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Published on Jul 08, 2024 Updated 0 Hours ago

इजराइल और फिलिस्तीन कि बीच छिड़ा युद्ध व्यापक होता जा रहा है और अब इसका विस्तार हिज़बुल्लाह एवं लेबनान की तरफ हो गया है. वर्तमान में जो हालात हैं, उसमें दुनिया के अन्य देशों और इलाक़ों के भी इस जंग चपेट में आने से इनकार नहीं किया जा सकता है.

पुतिन का वियतनाम दौरा: एशिया से मदद हासिल करने की कोशिश

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इजराइल पर पिछले साल 7 अक्टूबर को हुए हमास के हमलों और उसके बाद इजराइल द्वारा फिलिस्तीन गाज़ा में की गई जवाबी सैन्य कार्रवाई को आठ महीने से ज़्यादा हो चुके हैं. इस दौरान इस पूरे क्षेत्र में कई उल्लेखनीय घटनाक्रम देखने को मिले हैं. हाल में जिस प्रकार से इजराइल और लेबनान के हिज़बुल्लाह समूह के बीच तनातनी बढ़ी है, उससे दोनों पक्षों के बीच भीषण युद्ध छिड़ने की आशंका गहरा गई है और इसने वाशिंगटन डी.सी. को गंभीर चिंता में डाल दिया है.

 पुतिन के वियतनाम दौरे के मायने समझना काफ़ी अहम है. न केवल दोनों देशों के आपसी संबंधों के लिहाज़ से बल्कि, इस दौरे के दक्षिणी पूर्वी एशिया के क्षेत्र पर पड़ने वाले असर को भी समझना आवश्यक है.

हिज़बुल्लाह लेबनान का एक आधिकारिक अर्धसैनिक बल है. ईरान के समर्थन से लेबनान में हुए इजराइल के आक्रमण का जवाब देने के लिए वर्ष 1982 में हिज़बुल्लाह अर्धसैनिक संगठन की स्थापना की गई थी. तब से हिज़बुल्लाह ने लगातार प्रगति की है और आज यह संगठन 1,00,000 से अधिक लड़ाकों की एक सेना में बदल चुका है. हिज़बुल्लाह के पास आज व्यापक स्तर पर वित्तीय और सैन्य संसाधन मौज़ूद हैं. इसके अलावा हिज़बुल्लाह ने अपने ईरानी सहयोगी समूहों के साथ मिलकर सीरिया और इराक़ में अपनी कई टुकड़ियों को तैनात किया हुआ है.

 

हमास को समाप्त करने के लिए इजराइल द्वारा जब से गाज़ा पर हमले शुरू किए गए हैं, तभी से हिज़बुल्ला भी इजराइल के ख़िलाफ़ सक्रिय है और उस पर दबाव बनाने के लिए लगातार छिट-पुट हमलों को अंज़ाम दे रहा है. हिज़बुल्लाह के इन छोटे हमलों का जवाब इजरायली सेना द्वारा भी दिया जा रहा है, लेकिन देखा जाए तो दोनों पक्षों की ओर से कोई बड़ा हमला नहीं हुआ है, यानी दोनों पक्ष एक दूसरे पर हमले में एहतियात बरत रहे हैं. लगता है कि इन हमलों का मकसद अधिक नुक़सान पहुंचाने के बजाए, केवल चेतावनी देना रहा है. लेकिन पिछले कुछ दिनों से जिस तरह हिज़बुल्लाह लड़ाकों और इजराइली सेना के बीच बड़े हमलों में तेज़ी आई है, उसने चिंता बढ़ा दी है. दोनों पक्षों के रुख को देखकर इस बात की आशंका लगने लगी है कि उनके बीच कभी भी भीषण युद्ध छिड़ सकता है. अगर ऐसा होता है तो इससे सिर्फ़ लेबनान में भारी तबाही मच सकती है, बल्कि यह लड़ाई आने वाले दिनों में मिडिल ईस्ट के दूसरे इलाक़ों को भी चपेट में ले सकती है.

