Published on Jun 08, 2022 Updated 0 Hours ago

क्या श्रीलंका के आंतरिक संकट में बाहरी हाथ है?

श्रीलंकाई संकट: चीन के मिलीभगत की अजीबोग़रीब पहेली

जैसे -जैसे श्रीलंका में मानवीय स्थिति बदतर होती जा रही है, श्रीलंका के नागरिक राष्ट्रपति गोटाबाया राजापक्षे के इस्तीफ़े की मांग कर रहे हैं और राजापक्षे के आर्थिक कुप्रबंधन और लोकलुभावन नीतियों के ख़िलाफ़ लोगों की नाराज़गी कुछ हद तक जायज़ भी लगती है. लेकिन इस संकट की एक और बड़ी वज़ह है और वो है चीन . जिसे लेकर श्रीलंका में चर्चा कम ही होती है. हालांकि चीन ने बड़ी आसानी से देनदार के बजाए कर्ज़ लेने वाले पर सारा दोष मढ़ दिया है. इसने श्रीलंका को उसके विदेशी मुद्रा भंडार में कमी और दीर्घकालिक आर्थिक कुप्रबंधन के साथ-साथ अस्थिर परियोजनाओं और उधार के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है.

श्रीलंका की स्थिति इतनी बदतर नहीं होती अगर देश में लोक-लुभावनवाद की घरेलू राजनीति और उसके बाद की सरकारों के आर्थिक कुप्रबंधन ने देश को आर्थिक रूप से खोख़ला नहीं किया होता.

सच भी यही है कि श्रीलंका की स्थिति इतनी बदतर नहीं होती अगर देश में लोक-लुभावनवाद की घरेलू राजनीति और उसके बाद की सरकारों के आर्थिक कुप्रबंधन ने देश को आर्थिक रूप से खोख़ला नहीं किया होता. लेकिन इन दोनों कारणों का चीन से भी गहरा संबंध है. श्रीलंका में जारी संकट के पीछे बीजिंग का हाथ काफी जटिल है, और तो और, चीन, संकट की ऐसी घड़ी में श्रीलंका की, जिसे वह अपना ऑल-वेदर मित्र और सहयोगी बताता है, शायद ही कोई मदद की होगी.

चीन और राजापक्षे का उदय

श्रीलंका की मौज़ूदा स्थिति मुख्य रूप से लोकलुभावनवाद और लोकलुभावन नीतियों का परिणाम है और इस मामले में श्रीलंका की राजनीति में राजापक्षे के उदय को समझना बेहद ज़रूरी है. महिंदा राजापक्षे ने राष्ट्रपति के रूप में अपना पहला कार्यकाल साल 2005 में शुरू किया था. इस कोशिश में उनके भाई-बहनों ने उनकी मदद की, जिनके पास रक्षा सचिव सहित सरकार में प्रमुख विभाग की ज़िम्मेदारी थी. हालांकि अपनी सख़्त नीतियों द्वारा ढ़ाई दशक से अधिक के गृहयुद्ध को ख़त्म करने की उनकी क्षमता ने श्रीलंका में सिंहली समुदाय के बीच उनकी छवि अच्छी बना दी. उनकी नीतियां इतनी लोकप्रिय थीं कि राजापक्षे ने अकेले राष्ट्रीय सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करके 2019 का चुनाव जीत लिया.

चीन की दिलचस्पी श्रीलंका के आंतरिक मामलों को लेकर बेहद कम थी लेकिन चीन राजापक्षे के ख़िलाफ़ मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों को लेकर उनका बचाव करने लगा और इसी से चीन और राजापक्षे के रिश्ते और मज़बूत होते गए.

