Author : Manya Khanna

Expert Speak India Matters
Published on Jun 25, 2024 Updated 0 Hours ago

मौजूदा क्रेडिट रेटिंग एजेंसीज की ओर से पेश होने वाली चुनौतियां और ग्लोबल साउथ यानी वैश्विक दक्षिण, विशेषत: भारत, को लेकर उनके पक्षपाती रवैये से निपटने के लिए परिचालन संबंधी अनेक बदलावों पर अमल किया जाना आवश्यक हो गया है.

सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग: एक समीक्षा

वर्षों से तीन शीर्ष वित्तीय एजेंसियों, मूडीज, S&P यानी स्टैंडर्ड एंड पूअर्स तथा फिच, की ओर से दी जाने वाली सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग ने व्यक्तिगत तौर पर विभिन्न देशों को मिलने वाली पूंजी और इन देशों को लेकर वैश्विक निवेशकों की समझ को प्रभावित किया है. लेकिन इन रेटिंग्स की सब्जेक्टिविटी यानी आत्मीयता और बायस अर्थात पक्षपात को लेकर चिंताएं उठ रही हैं. इस लेख में सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग की कार्यप्रणाली में मौजूद पक्षपात, विशेषत: भारत के मामले में, को लेकर चर्चा की कोशिश की गई है.

 

पिछले दशक में COVID-19 जैसी महामारी समेत अन्य भूराजनीतिक संघर्षों के बावजूद, भारत सकारात्मक विकास पथ पर मजबूती से आगे बढ़ते हुए दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने में सफ़ल रहा है. इन सकारात्मक लक्षणों के बावजूद तीन प्रमुख क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों (CRAs)- मूडीज, S&P तथा फिच, की ओर से भारत को दी गई रेटिंग कमज़ोर (BBB-/Baa3) ही है. 2021 के आर्थिक सर्वेक्षण में क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों पर आरोप लगाया गया था कि इन एजेंसियों की रेटिंग में उभरती शक्तियों जैसे भारत को लेकर पक्षपात दिखाई देता है. इसी तरह भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के तहत आने वाले मुख्य आर्थिक सलाहकार के कार्यालय की ओर से 2023 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग की ओर से अपनाई जाने वाली कार्यप्रणाली की समीक्षा की गई थी. इसके अनुसार यह कार्यप्रणाली बेहद सब्जेक्टिव यानी व्यक्तिपरक है और इसमें केवल चुनिंदा विशेषज्ञों के मत को ही आधार बनाया जाता है. इस समीक्षा के अनुसार दरअसल ये रेटिंग्स तटस्थ भाव से भारत के आर्थिक विकास को परख पाने में विफ़ल रहती हैं. इनकी कार्यप्रणाली अपारदर्शी होने की वजह से यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि क्या ये एजेंसियां अन्यायपूर्ण रूप से ग्लोबल साउथ के प्रति पक्षपाती है या फिर विशेषत: भारत के मामले में ही उनका रवैया पक्षपाती रहता है. इतना ही नहीं, भारत का सार्वजनिक कर्ज़ उसकी घरेलू मुद्रा में है, जिसकी वजह से कर्ज़ चूकाने में विफ़लता की संभावना नहीं के बराबर हो जाती है. वैसे भी भारत की कोई डिफॉल्ट हिस्ट्री अर्थात कर्ज़ चूकाने का इतिहास ही नहीं है

 भारत के पास पर्याप्त विदेशी पूंजी भंडार है. मार्च 2024 में भारत का विदेशी पूंजी भंडार औसतन 570.95 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, जिसमें हाल के वर्षों में काफ़ी इज़ाफ़ा देखा गया है.

