Published on Jun 18, 2024 Updated 0 Hours ago

पिछले दिनों भारत के प्राइवेट सेक्टर की एक कंपनी को पवन ऊर्जा परियोजना देने के फैसले ने श्रीलंका में आरोपों की झड़ी लगा दी है. दावा किया जा रहा है कि भारत श्रीलंका को अपने एकवर्चुअल प्रांतके रूप में बदल रहा है.

श्रीलंका: भारत के निवेशकों के लिए संभावनाएं या चुनौतियां?

जिस समय श्रीलंका के कुछ संस्थानों ने कैबिनेट के द्वारा पवन ऊर्जा की एक परियोजना का ठेका भारत की एक प्राइवेट कंपनी को देने के ख़िलाफ़ देश के सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया है, उस समय कोलंबो के अकादमिक जगत से जुड़ी कुछ हस्तियां इस द्वीपीय देश के गंभीर आर्थिक संकट का स्थायी समाधान ढूंढने के मकसद से इस तरह की निवेश से जुड़ी पहल को श्रीलंका को अपने विशाल  उत्तरी पड़ोसी (भारत) का एकवर्चुअल प्रांतबनाने की कोशिश के रूप में देख रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट में याचिका देश की वाइल्डलाइफ एंड नेचर प्रोटेक्शन सोसायटी (WNPS) के द्वारा दायर की गई है जो कि दुनिया में सबसे पुराने पर्यावरण से जुड़े संगठनों में से एक है. इस संगठन के निशाने पर भारत की कंपनी अदानी ग्रीन एनर्जी लिमिटेड है. ऊर्जा की कीमत समेत कई मुद्दे सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर अन्य याचिकाओं में उठाए गए हैं. न्यायिक प्रक्रियाओं और कार्यवाही के साथ-साथ सितंबर-अक्टूबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव, जिससे पहले शायद संसदीय चुनाव भी होंगे, को देखते हुए इसमें और देरी हो सकती है. इस तरह एक स्पष्ट सरकारी फैसला, जिसे सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का पालन करना होगा, दोनों चुनावों के नतीजों पर निर्भर करेगा

भारतीयों को ये सवाल पूछना चाहिए कि क्या उनका निवेश सुरक्षित रहेगा और शेयर धारकों एवं भागीदारों के लिए लाभ उत्पन्न करेगा, चाहे निवेश प्राइवेट सेक्टर का हो या सरकारी सेक्टर का.

हालांकि सवाल बना हुआ है कि नकदी की तंगी से जूझ रहे श्रीलंका में सरकारी एवं प्राइवेट- दोनों सेक्टर से व्यापक पैमाने पर निवेश का प्रस्ताव देकर क्या भारत अपने दक्षिणी पड़ोसी को एकवर्चुअल प्रांतबनाने की कोशिश कर रहा है. इस तरह की सोच कई कारणों से गलत है. पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण ये है कि श्रीलंका एक संप्रभु देश है और कोई दूसरा देश उसके अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है, विशेष रूप से उस समय जबशीत युद्धके बाद से दुनिया काफी बदल गई है. दुर्भाग्य की बात ये है कि श्रीलंका के लोगों ने अपना दृष्टिकोण और रवैया इस तरह के परिवर्तन के साथ नहीं बदला है. 2022 में श्रीलंका को अपनी चपेट में लेने वाले आर्थिक संकट के पीछे भी इसका बड़ा योगदान है

दूसरा, भारतीयों को ये सवाल पूछना चाहिए कि क्या उनका निवेश सुरक्षित रहेगा और शेयर धारकों एवं भागीदारों के लिए लाभ उत्पन्न करेगा, चाहे निवेश प्राइवेट सेक्टर का हो या सरकारी सेक्टर का. वित्तीय, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से ऐसे निवेशों में बहुत ज़्यादा ख़तरा है. येवर्चुअल प्रांतजैसी सोच से अलग है. इसके बदले, एक बार भारतीय पैसा श्रीलंका या किसी दूसरे देश में निवेश हो जाने के बाद संस्थानों के दिन-प्रतिदिन के प्रशासन में स्थानीय सरकार की भूमिका मज़बूत हो जाती है

इस मामले में सरकार अन्य बातों के साथ स्थानीय राजनीति एवं समाज, राष्ट्रपति एवं संसदीय बहुमत में बदलाव से प्रभावित होगी. अगर कोई बात महत्वपूर्ण है तो वो ये कि श्रीलंका के लोगों को इस सोच से सुखद आश्चर्य होना चाहिए कि भारत और भारत के लोग अपना पैसा एक ख़राब आर्थिक माहौल में लगाना चाहते हैं और ये उम्मीद कर रहे हैं कि छोटी, मध्यम एवं लंबी अवधि में उनका पैसा सुरक्षित रहने के साथ-साथ बढ़ेगा भी. अगर नरम शब्दों में कहें तो भारतीय निवेश पूरा हो जाने के बाद और उससे कोई लाभ कमाने से पहले बेकार पड़ा रहेगा

