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जलवायु के मोर्चे पर उपलब्धियां ऊर्जा के इस्तेमाल में कार्यकुशलता लाकर और उपभोग के स्वरूप या तरीक़ों को कार्बन-मुक्त करके हासिल की जाती हैं.
एन्वॉयरमेंटल कुज़नेट्स कर्व से जुड़ी परिकल्पना को विश्व बैंक ने लोकप्रिय बनाया है. आर्थिक विकास और पर्यावरण के बीच के संबंधों की धारणाओं को लेकर ये परिकल्पना सामने आई है. इसके तहत जलवायु से जुड़े प्रयासों को आर्थिक प्रगति और विकास की प्रक्रियाओं के स्वाभाविक परिणाम के तौर पर देखा जाता है. जलवायु के मोर्चे पर उपलब्धियां ऊर्जा के इस्तेमाल में कार्यकुशलता लाकर और उपभोग के स्वरूप या तरीक़ों को कार्बन-मुक्त करके हासिल की जाती हैं. बहरहाल, वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन से जुड़े प्रमाण कुछ और ही तस्वीर पेश करते हैं. आर्थिक वृद्धि के बावजूद विश्व भर में कार्बन डाईऑक्साइड का सालाना उत्सर्जन बढ़ता ही गया है. हाल में ये उत्सर्जन सालाना 30 अरब टन के स्तर से भी आगे निकल गया है. 1980 के दशक से वैश्विक उत्सर्जन के स्तर में भारी बढ़ोतरी आई है. इसी कालखंड में चीन और भारत जैसी एशिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने विकास के पथ पर अपनी यात्राओं की गति को तेज़ करना शुरू किया था.
संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास ढांचे के तहत एसडीजी 13 में उत्सर्जन के साथ-साथ दुनिया के देशों को हरित विकास की ओर मोड़ने के लिए ज़रूरी जलवायु वित्त को लेकर भी लक्ष्य तय किए गए हैं.
संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास ढांचे के तहत एसडीजी 13 में उत्सर्जन के साथ-साथ दुनिया के देशों को हरित विकास की ओर मोड़ने के लिए ज़रूरी जलवायु वित्त को लेकर भी लक्ष्य तय किए गए हैं. हालांकि, वैश्विक बिरादरी ज़्यादातर मौकों पर इन लक्ष्यों को हासिल करने से चूकती रही है. 2019 में एशिया महादेश कार्बन उत्सर्जन के मामले में दुनिया में पहले पायदान पर था. उस साल वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में एशिया का योगदान 53 प्रतिशत रहा था. इसमें चीन का 9.8 अरब टन कार्बन उत्सर्जन शामिल है. उत्तरी अमेरिका और यूरोप में उत्सर्जन के कुल स्तर में अभी हाल ही में थोड़ी गिरावट दर्ज की जानी शुरू हुई है. हालांकि आज भी अमेरिका और यूरोपीय संघ का योगदान वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में क्रमश: 15 प्रतिशत और 9.8 प्रतिशत है. अफ़्रीका और दक्षिण अमेरिका के देशों में भी कार्बन उत्सर्जन के स्तर में गिरावट देखी जा रही है. वहीं एशिया की तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में उत्सर्जन का स्तर काफ़ी ऊंचा बना हुआ है और उसमें बढ़त भी देखने को मिल रही है. इससे संकेत मिलते हैं कि कार्बन उत्सर्जन में देखी जा रही कमी मुख्य रूप से दुनिया भर के देशों के आर्थिक विकास की रफ़्तार में आई सुस्ती का नतीजा हो सकती है. उत्सर्जन के स्तर में ये गिरावट जलवायु के मोर्चे पर किए जा रहे सोचे-समझे प्रयासों का सतत परिणाम नहीं है. ज़ाहिर है कि इस मामले में गंभीरतापूर्वक पुनर्विचार करने की ज़रूरत है.