 

वर्चस्व क़ायम करने वाले इजराइली नज़रिए की नाक़ामी

दुश्मन के ख़िलाफ़ किसी भी युद्ध में उतरने के दौरान इजराइल की रणनीति हमेशा विरोधी पक्ष का अधिक से अधिक नुक़सान करने और अपना वर्चस्व क़ायम करने की होती है. उसकी यह रणनीति ज़मीनी स्तर पर दिखाई भी देती है. अगर कोई देश इजराइल पर छिट-पुट आक्रमण भी करता है या फिर हल्की-फुल्की सैन्य कार्रवाई भी करता है, तो इजराइल पूरी ताक़त के साथ उसका जवाब देता है. वर्ष 2006 में हिज़बुल्लाह के मामले में भी यही देखने को मिला था. तब हिज़बुल्लाह ने इजराइल के दो सैनिकों को अगवा कर लिया था, लेकिन इसके जवाब में इजराइल ने हिज़बुल्लाह पर ज़बरदस्त हमला बोल दिया था और इसमें लेबनान के 1,000 नागरिकों की मौत हो गई थी. तब हिज़बुल्लाह की तरफ से कहा गया था कि अगर उसे मालूम होता कि इजराइल इतना भयानक जवाबी हमला करेगा, तो वो उसके सैनिकों का अपहरण ही नहीं करता. गाज़ा में किए गए हमले में भी इजराइल ने अपने इसी दृष्टिकोण का पालन किया है और हमास के विरुद्ध पूरे लाव-लश्कर के साथ हमला बोला है.

 रूस और वियतनाम के संबंधों का एक और अहम पहलू दोनों देशों के बीच सैन्य साझेदारी भी है.

7 अक्टूबर को हुए हमास के हमले से बहुत पहले से घरेलू स्तर पर इजराइली प्रधानमंत्री बेंज़ामिन नेतन्याहू तमाम मोर्चों पर घिरे हुए थे और भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे थे. इतना ही नहीं, नेतन्याहू ने फिलिस्तीन के ख़िलाफ़ युद्ध में जो रुख अपनाया है, उसको लेकर भी उनका भारी विरोध हो रहा है. कहने का मतलब है कि दुश्मन के ख़िलाफ़ पूरी ताक़त के साथ हमला करने की इजराइल की रणनीति गाज़ा में कहीं कहीं नाक़ाम साबित हुई है. उदाहरण के तौर पर, फिलिस्तीन पर भीषण हमले के बाद उत्तरी गाज़ा क्षेत्र में इजराइल ने अपनी जीत का दावा किया था, लेकिन जब इजराइली सैनिकों ने उत्तरी गाज़ा के इलाक़ों से वापसी की तो वहां हमास ने फिर से अपने पैर जमा लिए. इस वजह से इजराइल को उत्तरी गाज़ा में नए सिरे से हमले करने पड़ रहे हैं, यानी उसकी भीषण हमला कर दुश्मन को भारी नुक़सान पहुंचाने की रणनीति कारगर साबित नहीं हुई है और वो उत्तरी गाज़ा इलाक़े में फंसकर रह गया है. गुरिल्ला युद्ध में इस तरह की घटना को सिसिफस प्रभाव कहा जाता है, यानी ऐसी स्थित जिसमें लड़ाई के बाद भी हाथ कुछ नहीं लगता है और हालात जस के तस बने रहते हैं.

 

कहने का मतलब है कि गाज़ा में इजराइल की प्रभुत्व स्थापित करने की रणनीति विफल साबित हो रही है, ऐसे में उसे अपना दबदबा क़ायम करने के लिए देश की उत्तरी सीमाओं पर ध्यान केंद्रित करना पड़ रहा है. इजराइल की उत्तरी सीमाएं लेबनान से सटी हुई हैं. उत्तरी सीमा पर लेबनान के अर्धसैनिक संगठन हिज़बुल्लाह और इजराइली सैनिकों के बीच टकराव लगातार बढ़ता जा रहा है और दोनों तरफ से हमलों में भी वृद्धि हुई है. लेबनान की तरफ से होने वाले हमलों के कारण इजराइल को अपने 35,000 नागरिकों को सुरक्षित जगहों पर स्थानांतरित करना पड़ा है और इसके चलते इजराइल की सरकार पर दबाव और ज़्यादा बढ़ गया है. इन हालातों में इजराइल अगर हिज़बुल्लाह के ख़िलाफ़ जीत हासिल करता है, तो इससे केवल उसे अपना प्रभुत्व स्थापित करने के सिद्धांत को फिर से स्थापित करने में मदद मिलेगी, बल्कि वो दुश्मनों की नज़रों में अपनी सेना की मज़बूत छवि को भी बरक़रार रखने में भी क़ामयाब हो सकता है.

