Author : Jaibal Naduvath

Published on Nov 08, 2023 Updated 0 Hours ago

आज के दौर में जब नैरेटिव के मामले में बढ़त हासिल करना, युद्ध के मैदान में दबदबा क़ायम करने से ज़्यादा अहम है, तो देशों को चाहिए कि वो आत्मरक्षा में प्रतिक्रिया देने के बजाय सक्रियता से संवाद करें.

अतार्किकता का युग: नैरेटिव की जंग क्यों हार जाते हैं देश?

रॉबर्ट ए हेनलेन  के 1940 में आए मशहूर साइंस फिक़्शन लघु उपन्यास ‘इफ दिस गोज़ ऑन’ का मुख्य किरदार ज़ेब कहता है कि, ‘आप किसी एक इंसान को तर्क से अपना कायल करने से ज़्यादा आसानी से, एक हज़ार लोगों के पूर्वाग्रहों को भड़काकर उन्हें अपने पक्ष में कर सकते हैं.’ ये विडम्बना ही है कि उस उपन्यास की कहानी एक ऐसे शहर से जुडी है, जिसका नाम ‘न्यू यरूशलेम ’ है. ज़ेब का बयान उस दुविधा को बख़ूबी प्रदर्शित करता है, जिससे इस वक़्त, नैरेटिव की जंग लड़ रही इज़राइल की सरकार जूझ रही है, ख़ास तौर पर ग़ाज़ा पट्टी के अल अहली बैपटिस्ट अस्पताल पर बमबारी के बाद से. भले ही तमाम फोरेंसिक निष्कर्ष उल्टी तरफ़ इशारा कर रहे हों, लेकिन, इस जंग का एक निर्णायक मोड़ कही जा रही इस घटना यानी अस्पताल पर बमबारी के लिए इज़राइल पर इल्‍ज़ाम लगाने में ज़रा भी देर नहीं की. इससे न केवल 7 अक्टूबर को हमास और इस्लामिक जिहाद के आतंकियों द्वारा आम नागरिकों पर ढाए गए ज़ुल्मों से दुनिया का ध्यान हटा, बल्कि अपने सैन्य मक़सद के लिए इन संगठनों द्वारा फ़िलिस्तीन के आम नागरिकों को इंसानी ढाल बनाने के निहायत निंदनीय कृत्य पर से भी लोगों का ध्यान हट गया. जबकि, हमास और हिज़्बुल्लाह द्वारा आम नागरिकों को अपनी ढाल बनाने के कारण ही, 2018 में अमेरिका ने ‘शील्ड्स एक्ट’ पारित किया था. इस क़ानून के तहत अमेरिका के राष्ट्रपति की ये ज़िम्मेदारी है कि वो इंसानों को ढाल बनाने वालों पर प्रतिबंध लगाएं.

सैन्य मक़सद के लिए इन संगठनों द्वारा फ़िलिस्तीन के आम नागरिकों को इंसानी ढाल बनाने के निहायत निंदनीय कृत्य पर से भी लोगों का ध्यान हट गया. जबकि, हमास और हिज़्बुल्लाह द्वारा आम नागरिकों को अपनी ढाल बनाने के कारण ही, 2018 में अमेरिका ने ‘शील्ड्स एक्ट’ पारित किया था.

वैसे तो इज़राइल के पलटवार में आम नागरिकों की मौत को ग़लत तरीक़े से पेश करके और इन बातों को मल्टीमीडिया अभियानों से प्रचारित करके, इन मौतों को हथियार तो पहले से ही बनाया जा रहा था. लेकिन, अस्पताल जैसी स्वस्थ होने और पनाह पाने की जगह पर बमबारी ने इस नैरेटिव को कई गुना और बढ़ा दिया. जब कटी-फटी लाशों और ख़ून से सने बच्चों की तस्वीरें प्राइम टाइम टेलिविज़न और सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगीं, आम तौर पर फ़िलिस्तीन के मसले पर विभाजित अरब देशों की जनता को भी इस घटना ने एकजुट कर दिया. इससे, लंबे समय से दुश्मन देश माने जाते रहे इज़राइल के ख़िलाफ़ लोगों की भावनाएं और भी भड़क उठीं. फिर ये अंदरूनी ग़ुबार भड़के ज़ज़्बात की शक्ल में सड़कों पर निकल आया, जिससे देशों का रुख़ बदल गया, क्योंकि हर हुकूमत को अपने देश की जनता के जज़्बात का सम्मान करना पड़ा. ये इस बात की बड़ी मिसाल  है कि किस तरह, पक्षपाती संवेदनाओं, मंत्रमुग्ध कर देने वाली क़िस्सागोई और मीडिया का शातिराना इस्तेमाल करके नैरेटिव का रुख़ तोडा मरोड़ा जा सकता है, ताकि अपने ख़िलाफ़ माहौल को अपने पक्ष में किया जा सके.