साफ़ है कि आज कार्बन के शुद्ध उत्सर्जन के मामले में एशिया दुनिया भर में पहले पायदान पर दिखाई देता है. यहां के देशों द्वारा हाल के दशकों में हासिल अभूतपूर्व आर्थिक वृद्धि को इसके पीछे की वजह माना जा सकता है. इन देशों में तेज़ आर्थिक तरक्की के कारण आय का स्तर ऊपर उठा है. बिजली और ईंधन तक लोगों की पहुंच में बढ़ोतरी हुई है. कुल मिलाकर इस आर्थिक प्रगति की वजह से लोगों के जीवन स्तर में सुधार आया है. हालांकि पिछले वर्षों में वैश्विक स्तर पर कुल उत्सर्जन में अपने योगदान के हिसाब से उत्तरी अमेरिका और यूरोप का हिस्सा तक़रीबन 971 अरब टन (वैश्विक स्तर पर कुल उत्सर्जन का लगभग 62 प्रतिशत) है. इसके नतीजे के तौर पर दुनिया भर में कार्बन बजट में अच्छी ख़ासी गिरावट आई है. भले ही आज विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन के मामले में विश्व में सबसे ऊपर के स्थान रखते हों लेकिन एक बात साफ़ है कि दुनिया में फ़िलहाल अनुभव किए जा रहे जलवायु परिवर्तन से जुड़े ज़्यादातर प्रभाव अतीत में विकसित देशों द्वारा अपनाए गए विकास के ग़ैर-टिकाऊ या अव्यवहार्य तौर-तरीक़ों के ही परिणाम हैं. लिहाज़ा जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए इन विकसित देशों की ज़िम्मेदारियों का स्तर विकासशील देशों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा होना चाहिए.
इतना ही नहीं अगर आज उत्सर्जन के प्रति व्यक्ति वितरण के स्तर पर नज़र डाली जाए तो बेहद दिलचस्प तस्वीर उभर कर सामने आती है. दुनिया की कुल आबादी में एशिया का हिस्सा क़रीब 60 प्रतिशत है. उत्तरी अमेरिका और यूरोप की आबादी के मुक़ाबले ये कहीं ज़्यादा है. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दुनिया में सबसे ऊंचे स्तरों में से है. इनके बाद जर्मनी, नीदरलैंड्स और पोलैंड का नंबर आता है. फ़्रांस और यूके जैसे देशों (एक जैसे प्रति व्यक्ति आय स्तर के साथ) का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन स्तर थोड़ा नीचे है. इन देशों का उत्सर्जन स्तर 4.8 टन प्रति व्यक्ति के वैश्विक औसत के आसपास है. इसके पीछे इन देशों द्वारा समुचित नीतिगत उपायों और सहयोगकारी बुनियादी ढांचे की बदौलत अपने ऊर्जा-गुच्छे में जानबूझकर किया गया परिवर्तन है. चीन और मलेशिया को छोड़कर एशिया की ज़्यादातर अर्थव्यवस्थाओं का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन स्तर या तो विश्व औसत के आसपास है या उससे काफ़ी नीचे है. मध्य-पूर्व के तेल निर्यातक देशों का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन स्तर काफ़ी ऊंचा है. हालांकि अपेक्षाकृत कम आबादी के चलते कुल वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में इनका हिस्सा काफ़ी कम है.
साफ़ है कि आज कार्बन के शुद्ध उत्सर्जन के मामले में एशिया दुनिया भर में पहले पायदान पर दिखाई देता है. यहां के देशों द्वारा हाल के दशकों में हासिल अभूतपूर्व आर्थिक वृद्धि को इसके पीछे की वजह माना जा सकता है. इन देशों में तेज़ आर्थिक तरक्की के कारण आय का स्तर ऊपर उठा है.