 

संभावित स्थितियों का आकलन

इजराइल-लेबनान के बीच बढ़ते ताज़ा संघर्ष के मद्देनज़र आने वाले दिनों में तीन तरह की स्थितियां बन सकती हैं. सबसे पहली स्थित यह हो सकती है कि इजराइल और फिलिस्तीन के बीच लड़ाई का दायरा लेबनान तक बढ़ जाए. इस स्थिति के बारे में लेख में आगे विस्तार से उल्लेख किया गया है. मान लीजिए अगर इस जंग का विस्तार होता है, तो ज़ाहिर तौर पर इसका पूरे क्षेत्र पर तो प्रभाव पड़ेगा ही, साथ ही संभावना यह भी है कि वैश्विक स्तर पर भी इसका आर्थिक असर पड़े. इसी कारण अमेरिका एवं उसके सहयोगी देशों द्वारा इजराइल और लेबनान के बीच तनातनी कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं. अमेरिका के यह कूटनीतिक प्रयास अगर सफल हो जाते हैं, तो इस बात की पूरी उम्मीद है कि दोनों पक्षों के बीच खिंची तलवारें वापस म्यान में जा सकती हैं, यानी उनके बीच तनाव कम हो सकता है. अगर ऐसा होता है, तो यह इजराइल और लेबनान दोनों के लिहाज़ से सबसे मुफ़ीद होगा. ऐसे इसलिए क्योंकि अगर दोनों देश युद्ध में उलझते हैं, तो फिर वे इसमें लंबे समय तक फंसे रह सकते हैं और यह उनके लिए ठीक नहीं होगा, साथ ही दोनों पक्षों को ही इसका गंभीर ख़ामियाजा भुगतना पड़ेगा. जो हालात हैं हालांकि उनमें ऐसा हो पाना दूर की कौड़ी नज़र रहा है. इसकी वजह यह है कि हिज़बुल्लाह ने साफ-साफ कह दिया है कि जब तक इजराइल गाज़ा में युद्ध विराम नहीं करता है, तब तक वो शांति स्थापना की किसी भी कोशिश में शामिल नहीं होगा. ज़ाहिर है कि गाज़ा में इजराइल द्वारा युद्ध विराम किया जाए, इसकी संभावना भी कतई दिखाई नहीं देती है, क्योंकि हमास को नेस्तनाबूद करना इजराइल की नाक का सवाल बन गया है. इसका कारण यह है कि प्रधानमंत्री नेतन्याहू एवं उनकी सरकार लड़ाई के इस मोड़ पर अब अगर क़दम पीछे खिंचती है, तो देशवासियों का उनसे भरोसा उठ जाएगा.

 अब, रूस पर लगे अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों की वजह से वियतनाम के साथ व्यापार की संभावनाएं और भी कम होंगी. लेकिन, अभी भी रूस के लिए वियतनाम एक अहम साझादीर है.

दूसरी स्थित यह बन सकती है कि दक्षिणी लेबनान इलाक़े में इजराइल और हिज़बुल्ला के बीच संघर्ष के हालात पैदा हो जाएं, लेकिन बहुत भीषण युद्ध देखने को मिले. अगर ऐसा होता है, तो दोनों ही पक्ष एक दूसरे के ख़िलाफ़ सीमित हमला करेंगे और अपने-अपने देश की जनता को यह जताने की कोशिश करेंगे कि लड़ाई जारी है. लेकिन कोई भी पक्ष ऐसा बड़ा हमला नहीं करेगा, जिससे दूसरे पक्ष को व्यापक स्तर पर नुक़सान हो. ऐसे में हो सकता है कि इजराइली सेना और हिज़बुल्ला की ओर से एक दूसरे के सैन्य ठिकानों को निशाना बनाकर हवाई हमले किए जाएं, जिससे लड़ाई होते हुए भी दिखे और हालात भी बेकाबू हों. लेकिन इस तरह की लड़ाई में ख़तरा भी है. मान लीजिए अगर हवाई हमले में इस्तेमाल की जाने वाली मिसाइल अपने लक्ष्य की जगह अगर आबादी वाले इलाक़े में गिर गई तो हालात बिगड़ सकते हैं और दोनों पक्षों के बीच तनाव बढ़ सकता है. ऐसे में दोनों पक्षों के बीच भीषण युद्ध भी छिड़ सकता है. कहने का मतलब है कि अगर इजराइल और लेबनान के बीच पैदा हुए तनाव को कम करने के लिए किए जा रहे कूटनीतिक प्रयास सफल नहीं होते हैं, तो फिर इस तरह की स्थिति बन सकती है.

