Author : Vaishali Jaipal

Published on May 15, 2024 Updated 0 Hours ago

पाकिस्तान की हुकूमत ने बलोच विरोध प्रदर्शनों को लेकर जो सख़्त रवैया अपनाया है, इससे बलोच जनता की नाख़ुशी और बढ़ जाएगी, जिससे ये मौजूदा संकट और भी गहरा हो जाएगा.

पाकिस्तान के बलोचिस्तान इलाक़े में प्रतिरोध का बदलता स्वरूप!

11 अप्रैल 2024 को ‘बलोच नरसंहार के ख़िलाफ़ मुहिम’ अपने ‘पांचवें दौर’ में दाख़िल हो गई. अब ये विरोध प्रदर्शन बलोचिस्तान सूबे के 22 शहरों में भड़क उठे हैं. इन विरोध प्रदर्शनों की अगुवाई वो लोग कर रहे हैं, जिनके परिजन ज़बरन लापता कर दिए गए. अब उनके परिवार वाले अपने प्रिय परिजनों को वापस लाने की मांग कर रहे हैं. इस आंदोलन का मक़सद इस क्षेत्र में लंबे समय से चले आ रहे मानवीय संकट को ख़त्म करना है.

 शुरुआत में ये आंदोलन लापता हुए लोगों के परिजनों ने इंसाफ़ की मांग को लेकर शुरू किया था. जो अब धीरे धीरे विरोध के एक व्यापक आंदोलन में तब्दील हो गया है. इस आंदोलन में शामिल लोग पुलिस की बर्बरता और ग़ैरक़ानूनी हत्याओं, जिन्हें ‘मारो और फेंक दो’ की नीति कहा जाता है, का विरोध कर रहे हैं. 

ये आंदोलन, एक तथाकथित मुठभेड़ में पाकिस्तान के आतंकवाद निरोधक विभाग (CTD) के हाथों बलाच मौला बख़्श की मौत को लेकर दु:ख और ग़ुस्से की वजह से और भड़क उठा है. शुरुआत में ये आंदोलन लापता हुए लोगों के परिजनों ने इंसाफ़ की मांग को लेकर शुरू किया था. जो अब धीरे धीरे विरोध के एक व्यापक आंदोलन में तब्दील हो गया है. इस आंदोलन में शामिल लोग पुलिस की बर्बरता और ग़ैरक़ानूनी हत्याओं, जिन्हें ‘मारो और फेंक दो’ की नीति कहा जाता है, का विरोध कर रहे हैं. वैसे तो बलोचिस्तान में ऐसे विरोध प्रदर्शनों का एक लंबा इतिहास रहा है. लेकिन, अपने शांतिपूर्ण तौर-तरीक़ों और महिलाओं की अगुवाई की वजह से मौजूदा आंदोलन, पहले की मुहिमों से अलग दिख रहा है. इसकी शुरुआत दिसबंर 2023 में मानव अधिकार कार्यकर्ता डॉक्टर माहरंग बलोच ने की थी, जिनका ताल्लुक़ बलोच यकजहती (एकजुटता) कमेटी से है. इस मुहिम का सबसे अहम पहलू, ‘ख़ामोशी से आगे मार्च करना’ है. महिलाओं की अगुवाई में तुर्बत से इस्लामाबाद तक किया गया ये शांतिपूर्ण मार्च, बलोचिस्तान के इतिहास में काफ़ी अहम बन गया है. क्योंकि, इसने बग़ावत के पारंपरिक तौर तरीक़ों से ख़ुद को अलग रखा और सरकार प्रायोजित निर्ममता के बावजूद उल्लेखनीय लचीलापन दिखाया है.

