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भारत की सीमाओं के आसपास जीपीएस स्पूफिंग (जीपीएस को भ्रमित करना) के बढ़ते हमले एक बड़े साइबर खतरे की तरफ इशारा करते हैं. इनसे निपटने के लिए नवाचार और निवेश के ज़रिए स्वदेशी समाधानों की ज़रूरत पैदा हो गई है.
Image Source: Getty
मार्च 2025 में भारतीय सरकार ने अमृतसर और जम्मू हवाई कॉरिडोर में जीपीएस से छेड़खानी और जीपीएस स्पूफ़िंग के खतरनाक मामलों के बढ़ते चलन की पुष्टि लोकसभा में की. जीपीएस स्पूफ़िंग वो तकनीकी शब्द है जिसका मतलब है जीपीएस (यानी ग्लोबल पोज़िशनिंग सिस्टम) के इशारों में जानबूझकर गलत जानकारी भेजना ताकि इसके रिसीवर अपनी सही लोकेशन या समय न जान पाए. इसे एक तरह से जीपीएस को धोखा देना कह सकते हैं. नागरिक उड्डयन राज्य मंत्रालय ने लोकसभा को बताया कि साल 2023 से 2025 के बीच 465 से ज़्यादा ऐसी घटनाएं सामने आई हैं.
इन मामलों की अभूतपूर्व वृद्धि हुई है और ऐसी घटनाओं ने यात्री और मालवाहक विमानों के अलावा सुरक्षा और निगरानी रखने वाली विमानों को भी प्रभावित किया है. इसकी वजह से भारत के हवाई क्षेत्र की सुरक्षा और विमानन सुरक्षा को लेकर भी गंभीर चिंताएं पैदा हो गई हैं. इससे पहले ऐसी घटनाएं पश्चिमी एशिया और पूर्वी यूरोप में देखी गई थीं, लेकिन आज ये भारत की पूर्वी और पश्चिमी सरहदों पर असर डाल रही हैं.
इनसे ये भी साफ़ होता है कि भारत के विरोधी देश, खासकर पाकिस्तान और चीन, 'ग्रे-ज़ोन' रणनीति का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसके तहत विमानों की तकनीकी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाया जा रहा है. ये स्पूफिंग का उपयोग एक गैर-पारंपरिक हथियार के रूप में कर रहे हैं जिसके ज़रिए वो भारत के एयरोस्पेस क्षेत्र में बाधा डाल रहे हैं. जीपीएस स्पूफिंग को सिर्फ एक तकनीकी खराबी समझने की गलती नहीं करनी चाहिए, ये इलेक्ट्रॉनिक युद्ध या असमान युद्ध का एक ताकतवर हथियार बन सकता है. इसके ज़रिए विमानों को गुमराह किया जा सकता है और हवाई क्षेत्र की सुरक्षा में बाधा डाला जा सकता है जिसके चलते नागरिकों की जान खतरे में पड़ सकती है और बिना किसी सीधे टकराव के राष्ट्रीय सुरक्षा को कमजोर किया जा सकता है.
इसके ज़रिए विमानों को गुमराह किया जा सकता है और हवाई क्षेत्र की सुरक्षा में बाधा डाला जा सकता है जिसके चलते नागरिकों की जान खतरे में पड़ सकती है और बिना किसी सीधे टकराव के राष्ट्रीय सुरक्षा को कमजोर किया जा सकता है.
2024 में हुई 14वीं ICAO (अंतर्राष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संगठन) की एयर नेविगेशन सम्मेलन में दुनिया भर के विमानन अधिकारियों ने पूरी सहमति से से जीएनएसएस (जीपीएस जैसी ही एक प्रणाली) से छेड़छाड़ को एक "बड़ा साइबर जोखिम" और रणनीतिक साइबर खतरा बताया. ये खतरा विशेषकर उन देशों के लिए बढ़ जाता है जो सीमा पर संघर्ष या ग्रे-ज़ोन संघर्षों का सामना कर रहे हैं.
