Author : Kashish Parpiani

Published on May 01, 2019 Updated 0 Hours ago

ऐसे में जबकि अमेरिका, तुर्की पर लगाम कसने का प्रयास कर रहा है, तो भारत को भी हर हाल में अपने हितों की रक्षा करनी होगी।

भारत-अमेरिकी रिश्तों पर मंडराती तुर्की की छाया

400 ट्राइअम्फ लॉन्च व्हीकल

पिछले महीने, अमेरिकी हाउस आर्म्ड सर्विसेज कमिटी की सुनवाई के दौरान असिस्टेंट सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर डिफेंस रैंडाल श्राइवर ने रूसी एस-400 एयर डिफेन्स सिस्टम खरीदने के भारत के इस फैसले को “दुर्भाग्यपूर्ण करार” दिया। श्राइवर ने कहा: “हमें उनको (भारत को) वैकल्पिक फैसला करते देखकर खुशी होगी…हम उनके लिए संभावित विकल्प उपलब्ध कराने की दिशा में उनके साथ मिलकर काम कर रहे हैं।”

रूस के साथ रक्षा या खुफिया क्षेत्रों में कारोबार करने वाले देशों को दंडित करने के इरादे से 2017 में बनाए गए कानून — कात्सा (अमेरिका के विरोधियों का पाबंदियों के जरिए मुकाबला करने संबंधी कानून) के तहत दूसरे दर्जे की पाबंदियों का निशाना बनने के खतरे के बावजूद पिछले साल भारत ने रूस के साथ यह समझौता किया। अमेरिकी दबाव के बावजूद भारत द्वारा “एक स्वतंत्र नीति” का अनुसरण करने का संकेत देते हुए यह समझौता किए जाने को सराहा गया। उसके बाद से एस-400 से संबंधित विवाद कम हो गया। जबकि अमेरिका ने कानून निर्माताओं से कात्सा की धारा 231 के तहत भारत, वियतनाम और इंडोनेशिया को छूट देने के प्रावधानों के लिए उसमें संशोधन करने का अनुरो​ध किया। यूं तो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अब तक यह छूट प्रदान नहीं की है, इसके बावजूद भारत-अमेरिकी संबंधों के संभावनाओं से भरपूर दीर्घकालिक मार्ग को देखते हुए इस संशोधन को भारत के लिए अपवाद के तौर पर देखा गया

वैसे श्राइवर के हाल के इस बयान को भारत द्वारा 5.43 बिलियन डॉलर मूल्य की एस-400 मिसाइल प्रणालियों की खरीद के फैसले पर विवाद को नए सिरे से भड़काने के तौर पर देखा जा सकता है। अमेरिका इस मामले को एक बार फिर से क्यों उठाना चाह रहा है इसका जवाब शायद तुर्की के साथ अमेरिकी रिश्तों में हाल में आई गिरावट हो सकता है।

तुर्की का एस-400 हासिल करने का प्रयासभारत के लिए कात्सा खतरे की वापसी?

हाल के वर्षों में, अमेरिका-तुर्की संबंध महत्वपूर्ण बदलाव की दिशा में बढ़ रहे हैं। इसकी वजह राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोआन के नेतृत्व में लोकतांत्रिक मानकों का बरकरार न रह पाना, अमेरिकी नागरिक फतहुल्लाह गुलेन के प्रत्यर्पण को लेकर विवादअमेरिकी पादरी एंड्रयू ब्रनसन की कैद और​ रिहाई और तुर्की द्वारा कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (पीकेके) के साथ संबंधों के आरोप में अमेरिकी वाणिज्य दूतावास के कर्मचारियों की गिरफ्तारी जैसे कई मतभेद हैं। वैसे कुर्दिश विद्रोह को अमेरिका और तुर्की दोनों ही आतंकवादी मानते रहे हैं।

इन मामलों पर तुर्की के महज ”कागज पर” सहयोगी होने जैसे व्यवहार ने अमेरिका की चिंता बढ़ा दी है। दोनों के बीच विवाद की नई वजह यह है कि अमेरिकी पेट्रियट एयर डिफेन्स सिस्टम की जगह तुर्की की योजना भी रूस से एस-400 मिसाइल रक्षा प्रणालियां खरीदने की है। तुर्की के नेटो सहयोगी के दर्जे के मद्देनजर अमेरिका उसके इस कदम को एफ-35 स्टेल्थ फाइटर जेट की सुरक्षा के जोखिम में पड़ने के तौर पर देख रहा है, जिसे अमेरिका की ”यूरोपियन कन्सॉर्शीअम के भाग के रूप में” तुर्की को बेचने की योजना है। ट्रम्प सरकार ने भी इसका जवाब एफ-35 डेवलेपमेंट प्रोग्राम में तुर्की के भाग लेने पर रोक लगाकर दिय जिसमें तुर्की स्थित कम्पनियों को एफ-35 के समस्त प्रकारों और ग्राहकों के लिए कल-पुर्जों का निर्माण करना था।

