Published on Aug 23, 2017 Updated 0 Hours ago

चीन की ‘मुख्य रूचि’ के क्षेत्रों की सूची लगातार बढ़ रही है और इसमें जमीन और समुद्री क्षेत्र दोनों ही शामिल हैं। ऐसे में यह इसके लगातार बढ़ती विस्तारवादी महत्वाकांक्षा का संकेत देती है।

चीन के भूसामरिक लक्ष्यों में बदलाव के संकेत

हाल की घटनाएं सैन्य शक्ति पर चीन की तवज्जो को दर्शाती हैं। चीन अपनी सेना को खास तौर से तय किए गए उन क्षेत्रों में लगाता है जो इसके ‘मुख्य रूचि’ के क्षेत्रों की सूची में शामिल हैं। इन क्षेत्रों में एक तरफ मित्र देश होते हैं तो दूसरी ओर वे विरोधी देश होते हैं जिनके खिलाफ उसे दबाव बनाना होता है। इसमें जमीन और समुद्री क्षेत्र दोनों शामिल हैं। क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के परिदृष्य के लिहाज से ये बेहद अहम हैं।

चीन ने इस साल बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) सम्मेलन आयोजित किया था, लेकिन राष्ट्रपति शी जिनपिंग को इसके लिए जिस तरह के समर्थन की उम्मीद थी, वह हासिल नहीं हुआ। सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, अमेरिका, यूके, जर्मनी सहित कई मुख्य आर्थिक केंद्रों ने अपने मंत्री स्तरीय प्रतिनिधि मंडल भेज दिए, जबकि भारत ने इससे दूरी बनाए रखने का फैसला किया क्योंकि यह इसके मुख्य हितों पर कुठाराघात करता है। व्यापार के सत्र में भाग लेने वाले यूरोपीय संघ के सदस्य देशों ने सर्व सम्मति से तय किया कि वे निष्कर्ष के तौर पर पेश की जाने वाली घोषणा को अस्वीकार करेंगे। इसका कारण वही है जो भारत पहले ही कह चुका है — पारदर्शिता, साझा-स्वामित्व और निरंतरता को ले कर भरोसे का अभाव।

आर्थिक उपाय अधूरे पड़ता देख चीन ने राजनीतिक संदेश देने और दूसरों को दबाने के लिए अपनी सैन्य शक्ति पर निर्भर करना शुरू कर दिया है। पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने अपेक्षाकृत कमजोर हिमालयी देश भूटान के विवादास्पद क्षेत्र में सड़क बनाना शुरू कर दिया। हालांकि भूटान ने भारत की मदद हासिल करने में कोई देरी नहीं की और भारत ने अपनी सेना को तुरंत सक्रिय कर दिया।

यूं तो दोनों ही सेना किसी भी संभावित स्थिति के लिए तैयार हैं, लेकिन मौजूदा गतिरोध दर्शाता है कि चीन अपने प्रयास को ले कर यकीन छोड़ चुका है, जबकि भारत यथास्थिति बनाए रखने के अपने वादे पर अटल है। यह स्थिति शांतिपूर्वक विकास के चीन के दावे पर संदेह बढ़ाती है और भारत, अमेरिका और जापान के बीच सैन्य संबंधों के महत्व को भी दर्शाती है।

भूटान-भारत-चीन के त्रिकोण में जब गतिरोध खड़ा हो रहा था, उसी दौरान बंगाल की खाड़ी में मालाबार 2017 के नाम से बहुराष्ट्रीय नौसेना अभ्यास चल रहा था। इसमें भारत-प्रशांत की सबसे जुझारू नौसेनाएं शामिल थीं और साझा सैन्य ऑपरेशन का अभ्यास कर रही थीं। जिस गहराई से यह अभ्यास किया गया है वह दिखाता है कि इसमें भाग लेने वाले देश इस क्षेत्र के समुद्री इलाके में पैदा हो रही चुनौती को साझा तौर पर निपटने को ले कर कितने गंभीर हैं।

दक्षिण चीन सागर के 80 फीसदी इलाके पर चीन अपना दावा जताता है, जिसकी वजह से बहुत से देशों के साथ इसका विवाद खड़ा हो गया है। इसने कृत्रिम द्वीप बना लिए हैं और उनका सैन्यीकरण कर दिया है ताकि समुद्री और वायु क्षेत्र को नियंत्रित कर सके और दूसरे देशों को समुद्र से गुजरने की स्वतंत्रता को भी बाधित कर सके। इसने समुद्री मिलिशिया खड़ी कर ली है ताकि जिनके साथ विवाद है उन्हें दबा सके और अहम समुद्री क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों पर दावा कर सकने के साथ ही नए तथ्यों को स्थापित कर सके।