लेकिन ऐसी विरासत और गृहयुद्ध का ख़ात्मा चीन द्वारा राजापक्षे शासन को हथियारों, गोला-बारूद और तोपखाने की निरंतर और अप्रतिबंधित आपूर्ति के कारण ही संभव हो पाई थी. यह ऐसे समय में हो रहा था जब पश्चिमी देश मानवाधिकारों के उल्लंघन के बारे में सशंकित था और भारत तमिलों की दुर्दशा को लेकर चिंतित था. चीन की दिलचस्पी श्रीलंका के आंतरिक मामलों को लेकर बेहद कम थी लेकिन चीन राजापक्षे के ख़िलाफ़ मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों को लेकर उनका बचाव करने लगा और इसी से चीन और राजापक्षे के रिश्ते और मज़बूत होते गए. इतना ही नहीं इस नई दोस्ती ने श्रीलंकाई नेतृत्व को पश्चिम और भारत के बीच संतुलन साधने और उनके दबाव से निपटने के लिए एक नया सहयोगी दे दिया. अंतरराष्ट्रीय  दबाव को नज़रअंदाज़ करने के ऐसे रवैए की वज़ह से तथाकथित राष्ट्रवादी सिंहली समुदाय के बीच उनकी छवि एक मज़बूत शासक की बनी जिसने उनके राष्ट्रवादी वोट बैंक को भी उनकी ओर आकर्षित किया.

इसी तरह, युद्ध के बाद के आर्थिक सुधार ने भी राजापक्षे नेतृत्व और सरकार में भरोसा जगाना शुरू किया. यहां फिर से चीन की भूमिका अहम थी. 2005 – 2015 के दौरान श्रीलंका के विकास और आर्थिक सहायता में चीन सबसे बड़े मददगार के तौर पर उभरा. आर्थिक रूप से उबरते श्रीलंका ने जैसे ही कई बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की नींव रखी तो चीन ने इन परियोजनाओं में निवेश करने के मौक़े को हाथ से नहीं गंवाया. यह उत्साह चीन की बढ़ती आर्थिक ताक़त और अगली एशियाई शक्ति बनने की इच्छा का ही नतीज़ा था . दूसरी ओर, श्रीलंका को चीन से भारी कर्ज़ बिना किसी बाधा के आसानी से प्राप्त हो रहा था जबकि श्रीलंका की घरेलू राजनीति में चीन की कोई दिलचस्पी नहीं थी. इतना ही नहीं, ज़्यादातर मामलों में चीन ने इन परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए तकनीकी, वित्तीय और आर्थिक सहायता भी प्रदान की.

तालिका 1 : चीन से वर्ष-वार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश

वर्ष चीनी एफडीआई  (in million $) वर्ष चीनी एफडीआई  (in million $)
2005 20 2013 330
2006 50 2014 480
2007 45 2015 340
2008 100 2016 173
2009 40 2017 924
2010 30 2018 1499
2011 150 2019 430
2012 440

स्रोत – लेखक का संकलन 

इन बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं ने देश के निर्माण और खुदरा क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाया और एक अस्थायी आर्थिक सुधार की नींव रखी. हालांकि, इन निवेशों में स्थायी नतीज़े देने की क्षमता का अभाव था, फिर भी सरकार ने उन्हें इस तरीक़े से प्रचारित किया जैसे सरकार की मंशा श्रीलंका को दूसरा सिंगापुर बना देने की हो. इस तरह के दिखने वाले बुनियादी ढांचे के विकास के साथ-साथ अस्थायी आर्थिक उछाल ने महिंदा राजापक्षे की स्थिति को और मज़बूत किया.

राजापक्षे सरकार ने भारत, जापान और अमेरिका से निवेश को अस्वीकार कर दिया और इसे ज़्यादा जटिल बना दिया. बदले में राजापक्षे परिवार चीन के बाहरी समर्थन से सत्ता का मजा लेता रहा, चुनाव अभियान के लिए हो रही फ़ंडिंग से अपने लिए लाभ के मौक़े बनाता रहा और अपने खजाने का विस्तार भी किया.

युद्ध के बाद के ये वर्ष राजापक्षे के लिए श्रीलंका की राजनीति में ख़ुद को प्रमुख खिलाड़ी के रूप में स्थापित करने के लिए बेहद अहम थे और चीन ने लोकलुभावनवाद की इस छवि को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके कारण बाद में श्रीलंका में मौज़ूदा संकट की शुरुआत हुई.

