Author : Niranjan Sahoo

Published on May 30, 2022 Updated 17 Days ago

देशद्रोह क़ानून हमारी औपनिवेशिक अतीत का अवशेष है. ये असंतोष की अभिव्यक्ति को दबाता है. लिहाज़ा भारत सरकार को इसके प्रावधानों की समीक्षा करनी चाहिए.

#Sedition Law: देशद्रोह क़ानून को ख़त्म कर भारत के लोकतंत्र पर लगे धब्बे को मिटाने का समय आ चुका है!

सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने अपने ऐतिहासिक फ़ैसले में देशद्रोह से जुड़े तमाम मामलों  (sedition cases) पर फ़िलहाल रोक लगा दी है. औपनिवेशिक युग के इस क़ानून पर सरकार द्वारा पुनर्विचार किए जाने तक ये रोक लागू रहेगी. भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) एनवी रमना, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस सूर्यकांत की खंडपीठ ने अपने अंतरिम आदेश में केंद्र और राज्य सरकारों को भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के तहत कोई भी नया FIR दर्ज नहीं करने का निर्देश दिया है. ये अंतरिम आदेश है और अंतिम फ़ैसला अलग भी हो सकता है, लेकिन इसके बावजूद ये आदेश 162 साल पुराने इस औपनिवेशिक क़ानून के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. मौजूदा मुख्य न्यायाधीश ने देशद्रोह से जुड़े प्रावधानों की समीक्षा को लेकर काफ़ी गंभीरता दिखाई है. केंद्र सरकार ने भी आश्चर्यजनक रूप से अपने मौलिक रुख़ में नरमी लाते हुए इसपर पुनर्विचार करने को लेकर हामी भर दी है. ऐसे में भविष्य में इस मसले पर एक निर्णायक फ़ैसले की उम्मीद की जा सकती है. निश्चित रूप से एक आधुनिक लोकतंत्र में इस तरह के क़ानून के लिए कोई जगह नहीं है. 

ब्रिटिश हुक़ूमत ने औपनिवेशिक सरकार की कड़ी आलोचनाओं और उपनिवेशवादी सत्ता के ख़िलाफ़ आक्रामक कार्रवाइयों से निपटने के लिए 1860 में देशद्रोह क़ानून तैयार किया था. आज़ाद भारत में देशद्रोह क़ानून के तहत खुली अभिव्यक्ति और बुनियादी अधिकारों पर लगाम लगाने की क़वायद होती रही है.

पृष्ठभूमि 

ब्रिटिश हुकूमत ने औपनिवेशिक सरकार की कड़ी आलोचनाओं और उपनिवेशवादी सत्ता के ख़िलाफ़ आक्रामक कार्रवाइयों से निपटने के लिए 1860 में देशद्रोह क़ानून तैयार किया था. आज़ाद भारत में देशद्रोह क़ानून के तहत खुली अभिव्यक्ति और बुनियादी अधिकारों पर लगाम लगाने की क़वायद होती रही है. स्वतंत्रता संग्राम के सिपाहियों के ख़िलाफ़ इसका जमकर इस्तेमाल किया गया. इस कठोर क़ानून के तहत आज़ादी के आंदोलन से जुड़े अहम किरदारों- बाल गंगाधर तिलक, जेसी बोस और महात्मा गांधी को जेल की सज़ा दी गई.   

1947 में भारत की आज़ादी के बाद संविधान सभा में देशद्रोह क़ानून की प्रासंगिकता पर चर्चाओं का लंबा दौर चला. गरमागरम बहस के बाद संविधान सभा ने संविधान से देशद्रोह शब्द हटाने (IPC में धारा 124-ए बरक़रार रखते हुए) का फ़ैसला किया. बहरहाल भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की अगुवाई वाली सरकार द्वारा पारित पहले संशोधन (जिसपर भारी विवाद हुआ था) के ज़रिए इस विवादित क़ानून को फिर से अमल में लाया गया. नेहरू सरकार ने देशद्रोह क़ानून को दोबारा बहाल करने के साथ-साथ इसको और मज़बूत बनाते हुए इसमें दो तत्व जोड़ दिए. अब “किसी विदेशी सत्ता के साथ दोस्ताना रिश्ते” और “सार्वजनिक व्यवस्था”, धारा 19(2) के तहत स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर “मुनासिब पाबंदियां” लगाने के आधार बन गए. 1973 में इंदिरा गांधी सरकार ने एक नई आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure) के तहत धारा 124-ए को संज्ञेय अपराध (cognizable offense) बना दिया. इससे पुलिस को बिना वारंट के गिरफ़्तारी करने का अधिकार मिल गया.   