इज़राइल का रुख़

इज़राइल की सरकार की दुविधा उस चुनौती का प्रतीक है, जिसका सामना ऐसे लड़ाका समूहों से मुक़ाबला करने वाले देशों को करना पड़ता है. जब, जंग के मैदान में जीत हासिल करने से ज़्यादा अहम नैरेटिव के मोर्चे पर दबदबा क़ायम करना हो जाता है. और जब ऐसे समूह आम लोगों की एक बड़ी आबादी पर नियंत्रण रखते हों- जैसे कि ग़ाज़ा में हमास, जैसे एक दौर में श्रीलंका में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ ईलम (LTTE) का या फिर कोलंबिया में FARC (Fuerzas Armadas Revolucionarias de Colombia) का- तो मामला और भी जटिल हो जाता है. ये समूह दुनिया की राय पर अपना दबदबा क़ायम करते हैं, और प्रोपेगेंडा , तोड़-मरोड़ और दबाव के घातक घालमेल से नाख़ुश जनता को अपना बंधक बना लेते हैं और मुजरिम होने के साथ वो पीड़ित बन जाते हैं. इस ऊपरी तौर पर दिखने वाले दोहरेपन के दो कारण हैं: पहला तो ऐसे नज़रिए से ताक़तवर जज़्बाती प्रतिक्रिया मिलती है, जो हमदर्दी रखने वाले लोगों को उनके पक्ष में खड़ा कर देते हैं, वहीं इससे दुश्मनों को डराने के साथ साथ अंदरूनी मतभेदों को दबाने में भी मदद मिलती है.

ऐसे संगठन पारंपरिक और नए माध्यमों की ताक़त का बख़ूबी इस्तेमाल करने की महारत रखते हैं, ताकि अपने समर्थकों को जुटाने के साथ साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमदर्दी को भी उभार सकें. हैशटैग का दौर आने से बहुत पहले LTTE की एक समर्पित मीडिया शाखा थी, जो तमिल अल्पसंख्यकों के ऊपर सेना के तथाकथित ज़ुल्मों के वीडियो बनाकर प्रचारित करती थी. वो बहुत शातिराना तरीक़े से दुनिया भर में बसे तमिल समुदाय के लोगों से अपील करते थे और उनके भीतर बिरादराना जज़्बात उभारकर फंड और समर्थन जुाया करते थे. FARC अपने संघर्ष की कहानी ग़रीबी, भेदभाव और वर्ग संघर्ष जैसे मुद्दों के इर्द-गिर्द गढ़ा करते थे और ख़ुद को ज़ुल्म के शिकार लोगों के लिए लड़ने वाला बताकर अपने लिए समर्थन जुटाया करते थे. FARC के लड़ाके अपने आपराधिक कृत्यों पर पर्दा डालते हुए सरकार प्रायोजित तथाकथित हिंसा को प्रचारित किया करते थे. हमास भी बरसों से इज़राइल के ख़िलाफ़ बग़ावत करने वालों के रूप में अपना प्रचार करता आया है. इसके साथ साथ प्रासंगिकता और ज़मीन की जंग में हमास ख़ुद को अपने सियासी प्रतिद्वंदी यानी फ़िलिस्तीनी प्राधिकरण के बरअक्स पेश करता रहा है. हमास अपने इस प्रयास के लिए सोशल मीडिया, नाख़ुश समुदायों की पहचान और ख़ास एजेंडे पर चलने वाले सरकारों की ताक़त का इस्तेमाल करता आया है. उनका नैरेटिव विरोधी के प्रति जज़्बात का तूफ़ान खड़ा करने की कोशिश करता है. जिसमें एक तरफ़ तो इज़राइल की सैन्य शक्ति और तूफ़ान दिखाया जाता है, दूसरी ओर बेगुनाह फ़िलिस्तीनी नागरिक खड़े होते हैं, जिससे अंतर हिला देने वाली प्रतिक्रिया पैदा होती, सड़कों पर कट्टर जज़्बात दिखते हैं और दुनिया की राय का ध्रुवीकरण हो जाता है.