चीन की ‘मुख्य रूचि’ के क्षेत्रों की सूची लगातार बढ़ती जा रही है और इसमें जमीन और समुद्री क्षेत्र दोनों ही शामिल हैं। यह इसके लगातार बढ़ती विस्तारवादी महत्वाकांक्षा का संकेत देती है। इस सूची में ताइवान सबसे ऊपर है जिसके बारे में चीन दावा करता है कि यह इसी का क्षेत्र है और इसे मुख्य क्षेत्र में फिर से शामिल किया जाना है। चीन ने अपने सबसे बड़े नौसेन्य प्लेटफार्म यानी विमान वाहक लिओनिंग को अपनी पहली तैनाती में उतारा और इसने शुरुआत ताइवान का चक्कर लगा कर की। हाल में इसे हांग-कांग में लगाया गया जहां का महज एक हफ्ते पहले ही शी जिनपिंग ने दौरा किया था और वहां सैन्य परेड की अध्यक्षता की थी।

लिओनिंग का भार और इसकी मारक क्षमता इतिहास पर चीन के जोर को दर्शाती है। खास तौर पर ‘अपमान की शताब्दी’ का जो 1949 में चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के सत्ता में आने के साथ समाप्त हुआ। ‘अपमान की शताब्दी’ के दौरान चीन की समुद्री शक्ति बहुत क्षीण हो गई थी और इसकी समुद्री सीमा का नियंत्रण विदेशी शक्तियों के हाथ में था। ब्रिटेन के बेड़े अफीम चीन ले जाते थे और अफीम युद्ध के बाद हांग-कांग पर अधिकार कर लिया था। लिओनिंग के हांग-कांग पहुंचने का एक राजनीतिक संदेश है कि सीपीसी ही चीन के हितों की सबसे बेहतर रक्षा कर सकती है और इसके पुराने स्वाभिमान को दुबारा कायम करने के लिए पूरी तरह तैयार है।

हालांकि पीएलए की निष्ठा चीन के लोगों की बजाय सीपीसी के प्रति है और शी जिनपिंग अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते रहते हैं। सेना की प्राथमिक जिम्मेदारी पार्टी और चीन पर उसके शासन की रक्षा करना है। थिनमन चौक के प्रदर्शन को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि हांग-कांग के प्रदर्शनकारियों को पार्टी के खिलाफ किसी भी प्रदर्शन को थामने के लिए सैन्य शक्ति के उपयोग की चेतावनी को कोरी धमकी नहीं माना जा सकता। शी जिनपिंग ने हाल के वर्षों में ना सिर्फ सैन्य प्रतिपादन में तेज बदलाव का नेतृत्व किया है, बल्कि उन्हें सेना के चेयरमैन की उपाधि से भी नवाजा गया है जो अब तक सिर्फ माओ जेदोंग के लिए ही सुरक्षित थी।

उधर, शी पीएलए के सेना दिवस परेड की अध्यक्षता कर रहे थे तो पुतिन रूसी नौसेना दिवस के उत्सवों की अगुवाई कर रहे थे। चीन ने यहां तक कि पीएलए नौसेना के एक बेड़े को रूसी नौसेना के साथ बाल्टिक सागर में साझा युद्धाभ्यास के लिए रवाना भी कर दिया। बाल्टिक सागर सैन्य गतिविधियों का अड़्डा बन गया है। क्योंकि यहां रूसी और नैटो सेना के बीच अक्सर एक-दूसरे का पीछा किए जाने की घटना होती रहती है।

रूस के लिए इस समुद्री इलाके का वैसा ही रणनीतिक महत्व है जैसा चीन के लिए एससीएस का है। इसलिए पीएलए की नौसेना की बाल्टिक सागर में मौजूदगी को रूस के उस एहसान का बदला माना जाएगा, जो उसने एससीएस में साझेदारी निभा कर किया।

शी और पुतिन दोनों को ही पश्चिमी मूल्यों, लोकतांत्रिक प्रक्रिया और नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को ले कर एक जैसी घृणा है। उन्हें लगता है कि पश्चिम अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए सैन्य सहयोग और साझेदारी कर रहा है। सैन्य शक्ति पर जोर को पश्चिमी ताकत का मुकाबला करने की उनकी स्वाभाविक इच्छा का प्रतीक माना जाता है। मास्को का सीरिया में प्रत्यक्ष और युक्रेन में परोक्ष दखल उसके मुखर होने का ही संकेत है।