दोहरी सावधानी 

अगर पहले नहीं तो कम-से-कमवर्चुअल प्रांतकी उभरती धारणा के बाद दूसरे लोग और ज़्यादा सावधान हो गए होंगे, वो भी उस देश में जहां सुरक्षा एजेंसियां अभी तक उन आगजनी करने वालों की पहचान और/या गिरफ्तारी नहीं कर पाई हैं जिन्होंने अर्गालाया प्रदर्शनों के दौरान राष्ट्रपति समेत लगभग सौ राजनेताओं की व्यक्तिगत संपत्तियों को आग के हवाले कर दिया था. भारतीय निवेशक या परियोजना कुछ भी हो लेकिन श्रीलंका का राजनीतिक वर्ग विकास से जुड़ी फंडिंग को लेकर अपने विचारों के मामले में बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं है

दोनों देशों के ‘विज़न डॉक्यूमेंट’ के एक हिस्से के रूप में प्रस्तावित इस सूची में दोनों देशों को जोड़ने वाले एक पुल के लिए प्रस्ताव को फिर से ज़िंदा किया गया.

अर्गालाया प्रदर्शनों से पहले पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे की सरकार में शामिल कुछ कैबिनेट मंत्रियों और सत्ताधारी पार्टी के सांसदों ने सार्वजनिक रूप से भविष्य की ऊर्जा विकास परियोजनाओं में भारत को शामिल करने को लेकर चिंता जताई थी. सरकार के ख़िलाफ़ सड़कों पर अभूतपूर्व प्रदर्शनों के कुछ महीने पहले अक्टूबर 2021 की शुरुआत में अपने हफ्ते भर के श्रीलंका दौरे में तत्कालीन भारतीय विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने कोविड के बाद इस द्वीपीय देश को बेहतर स्थिति में लाने के लिए समर्थन दोहराया था और कई ऊर्जा एवं कनेक्टिविटी परियोजनाओं पर बातचीत शुरू की थी. इन सबका मक़सद स्थानीय अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर और मज़बूत बनाना था.   

पहले जिन परियोजनाओं की पहचान की गई थी, उन्हें जुलाई 2023 में स्पष्ट मंज़ूरी मिली जब राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे ने दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बातचीत के दौरान पांच समझौता ज्ञापनों (MoU) पर हस्ताक्षर किए थे. दोनों देशों केविज़न डॉक्यूमेंटके एक हिस्से के रूप में प्रस्तावित इस सूची में दोनों देशों को जोड़ने वाले एक पुल के लिए प्रस्ताव को फिर से ज़िंदा किया गया. ये प्रधानमंत्री के रूप में विक्रमसिंघे के दूसरे कार्यकाल (2003-04) के समय से उनकी मनपसंद परियोजना है. उन्होंने पहले जो कल्पना की थी उससे अलग इस तरह का पुल केवल श्रीलंका को दक्षिण भारतीय बाज़ारों से जोड़ेगा बल्कि समय के साथ बहुत बड़े यूरेशियाई भू-भाग के साथ भी

आर्थिक तौर पर इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है दोनों देशों को जोड़ने वाली तेल की पाइपलाइन के निर्माण के लिए समझौता ज्ञापन. त्रिंकोमाली में फिर से बनाए गए दो तेल टैंक फार्म के साथ इस पाइपलाइन को शामिल करें तो इसका मतलब होगा कि तीसरे देश को रिफाइंड तेल का निर्यात करके श्रीलंका अपने विदेशी भंडार को बढ़ा सकता है. याद किया जा सकता है कि डॉलर की अभूतपूर्व कमी की वजह से दूसरे ज़रूरी समानों के अलावा खाद्य, ईंधन और दवा का आयात रोक दिया गया था जिसके कारण पूरे देश में सार्वजनिक अशांति फैली थी और राष्ट्रपति गोटबाया को मजबूर होकर पद छोड़ना पड़ा था

अधिक तनाव

श्रीलंका के अकादमिक जगत से जुड़ी हस्तियों के द्वारा भारत के फंड से चलने वाली परियोजनाओं की आलोचना अतीत की धारणाओं पर आधारित है जिसे वो बदलने के लिए तैयार नहीं हैं. फिर भी कुछ वास्तविक मुद्दे हैं जिसे वो अक्सर उठाते रहते हैं. मिसाल के तौर पर मछुआरों से जुड़ा विवाद और इससे संबंधितकच्चातिवु पहेलीजो द्विपक्षीय रिश्तों में कांटा बने हुए हैं. हालांकि श्रीलंका के तमिल मछुआरों की आजीविका और अधिकारों के नुकसान का हवाला देकर तैयार उनकी दलील सत्ता हस्तांतरण या 13वें संशोधन को पूरी तरह लागू करने, जो कि श्रीलंका के संविधान में 45 वर्षों यानी 1987 से है, को लेकर उनके लगातार रवैये के सामने खोखली लगती है.