इस प्रयास के लिए सोशल मीडिया, नाख़ुश समुदायों की पहचान और ख़ास एजेंडे पर चलने वाले सरकारों की ताक़त का इस्तेमाल करता आया है. उनका नैरेटिव विरोधी के प्रति जज़्बात का तूफ़ान खड़ा करने की कोशिश करता है.

ऐसे तरीक़े, ख़ुद को पीड़ित दिखाने और ताक़त के असंतुलन पर आधारित होते हैं, जो किसी संगठित हुकूमत के ख़िलाफ़ जाते हैं. वो देश, ऐसे नैरेटिव  का जवाब देने की चुनौती से जूझते हैं, जो जज़्बाती तौर पर ताक़तवर और गहरी जड़ें जमाए बैठी पुरानी सोच का लाभ उठाते हैं. हालांकि, जहां भावनाओं का उबाल आ रहा हो और नैरेटिव ही जंग का नतीजा तय कर रहे हों, वहां वक़्त बहुत अहम हो जाता है. आपस में जुड़ी दुनिया के इस दौर में जब सूचना अभूतपूर्व रफ़्तार से फैलती हो, तो पूर्वाग्रह बड़े शक्तिशाली आधार का काम करते हैं. समाज असल में सूचना की प्रोसेसिंग  के विशाल कारखाने हैं. जैसे जैसे सूचना की तादाद और उसकी जटिलता बढ़ती जाती है, तो समाजों का झुकाव उन नैरेटिव की तरफ़ बढ़ जाता है, जो जाने-पहचाने हैं और इसकी मदद से वो अपनी दुनिया का अर्थ लगाते हैं. ऐसे संकीर्ण नैरेटिव को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करके हक़ीक़त को तोड़ा-मरोड़ा जाता है, जिससे ग़लत सूचनाएं और पूर्वाग्रह ही राय बनाते हैं. मिसाल के तौर पर अल-अहली अस्पताल पर बमबारी के फ़ौरन बाद, हमास ने इस ख़बर को सोशल मीडिया और ग़ाज़ा पट्टी स्थित मीडिया संगठनों के ज़रिए इसके पूरे वीभत्स स्वरूप के साथ प्रचारित किया, और इसका ठीकरा इज़राइल पर फोड़ दिया. जब तक इज़राइल इस बात के सबूत पेश करता कि अस्पताल पर बमबारी इस्लामिक जिहाद की तरफ़ से दाग़े गए एक रॉकेट के भटक जाने का नतीजा है, तब तक ये कहानी तो दूर-दूर तक फैल चुकी थी, और सड़कों पर ग़ुस्सा भड़क उठा था. इज़राइल का पक्ष तो सामने आने से पहले ही शिकस्त खा चुका था, जबकि बाद में कई मीडिया संगठनों ने अपुष्ट ख़बरें चलाने के लिए अफ़सोस भी जताया था. इससे भी ज़्यादा हैरान करने वाली बात तो ये है कि 7 अक्टूबर की घटनाओं के वीडियो जारी करने में इज़राइल को तीन हफ़्ते लग गए. अपने ख़िलाफ़ चल रहे नैरेटिव की जंग में मुक़ाबला करने के लिए इज़राइल ने ये कोशिश काफ़ी देर से की थी.