सीरिया में दखल देने से रूस को भूमध्य सागर में अपनी नौसेना की मौजुदगी सुनिश्चित करने का मौका मिल गया और इस मौजूदगी में इसका इकलौता विमान वाहक पोत भी शामिल है। पीएलए नौसेना के बेड़े ने बाल्टिक सागर की ओर रवाना होने से पहले भूमध्य सागर में लाइव-फायर के अभ्यास भी किए। सीरियन गतिरोध ने रूस और चीन को राजनीतिक रूप से और करीब ला दिया है, क्योंकि वे दोनों ही सीरिया के राष्ट्रपति असद के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के विरोध में हैं। इस राजनीतिक खेमेबंदी में अब ईरान और तुर्की भी शामिल हैं।

ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम की वजह से पश्चिम के प्रतिबंध झेल रहा है। ऐसे में उसने असद शासन का समर्थन किया है और रूसी सेना को अपने सैन्य अभियान के लिए अपने क्षेत्र का इस्तेमाल करने की छूट दी है। रूसी सेना के एक विमान को मार गिराए जाने के बाद तुर्की और रूस के संबंधों में दरार आई थी, लेकिन कथित रूप से अमेरिका की ओर से एर्डोगन के तख्तापलट की कोशिश ने रूस और तुर्की के रिश्तों में फिर से गर्माहट ला दी। तुर्की चीन के मिसाइल सिस्टम को हासिल करने में भी दिलचस्पी ले रहा है, जबकि रूस और नाटो भी इसके लिए उसे प्रस्ताव कर चुके हैं।

ईरान और तुर्की दोनों ही संघाई कॉपरेशन ऑर्गनाइजेशन के संभावित सदस्य हैं। इन दोनों के इस संगठन में शामिल होने के साथ ही इसका यूरेशियाई भूभाग का चक्र पूरा हो जाएगा, जिस पर नियंत्रण भू-सामरिक महत्व के लिहाज से बहुत अहम है। ब्रिटिश रणनीतिकार हैल्फर्ड माकिंडर और अमेरिकी रणनीतिकार अल्फ्रेड महन ने समुद्री देशों को यूरेशियाई भूभाग पर नियंत्रण की शक्ति के उदय को ले कर चेताया है। संभव है कि ऐसी शक्ति अपने व्यापक संसाधनों का उपयोग कर इतना बेहतर नौसेनिक बेड़ा खड़ा कर ले कि आखिरकार दूसरे समुद्री देशों को सीमित हो कर रहना पड़ जाए।

इसलिए समुद्री देशों को तटीय इलाके के साथ ही समुद्री क्षेत्र पर भी अपने नियंत्रण को ले कर बहुत सक्रियता पूर्वक दावा करना होगा और इसमें राजनीतिक, आर्थिक, कूटनीतिक और सैन्य तरीकों का इस्तेमाल करना होगा। रूस की कोशिश तो सोवियत संघ के पतन के साथ ही नाकाम हो गई और इस तरह भौगोलिक और राजनीतिक रूस से सुनिश्चित यूरेशियाई इलाका खड़ा हो गया है। शीत युद्ध के उपरांत के सत्ता समीकरणों ने अमेरिका को मुख्य भूमिका में ला दिया जिसमें इसकी सेना ही यूरेशियाई क्षेत्र के आस-पास हवाई और समुद्री सीमा पर हावी रही है।

अभी भी अगर चीन के संसाधनों को एक अकेले ऐसे राजनीतिक संगठन में एकीकृत कर दिया जाए जिसके पास आधुनिकतम सैन्य क्षमताएं हों तो यह इस क्षेत्र पर हावी होने की क्षमता रखता है। एससीओ में निवेश चीन ने किया था, लेकिन अब इसमें मध्य एशिया के चार देश हैं, जो कभी सोवियत संघ थे। चीन यूरेशियाई देशों को अपने साथ लेने के लिए बीआरआई के जरिए अपनी आर्थिक ताकत का सहारा ले सकता है।

चीन के बीआरआई को ले कर यह भू-सामरिक चिंता ना सिर्फ समुद्री देशों को है, बल्कि भारत और अमेरिका जैसे दूसरे देशों को भी है। इस संदर्भ में चीन का संदेश यह भी है कि अगर वह बीआरआई से ज्यादा फायदा हासिल करने में नाकाम रहा तो अपनी सैन्य शक्ति का भी इस्तेमाल कर सकता है। यह भारत, जापान और अमेरिका पर दबाव बनाने की कोशिश है। इतिहास गवाह है कि शक्ति संतुलन की ऐसी धमकियों को आगे बढ़ कर नियंत्रित किए जाने की जरूरत है।

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