ख़ामियों का फ़ायदा उठाना और संरचनात्मक मुद्दों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना

संकट की एक दूसरी बड़ी वज़ह श्रीलंका की आर्थिक संरचना, कुप्रबंधन और व्यापक परियोजना प्रस्ताव हैं. लेकिन यहां भी चीन की भूमिका अहम रही है. बीजिंग ने निवेश के मौक़ों को हमेशा से अपने प्रभाव और निवेश को बढ़ाने के साधन के तौर पर देखा जबकि राजापक्षे ने इसे राजनीतिक और आर्थिक लाभ हासिल करने के मौक़े के रूप में भुनाया. परिणामस्वरूप श्रीलंकाई नेतृत्व ने कुछ ही चीनी फर्मों को ख़ास परियोजनाओं में निवेश करने के लिए चुना; ऐसे समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए जो भ्रमात्मक थे; अपारदर्शी कंपनियों और निवेशों को बढ़ावा दिया गया; एडीबी या विश्व बैंक द्वारा दी जाने वाली ब्याज़ दरों के मुक़ाबले अधिक ब्याज़ दर वाले ऋण स्वीकार किए जाने लगे. इतना ही नहीं, राजापक्षे सरकार ने भारत, जापान और अमेरिका से निवेश को अस्वीकार कर दिया और इसे ज़्यादा जटिल बना दिया. बदले में राजापक्षे परिवार चीन के बाहरी समर्थन से सत्ता का मजा लेता रहा, चुनाव अभियान के लिए हो रही फ़ंडिंग से अपने लिए लाभ के मौक़े बनाता रहा और अपने खजाने का विस्तार भी किया.

इस राजनीतिक समर्थन और कुलीन वर्ग के दिलोदिमाग पर अपने प्रभाव को जमाने के साथ, चीन द्वारा फंड की जा रही परियोजनाओं और वित्त समय के साथ संचित होने लगे (तालिका 2 देखें). और जब साल 2015 राजापक्षे के उत्तराधिकारियों ने पदभार संभाला तब तक ये चीनी निवेश और कर्ज़ श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था के भीतर इतने गहरे पैठ चुके थे कि चीन के साथ संबंधों को नज़रअंदाज़ कर पाना अकल्पनीय हो गया था. इसके बाद तो श्रीलंका में चीनी निवेश और परियोजनाओं का आना लगातार जारी रहा. साल 2019 में राजापक्षे की वापसी ने इन निवेशों और कदमों में और तेज़ी ला दी.

तालिका 2. श्रीलंका के लिए चीन के विकास फंड की अहमियत

वर्ष चीनी विकास वित्त का लगभग मूल्य (in billion US$)
2006 0.45
2007 0.7
2008 0.7
2009 2.0
2010 2.8
2011 4.0
2012 5.3
2013 5.9
2014 8.2
2015 8.2
2016 10.2
2017 11.0
2018 11.2
2019 12.1

स्रोत – Chatham House

कुल मिलाकर चीन ने अपनी राजनीतिक और आर्थिक हितों के लिए श्रीलंका की आर्थिक कमज़ोरियों, ख़ामियों और भ्रष्ट व्यवस्थाओं को शिकार बनाया. जबकि श्रीलंकाई सरकार ने धन के आसान प्रवाह के चलते संरचनात्मक कमज़ोरियों जैसे कि एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) के निम्न स्तर, कर राजस्व, निर्यात में विविधता लाने में नाकामी, बज़ट और व्यापार घाटे की अनदेखी करनी शुरू कर दी. श्रीलंका की आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों को लेकर चीन द्वारा हस्तक्षेप नहीं करने की भारी क़ीमत श्रीलंका को चुकानी पड़ी. श्रीलंका के असीमित प्रस्तावों और बेरोकटोक चीनी निवेश ने इन संरचनात्मक कमज़ोरियों को भी बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जिसने मौज़ूदा संकट को और बढ़ाने में अपनी भूमिका अदा की.