नैरेटिव का सिद्धान्त राजनीतिक हिसाब किताब, अफ़सरशाही की बंदिशों और नीतिगत कमज़ोरियों के कारण सरकार की प्रतिक्रिया अक्सर धीमी हो जाती है. देशों के ख़िलाफ़ जो एक और बात जाती है, वो ये कि सरकारें मीडिया के नैतिक मानकों को कम से कम सैद्धांतिक तौर पर तो मानने के लिए बाध्य होती ही हैं और उनके क़दमों और पेश किए गए नैरेटिव की अधिक सख़्ती से पड़ताल की जाती है. ये बात उन लोकतांत्रिक देशों पर ख़ास तौर से लागू होती है, जिनकी गहराई से विवादित और कई परतों वाली बनावट फौरी प्रतिक्रिया देने से रोकती है. हालांकि, एक बड़ी चुनौती डिजिटल दुनिया के उभरते आयामों के साथ खड़ी हो रही है, जो नैरेटिव की जंग का नया मोर्चा है. वैसे तो सरकारें डिजिटल दुनिया में ऐसे संगठनों के ख़िलाफ़ प्रतिवाद करती हैं. लेकिन, हद से हद उनकी कोशिशों के मिले जुले नतीजे ही देखने को मिलते हैं, क्योंकि लड़ाकू संगठन अक्सर इस डिजिटल दुनिया का लाभ उठाने के हमेशा नए नए तरीक़े निकाल लेते हैं, जिससे डिजिटल दुनिया में नैरेटिव की जंग हमेशा सांप-सीढ़ी का मुक़ाबला बना रहता है. हमास को ज़्यादातर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रतिबंधित करने के बावजूद, उसको इनकी ताक़त का लाभ उठाने से नहीं रोका जा सका. सोशल मीडिया पर हमास के प्रॉक्सी हैंडल और समर्थकों ने उसके इशारे पर काम जारी रखा. मिसाल के तौर पर टेलीग्राम पर हमास के प्रॉक्सी ‘ग़ाज़ा नाऊ’ के फॉलोअर्स की संख्या एक हफ़्ते के भीतर लगभग 400 प्रतिशत बढ़कर 13 लाख पहुंच गई थी.

एक बड़ी चुनौती डिजिटल दुनिया के उभरते आयामों के साथ खड़ी हो रही है, जो नैरेटिव की जंग का नया मोर्चा है. वैसे तो सरकारें डिजिटल दुनिया में ऐसे संगठनों के ख़िलाफ़ प्रतिवाद करती हैं. लेकिन, हद से हद उनकी कोशिशों के मिले जुले नतीजे ही देखने को मिलते हैं

नैरेटिव की जंग में जब देशों को एक कोने में धकेल दिया जाता है, तो वो इसके अपराधियों को उनके समुदायों के साथ जोड़कर देखने लगते हैं, जबकि ये समुदाय ख़ुद पीड़ित होते हैं. ये बात हमने श्रीलंका में देखी थी, जब तमिल जनता को LTTE का ही एक हिस्सा माना जाता था; म्यांमार में रोहिंग्या समुदाय की आबादी को रोहिंग्या सॉलिडैरिटी ऑर्गेनाइज़ेशन और अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी के बराबर ही माना जाता है; और, ग़ाज़ा में, जहां हमास के ख़िलाफ़ अभियान का आम नागरिकों पर कई गुना ज़्यादा बुरा असर पड़ा है. ये बात लगभग हर संघर्ष पर लागू होती है. बदक़िस्मती से विचारों, आदर्शों और विचारधाराओं को पूरे समुदाय पर लागू करने की वजह से ये समुदाय सरकार के पलटवार वाली हिंसा के वाजिब निशाने बन जाते हैं. विडम्बना ये है कि इससे पीड़ित ही दोषी बन जाते हैं और इस जंग में फंसे आम नागरिकों के लिए संयोजित नाइंसाफ़ी के हालात पैदा हो जाते हैं. इससे हिंसा का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है, जो अक्सर तभी जाकर ख़त्म होता है, जब कोई एक पक्ष भयानक और तुलनात्मक रूप से कहीं ज़्यादा बल प्रयोग करता है, जिससे दुश्मन का नाम-ओ-निशान मिट जाता है, जो हम ने श्रीलंका में देखा था और अब जैसा करने की धमकी इज़राइल ने दी है.