इसके अलावा, जैसा कि टेबल-1 में नीचे दर्शाया गया है, विभिन्न आय समूहों वाले देशों में जनसंख्या के हिस्से और वैश्विक उत्सर्जन में योगदान के हिसाब से तुलना किए जाने पर कार्बन के छाप छोड़ने के मामले में भारी असमानता देखने को मिलती है. ये विषमता इन देशों के बीच आय के मोर्चे पर मौजूद असमानताओं की तर्ज पर ही दिखाई देती है. व्यक्तियों के बीच आय के वितरण के आधार पर उत्सर्जन की विषमता और भी ज़्यादा ठोस रूप से उभर कर सामने आती है.
टेबल 1: विभिन्न देशों के बीच वैश्विक कार्बन उत्सर्जन की हिस्सेदारी, आय समूह के हिसाब से हिस्सेदारी
आय समूह | जनसंख्या का हिस्सा (%) | वैश्विक CO₂ उत्सर्जन का हिस्सा (%) |
उच्च आय | 16% | 39% |
उच्च मध्यम आय | 35% | 48% |
निम्न-मध्यम आय | 40% | 13% |
कम आय | 9% | 0.4% |
स्रोत: आवर वर्ल्ड इन डेटा, ग्लोबल चेंज डेटा लैब
ज़्यादातर विकासशील देश गर्म जलवायु वाले क्षेत्र में हैं. लिहाज़ा जलवायु परिवर्तन से होने वाले कुप्रभावों की मार उनपर बाक़ियों के मुक़ाबले ज़्यादा पड़ती है. उत्सर्जन के वितरण से जुड़ी मौजूदा असमानताओं की पहचान को लेकर समझ बढ़ती जा रही है. इतना ही नहीं विकसित देशों द्वारा उत्सर्जन के मामले में और ज़्यादा सक्रिय भूमिका निभाने की आवश्यकता भी महसूस की जा रही है. देशों के भीतर भी ऊर्जा के मिश्रण में बदलाव करने और उत्सर्जन के बढ़ते स्तर से होने वाले कुप्रभावों से निपटने से जुड़ी प्रभावी नीतियों की ज़रूरत है. ऐसी नीतियां विभिन्न आय वर्गों के बीच कार्बन उत्सर्जन की छाप छोड़ने के मामले में मौजूद विषमताओं के मद्देनज़र तैयार की जानी चाहिए. इस संदर्भ में नीतिगत तौर पर कोई भी कार्रवाई यूएनएफ़सीसी के साझा मगर विभिन्नता दर्शाने वाली ज़िम्मेदारियों (सीबीडीआर) से जुड़े ढांचे के तहत बताए गए सिद्धांतों के अनुरूप होनी चाहिए. इसके तहत ख़ासतौर से दुनिया के देशों की अपनी-अपनी क्षमताओं और तय ज़िम्मेदारियों के हिसाब से जलवायु के मोर्चे पर कार्रवाइयों की बात कही गई है.
घरेलू कार्बन उत्सर्जन के स्तर को कम करने के लिए दुनिया भर के 42 देशों ने कार्बन प्राइसिंग की नीति (एमिशन ट्रेडिंग सिस्टम यानी ईटीएस या कार्बन करों के ज़रिए) लागू की है. हालांकि, इन प्रयासों के नतीजे के तौर पर सामने आए कार्यकारी ढांचे और कार्बन के निगरानी मूल्यों में भारी अंतर देखा गया है. ज़्यादातर देशों में लगाए गए कार्बन टैक्स का स्तर कार्बन करों पर बने उच्च-स्तरीय आयोग द्वारा सुझाए गए स्तरों के मुक़ाबले काफ़ी नीचे है. इतना ही नहीं, इस तरह के प्रयास ज़्यादातर उच्च आय वाली अर्थव्यवस्थाओं तक ही सीमित रहे हैं.