पुलवामा में हुई वारदात के सिलसिले में 27 केस और हाथरस गैंगरेप मामले की कवरेज के सिलसिले में 22 मुक़दमे दर्ज किए गए. महज़ इश्तिहारों या तख़्तियों के साथ प्रदर्शन करने से लेकर सरकार-विरोधी नारे लगाने और सोशल मीडिया पर निजी रूप से टीका-टिप्पणी करने जैसे मसलों को देशद्रोही गतिविधियों में शामिल कर लिया गया.

ये क़ानून गंभीर चिंता का सबब क्यों है?  

1951 में दोबारा लागू होने के बाद से देशद्रोह क़ानून पुलिस और संबंधित राज्यसत्ता के लिए नागरिकों में डर का माहौल बनाने और जायज़ आलोचनाओं या सरकारों के ख़िलाफ़ असंतोष को दबाने का हथकंडा बन गया. वैसे तो सभी हुकूमतों ने इस क़ानून का दुरुपयोग किया, लेकिन हाल के वर्षों में इस सिलसिले में बेशर्मी की हदें पार कर ली गईं. हाल के वर्षों में दायर मामलों पर नज़र डालने पर इस क़ानून के बढ़ते दुरुपयोग का पता चलता है. पोर्टल आर्टिकल 14 के मुताबिक नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शनों के दौरान जानी मानी हस्तियों के ख़िलाफ़ देशद्रोह के दो दर्ज़न मामले दर्ज किए गए. पुलवामा में हुई वारदात के सिलसिले में 27 केस और हाथरस गैंगरेप मामले की कवरेज के सिलसिले में 22 मुक़दमे दर्ज किए गए. महज़ इश्तिहारों या तख़्तियों के साथ प्रदर्शन करने से लेकर सरकार-विरोधी नारे लगाने और सोशल मीडिया पर निजी रूप से टीका-टिप्पणी करने जैसे मसलों को देशद्रोही गतिविधियों में शामिल कर लिया गया. धारा 124-ए का सबसे बेशर्मी भरा दुरुपयोग राजदीप सरदेसाई, मृणाल पांडे समेत छह पत्रकारों और सांसद शशि थरूर के ख़िलाफ़ देखने को मिला. इन सबके ख़िलाफ़ 2021 में दिल्ली में किसानों के प्रदर्शन के दौरान “ट्वीट करने और जानबूझकर झूठी ख़बरें फैलाने” के आरोप में देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज किया गया. इस प्रावधान के दुरुपयोग का इससे भी ज़्यादा अजीब मामला आगरा में देखने को मिला. वहां कश्मीर के तीन छात्रों पर भारत के ख़िलाफ़ टी-20 मैच में पाकिस्तान की जीत को लेकर सोशल मीडिया पर जश्न भरे मैसेज साझा करने का आरोप लगाकर देशद्रोह का केस दर्ज किया गया था.

केंद्र से लेकर तमाम राज्यों की सरकारों ने इस कठोर प्रावधान का ज़ोरशोर से इस्तेमाल किया है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के मुताबिक धारा 124-ए के तहत दर्ज होने वाले मामलों में हाल में भारी उछाल देखने को मिला है. मिसाल के तौर पर 2010 के बाद देशद्रोह के 816 मामलों में तक़रीबन 11,000 लोगों के ख़िलाफ़ दायर मुक़दमों में से क़रीब 65 प्रतिशत केस 2014 के बाद दर्ज किए गए हैं. 2014 से 2020 के बीच देशद्रोह के मामलों में क़रीब 163 प्रतिशत का उछाल आया है जबकि दोष साबित होने की दर (conviction rate) महज़ 3.3 फ़ीसदी है. विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्यों समेत तमाम प्रदेशों ने इन कठोर प्रावधानों के इस्तेमाल में किसी तरह का संयम नहीं बरता है. NCRB के आंकड़ों (2010 से 2020) के मुताबिक बिहार पुलिस ने 168, तमिलनाडु में 139, उत्तर प्रदेश में 115, झारखंड में 62, कर्नाटक में 50 और ओडिशा में 30 मामले दर्ज किए गए.

सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में केदार नाथ केस में ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया था. अदालत ने साफ़ किया था कि देशद्रोह क़ानून को देश की सुरक्षा और संप्रभुता पर ख़तरे की सूरत में कभी-कभार ही अमल में लाया जाना चाहिए. हालांकि प्रशासनिक अधिकारियों, ख़ासतौर से पुलिस द्वारा देशद्रोह से जुड़े आरोप लगाए जाते वक़्त इस फ़ैसले पर शायद ही कभी ग़ौर किया जाता है.