 

बलोचिस्तान में उथल-पुथल: एक बहुआयामी संकट और चीन की भूमिका

 

बलोचिस्तान में लंबे समय से चली आ रही राष्ट्रवादी मुहिम की जड़ में बलोचों के बीच गहरे बैठी ये सोच है कि एक समुदाय के तौर पर उन्हें लगातार हाशिए पर धकेला जाता रहा है. वहां के लोगों को ये भी शिकायत है कि पाकिस्तान स्टेट ने बलोचिस्तान का उस तरह से विकास नहीं किया, जैसे मुल्क के अन्य सूबों में हुआ है. बलोचिस्तान में प्राकृतिक संपदा के प्रचुर भंडार (सोना, गैस, यूरेनियम) मिलते हैं. अपनी अहम सामरिक भौगोलिक स्थिति की वजह से बलोचिस्तान मध्य पूर्व, मध्य एशिया और दक्षिणी एशिया के बीच प्रमुख व्यापारिक मार्ग है. फिर भी वो पाकिस्तान का सबसे ग़रीब सूबा बना हुआ है.

 एक प्रेस कांफ्रेंस में पूर्व कार्यवाहक प्रधानमंत्री अनवार उल हक़ काकड़ ने प्रदर्शनकारियों की तुलना आतंकवादियों से की और उनके समर्थकों को आतंकवाद से हमदर्दी रखने वाला बता दिया. 

बलोचिस्तान के ग्वादर में चीन ने, चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) के तहत एक गहरे समुद्र वाला बंदरगाह विकसित किया है. चीन ने यहां ‘अपनी ख़ूबियों वाले विकास’ का वादा किया था. लेकिन, उसका ये दांव उल्टा पड़ गया है. विदेशी नागरिकों की आमद की वजह से आबादी की बनावट में आए बदलाव और संसाधनों का अतार्किक तरीक़े से इस्तेमाल होने की वजह से यहां की पारिस्थितिकी को हुए नुक़सान और रोज़ी रोटी के मुख्य ज़रिए यानी मछली मारने के धंधे को पहुंची चोट ने, स्थानीय लोगों से किए गए विकास के वादे की पोल खोल दी है. स्थानीय लोगों की ये शिकायत भी है कि विकास की इन विशाल परियोजनाओं से उन्हें बहुत मामूली फ़ायदा हो रहा है. क्योंकि, ख़बरों के मुताबिक़ 62 अरब डॉलर की CPEC परियोजना का 91 प्रतिशत राजस्व चीन के ख़ज़ाने में जा रहा है. इसी तरह, सैंडक की तांबा और सोने की परियोजना से होने वाली आमदनी में से केवल 5-6 प्रतिशत राजस्व ही बलोचिस्तान की हुकूमत को आवंटित किया जाता है. इस तरह आर्थिक तौर पर अलग थलग किए जाने की वजह से स्थानीय लोग ज़्यादा सियासी स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं और उनके बीच चीन विरोधी जज़्बात बढ़ते जा रहे हैं. इस वजह से बलोच उग्रवाद में जटिलता की एक और परत जुड़ गई है.

 

हुकूमत की बेरुख़ी का सिलसिला जारी है

 

बलोचिस्तान में उग्रवाद को कुचलने के लिए पाकिस्तान की सरकार अपनी बदनाम ‘मारो और फेंक दो’ की बर्बर नीति पर चलती है. सरकारी ख़ुफ़िया एजेंसियां मानव अधिकार कार्यकर्ताओं और विरोध करने वालों को अगवा करा लेती हैं. उनका टॉर्चर करती हैं और अक्सर उन्हें मारकर फेंक दिया जाता है. सामूहिक क़ब्रिस्तानों का पता चलना इस संस्थागत हिंसा का सबसे बड़ा सुबूत है. मानव अधिकारों के ये उल्लंघन ही, ‘ख़ामोशी से आगे मार्च’ मुहिम के पीछे की सबसे बड़ी ताक़त हैं. हालांकि, एक बार फिर पाकिस्तान की सरकार ने विरोध के सुरों को डरा-धमकाकर ख़ामोश करने की नीति अपनाई है. इस्लामाबाद हाई कोर्ट ने इस ‘मार्च’ को मंज़ूरी दे दी थी और इस तरह प्रदर्शनकारियों के शांतिपूर्ण तरीक़े से इकट्ठा होने के अधिकार पर मुहर लगाई थी. फिर भी, सरकार ने इस आंदोलन के को सख़्ती से कुचलने की कोशिश की. भयंकर ठंड में पहले तो प्रदर्शनकारियों पर लाठियां बरसाई गईं. फिर उन्हें बुनियादी सुविधाओं से महरूम रखा गया. इसके बाद, इस मार्च का समर्थन करने वाले सरकारी कर्मचारियों को गिरफ़्तार करके उन्हें निलंबित कर दिया गया. इसी से पता चलता है कि पाकिस्तान की हुकूमत बलोचों से संवाद करने की इच्छुक नहीं है.