निश्चित तौर पर, तुर्की और भारत अमेरिकी सुरक्षा के गणित में दो अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग हैसियत रखते हैं। एक नाटो सहयोगी है, तो दूसरा एक उभरता सुरक्षा साझेदार है। तुर्की, संघर्ष समाप्ति के बाद आईएसआईएस के खिलाफ संघर्ष में अमेरिका के महत्वपूर्ण सहयोगी रहे पीकेके से सम्बद्ध सीरियाई कुर्दों (पीपुल्स प्रोटेक्शन यूनिट्स, वाईपीजी) की सुरक्षा की गारंटी की मांग करने संबंधी अमेरिकी लक्ष्यों की दृष्टि से ज्यादा प्रासांगिक है। जबकि भारत में अमेरिका के “मुक्त और खुले” हिंद—प्रशांत संबंधी दीर्घकालिक हितों की दृष्टि से महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का सामर्थ्य है।

हालांकि एस-400 के मामले पर अमेरिका और तुर्की के बीच हाल का विवाद, उसे भारत के साथ बराबरी पर ले आता है। ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मामले ने भारत पर कात्सा के तहत पाबंदियां लगाए जाने की संभावनाओं को फिर से सुलगा दिया है, ताकि अमेरिका, तुर्की को अपना संकल्प ज्यादा बेहतर ढंग से बता सके।

जीएसपी व्यापार के लाभ को स्थगित रखना: घरेलू राजनीति भड़काने के जरिए बल प्रयोग?

भारत और तुर्की के प्रति अमेरिका की हाल की विदेश नीति में एक और समानता यह है कि ट्रम्प सरकार इस आधार पर जेनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रिफ्रेंसेज (जीएसपी) के तहत व्यापार संबंधी लाभों को स्थगित रखने का इरादा रखती है कि दोनों देश “संवैधानिक पात्रता मानदंड” का “अब और पालन नहीं” कर रहे हैं।

हालांकि तुर्की के मामले में जीएसपी लाभ को स्थगित करके ट्रम्प सरकार आर्थिक दबाव का फायदा उठाती प्रतीत हो रही है। अमेरिकी विदेश नीति समुदाय में बहुत से लोग लम्बे अर्से से यह दलील देते आ रहे हैं कि अमेरिका, “एर्दोआन की सबसे बड़ी घरेलू असुरक्षा” तुर्की की अर्थव्यवस्था को निशाना बनाने के जरिए उसकी लगाम खींच कर रखे।

भारत के मामले में, इस कदम को व्यापार वार्ता के लगातार अवरुद्ध रहने को लेकर ट्रम्प सरकार की हताशा के परिणाम के तौर पर देखा जा रहा है। हालांकि जीएसपी के लाभ स्थगित किए जाने की संभावना का आम चुनावों की प्रक्रिया से गुजर रहे भारत की घरेलू राजनीति पर भी असर पड़ेगा, क्योंकि अर्थव्यवस्था निश्चित तौर पर राजनीतिक आलोचना का प्रमुख केंद्र है।

इसके प्रतिकूल प्रभाव को समझते हुए रिपब्लिकन पार्टी के जॉर्ज होल्डिंग (आर-एनसी) ने अमेरिका के व्यापार प्रति​निधि को लिखे पत्र में कहा, “मेरा अनुरोध है कि सरकार भारत की जीएसपी पात्रता को समाप्त करने के फैसले को स्थगित कर ​दे और इस फैसले पर भारत के आम चुनाव के बाद पुनर्विचार करे। उस बिंदु पर हम राजनीतिक हलचल से मुक्त होंगे और ज्यादा उपयोगी बातचीत करने में समर्थ हो सकेंगे।” होल्डिंग अमेरिका के हाउस ऑफ रेप्रेसेंटेटिव में भारत समर्थक लॉबी के सह-अध्यक्ष हैं। उन्होंने चेतावनी देते हुए यहां तक कह डाला, “उनकी (भारत की) पात्रता को समाप्त करना, इस विचार-विमर्श का राजनीतिकरण कर देगा और सफल निष्कर्ष की हमारी संभावनाओं को कमजोर करेगा।”

भारत के लिए हलकैपिटल हिल का रुख करे

यह दलील दी जा सकती है कि अमेरिका द्वारा हाल ही में भारत के साथ एस-400 से जुड़े मामले को फिर से उठाना, शायद भारत को मिली छूट को उसकी विदेश नीति के अन्य लक्ष्यों की प्राप्ति की राह का कांटा बनने से बचाने का ट्रम्प सरकार का प्रयास हो सकता है। उत्तर कोरिया के मामले पर गौर कीजिए। यहां तक कि उत्तर कोरियाई किम जोंग-उन के साथ व्यक्तित्व पर केंद्रित राष्ट्रपति ट्रम्प के दृष्टिकोण के दो चरणों से कोई ठोस नतीजा नहीं निकल सका। अब यह तेजी से जाहिर होता जा रहा है कि उत्तर कोरिया की परमाणु हथियारों का पूरी तरह खात्मा करने की कुछ खास इच्छा नहीं है, जिससे विक्टर डी. चा का “भारत—सरीखा समझौता” विश्लेषण को विश्वसनीयता मिल रही है।