जीपीएस स्पूफिंग का अर्थ है किसी नेविगेशन सिस्टम (जिनसे किसी जगह की लोकेशन और कहीं और जाने की दूरी और दिशा बताई जाती है) को फर्जी संकेत भेजना. ऐसा सिस्टम को गुमराह करने के लिए किया जाता है ताकि वो अपनी जगह, समय या रफ़्तार का गलत अंदाज़ा लगा ले.जीपीएस स्पूफ़िंग जीपीएस जैमिंग से अलग है. जीपीएस जैमिंग में सिग्नल को पूरी तरह से रोक दिया जाता है जिससे नेविगेशन का काम ठप्प पड़ जाता है. वहीं स्पूफिंग में सिस्टम को इस चालाकी से धोखा दिया जाता है कि उसे पता भी नहीं चले कि गलत जानकारी मिल रही है जिससे कामकाज में गहरा खतरा पैदा हो जाता है.
हवाई जहाज आसानी से स्पूफिंग का शिकार हो सकते हैं क्योंकि जीपीएस के सिग्नल सेटेलाइट से आते हैं जो धरती से 20,000 किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर होते हैं और इसके कारण ये स्वाभाविक तौर से कमजोर होते हैं. इनके मुकाबले स्पूफ़ किए गए सिग्नल ज्यादा शक्तिशाली होते हैं और हवाई जहाज़ के फ्लाइट मैनेजमेंट सिस्टम, डिटेक्शन सिस्टम और ग्राउंड प्रॉक्सिमिटी वार्निंग सिस्टम (जो पायलट को पहाड़ों या ज़मीन से नजदीकी की चेतावनी देता है) उसे आसानी से पकड़ लेते हैं और सही मान लेते हैं. इस तरह से गुमराह होने पर विमान अपने तय रास्ते से भटक सकते हैं और एयर ट्रैफिक कंट्रोल को अपनी गलत लोकेशन बता सकते है.दुनिया भर में सेना और नॉन-स्टेट एक्टर्स ने स्पूफ़िंग की ताक़त को माना है. रूस और यूक्रेन की जंग में रूस ने क्रासूखा-4 और टिराडा-2 जैसे सिस्टम लगाए जिनसे जीएनएसएस सिग्नल को स्पूफ़ किया जा सके और ड्रोन, मिसाइल तथा विमानों को भ्रमित किया जा सके.
हवाई जहाज आसानी से स्पूफिंग का शिकार हो सकते हैं क्योंकि जीपीएस के सिग्नल सेटेलाइट से आते हैं जो धरती से 20,000 किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर होते हैं और इसके कारण ये स्वाभाविक तौर से कमजोर होते हैं.
इसी तरह एक रिपोर्ट के मुताबिक ईरान ने वर्ष 2011 में स्पूफ़िंग के ज़रिए यूएस के RQ-170 ड्रोन को अगवा किया था. अज़रबैजान और अर्मीनिया के बीच नागोर्नो-काराबाख़ पर हुई जंग में अज़रबैजान ने इलेक्ट्रॉनिक युद्ध और खासकर स्पूफिंग का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जिससे अर्मीनिया के राडार और एयर डिफेंस सिस्टम नकारे हो गए थे और तुर्की एवं इज़्राईल में बने ड्रोन खुली उड़ान भर पा रहे थे. इन घटनाओं से पता चलता है कि स्पूफिंग सिर्फ़ किताबी खतरा नहीं है बल्कि इलेक्ट्रॉनिक और असमान युद्ध में एक प्रचलित हथियार बन चुका है.