युद्धों के दौरान जितना मुक़ाबला हथियारों का होता है, उतनी ही बड़ी जंग दिल-ओ-दिमाग़ जीतने की भी होती है. प्रोपेगेंडा  और संकीर्णता ब्रह्मास्त्र का काम करते हैं, जो लोगों की राय को एकजुट करते हैं, उनके व्यक्तित्व को गढ़ते हैं और युद्ध की दशा-दिशा तय करते हैं. इस मामले में लड़ाकू समूहों को बढ़त हासिल होती है. उनके ऊपर जवाबदेही का कोई बोझ नहीं होता है, और वो बड़ी होशियारी से पीड़ित होने का दांव खेलकर हमदर्दी हासिल करते हैं. इसकी तुलना में, संगठित देशों पर ज़िम्मेदारी का बोझ होता है. सोच की इस असंतुलित जंग में देशों की ताक़त और संगठन की शक्ति ही उनकी सबसे बड़ी मुसीबत बन जाती है. आज जब सूचना, विचारों और राय से कहीं ज़्यादा तेज़ गति से फैलती है, और पूर्वाग्रहों और लोगों की राय का घालमेल, किसी भी रासायनिक प्रतिक्रिया प्रतिक्रिया से कहीं ज़्यादा ठोस नतीजे देता है, वहां पर देशों को विभाजनकारी नैरेटिव का जवाब देने के लिए संघर्ष करना पड़ता है.

सूचना के इस सघन मंज़र में जहां नैरेटिव ही दुनिया में किसी के सही या ग़लत होने को समझने का फ़ैसला करते हैं, वहां देशों को चाहिए कि वो मौन धारण करने और प्रतिक्रिया में आत्मरक्षा करने के बजाय, फुर्तीली और सक्रिय आक्रामकता को अपनाएं. देशों को चाहिए कि वो तथ्यों की जानकारी देने और तोड़-मरोड़कर पेश की गई बातों को ख़ारिज करने के बजाय, सही समय पर विश्वसनीय कहानी सुनाने का तरीक़ा अपनाएं. केवल बात को जनता तक पहुंचाने के बजाय, देशों को चाहिए कि वो ख़ुद के बन रहे इतिहास का ईमानदारी से बखान करने वाले बनें. 1991 में ऑपरेशन डेज़र्ट स्टॉर्म के दौरान बग़दाद के अर-फ़िरदौस बंकर पर बमबारी की घटना को लेकर अमेरिका की प्रतिक्रिया इसका एक उदाहरण बन सकती है. उस केंद्र पर बमबारी में 400 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. उसक वक़्त की इराक़ी सरकार ने फ़ौरन इस घटना का लाभ उठाने की कोशिश की और दुनिया भर के मीडिया को घटनास्थल पर ले जाया गया था. हालांकि, अमेरिका सेना ने कुछ ही घंटों के भीतर जब अपना पक्ष रखा, तो इससे नैरेटिव का संतुलन बनाने में मदद मिली. उस घटना ने पूरे क्षेत्र में विरोध की लहर पैदा कर दी थी और आज भी वो विवादास्पद बनी हुई है.

निष्कर्ष

अल-अहली अस्पताल पर बमबारी और उसके बाद की घटनाएं, उन चुनौतियों को रेखांकित करती हैं, जिनका सामना देशों को तब करना पड़ता है, जब उनका मुक़ाबला कमज़ोर मानी जाने वाली विचारधाराओं से होता है, जो अपनी राजनीति को पीड़ित होने की बुनियाद पर चलाते हैं. ऐसे मामलों में देशों के हाथ हमेशा इस सोच से बंधे रहते हैं कि वो तो एक ताक़तवर संस्था हैं, जो कमज़ोर तबक़े पर ज़ुल्म ढा रही हैं. ऐसी सोच में एक जज़्बाती आकर्षण होता है. 2011 में आई अपनी किताब, ‘द  बेटर एंजेल्स ऑफ ऑवर नेचर’ में स्टीवन  पिंकर लिखते हैं कि, ‘कोई विचारधारा एक ऐसा तसल्लीबख़्श नैरेटिव मुहैया करा सकती है, जो अराजक घटनाओं और सामूहिक बदक़िस्मती को इस तरह पेश करे, जो अस्पष्ट हो, या फिर साज़िश को इतनी गहराई से पेश करे कि उस पर संदेह करने या उसकी पड़ताल भी बेमानी रहे और वो इस पर यक़ीन करने वालों की क़ाबिलियत और गुणों को मटियामेट कर दे.’ धारणाएं गढ़ने की इस पहेली से निपटने का कोई जादुई नुस्खा है नहीं. आज के मंज़र में जहां एल्गोरिद्म ही राष्ट्रगीत है और नैरेटिव ही लोगों की राय बनाते हों, वहां पर रफ़्तार और ठोस तर्क ही दो ऐसे सहारे हैं, जो किसी देश को सहारा दे सकते हैं.

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