फ़िनलैंड और स्वीडेन जैसे यूरोपीय देश कार्बन प्राइसिंग की नीतियां लागू करने वाले शुरुआती देशों में से रहे हैं. यहां इन प्रयासों के सकारात्मक नतीजे देखने को मिले हैं. ये देश अपने यहां ऊर्जा-गुच्छे में बदलाव लाने में कामयाब रहे हैं. इन्होंने ऊर्जा के नवीकरणीय साधनों की ओर सहज रूप से क़दम बढ़ाने में सफलता पाई है. इसके साथ ही यहां उत्पादों में ऊर्जा के इस्तेमाल की आवश्यकता या ऊर्जा-सघनता में भी काफ़ी गिरावट देखने को मिली है. कनाडा ने तो अभी हाल ही में राजस्व-निरपेक्ष संघीय कार्बन टैक्स नीति लागू की है. हालांकि दुनिया में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के मामले में सबसे बड़े देशों में शामिल अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में इस तरह का कोई भी पहल होना अभी बाक़ी है.
दुनिया में कार्बन उत्सर्जन का स्तर दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है. ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु से जुड़े चरम हालातों का ख़तरा सबके सामने है. ऐसे में कार्बन उत्सर्जन और वातावरण में कार्बन जमा होने के स्तर में कमी लाने के लिए व्यापक योजना बनाए जाने की दरकार है. इस आपात योजना के लिए दुनिया के विकसित और विकासशील दोनों तरह के देशों का साथ आना ज़रूरी हो गया है. इस तरह की किसी भी योजना का ढांचा समानता के सिद्धांत के आधार पर तय होना चाहिए. लिहाज़ा ऐसी योजना का खाका ‘टैक्सेशन-डिविडेंड्स-रिसाइक्लिंग’ के इर्द गिर्द ही रहना चाहिए.
उत्सर्जन के वितरण से जुड़ी मौजूदा असमानताओं की पहचान को लेकर समझ बढ़ती जा रही है. इतना ही नहीं विकसित देशों द्वारा उत्सर्जन के मामले में और ज़्यादा सक्रिय भूमिका निभाने की आवश्यकता भी महसूस की जा रही है.
सबसे पहले, वैश्विक स्तर पर कार्बन टैक्स की व्यवस्था होनी चाहिए. इसके तहत कार्बन-गहन उत्पादों और उपभोग-व्यवस्था को प्रभावी तौर पर हतोत्साहित किया जाना चाहिए. इस सिलसिले में उत्सर्जन के बढ़ते स्तर की सामाजिक लागत का समावेशन करने की नीति अपनाई जानी चाहिए. ग़ौरतलब है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के कई अर्थशास्त्री भी इस तरह का टैक्स लगाने का प्रस्ताव करते आ रहे हैं. ऊर्जा संसाधनों के गुच्छे को पर्यावरण के अनुकूल बदलने और ज़्यादा कार्बन उत्सर्जित करने वाले ईंधनों के प्रयोग को हतोत्साहित करने के साथ-साथ इस तरह के टैक्स से हासिल राजस्व को सार्वजनिक इस्तेमाल में आने वाले बुनियादी ढांचे के विकास के लिए इस्तेमाल में लाया जा सकता है. इससे आर्थिक तरक्की की धारा को हरित विकास की तरफ़ मोड़ने में भी कामयाबी मिलेगी. हालांकि, इस बात में कोई शक़ नहीं है कि ऊर्जा पर लगने वाले बाक़ी करों की ही तरह कार्बन टैक्स भी प्रतिकूल स्वभाव वाला कर है. आसान शब्दों में कहें तो इसका भार भी अमीरों के मुक़ाबले गरीबों पर ज़्यादा पड़ता है. ज़ाहिर है दुनिया भर में वैश्विक कार्बन टैक्स का ज़्यादा बोझ निम्न-मध्यम या निम्न वर्गों पर ही पड़ेगा. ऐसे में विश्व के विकसित देशों द्वारा क्लाइमेट एक्शन फ़ाइनेंसिंग