वर्ष 2023 से 2025 के बीच भारत के पश्चिमी और पूर्वोत्तर सीमाओं पर स्फूफ़िंग की घटनाएं इलेक्ट्रॉनिक युद्ध और ग्रे-ज़ोन रणनीति के चिंताजनक मिश्रण को उजागर करती है. नीचे दी गई टेबल ऐसी घटनाओं का एक विवरण देती है -
मैट्रिक |
विवरण |
नवंबर 2024- फरवरी 2025 के बीच रिपोर्ट की गई स्पूफ़िंग की घटनाएं |
465 से अधिक |
प्रभावित होने वाले मुख्य क्षेत्र |
अमृतसर, जम्मू (पंजाब और जम्मू-कश्मीर), पूर्वोत्तर (मणिपुर, नागालैंड) |
मुख्य एयर कॉरिडोर |
अमृतसर एफ़आईआर, जम्मू एफ़आईआर, दिल्ली एफ़आईआर (पूरी दुनिया में जीपीएस बाधा के मामले में 9वां रैंक) |
बीएसएफ द्वारा गिराए गए ड्रोन (2023–2025) |
लगभग 300 ड्रोन (पाकिस्तान से आए हुए) |
ड्रोन पर लदी सामग्रियां |
ड्रग्स, जाली नोट, छोटे हथियार |
जीएनएसएस की सटीकता का निम्न स्तर जिन क्षेत्रों में बना है (जीपीएसजैम पोर्टल के अनुसार) |
भारत-पाकिस्तान सीमा, भारत-म्यांमार सीमा |
दिल्ली एफ़आईआर में घटनाओं का दर (ओपीएसग्रुप के अनुसार) |
2024 से रोज़ाना स्पूफ़िंग की घटनाएं |
स्रोत: लेखक द्वारा जुटाई गई सामग्री
जीपीएस स्पूफ़िंग की ये घटनाएं अलग-थलग नहीं है. कुछ खास सरहदी इलाकों में सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ़) द्वारा करीब 300 पाकिस्तानी ड्रोन का पकड़े जाना यह बताता है कि भारत के विरोधी एक सोची समझी इलेक्ट्रॉनिक युद्ध की रणनीति अपना रहे हैं. इन ड्रोनों में से कई नशीले पदार्थ, जाली करंसी और हथियार ले जा रहे थे, जिससे लगता है कि इनका लक्ष्य स्थानीय अस्थिरता फैलाना और इलेक्ट्रोमैग्नेटिक हस्तक्षेप के ज़रिए इन आवाजाही को छुपाना था.
जीपिएस की गतिविधियों पर नज़र रखने वाले जीपीएसजैम पोर्टल और ओपीएसग्रुप एविएशन अलर्ट इस बात का खुलासा करते हैं कि वर्ष 2024 से दिल्ली फ्लाइट इंफॉर्मेशन रीजन में रोज़ाना स्पूफिंग की घटनाएं देखी जा रही हैं जिसकी वजह से 10 प्रतिशत से अधिक उड़ानें प्रभावित हुई हैं. भारत-पाकिस्तान और भारत-म्यांमार की सरहदें जीनएसएस नेविगेशन की समस्याओं के लिए दुनिया के शीर्ष पांच क्षेत्रों में लगातार बनी हुई हैं.
कुल मिलाकर, स्पूफिंग के इन अभियानों ने सामरिक स्तर पर बाधा खड़ी की, संचालन को छिपाने में सफलता दिखाई और सिग्नलों से छेड़छाड़ कर हवाई क्षेत्र में भ्रम की स्थिति पैदा की जिससे सीमा-पार से अवैध गतिविधियों को भी ढक दिया गया. सीधे तौर पर कहें तो इनसे किसी देश की रणनीतिक और सुरक्षा क्षमता पर विपरीत असर पड़ सकता है.
एक ओर तो पाकिस्तान और चीन जैसे देश इसका उपयोग करने वाले संभावित तत्व नज़र आते हैं, लेकिन स्पूफ़िंग तकनीक का हिंसक नॉन-स्टेट एक्टर्स, या गैर- राज्य तत्वों, द्वारा इस्तेमाल किए जाने के खतरे को अनदेखा नहीं किया जा सकता है. अवैध ड्रग्स और हथियारों की स्मगलिंग में जुड़े ग्रुप या आतंकवादी ग्रुप इसका उपयोग कर सुरक्षा की निगरानी में बाधा पैदा कर सकते हैं, इलाक़ों में आ-जा सकते हैं और अवैध ऑपरेशनों को पकड़े जाने के खतरे के बिना अंजाम दे सकते हैं.
स्पूफ़िंग के उपकरणों का निर्माण आजकल व्यावसायिक रूप से उपलब्ध पुर्जों से किया जा सकता हैं. इन पुर्जों में सॉफ़्टवेयर-डिफाइंड रेडियो (एसडीआर) और जीपीएस सिग्नल सिम्युलेटर शामिल हैं. इन सिस्टमों को छोटे आकार का बनाया जा सकता है, उन्हें बैटरी से चलाया जा सकता है और यहां तक कि ड्रोन पर भी लगाया जा सकता है जिनकी मदद से आतंकवादी समूह इन उपकरणों को संवेदनशील ठिकानों, हवाई अड्डों या यहां तक कि राष्ट्रीय सीमाओं के आसपास भी उड़ा सकते हैं. और जब इन आतंकी समूह को किसी शत्रु देश का समर्थन हासिल हो तो वे आपसी मिलीभगत में कार्रवाई कर सकते हैं. इस संदर्भ में पाकिस्तान, जिस पर अक्सर आतंकी समूहों को मदद और पनाह देने का आरोप लगता है, एक गंभीर खतरा पैदा करता है. ड्रग और हथियार की तस्करी और स्पूफिंग हमलों का गठजोड़ एक ऐसा गंभीर खतरा तैयार करता है जिस पर नज़र रखना और उन्हें निष्क्रिय करना बेहद कठिन हो जाता है.