 

तीसरी और शायद सबसे भायनक स्थिति यह हो सकती है कि इजराइल और लेबनान के बीच भीषण युद्ध छिड़ जाए और इस लड़ाई में हिज़बुल्लाह के क्षेत्रीय सहयोगी संगठन भी शामिल हो जाएं. जैसे कि यमन में हूती विद्रोही और इराक़ में शिया मिलिशिया (जिसने इराक़ में अमेरिकी ठिकानों पर हमला करने की बात कही थी) भी इस लड़ाई में हिज़बुल्ला के साथ खड़े हो जाएं. अगर ऐसी स्थित बनती है तो निसंदेह तौर पर लेबनान और इजराइल में जान-माल का भारी नुक़सान होगा. इतना ही नहीं, हूती विद्रोही वैश्विक लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण समुद्री मार्गों को भी निशाना बना सकते हैं और जहाजों की आवाजाही को बाधित कर सकते हैं. ज़ाहिर है कि हूती विद्रोहियों द्वारा पहले भी इन समुद्री मार्गों को निशाना बनाया जा चुका है. कुल मिलाकर अगर इजराइल और हिज़बुल्लाह के बीच भीषण लड़ाई छिड़ती है, तो हालात बहुत विकट हो जाएंगे. शायद इन हालातों के बारे में सोच कर ही अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों के माथे पर पसीना गया है और वे ऐसी परिस्थितियों को टालने के लिए कूटनीतिक कोशिशें कर रहे हैं.

 

निष्कर्ष: कभी ख़त्म नहीं होने की ओर बढ़ती जंग

इजराइल और फिलिस्तीन कि बीच चल रही जंग का दायरा धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है और अब इसकी जद में हिज़बुल्लाह एवं लेबनान भी गए हैं. आने वाले दिनों में इस संघर्ष चपेट में दूसरे देशों और क्षेत्रों के आने की भी संभावना है. यानी अब हालात कोई भी करवट ले सकते हैं, जैसे कि दोनों पक्षों के बीच तनाव कम हो सकता है, या फिर सीमित युद्ध छिड़ सकता है, या फिर यह तनाव भीषण लड़ाई में तब्दील हो सकता है. इजराइल के सामने हर हाल में हमास के शीर्ष नेताओं को समाप्त करने का दबाव है. यानी अगर हमास को जड़ से समाप्त किए बिना इजराइल युद्ध विराम से जुड़ी किसी शांति वार्ता में शामिल होता है, तो इसे उसकी कमज़ोरी माना जाएगा. नेतन्याहू किसी भी सूरत में दुनिया के सामने यह नहीं दिखाना चाहते हैं कि इजराइल कमज़ोर पड़ गया है, इसीलिए वे इस प्रकार के हालातों से बचना चाहते हैं. यही वजह है कि इजराइल ने दुश्मन के ख़िलाफ़ ताबड़तोड़ कार्रवाई किए जाने की अपनी परिपाटी को बरक़रार रखने के लिए अब लेबनान में हिज़बुल्लाह की तरफ नज़र घुमाई है.

  वियतनाम की नज़र में मोटे तौर पर पुतिन का ये दौरा दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार औऱ आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने की चर्चा करने का अवसर रहा है.

मिडिल ईस्ट में इन सभी घटनाक्रमों का भविष्य में क्या नतीज़ा निकलता है, इसका तो अभी अंदाज़ा लगाना मुश्किल है, लेकिन एक बात तो तय है कि फिलिस्तीन में लड़ाई अभी समाप्त नहीं हुई है और वहां युद्ध के तेज़ एवं धीमा होने का सिलसिला बना हुआ है. कुल मिलाकर, सच्चाई यह है कि फिलिस्तीन में सिर्फ़ जान गंवाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, बल्कि आर्थिक नुक़सान एवं संपत्ति का नुक़सान भी बढ़ता जा रहा है. जो भी हालात हैं, उनके मद्देनज़र मध्य एशिया फिलहाल इजराइल और हिज़बुल्लाह के बीच एक और भीषण जंग झेलने के लिए कतई तैयार नहीं दिख रहा है, क्योंकि अगर ऐसा होता है, तो इसमें दूसरी क्षेत्रीय ताक़तें भी कूद पड़ेंगी और फिर स्थिति विस्फोटक हो जाएगी.


मोहम्मद सिनान सियेच ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में नॉन रेज़िडेंट एसोसिएट फेलो हैं.

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