देशद्रोह क़ानून लोकतंत्र के प्रतिकूल

देशद्रोह क़ानून को ब्रिटिश सरकार ने विशेष परिस्थितियों के तहत औपनिवेशिक सत्ता की हिफ़ाज़त और उसे आगे बढ़ाने के लिए तैयार किया था. अभिव्यक्ति और बोलचाल की आज़ादी से संचालित होने वाले आधुनिक लोकतंत्रों में ऐेसे क़ानूनों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए. उदारवादी लोकतंत्र की मांग है कि हरेक नागरिक को सोचने, विचार व्यक्त करने और सरकार के ख़िलाफ़ “असंतोष” ज़ाहिर करने की छूट मिले. स्वतंत्र अभिव्यक्ति अपराध होने की बजाए किसी भी लोकतांत्रिक राजव्यवस्था की ख़ासियत होती है. इसकी अहमियत समझते हुए अतीत में ब्रिटिश हुकूमत का हिस्सा रहे ज़्यादातर इलाक़ों ने देशद्रोह से जुड़े प्रावधान ख़त्म कर दिए हैं. इनमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड जैसे देश शामिल हैं. यहां तक कि ब्रिटिश सरकार ने भी 2010 में कोरोनर्स एंड जस्टिस एक्ट के तहत देशद्रोह से जुड़े प्रावधानों को समाप्त कर दिया.

हरेक राजनीतिक दल की सरकार ने इस क़ानून का जमकर दुरुपयोग किया है. नतीजतन कई बेगुनाह पीड़ितों को कोर्ट की सुनवाई के बग़ैर महीनों और सालों तक हिरासत में बिताना पड़ा है. इसके बावजूद न तो सियासी व्यवस्था और न ही न्यायपालिका द्वारा भारतीय लोकतंत्र में लगातार बढ़ती जा रही इस बीमारी की रोकथाम के कोई प्रयास दिखाई दिए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में केदार नाथ केस में ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया था. अदालत ने साफ़ किया था कि देशद्रोह क़ानून को देश की सुरक्षा और संप्रभुता पर ख़तरे की सूरत में कभी-कभार ही अमल में लाया जाना चाहिए. हालांकि प्रशासनिक अधिकारियों, ख़ासतौर से पुलिस द्वारा देशद्रोह से जुड़े आरोप लगाए जाते वक़्त इस फ़ैसले पर शायद ही कभी ग़ौर किया जाता है. देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण और सियासी अविश्वास बढ़ता जा रहा है. सियासी विरोधियों के ख़िलाफ़ इस क़ानून का हथियार के तौर पर प्रयोग किए जाने के चलते ऐसे मामलों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है. असंतोष और अभिव्यक्ति की आज़ादी को रोकने के लिए ऐसा किया जाता है. सर्वोच्च न्यायालय और तमाम उच्च न्यायालयों के अनेक ताज़ा फ़ैसलों में क़ानून के दुरुपयोग से जुड़े इस पहलू को स्पष्ट रूप से सार्वजनिक किया गया है. हालांकि, पुलिस और राज्यसत्ता की दूसरी संस्थाओं पर इसका ना के बराबर असर हुआ.

पहले केंद्र सरकार की ओर से धारा 124-ए का समर्थन किया गया था. हालांकि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने वो आख़िरी वक़्त पर अपने पुराने रुख़ से पलट गई. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने औपनिवेशिक दौर के इस क़ानून पर फ़िलहाल रोक लगाने का ज़बरदस्त फ़ैसला सुनाया. अब सरकार को इस विवादित प्रावधान की समीक्षा करनी है. इन क़वायदों से उम्मीद की किरण नज़र आती है. भले ही देशद्रोह क़ानून का ख़ात्मा भारतीय लोकतंत्र में आ रही सड़न को पूरी तरह से रोकने के लिए पर्याप्त न हो, लेकिन इस क़वायद से दूसरे ग़ैर-लोकतांत्रिक प्रावधानों पर पुनर्विचार की प्रक्रिया शुरू हो सकती है. भारत “आज़ादी का अमृत महोत्सव” कार्यक्रम के तहत अपनी आज़ादी के 75 साल मना रहा है. औपनिवेशिक शासन के इस काले अध्याय को हमेशा के लिए मिटाने का ये एक ऐतिहासिक अवसर साबित हो सकता है. 

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