 

एक प्रेस कांफ्रेंस में पूर्व कार्यवाहक प्रधानमंत्री अनवार उल हक़ काकड़ ने प्रदर्शनकारियों की तुलना आतंकवादियों से की और उनके समर्थकों को आतंकवाद से हमदर्दी रखने वाला बता दिया. इसके बाद से विरोध प्रदर्शनों को बदनाम करने की एक डिजिटल मुहिम चलाई गई, जिसमें उन स्थानीय पत्रकारों को धमकियां दी गईं और गिरफ़्तार किया गया, जो इस मुहिम का समर्थन कर रहे थे. इसकी वजह से बहुत से पत्रकारों और मीडिया संस्थानों ने ख़ुद ही सेंसरशिप लागू कर दी, जिसकी वजह से इस आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर सुर्ख़ियों में जगह नहीं मिल सकी. मुख्यधारा के मीडिया ने भी सरकार द्वारा थोपे गए ब्लैकआउट की वजह से इन आंदोलन के कवरेज से परहेज़ किया. 

 

ऐतिहासिक रूप से लापता लोगों को लेकर सरकारी आंकड़ों और ज़मीनी हक़ीक़त के बीच बड़े फ़ासले को लेकर विवाद खड़ा होता रहा है. ‘वॉयस ऑफ बलोच मिसिंग पर्संस’ जैसे मानव अधिकार समूह दावा करते हैं कि 2004 से लगभग 7 हज़ार लोग लापता हुए हैं. वहीं सरकार द्वारा बनाए गए, कमीशन ऑफ इनक्वायरी ऑन एन्फोर्स्ड डिसअपीयरेंस (COIOED) ने ये माना है कि लापता लोगों की तलाश के 2750 मामले अभी चल रहे हैं. सरकारी आंकड़ों और बलोचों के दावों के बीच इस अंतर से सरकार को इस संकट की भयावाहता को कम करके पेश करने और जांच में अड़ंगे लगाने का मौक़ा मिल जाता है. इसी वजह से, बलोच प्रदर्शनकारियों ने अपने विरोध के लिए इस्लामाबाद को अड्डा बनाया. फिर भी, सरकारी एजेंसियों द्वारा तोड़-मरोड़कर पेश किए गए नैरेटिव की वजह से, ये ‘मार्च’ राष्ट्रीय स्तर पर जज़्बात जगा पाने में नाकाम साबित हुआ.

 

महिलाओं की अगुवाई में विरोध

 

बलोच समाज मुख्य रूप से ग्रामीण तबक़ों से बना हुआ है और ये संकीर्ण क़बाइली नियम क़ायदों से चलता है, और इसमें मर्दवादी सोच का दबदबा है. इसकी वजह से बलोचिस्तान में बड़े पैमाने पर लैंगिक विभेद देखने को मिलता है, जिसकी वजह से केवल 26 प्रतिशत बलोच महिलाएं ही कभी स्कूल जा सकी हैं. ये दुनिया भर में महिलाओं की सबसे कम साक्षरता दरों में से एक है. ग्रामीण इलाक़ों में महिलाओं की साक्षरता का प्रतिशत और गिरकर महज़ दो फ़ीसद रह जाता है, जिससे बलोच महिलाओं द्वारा झेले जाने वाले संस्थागत भेदभाव की तस्वीर उभकर सामने आती है. कामगारों में महिलाओं की हिस्सेदारी 14 प्रतिशत है, जो पाकिस्तान के राष्ट्रीय औसत 21 प्रतिशत से कम है. बलोचिस्तान सूबे में बाल विवाह के मामले भी सबसे ज़्यादा होते हैं. अहम बात ये है कि 2022 के जेंडर गैप इंडेक्स में पाकिस्तान 146 देशों की सूची में 145वें स्थान पर है और उसका बलोचिस्तान सूबा लैंगिक असमानता के मामले में सबसे ख़राब प्रदर्शन वाला रहा है.