इन सिस्टमों को छोटे आकार का बनाया जा सकता है, उन्हें बैटरी से चलाया जा सकता है और यहां तक कि ड्रोन पर भी लगाया जा सकता है जिनकी मदद से आतंकवादी समूह इन उपकरणों को संवेदनशील ठिकानों, हवाई अड्डों या यहां तक कि राष्ट्रीय सीमाओं के आसपास भी उड़ा सकते हैं.
इनके अलावा उग्रवादी संगठन स्पूफ़िंग का उपयोग और भी घातक इरादों से कर सकते हैं. उदाहरण के लिए नेविगेशन पर निर्भर ड्रोन को हाईजैक कर हमलों को अंजाम दिया जा सकता है, संवेदनशील ठिकानों के पास विमानों को ग़लत दिशा में मोड़ा जा सकता है या सैन्य अभियानों के दौरान अहम लॉजिस्टिक्स को बाधित किया जा सकता है.
स्पूफिंग के इस खतरे का सामना करने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की ज़रूरत है. इसलिए भारत को रणनीतिक नीतियों और तकनीकी नवाचार को मिलाकर एक बहुआयामी रणनीति बनानी चाहिए.
1.नाविक (NAVIC) सैटेलाइट नेविगेशन सिस्टम का विकास और भारतीय सेना द्वारा जीपीएस के बिना यूएवी संचालन का परीक्षण सराहनीय कदम हैं. इसके साथ भारत के नागरिक उड्डयन मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले नागरिक उड्डयन ब्यूरो और अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संगठन (आईसीएओ) के बीच सहयोग उपयोगी हो सकता है. पड़ोसी देशों के साथ स्पूफिंग की घटनाओं को साझा करना और इसे निपटने के लिए उपायों को साझा करना भी ज़रूरी है.
2.भारत का नागरिक उड्डयन मंत्रालय ज़मीन और हवा में तैनात किए जाने वाले सेंसर लगा सकता हैं जो स्पूफ़िंग की घटनाओं को तुरंत पकड़े, उनकी लोकेशन हासिल करें और कहां से हो रही है उसकी पड़ताल कर सके. त्वरित रूप से स्पूफ़िंग को पकड़ने के लिए ट्रायंगुलेशन पर आधारित उपाय किए जा सकते हैं. चिप पर तैनात ऑप्टिकल गाइरोस्कोप बिना सैटेलाइट की सेवा लिए सटीक नेविगेशन कर सकते हैं जो हवाई जहाज़ों, यूएवी, और स्वायत्त प्रणालियां जीपीएस-विहीन वातावरण में मददगार साबित हो सकते हैं. इसके साथ ही, स्मार्टफोन और नागरिक उपकरणों की मदद से एक ऐसी मिली-जुली निगरानी ग्रिड बनाई जा सकती है जो जीएनएसएस में हस्तक्षेप को तुरंत पकड़ सके.
3.वैसे तो साल 2021 में डीजीसीए ने सभी विमानों में स्वदेशी जीएनएसएस रिसीवर और गगन (GAGAN) जैसे उपग्रह पर आधारित वृद्धि प्रणाली (SBAS) लगाने का निर्देश दिया था, लेकिन कई कारणों से, जैसे विमानों में गगन-के प्रति सक्षम रिसीवर की गैर-मौजूदगी से, इसमें देरी हुई है. डीजीसीए को तुरंत इन निर्देशों को लागू करवाना चाहिए और इसरो तथा एयरपोर्ट अथॉरिटी द्वारा इसके पालन में आने वाली सभी समस्याएं को दूर करना चाहिए.