ग़ैर टिकाऊ कर्ज़ और चीनी बेगुनाही का मिथक 

आख़िरकार, श्रीलंका का मौज़ूदा संकट भी निरंतर कर्ज़ लेने का ही नतीज़ा है. बाहरी कर्ज़ से अपनी आर्थिक स्थिति को मज़बूत बनाए रखने का श्रीलंका का लंबा इतिहास रहा है. इस संबंध में अक्सर कहा जाता है कि बीजिंग श्रीलंका का एक और ऋणदाता है. इस तर्क को प्रमाणित करने के लिए चीन के 10 प्रतिशत कर्ज़ की तुलना अक्सर निजी क्षेत्र के 47 प्रतिशत उधार देने से की जाती है (तालिका 3 देखें).  यह सच है कि श्रीलंका में बाज़ार से लिए गए कर्ज़ की राशि चीन से आने वाली फ़ंडिंग पर भारी पड़ती है लेकिन इस तर्क का सामना करने के लिए कहा जाता है कि बाज़ार से लिए गए ये कर्ज़ किसी एक इकाई से नहीं हैं और ना ही ये ऐसे नॉन स्टेट एक्टर से लिए गए हैं जो व्यापक भू-राजनीतिक संरचना को बदल सकते हैं. इसके समानांतर, चीन श्रीलंका के लिए दूसरा सबसे बड़ा कर्ज़दाता है और उसने अपनी आर्थिक और राजनीतिक सीमाओं और कमज़ोरियों को जानने के बावज़ूद, श्रीलंका को ज़्यादा से ज़्यादा परियोजनाओं और ऋण की पेशकश की और इस तरह श्रीलंका से अपने हितों को साधने के लिए कर्ज़ के जाल में फंसाया.

चीन श्रीलंका के लिए दूसरा सबसे बड़ा कर्ज़दाता है और उसने अपनी आर्थिक और राजनीतिक सीमाओं और कमज़ोरियों को जानने के बावज़ूद, श्रीलंका को ज़्यादा से ज़्यादा परियोजनाओं और ऋण की पेशकश की और इस तरह श्रीलंका से अपने हितों को साधने के लिए कर्ज़ के जाल में फंसाया.

दिलचस्प बात यह है कि चीन एकमात्र ऐसा कर्ज़दाता है जिसके बकाए ऋण का आंकड़ा उसके कुल ऋण स्टॉक से दोगुना है (तालिका 3 देखें). ऐसा दो कारणों से हो सकता है : या तो हाल के वर्षों में चीनी कर्ज़ तेज़ी से मैच्योर (परिपक्व) हुए हैं या फिर कर्ज़ राशि पर उच्च ब्याज़ दर. हर हाल में इसका एक ही मतलब है कि श्रीलंका पर चीन का अधिक पैसा बकाया है. इस तरह बाहरी कर्ज़ के लगातार भुगतान ने – जिसमें चीन की हिस्सेदारी भी अहम है – श्रीलंका के विदेशी मुद्रा भंडार को और कम कर दिया. इससे आगे और ज़्यादा मानवीय और आर्थिक तबाही हुई.

तालिका 3: श्रीलंका का ऋण स्टॉक और बकाया ऋण

बाजार उधार चीन एडीबी जापान भारत
श्रीलंका का कर्ज़ स्टॉक (%) 47 10 13 10 2
श्रीलंका का बकाया कर्ज़ (%) 36 20 15 9 2

स्रोत : डिपार्टमेंट ऑफ़ एक्सटर्नल रिसोर्सेज़; द डिप्लोमैट 

निष्कर्ष

पिछले दो दशक से श्रीलंका में आर्थिक संकट की ज़मीन तैयार हो रही थी. हालांकि ज़्यादातर दोष इसमें श्रीलंका की घरेलू परिस्थितियों की है लेकिन संकट को बढ़ाने में चीन की भूमिका को अलग नहीं किया जा सकता है. क्योंकि राजापक्षे सरकार की लोकलुभावन नीतियां, बेरोकटोक गैर टिकाऊ कर्ज़ के साथ ढांचागत ग़लतियों की अंतहीन कहानियां बिना चीन के श्रीलंका में मुमकिन नहीं हो सकती थी. हालांकि चीन ने बेहद आसानी से इस संकट की ज़िम्मेदारी दूसरों पर डाल दी लेकिन ऐसे संकट के समय श्रीलंका को महज़ 76 मिलियिन अमेरिकी डॉलर की चीन द्वारा मदद करना चीन पर भरोसे के साथ उसकी महत्वाकांक्षाएं, उसकी परियोजनाओं, कर्ज़ और कुलीन वर्ग पर प्रभाव जमाने से संबंधित कई सवाल खड़े करता है. अगर कोई देश इन सवालों की अहमियत समझता है तो इंडो-पैसिफ़िक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क (हिंद प्रशांत आर्थिक फ्रेमवर्क) जैसे आकार लेने वाले संगठन उन्हें पहले के मुक़ाबले महत्वपूर्ण लग सकते हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.