 

लैंगिकता के सख़्त नियमों के पाबंद बलोच समाज में जहां महिलाओं को आम तौर पर घरेलू कामकाज तक सीमित रखा जाता है और उनकी सार्वजनिक उपस्थिति, पुरुषवादी बिरादराना बेड़ियों में जकड़ी रहती है. ऐसे में घर का ख़र्च चलाने वाले की ग़ैरमौजूदगी महिलाओं के लिए एक कमज़ोर और अनिश्चित भविष्य की निशानदेही बन जाती है. इसकी वजह से बलोच महिलाओं को सड़कों पर उतरने को मजबूर होना पड़ता है. क्योंकि, उनके पास अपनी मौजूदगी का एहसास कराने और अपनी चिंताएं ज़ाहिर करने के सिवा कोई और रास्ता बचता नहीं है. इसीलिए, महिलाओं का इस ‘मार्च’ की अगुवाई करना काफ़ी महत्वपूर्ण है, जिससे उनकी स्वायत्तता को सीमित करने वाले गहरी जड़ें जमाकर बैठे सांस्कृतिक नियमों से अलग हटने की तस्वीर नज़र आती है. इस आंदोलन के अग्रणी मोर्चे में महिलाओं की मौजूदगी एक ऐतिहासिक लम्हा है, जो महिलाओं से की जाने वाली पारंपरिक अपेक्षाओं को चुनौती देने वाली है, जिसके ज़रिए वो अपनी मौजूदगी और सक्रियता को जता रही हैं. हाथों में अपने लापता परिजनों की तस्वीरें लेकर मार्च कर रही महिलाओं की ये तस्वीर, हुकूमत के ज़ुल्म-ओ-सितम के ख़िलाफ़ बग़ावत का एक सशक्त एलान करने वाली है.

 

इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी ‘ख़ामोशी से आगे मार्च’ करने जैसे अहिंसक तौर-तरीक़ों के दायरे से आगे बढ़कर दिख रही है. हुकूमत के सितम के ख़िलाफ़ बलोच बग़ावत का मिज़ाज धीरे धीरे अपना चेहरा बदल रहा है. अप्रैल 2022 में 35 बरस की एक ग्रेजुएट और दो बच्चों की मां शारी बलोच ने कराची यूनिवर्सिटी में आत्मघाती हमला किया था, जिसमें विशेष रूप से चीन के निवेशों को निशाना बनाया गया था. इसी तरह, जून 2023 में सुमैया क़लंदरानी बलोच ने पाकिस्तानी सेना के एक काफ़िले पर आत्मघाती बम हमला किया था. दोनों घटनाओं की ज़िम्मेदारी बलोच लिबरेशन आर्मी (BLA) ने ली थी, जिसे अमेरिका और यूरोपीय संघ (EU) दोनों ने आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा है. वहीं, इन आत्मघाती हमलों को BLA ने ‘राष्ट्रीय आंदोलन में महिला फिदाईन के युग का आग़ाज़’ क़रार दिया था.

 

ये चलन आपस में मेल खाने वाले लक्ष्यों के लिए तालमेल दिखाता है, जिसमें आतंकवादी संगठन सामाजिक प्रगतिशीलता को अपनाते हुए लैंगिक रूप से अल्पसंख्यकों को अगुवाई करने और लड़ाई वाली भूमिका अपनाने का मौक़ा दे रहे हैं. वहीं, महिलाएं एक साझा मक़सद की लड़ाई के लिए अपनी पारंपरिक भूमिकाओं का त्याग कर रही हैं. बलोच लिबरेशन आर्मी जैसे संगठनों की खुली भर्ती की नीति की वजह से काफ़ी तादाद में महिलाएं अपनी इच्छा से शामिल हो रही हैं. इसके अलावा बलोच स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइज़ेशन आज़ाद (BSOA) जैसे छात्र संगठन के कार्यकर्ता भी हिंसक गतिविधियों तक पहुंच बनाने और उसे जायज़ ठहराने में मददगार साबित हो रहे हैं. ये संगठन नौजवानों और पढ़े लिखे लोगों को बदला लेने और नाम कमाने के नाम पर उग्रवाद की ओर उकसा रहे हैं.