एक तरह से ये दोनों देशों के राजनेताओं, शिक्षाविदों और सामरिक समुदाय के लिए एक-दूसरे की सरकार और संबंधों को बनाने या बिगाड़ने वाले संवेदनशील मुद्दों पर उनके रवैये को समझने के लिए शुरुआती बिंदु होना चाहिए. 

श्रीलंका की नौसेना (SLN) और न्यायपालिका भारतीय मछुआरों, विशेष रूप से तमिलनाडु के मछुआरों, को अपनी समुद्री सीमा में दाखिल होने और नॉर्दर्न प्रोविन्स में श्रीलंका के तमिल मछुआरों के मछलियों के भंडार में अतिक्रमण करने से हतोत्साहित करने के लिए पर्याप्त कदम उठा रही हैं. श्रीलंका और भारत 1974 और 1976 की दो द्विपक्षीय संधियों के कार्यान्वयन को सुचारू बनाने के लिए एक-दूसरे के साथ लगातार विचार-विमर्श और बातचीत कर रहे हैं. इन दोनों संधियों के तहत दोनों देशों के बीच अपरिभाषित अंतर्राष्ट्रीय समुद्री सीमा रेखा (IMBL) को तय किया गया है और छोटे से कच्चातिवु द्वीप को श्रीलंका की तरफ रखा गया है. श्रीलंका में जो लोग इन दोनों मुद्दों को दूसरे पहलुओं के साथ जोड़ना चाहते हैं, उनकी इच्छा होती है कि पूरा देश माने कि ये भारतीय वर्चस्व का हिस्सा था. लेकिन ऐसे लोग भारत के साथ अपने देश के संबंधों का बहुत ज़्यादा नुकसान कर रहे हैं जो कोविड-19 महामारी के दौरान और कोविड के बाद आर्थिक संकट के समय उनके साथ खड़ा रहा

हालांकि पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा चुनावी भाषण में तमिलनाडु की सत्ताधारी DMK और उसकी सहयोगी कांग्रेस, जो दोनों संधियों के दौरान केंद्र में सत्ता में थी, पर राज्य को धोखा देने के आरोप ने भीकच्चातिवु मुद्देको लेकर कुछ भुलाए जा चुके तथ्यों को स्पष्ट करने में मदद की होगी. श्रीलंका के विदेश मंत्री अली साबरी ने इस मुद्दे को ये कहकर रोका कि भारत ने उनके सामने ये मुद्दा नहीं उठाया कि कैबिनेट इस पर चर्चा करें. श्रीलंका में राजनीतिक दिलचस्पी भी बहुत कम थी. हालांकि अकादमिक जगत से जुड़े कुछ लोगों ने अभी भी भारतीय मछुआरों के द्वाराशिकारकी शिकायत की जो कि एक जीवंत मुद्दा बना हुआ है

भारत की बात करें तो ज़्यादातर लोगों, जिनमें राजनीतिक वर्ग भी शामिल है, ने संभवत: पहली बार समुद्र के एक विशाल हिस्से, जो भारत के सबसे दक्षिणी छोर कन्याकुमारी के दक्षिण में 10,000 वर्ग किमी में फैला है, के अस्तित्व के बारे में सुना. वेज बैंक के रूप में जाने जाने वाले खनिज और पेट्रोलियम से भरपूर ये समुद्री हिस्सा भारत कोकच्चातिवु समझौतेके हिस्से के तौर पर मिला. ये भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि समझौते के तहत जान-बूझकर किसी देश का कोई हिस्सा दूसरे को दिया या उससे लिया नहीं गया बल्कि केवल समुद्री कानून पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCLOS) के लागू होने से काफी पहले इसके तहत प्रकाशन के लिए IMBL को निर्धारित किया गया

ये कहना पर्याप्त होगा कि द्विपक्षीय संधि ने सुनिश्चित किया है कि दोनों देशों को जोड़ने वाला पाल्क स्ट्रेट और मन्नार की खाड़ी अतिरिक्त क्षेत्रीय ताकतों समेत किसी भी तीसरे देश के हस्तक्षेप के बिना इन दोनों देशों का विशेष समुद्री क्षेत्र बना रहेगा. एक तरह से ये दोनों देशों के राजनेताओं, शिक्षाविदों और सामरिक समुदाय के लिए एक-दूसरे की सरकार और संबंधों को बनाने या बिगाड़ने वाले संवेदनशील मुद्दों पर उनके रवैये को समझने के लिए शुरुआती बिंदु होना चाहिए. 

ऐसी मज़बूती, विश्वास और समझ के आधार पर उन्हें भविष्य में आर्थिक सहयोग तैयार करना चाहिए. इसके बिना ख़ास तौर पर श्रीलंका आगे नहीं बढ़ सकता- विशेष रूप से अपेक्षाकृत कम घटक (कंपोनेंट), परिवहन एवं बीमा लागत को देखते हुए, उनकी भौतिक निकटता, सांस्कृतिक पुरातनता और भावनात्मक निर्भरता को देखते हुए.


चेन्नई में रहने वाले एन सत्या मूर्ति नीति विश्लेषक और राजनीतिक समीक्षक हैं

 

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