिसमे उन्होंने इस बात की पड़ताल की है कि किस तरह एक दूसरे पर निर्भरता को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. ताकि वैश्विक आर्थिक नेटवर्कों का इस्तेमाल भूराजनीतिक हित साधने में किया जा सके.[2] इन गहरी पड़तालों को अगर हम चीन की तेज़ी से होती तरक़्क़ी और अपने आस-पास के इलाक़ों में विवादित विस्तारवाद (मसलन बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव) के नज़रिए से देखते हैं. तो, ये साफ़ हो जाता है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद जिस बहुपक्षीय व्यवस्था का जन्म हुआ था, आज वो सवालों के घेरे में है.

दूसरे विश्व युद्ध के बाद जो व्यवस्था क़ायम की गई थी, वो इस सोच पर आधारित थी कि आर्थिक रूप से अगर सभी देश एक दूसरे पर निर्भर होंगे, तो स्थिरता की संभावना ज़्यादा रहेगी. सभी देश मिल कर शांतिपूर्ण विश्व के लिए काम करेंगे. लेकिन, अगर बहुपक्षीय सिद्धांतों का इस्तेमाल करके आर्थिक निर्भरता को बढ़ावा दिया गया है, या आगे ऐसा किया जा सकता है. तो इसके माध्यम से परंपरागत विरोधी एक दूसरे के ख़िलाफ़ ये भूराजनीतिक फ़ायदा उठा सकते हैं. अगर ऐसा होता है, तो इन नियमों के ख़िलाफ़ जनता का ग़ुस्सा देर-सबेर भड़कना तय है. एक तरफ़ अमेरिका ने सब से ज़्यादा ज़ोर-शोर से ये बात उठाई है. तो, दूसरी तरफ़ कई अन्य देश भी इस चुनौती का अलग-अलग मंचों पर हवाला देते रहे हैं. इन सभी देशों का तर्क है कि मौजूदा व्यवस्था में सुधार और नयापन लाने की ज़रूरत है.

स्थायी समाधान तलाशने की कोशिश

बहुपक्षीय व्यवस्था को लगी इस बीमारी को ठीक करने के लिए कुछ तकनीकी समाधानों पर अमल करना होगा. मसलन, विश्व व्यापार संगठन के विवाद समाधान व्यवस्था में सुधार लाना बेहद महत्वपूर्ण क़दम होगा. लेकिन, इस चुनौती ने जिस तरह अपनी जड़ें गहरी जमा ली हैं, उस से केवल तकनीकी समाधान से काम नहीं चलने वाला है. इसके अलावा चार और क़दम उठाने भी ज़रूरी होंगे.

बहुपक्षीय व्यवस्था के पक्ष में नए सिरे से माहौल बनाने की ज़रूरत है. इस नई परिचर्चा के माध्यम से यह सुनिश्चित करना होगा कि बहुपक्षीय व्यवस्था में जो सुधार लाया जाएगा, उस से तमाम देशों के नागरिकों को सीधा फ़ायदा मिलेगा. और ये फ़ायदा फ़ौरी ही नहीं, आने वाले वक़्त के लिए भी होगा.

पहली बात तो ये कि जो लोग नाख़ुश हैं, उन्हें हम बहुपक्षीय व्यवस्था पर परिचर्चा का हिस्सा बनाएं. ऐसा करना सख़्त आवश्यक है अगर हम वाक़ई बहुपक्षीय व्यवस्था को दोबारा पटली पर लाना चाहते हैं. तो फि हमें इन नाख़ुश लोगों की परेशानियों को गंभीरता से लेना होगा. इसका मतलबा ये है कि पहले, जो व्यापार में छूटें दी गई थीं, उन पर फिर से विचार किया जाए और भूमंडलीकरण के नए नियम क़ायदे तय किए जाएं. ताकि संपत्ति के उचित ढंग से बंटवारे की व्यवस्था विकसित की जा सके. और ये काम तमाम देशों को अपने अपने स्तर पर भी करना होगा और दूसरे देशों के साथ मिल कर भी ज़रूरी क़दम उठाने होंगे. अगर हम बार-बार ट्रंप पर आरोपों के वार करते रहेंगे. या उन के जैसे नेताओं को निशाना बनाते रहेंगे. उन के समर्थकों का मज़ाक़ उड़ाते रहेंगे, तो इससे ध्रुवीकरण और बढ़ेगा ही.