कुछ लोग तर्क देते है कि भारत उच्च मुद्रास्फीति के संकट से जूझ रहा है और उसका कर्ज़ का बोझ भी अधिक है. इसी वजह से उसकी क्रेडिट रेटिंग कमज़ोर आती है. लेकिन ज़िम्मेदार प्राधिकरण मुद्रास्फीति, जो अप्रैल 2024 में 4.83 प्रतिशत है (ऑल इंडिया CPI पर आधारित), को नियंत्रित करने के कदम उठा रहे हैं और भारत के कर्ज के बोझ पर भी नजर रखे हुए हैं. भारत के पास पर्याप्त विदेशी पूंजी भंडार है. मार्च 2024 में भारत का विदेशी पूंजी भंडार औसतन 570.95 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, जिसमें हाल के वर्षों में काफ़ी इज़ाफ़ा देखा गया है. इसके अलावा भारत की बैंकिंग प्रणाली के पास भी पर्याप्त पूंजी है. यह प्रणाली पर्याप्त तरलता दिखाते हुए परिसंपत्ति की गुणवत्ता के मामले में भी पुख़्ता तौर पर लचीली है. इसके साथ ही भारत अच्छी मात्रा में सीधे विदेशी निवेश को भी आकर्षित कर रहा है. हाल के रुझानों से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि इस मामले में मजबूत वृद्धि और अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का भरोसा बढ़ा हुआ है. इन CRAs' के ग्लोबल साउथ और उभरती अर्थव्यस्थाओं को लेकर पक्षपाती रवैये को लेकर काफ़ी अकादमिक सामग्री उपलब्ध है. इस सामग्री की वजह से पर्सेप्शन यानी धारणा प्रीमियम बढ़ता है और भारत जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के लिए अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ार तक पहुंच बनाने में परेशानी पैदा होती है. भारत की क्रेडिट रेटिंग में उसकी अर्थव्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतो की झलक बिलकुल भी दिखाई नहीं देती है. इसी बात की तरफ भारत सरकार के वित्त मंत्रालय की ओर से जारी 2021 के आर्थिक सर्वेक्षण में ध्यान आकर्षित किया गया था

 

प्रासंगिक विश्लेषण

 

सॉवरेन यानी सरकारों के लिए क्रेडिट रेटिंग्स का निर्धारण आमतौर पर लेटर ग्रेडिंग प्रणाली से किया जाता है. ये रेटिंग्स परस्पर संबंधी वैश्विक अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका अदा करती हैं. इनकी वजह से किसी भी देश का आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य प्रभावित होता है. ये रेटिंग्स भले ही क्रेडिट रेटिंग उद्योग का छोटा सा हिस्सा ही क्यों हो, लेकिन उनमें किसी देश की अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ार से पूंजी उठाने और कर्ज़ की दर को प्रभावित करने की क्षमता होती है. इतना ही नहीं इन रेटिंग्स को देखकर ही कोई निवेशक किसी देश की अपने वित्तीय दायित्व को पूरा करने की क्षमता का आकलन करता है. इस रेटिंग के दम पर ही किसी देश की किसी भी वक़्त क्रेडिट लेने की क्षमता अर्थात उसकी साख भी तय होती है. SCRs ही किसी सार्वभौम देश की अपने कर्ज़ दायित्वों के ‘‘भुगतान की क्षमता’’ और ‘‘भुगतान की इच्छा’’ का मूल्यांकन करते हैं. एक और ध्यान देने वाली बात यह है कि हाल के दशकों में वैश्विक वित्तीय बाज़ारों में हुए विस्तार के साथ-साथ ही इन रेटिंग्स का महत्व भी बढ़ा है. जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है, मुख्य क्रेडिट एजेंसियों जैसे कि मूडीज, S&P तथा फिच की ओर से उपयोग की जाने वाली कार्यप्रणाली की अपारदर्शिता की वजह से ही इनकी आलोचना होती है

 