 प्रतिरोध के प्रतीक के तौर पर महिलाओं का उभार, आतंकवादी संगठनों के लिए भी सामरिक रूप से फ़ायदेमंद है. चूंकि महिलाओं के ऊपर विस्फोटक ले जाने का शक कम होता है और उनका पहनावा ऐसा होता है, जिससे उन्हें सुरक्षा हासिल हो जाती है.

प्रतिरोध के प्रतीक के तौर पर महिलाओं का उभार, आतंकवादी संगठनों के लिए भी सामरिक रूप से फ़ायदेमंद है. चूंकि महिलाओं के ऊपर विस्फोटक ले जाने का शक कम होता है और उनका पहनावा ऐसा होता है, जिससे उन्हें सुरक्षा हासिल हो जाती है. हुकूमत के लगातार बेरुख़ी अपनाने या फिर आक्रामकता दिखाने की वजह से ग़लती से ही महिला आत्मघाती बम हमलावरों की बढ़ती संख्या के लिए ऊर्वर ज़मीन तैयार हो गई है. ये मंज़र 2000 के दशक में चले ‘ब्लैक विडोज़’ अभियान की याद दिलाता है, जिन्होंने रूस में दहशत फैला दी थी. इससे महिला राजनीतिक कार्यकर्ताओं या अधिकारों की लड़ाई लड़ने वालों के लिए जोखिम बढ़ गया है, क्योंकि अब सुरक्षा बल उन्हें ज़्यादा निशाना बनाने लगेंगे.

 

मेल-मिलाप की नाकाम प्रतिबद्धता

 

‘मार्च बियोंड साइलेंस’ को लेकर पाकिस्तान सरकार की सख़्त प्रतिक्रिया की वजह से बलोचों के साथ मेल-जोल की संभावना पर आशंका के गहरे बादल छा गए हैं. जिस तरह लोगों को डराया और परेशान किया गया, उसने भरोसे की कमी वाली खाई को और चौड़ा कर दिया है, जिससे मसले के किसी समाधान और शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की संभावनाएं क्षीण हो गई हैं. आपसी भरोसे की ये कमी क़ानूनी प्रक्रिया के प्रति लगातार बेरुख़ी के तौर पर भी दिखती है. 2021 में ज़बरन लापता किए जाने को अपराध घोषित करने वाला विधेयक लाने के बावजूद, नेशनल असेंबली इसे लागू कर पाने में नाकाम रही है. इसी तरह हुकूमत को जवाबदेह बनाने वाले अदालत के आदेशों की भी अनदेखी की जाती रही है. इससे मानव अधिकार संगठनों को विरोध प्रदर्शनों का बोझ अपने कंधों पर उठाना पड़ रहा है. बलोच यकजहती कमेटी (BYC) का तर्क है कि इस्लामाबाद में जिस तरह प्रदर्शनकारियों को दबाने की कोशिश की गई, उससे न चाहते हुए भी बलोच समुदाय एकजुट हो गया है. सरकार के इस रवैये ने सरकार की दमनकारी नीतियों का भी पर्दाफ़ाश कर दिया है. कमेटी का मानना है कि इससे ‘बलोच नरंसहार’ के सिलसिले को बढ़ावा मिलता है.

 

अब बलोच आंदोलन शहरी, युवाओं की ताक़त और महिलाओं की अगुवाई से चलने वाली मध्यम वर्गीय प्रक्रिया बन गया है. ऐसे में सरकार की लगातार बेरुख़ी से लोगों की नाराज़गी और बढ़ेगी. बलोचों की आर्थिक और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए एक व्यापक योजना की सख़्त ज़रूरत है, ताकि विरोध प्रदर्शनों में ‘अपेक्षित’ कमी से पैदा हुए शून्य को भरा जा सके. इसके बग़ैरह बलोच आंदोलन चलता रहेगा, जिससे पाकिस्तानी हुकूमत के लिए ये संकट और गहरा होता जाएगा.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Author

Vaishali Jaipal

Vaishali Jaipal

Vaishali Jaipal is an intern with the Strategic Studies Programme at the Observer Research Foundation ...

Read More +