दूसरी बात ये है कि बहुपक्षीय व्यवस्था के पक्ष में नए सिरे से माहौल बनाने की ज़रूरत है. इस नई परिचर्चा के माध्यम से यह सुनिश्चित करना होगा कि बहुपक्षीय व्यवस्था में जो सुधार लाया जाएगा, उस से तमाम देशों के नागरिकों को सीधा फ़ायदा मिलेगा. और ये फ़ायदा फ़ौरी ही नहीं, आने वाले वक़्त के लिए भी होगा. अगर हम दुनिया की भलाई के लिए त्याग करने और आने वाली पीढ़ियों के कल्याण की चिंता करने की अपील भर से काम चलाना चाहेंगे, तो ऐसा चलने वाला नहीं. ख़ास तौर से जो लोग भूमंडलीकरण की वजह से आर्थिक मुश्किलें झेल रहे हैं, उन के ज़हन से ठगे जाने का भाव निकालना ही होगा. बहुपक्षीय व्यवस्था के हक़ में इस नई परिचर्चा में ऐसी दिलचस्पी पैदा करनी होगी कि हर नागरिक इस में अपना फ़ायदा देखे. और हर समुदाय को इसी में भलाई नज़र आए. मल्टीलैटरलिज़्म पर होने वाली इस परिचर्चा को राजनीतिक, स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और विश्व स्तर तक पहुंचाना होगा.[3]

तीसरी बात ये है कि आज तमाम बहुपक्षीय संगठनों को लेकर नए सिरे से वार्ता करने की ज़रूरत है. इसे असरदार तरीक़े से करने के लिए बेहतर होगा कि विकासशील देशों की मांगों पर ध्यान दिया जाए. जैसे कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार किया जाए. इसके साथ ही साथ, हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि एक दूसरे पर आर्थिक निर्भरता को जिस तरह से हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. वैसे में बहुपक्षीय नियमों के नवीनीकरण की ज़रूरत है. ताकि उन का बेज़ा इस्तेमाल और दुरुपयोग न हो सके. ये सुधरी हुई व्यवस्था भी चीन को अपने साथ जोड़ने में सक्षम होगी. लेकिन, खुलकर कहें तो ये समझ पाना मुश्किल है कि एक ऐसी बहुपक्षीय व्यवस्था कैसे विकसित की जा सकती है, जो सब के लिए लाभप्रद हो और जो दूरगामी हित साधने की महत्वाकांक्षा को पूरा कर सके. और ऐसा करने के लिए ये तमाम साझीदारों को ये संकेत भी दे कि वो अपने सीधे मुक़ाबले वाले देशों से प्रतिद्वंदिता को छोड़ दें और अपनी शक्ति का बेज़ा इस्तेमाल न करें.

लोकतंत्र, बहुलतावाद, ताक़तवर उदारवाद और क़ानून के राज के मसलों पर विवाद बढ़ रहे हैं. अब ऐसा समय आ रहा है जब केवल खोखली घोषणाओं का शोर मचाकर इन बुनियादी मतभेदों को छुपाने से काम नहीं चलने वाला.

और आख़िर में सब से अहम बात ये है कि अगर बहुपक्षीय व्यवस्थाएं पर्याप्त सुरक्षा उपाय करने और भूराजनीतिक हितों के लिए अपना दुरुपयोग रोकने के लिए पर्याप्त सुरक्षा का इंतज़ाम करने में नाकाम रहती हैं. तो, नीतियां बनाने वालों को विवाद में पड़ना ही होगा और बहुपक्षीय व्यवस्था के मूल्यों को फिर से स्थापित करने के लिए संघर्ष करना ही होगा. इन विषयों की संकुचित व्याख्या का ही नतीजा है कि आज जर्मनी और कनाडा जैसे देश कामगारों और पर्यावरण के लिए अपने मानक ख़ुद तय कर रहे हैं. लेकिन, ये सोच दूर दृष्टि वाली नहीं है. आज बड़ी ताक़तों के बीच जो मुक़ाबला चल रहा है, उस में पहली विश्व व्यस्था के मूल्यों में दरार आती साफ़ दिख रही है. मसलन, लोकतंत्र, बहुलतावाद, ताक़तवर उदारवाद और क़ानून के राज के मसलों पर विवाद बढ़ रहे हैं. अब ऐसा समय आ रहा है जब केवल खोखली घोषणाओं का शोर मचाकर इन बुनियादी मतभेदों को छुपाने से काम नहीं चलने वाला. हम सिर्फ़ ये कह कर नहीं बच सकेंगे कि तमाम देशों के साझा हित हैं और हम सब भूमंडलीकरण की व्यवस्था के हामी हैं. फिलहाल जहां तक बहुपक्षीयवाद के समर्थन की बात है, तो फिलहाल इसकी नुमाइंदगी का मतलब, कुछ मानक तय करने का एजेंडा है. ऐसे में ये अहम होगा कि यूरोप, भारत, जापान और अन्य बड़े खिलाड़ी मिल कर इस दिशा में काम करें. ऐसे सहयोगियों के साथ गठबंधन बनाना अहम होगा, जो पहले दर्जे के मूल्यों में यक़ीन रखते हैं. तभी बहुपक्षीय व्यवस्था को दोबारा असरदार और लाभकारी बनाया जा सकेगा.


संदर्भ सूची

[1] The tide may have begun to turn somewhat in this last year, amidst security concerns expressed not only by the US but also in Europe about Chinese digital technologies, by both government and business actors.

[2] Henry Farrell and Abraham Newman, “Weaponized Interdependence: How global economic networks shape state coercion,” International Security 44, No. 1 (Summer 2019): 42-79.

[3] For more on how to build winning narratives, see Amrita Narlikar, Poverty Narratives and Power Paradoxes in International Trade Negotiations and Beyond (Cambridge: Cambridge University Press, May 2020).

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