के ज़रिए ऐसे प्रतिकूल प्रभावों को कम किया जा सकता है. इन प्रयासों के साथ-साथ ऊर्जा का दक्ष तरीके से इस्तेमाल करने वाली उत्पादन-प्रक्रिया, जलवायु के मोर्चे पर होने वाले शोध और विकास कार्य और नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन से जुड़े ज्ञान का हस्तांतरण भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए. ख़ासतौर से भारत जैसे देश जहां आय की असमानता का स्तर बेहद ऊंचा है, वहां आबादी के निचले 40 प्रतिशत तबके के लिए कार्बन डिविडेंड के तौर पर क्षतिपूर्ति के इंतज़ाम होने चाहिए. आय के हस्तांतरण की ऐसी व्यवस्था से ग़रीबों और नाज़ुक तबकों का बचाव हो सकेगा. साथ ही इससे कर ढांचे को प्रगतिशील भी बनाया जा सकेगा. टैक्स-डिविडेंट पॉलिसी से जुड़े ज़्यादातर आकलनों से पता चलता है कि कार्बन पर टैक्स से हासिल किए गए राजस्व और उस राजस्व के एक हिस्से को डिविडेंड के तौर पर निम्न-आय वर्गों के लोगों तक पहुंचाने से ऐसे नाज़ुक तबके के लोगों का ग़रीबी से बचाव किया जा सकता है. इतना ही नहीं इस टैक्स से हासिल राजस्व से सार्वजनिक कोष में इतनी रकम जुट जाएगी जिससे हरित विकास की ओर क़दम बढ़ाने के लिए ज़रूरी संसाधन भी जुटाए जा सकेंगे.
इस आपात योजना के लिए दुनिया के विकसित और विकासशील दोनों तरह के देशों का साथ आना ज़रूरी हो गया है. इस तरह की किसी भी योजना का ढांचा समानता के सिद्धांत के आधार पर तय होना चाहिए. लिहाज़ा ऐसी योजना का खाका ‘टैक्सेशन-डिविडेंड्स-रिसाइक्लिंग’ के इर्द गिर्द ही रहना चाहिए.
आख़िर में, दुनिया में कार्बन उत्सर्जन के स्तरों की सही-सही पड़ताल करने और प्रमुख कार्बन सिंक्स या सोख़्तों की रिसाइक्लिंग क्षमता का पता लगाने के लिए एक व्यापक ढांचा तैयार किया जाना चाहिए. कार्बन उत्सर्जन का स्तर और वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का केंद्रीकरण पहले से ही काफ़ी ऊंचा है. ऐसी परिस्थिति में कार्बन सिंक्स को किसी तरह का नुकसान पहुंचने पर प्रत्यक्ष तौर पर आर्थिक गतिविधियों द्वारा उत्सर्जन के स्तर में कमी लाने के तमाम प्रयासों पर पानी फिर सकता है. अभी हाल ही में ऐसी ख़बरें आई थीं कि अमेज़न वर्षावन (जो दुनिया के सबसे बड़े कार्बन सिंक्स में से एक है) कार्बन सोखने की बजाए कार्बन पैदा करने वाले ख़ालिस स्रोत में तब्दील हो गए हैं. दुनिया भर के कार्बन सिंक्स या सोख़्तों के संरक्षण के प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी के अवसरों की तलाश करना भी एक अहम बुनियादी रणनीति साबित हो सकती है. इस तरह की तमाम कार्रवाइयों से दुनिया को सतत और टिकाऊ पर्यावरण की दिशा में ले जाया जा सकता है. इसके लिए विकास के रास्ते पर सहयोगकारी नीतियां अपनाए जाने की ज़रूरत है.
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Debosmita Sarkar is an Associate Fellow with the SDGs and Inclusive Growth programme at the Centre for New Economic Diplomacy at Observer Research Foundation, India. Her ...
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