4.सैन्य संचार प्रणाली को मज़बूत किया जा सकता है. जैसे, भारतीय सेना द्वारा विकसित संभव (Sambhav/सिक्योर आर्मी मोबाइल भारत विज़न) सिस्टम जो एक एंड-टू-एंड एन्क्रिप्टेड मोबाइल इकोसिस्टम है जिसे सुरक्षित संचार के लिए बनाया गया है. हालांकि इसे खासतौर पर स्पूफ़िंग से बचने के लिए नहीं तैयार किया गया है, लेकिन इसके कुछ सुरक्षा के फीचर्स स्पूफ़िंग के प्रयासों को निरस्त कर सकते हैं.
5.जहाज़ों में ऐसी मल्टी-सेंसर नेविगेशन प्रणाली लगाई जाए जो लोकेशन की पुष्टि के लिए डेटा की दोहरी जांच कर सकें. इन प्रणालियों में रिसीवर ऑटोनोमस इंटीग्रिटी मॉनिटरिंग सिस्टम (RAIM) और मल्टी-कॉन्स्टेलेशन रिसीवर शामिल हैं. इस तरह स्पूफ़िंग या नेविगेशन से जुड़ी दूसरी गड़बड़ियों का तुरंत पता लगाया जा सकता है.
6.वैसे तो भारतीय क्षेत्रीय नेविगेशन सैटेलाइट प्रणाली (आईआरएनएसएस/IRNSS), जिसे नाविक (NavIC) के नाम से भी जाना जाता है, पूरी तरह से चालू है और ये भारत में क्षेत्रीय नेविगेशन सेवा प्रदान करती है. लेकिन वैश्विक आधारभूत संरचना की कमी और इसे जीपीएस के पूरक के रूप में बढ़ावा देने के कारण इसका इस्तेमाल वैश्विक प्रणालियों जैसा नहीं हो रहा है. ज़रूरी है कि नागरिक उड्डयन मंत्रालय वाणिज्यिक एयरलाइनों को NavIC अपनाने के लिए प्रोत्साहित करे.
7.भारत सरकार को ऐसे स्वदेशी और सस्ते जनरल-पर्पज नाविक रिसीवर बनाने के लिए निवेश करना चाहिए, जो जीएनएसएस प्रौद्योगिकी को मज़बूत करें और स्पूफ़िंग से बचाव कर सके. ज़रूरी है कि ये विदेशी हार्डवेयर, खास तौर पर चीनी हार्डवेयर पर निर्भर न हों. इसके अलावा भारत को एडवांस क्वांटम-रेजिस्टेंट सिस्टम की क्षमताएं भी विकसित करनी होगी ताकि भविष्य की डिजिटल सुरक्षा सुनिश्चित हो सके.
जीपीएस स्पूफिंग भारत की विमानन सुरक्षा, सीमा सुरक्षा और राष्ट्रीय संप्रभुता के लिए एक मौन पर बेहद गंभीर ख़तरा है. क्योंकि इस तकनीक के इस्तेमाल में कम लागत लगती और ये बेहद प्रभावी है, सीमावर्ती इलाकों में इसकी घटनाएं लगातार बढ़ रही है जिसके चलते जिससे भारत को अपने आसमान की रक्षा करना एक कठिन चुनौती बनती जा रही है.
वैसे तो ये समस्या जटिल है, लेकिन इससे पार पाना असंभव नहीं है. तकनीकी नवाचार, सतर्कता, राजनयिक समन्वय और रणनीतिक प्रतिरोध की मदद से भारत इस उभरते इलेक्ट्रॉनिक युद्धक्षेत्र में अपने हवाई क्षेत्र को सुरक्षित कर सकता है.
अगर इन कोशिशों को एक होकर लागू किया जाए, तो ग्रे ज़ोन के इन खतरों को रोका जा सकता है और भारत अपने नागरिक और सैन्य आकाश को सुरक्षित कर सकता है. जो समस्या आज एक परिचालन की चुनौती के रूप में सामने आई है, वो भारत की रक्षा-आधुनिकीकरण और नेविगेशन-सुरक्षा में क्षेत्रीय नेतृत्व की नींव रख सकती है.
सौम्या अवस्थी, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर सिक्योरिटी, स्ट्रैटेजी एंड टेक्नोलॉजी में फेलो हैं.
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Dr Soumya Awasthi is Fellow, Centre for Security, Strategy and Technology at the Observer Research Foundation. Her work focuses on the intersection of technology and national ...
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