2009 में, छह देशों की वार्ता के लिए अमेरिकी शिष्टमंडल के उप प्रमुख ने लिखा था कि उत्तर कोरिया की स्थिति में आदर्श निष्कर्ष यही हो सकता है कि “भारत के साथ तय किए गए समझौते से मिलती-जुलती ही कुछ व्यवस्था की जाए।” जिसमें काफी हद तक अमेरिकी-भारत असैन्य परमाणु ऊर्जा समझौते की ही तरह, उत्तर कोरिया “अपनी परमाणु ऊर्जा और हथियार कार्यक्रम के कुछ हिस्से को अंतर्राष्ट्रीय निगरानी के दायरे से बाहर रखकर” कुछ हद अपना नियंत्रण बरकरार रख सकता है।

भारत के लिए, ऐसी छूट अमेरिका के साथ “सामरिक गठबंधन” के उसके हितों के केंद्र में है। उसे हासिल करने की दिशा में भारत को कैपिटल हिल के स्तर पर अपने प्रयास करने होंगे — जहां एक ओर भारत अमेरिकी कांग्रेस के बल प्रयोग के निशाने पर नहीं है, वहीं तुर्की को हाल ही में अमेरिकी सांसदों की मुखर निंदा झेलनी पड़ी और उसके खिलाफ दं​डात्मक कार्रवाइयां प्रस्तुत की गईं (उदाहरण के लिए, तुर्की अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्था अधिनियम)।

कात्सा के बारे में, राष्ट्रपति ट्रम्प ने एक रहस्यमय जवाब देते हुए भारत को छूट प्रदान करने पर रोक लगा दी: “(भारत) को जल्द ही पता चल जाएगा।” छूट प्राप्त करने के लिए भारत को सीनेटर डेन सुलिवान (आर-एके) जैसे अमेरिकी सांसदों को प्रभावित करने के प्रयास तेज करने होंगे, जो सीनेट आर्म्ड सर्विसेज कमिटी के सदस्य भी हैं। सुलिवान “रूस के प्रति भारत की अतीत की प्रतिबद्धता और उसके साथ रिश्तों को संभालने के तरीके तलाशने की सांसदों की इच्छा” की दिशा में काम करने के प्रबल समर्थक रहे हैं। इनमें से एक तरीका यह भी हो सकता है कि एक अन्य विधायी संशोधन पर बल दिया जाए — जिसमें छूट प्रदान करने का अधिकार अमेरिकी राष्ट्रपति की जगह अमेरिकी विदेशी मंत्री के अधीन किया जाए — जो भारत के लिए छूट के प्रावधान करने के सम​र्थक रहे हैं। भारत को भी छूट के प्रावधान वाले संशोधन की भावना के अनुरूप धीरे-धीरे देश को रूसी उपकरणों से “अलग करने” पर बल देना चाहिए। भारत को होने वाले रूसी हथियारों के निर्यात में “2014—18 के दौरान 42 प्रतिशत की भारी कमी आई है।” जबकि लगभग इसी अवधि के आसपास (2013-17) अमेरिका की ओर से “भारत को होने वाले हथियारों के निर्यात में काफी वृद्धि हुई और पिछले पांच साल की तुलना में इसमें 550 प्रतिशत से अधिक वृद्धि दर्ज की गई।”

जीएसपी के मामले में, भारत को आने वाले दिनों में जीएसपी लाभ पर रोक संबंधी कांग्रेस की अधिसूचना के राष्ट्र​पति की घोषणा के साथ अमल में आने से पहले ही रिपब्लिकन सांसद जॉर्ज होल्डिंग की अपील का प्रबल समर्थन करना चाहिए। भारत को ट्रम्प की ओर से लगाई जाने वाली इस रोक की दलील को ठुकराते हुए इस बात पर बल देना चाहिए कि भारत तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और इसलिए उसे विकासशील देशों के लिए नियत किसी तरजीह वाले व्यवहार की जरूरत नहीं है। जबकि वास्तव में भारत “प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से तुर्की से काफी गरीब है।” इसके अलावा ट्रम्प द्वारा अमेरिका के व्यापार घाटे को दुरूस्त करने पर ध्यान दिए जाने के अनुरूप, भारत को होने वाले अमेरिकी निर्यात में पिछले साल 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई — जिससे भारत के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा 2017 के 22.9 बिलियन डॉलर से 21.2 बिलियन डॉलर रह गया।

इस तरह, कुल मिलाकर देखा जाए तो, एस-400 की खरीद तथा जीएसपी व्यापार लाभ के मामले में भारत और तुर्की दोनों ही अमेरिका के निशाने पर हैं, ऐसे में जबकि अमेरिका, तुर्की पर लगाम कसने का प्रयास कर रहा है, तो भारत को भी हर हाल में अपने हितों की रक्षा करनी होगी।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.