वर्तमान रेटिंग कार्यप्रणाली की मुख्य आलोचना इन रेटिंग के क्वालिटेटिव इंडिकेटर्स यानी गुणात्मक संकेतकों पर अत्यधिक आश्रित होने की वजह से पेश आने वाली अनेक चुनौतियां को लेकर की जाती है. सबसे पहले तो इस कार्यप्रणाली में विशेषज्ञों के एक छोटे समूह पर बहुत ज़्यादा भरोसा किया जाता है. इसकी वजह से सब्जेक्टिव यानी व्यक्तिपरक निर्णय को बढ़ावा मिलता है और इन रेटिंग्स की कुल विश्वसनीयता प्रभावित होती है. दूसरी बात यह है कि इस कार्यप्रणाली में क्वॉलिटेटिव इंडिकेटर्स यानी गुणात्मक संकेतकों पर ज़्यादा बल दिए जाने से व्यक्तिपरकता का मुद्दा और भी गहरा जाता है. इसकी वजह से फिर संभावित कॉग्निटिव बायसेस यानी ज्ञानात्मक पक्षपात और इससे जुड़े प्रभाव दिखाई देने लगते है. और अंत में, विशेषत: संगठनात्मक गुणवत्ता जैसे क्वालिटेटिव फैक्टर यानी गुणात्मक कारकों की गणना में, उपयोग की जा रही कार्यप्रणाली विशेष की पारदर्शिता का अभाव होता है. उदाहरण के लिए वर्ल्ड बैंक के वर्ल्डवाइड गर्वनंस इंडिकेटर्स (WGIs) के पैमानों पर की जाने वाली गुणात्मक कारकों, जैसे संगठनात्मक गुणवत्ता की गणना को लेकर काफ़ी चिंताएं है. ये मूल्यांकन व्यक्तिपरक हो सकते हैं, क्योंकि ये कुछ चुनिंदा विशेषज्ञों के विचारों पर ही आधारित होते हैं. इन मुद्दों की वजह से ही रेटिंग्स की विश्वसनीयता और साख प्रभावित होती है.

 इस कार्यप्रणाली में क्वॉलिटेटिव इंडिकेटर्स यानी गुणात्मक संकेतकों पर ज़्यादा बल दिए जाने से व्यक्तिपरकता का मुद्दा और भी गहरा जाता है. इसकी वजह से फिर संभावित कॉग्निटिव बायसेस यानी ज्ञानात्मक पक्षपात और इससे जुड़े प्रभाव दिखाई देने लगते है. 

घरेलू रेटिंग एजेंसियों को बढ़ावा देना

घरेलू रेटिंग एजेंसियों, विशेषत: भारत में, को सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग विकसित करने के लिए बढ़ावा दिया जाना चाहिए. जापान और चीन जैसे देशों में क्रमश: जापान क्रेडिट रेटिंग एजेंसी (JCR) और चाइना चेंगक्सिन क्रेडिट रेटिंग समूह इन दोनों देशों के सॉवरेन यानी सार्वभौम डेब्ट यानी सरकारी कर्ज़ की रेटिंग करते है. भारत में भी कुछ नामी क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां, जैसे केयरएज ग्रुप, CRISIl और ICRA जैसी कुछ एजेंसियां मौजूद है. किसी सार्वभौम की रेटिंग के लिए एक मानकीकृत ‘‘वन-साइज-फिट्-ऑलयानी ‘‘सभी के लिए एक समान’’ कार्यप्रणाली का उपयोग नहीं किया जा सकता. इसके लिए किसी देश के अर्थव्यवस्था का गहराई से विश्लेषण किया जाना ज़रूरी है. स्थानीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां भारतीय अर्थव्यवस्था की बारिकियों को बेहतर ढंग से समझते हुए इसके बारे में अच्छे तरीके से आकलन पेश कर सकती है. तीनों मुख्य CRAs ग्लोबल नॉर्थ, विशेषत: यूनाइटेड स्टेट् (US) में, स्थित होने की वजह से क्रेडिट रेटिंग बाज़ार में अल्पाधिकार स्थापित हो जाता है. इस बात को ध्यान में रखकर भारतीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी को बढ़ावा देकर इस क्षेत्र में ग्लोबल साउथ का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की ज़रूरत है. ऐसा होने से अन्य विकासशील देशों को भी अपनी आर्थिक क्षमताओं को प्रदर्शित करने का अवसर प्राप्त होगा. यहां हाल में हुई एक और बात की ओर ध्यान आकर्षित करना ज़रूरी है. S&P ने हाल ही में भारत की सॉवरेन यानी संप्रभु रेटिंग को स्टेबलयानी स्थिर से उन्नत करते हुएपॉजिटिवअर्थात सकारात्मक किया है, जबकि उसकी रेटिंग को BBB- ही बनाए रखा है

 कभी-कभी इन कंपनियों की कर्ज़ लौटाने की क्षमता उनके देश की रेटिंग से तो बेहतर होती हैं, लेकिन उनके देश की सॉवरेन रेटिंग के कारण इन कंपनियों की रेटिंग व्यक्तिगत तौर पर नकारात्मक रूप से प्रभावित हो जाती है.

आगे की राह

 

मौजूदा क्रेडिट रेटिंग एजेंसीज (CRAs) की ओर से पेश होने वाली चुनौतियां और ग्लोबल साउथ यानी वैश्विक दक्षिण, विशेषत: भारत, को लेकर उनके पक्षपाती रवैये से निपटने के लिए परिचालन संबंधी अनेक बदलाव पर अमल किया जाना आवश्यक हो गया है. सबसे पहले तो भारत सरकार को घरेलू क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और थिंक टैंक्स यानी विचार मंचों को समर्थन देकर क्रेडिट रेटिंग तैयार करने के लिए सशक्त बनाना चाहिए. ऐसा होने पर ही अंतरराष्ट्रीय CRAs पर निर्भरता कम होगी तथा स्थानीय और संभवत: सटीक मूल्यांकन को बढ़ावा मिल सकेगा. दूसरी बात यह है कि सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग तय करने के लिए एक अधिक पारदर्शी और ऑब्जेक्टिव यानी वस्तुनिष्ठ कार्यप्रणाली को विकसित कर उस पर अमल किया जाना आवश्यक है. रेटिंग कार्यप्रणाली में पारदर्शिता सुनिश्चित करना आवश्यक है ताकि विकासशील और कम विकसित देशों के लिए हानिकारक साबित होने वाले परसेप्शन प्रीमियम को दरकिनार किया जा सके. स्पष्ट और खुले मानदंड जारी की गई रेटिंग को लेकर भरोसा बढ़ाकर उसे विश्वसनीय बनाएंगे. इसी प्रकार उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के बीच आने वाली एक स्वतंत्र रेटिंग स्केल यानी रेटिंग पैमाना तैयार करना ज़रूरी है. इस पैमाने में उभरते बाज़ारों की अनूठी जटिलताओं और स्थितियों का ध्यान भी रखा जाएगा, जिसकी वजह से संबंधित मापदंड के आधार पर उधार चूकाने में विफ़लता यानी डिफॉल्ट को लेकर सटीक मूल्यांकन किया जा सकेगा. एक उभरते बाज़ार क्रेडिट रेटिंग का पैमाना क्षेत्र में क्रेडिट देने वालों की बेहतर शिनाख़्त कर सकेगा, जिसके चलते निवेशक भरोसे और साख वाली कंपनियों को अपने पैसों का ज़्यादा कुशलतापूर्वक वितरण कर सकेंगे. और अंतत: सॉवरेन रेटिंग पर आधारित कॉर्पोरेट रेटिंग को सीमित करने के तरीकों में भी सुधार करना होगा. ऐसा होने पर ही ऐसी भरोसेमंद कंपनियां के साथ होने वाले अन्याय को दूर किया जा सकेगा. इसका कारण यह है कि कभी-कभी इन कंपनियों की कर्ज़ लौटाने की क्षमता उनके देश की रेटिंग से तो बेहतर होती हैं, लेकिन उनके देश की सॉवरेन रेटिंग के कारण इन कंपनियों की रेटिंग व्यक्तिगत तौर पर नकारात्मक रूप से प्रभावित हो जाती है. इन सुधारों को लागू करके हम एक समान और सटीक क्रेडिट रेटिंग माहौल तैयार कर सकते हैं. ऐसा होने पर ग्लोबल साउथ की आर्थिक क्षमताओं को प्रभावित करने वाले वर्तमान पक्षपात से भी निपटा जा सकेगा.


मान्या खन्ना, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च इंटर्न हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.